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अध्यात्मविचारणा
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जन्म से ही चित्तकी आदत इन्द्रियोंका अनुगमन करने की होती है । इससे वह इन्द्रियोंद्वारा गृहीत होनेवाले विषयोंमें ही मस्त रहता है तथा इन्द्रियोंद्वारा गृहीत न होनेवाले स्थूल अथवा सूक्ष्म विषयका चिन्तन-मनन करने में वह असमर्थ बन जाता है । इन्द्रियोंद्वारा गृहीत होनेवाले एवं भोगे जानेवाले विषय भौतिक एवं स्थूल कोटिके होते हैं, अतः वे इन्द्रियों एवं मनको लम्बे समयतक समान रूप से अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते । इन्द्रियाँ और मन पहले के आकर्षणसे थककर उनमें अरुचिका अनुभव करने लगते हैं तथा नये-नये आकर्षणों की ओर मुड़ते हैं । इसीलिए मन सदा चंचल रहता है तथा किसी एक विषय में और खासकर अपने स्वरूप के विषय में अथवा चेतनके स्वरूपके विषयमें स्थिर होकर विचार नहीं कर सकता । मनकी इस दशाका नाम व्युत्थान है । व्युत्थान में चित्त क्षिप्त, मूढ़ एवं विक्षिप्त स्थितिका अनुभव करता है । इस स्थिति को बदलकर उससे विपरीत दिशामें मनको मोड़aat तथा शिक्षित करने की शुरूआत ही योगमार्गका प्रारम्भ है । इसमें पहले चित्तको एकाग्र करनेका प्रयत्न होता है, तदनन्तर उसे निरुद्ध करनेका । एकाग्रता प्राप्त करने के प्रयत्न के साथ ही व्युत्थानस्थितिका निरोध प्रारम्भ हो जाता है; अतः एकाग्रताके समय ही चित्त अमुक अंशमें निरोधयुक्त तो होता ही है, किन्तु एकाग्रताके परिपूर्ण एवं यथावत् सब जानेके बाद ही जो क्लेश संस्कार एवं वृत्तियोंका निरोध होता है वह बहुत बलवान् और प्रधान होता है, अतः उस समयका चित्त ही निरुद्ध कहलाता है ।
इन्द्रियोंका अनुसरण करनेसे पैदा होनेवाली चंचलता तथा बहिर्मुखताको रोककर चित्तमें स्थिरता एवं अन्तर्मुखता स्थापित करना ही ध्यान अथवा समाधि- प्रक्रियाका उद्देश्य है । योगशास्त्रमें
१. योगभाष्य १. १