Book Title: Adhyatma Vicharna
Author(s): Sukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
Publisher: Gujarat Vidyasabha

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Page 86
________________ परमात्मतत्व न्तिक रूपसे अलग पड़े। ये प्रारम्भिक सौत्रान्तिकके नामसे पहचाने जाते हैं। इन्होंने निर्वाण-दशामें सूक्ष्म रूपसे चैतन्य माना और कहा कि निर्वाण-दशामें सिर्फ दुःखका अभाव ही नहीं है, पर सांसारिक जीवनसे रहित सूक्ष्म चैतन्यका सद्भाव भी है। यह एक नया कदम था, जो आक्षेपकारी इतर दार्शनिक एवं अन्तर्गत बौद्ध चिन्तकोंको भी सन्तोष दे सके ऐसा था, पर सौत्रान्तिक यहींपर ही न रुके। उनमें ऐसे भी प्रगतिशील विचारक आये जिन्होंने साहसपूर्वक कह दिया कि निर्वाण संसारसे पृथक् कोई सत्य नहीं है। उनकी दृष्टि में अब बुद्ध केवल मनुष्यरूप ही न थे, पर एक मनुष्योत्तर दिव्य रूप थे । ऐसा बुद्ध कभी नष्ट नहीं होता। उन्होंने इसके लिए 'धर्मकाय' शब्दका प्रयोग किया और कहा कि ऐसा धर्मकाय अर्थात् लोकोत्तर बुद्ध तो शाश्वत है और सजीव विश्वप्रवाह उसका शरीर है । यह कल्पना कुछ-कुछ सांख्ययोगकी कल्पनाके अनुरूप है, क्योंकि सांख्य-योगदर्शन भी प्रवाहशाल प्रकृतिप्रपंचको मानकर उसके पीछे तटस्थ आधाररूप पुरुषतत्त्वको स्वीकार करती है। प्रगतिशील सौत्रान्तिक वस्तुतः महायान मार्गके पुरस्कर्ता ही हैं । उनकी उपर्युक्त कल्पनामेंसे सहज ही विज्ञानवाद-योगाचार अस्तित्वमें आया । विज्ञानवादने आगे बढ़कर यह कह दिया कि धर्मकायरूपसे आलयविज्ञान ही एकमात्र पारमार्थिक है और उसके अतिरिक्त उसपर भासित होनेवाला सारा इन्द्रिय, मन, विषय आदिका प्रपंच केवल अविद्याकल्पित है । विज्ञानवादीके मतसे आलयविज्ञानरूपसे धर्मकाय ही पारमार्थिक सत् और वही लोकोत्तर बुद्ध या निर्वाण है। सौत्रान्तिकोंकी दृष्टिसे सजीव विश्वप्रवाह और अन्तर्गत चैतन्य दोनों सम्मिलित रूपसे सत् थे तो विज्ञानवादीके मतसे मात्र प्रालयविज्ञानरूपसे निर्वाण ही

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