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परमात्मतत्व
कोई तत्त्व ऐसा है जो अपने संकल्प और तपके बलसे दूसरे उपादानके बिना ही अपने मेंसे चराचर सृष्टि पैदा करता हैयह हुई अभेददृष्टि। जैन और बौद्ध दोनों परम्पराएँ उपर्युक्त दोनों वैदिक दृष्टिओंको स्वीकार न करके ऐसा मानती हैं कि अचेतन और भौतिक तत्त्व तथा चेतन सत्त्व या जीव मूलतः स्वतंत्र हैं इनका सर्जन कोई नहीं करता। इनमें भी जो चेतन सत्त्व हैं उन सबमें ऐसी शक्ति है कि उसके द्वारा वे अपना ऊर्ध्वगामी आध्यात्मिक विकास साध सकते हैं। इस मान्यताके ऊपर इन दोनों परम्पराओंका धार्मिक संविधान या ढाँचा निर्मित होनेसे इनके मन्तव्यके अनुसार साधना द्वारा जो पूर्ण शुद्धि प्राप्त करते हैं वे सभी परमात्मा बन सकते हैं। उनमें न कोई उच्च होता है और न कोई नीच। इस तरह इन दोनों परम्पराओंमें परमेश्वर, पुरुषोत्तम या परमात्मासे मतलब है वासना और बन्धनसे मुक्त जीव । ऐसे सत्त्व या जीव अनेक हो सकते हैं। ___ यहाँ विवर्तवादी केवलाद्वैती ब्रह्मवाद और जैन-परम्पराके बीच परमात्मतत्त्वके स्वरूपके विषयमें क्या अन्तर है यह भी जानना आवश्यक है। केवलाद्वैती ब्रह्मवादमें पारमार्थिक तत्त्वरूपसे एकमात्र सच्चिदानन्द ब्रह्म ही माना जाता है, अतः यह जो जीवभेद दिखाई पड़ता है वह केवल औपाधिक है। शुद्ध ब्रह्मस्वरूपका अथवा जीवब्रह्मके ऐक्यका वास्तविक ज्ञान होते ही जीवका औपाधिक अस्तित्व विलीन हो जाता है और शुद्ध परब्रह्म जो देश-कालकी उपाधिसे पर है, वही अनुभवगत रहता है; जब कि जैनपरम्परामें जीवोंका वैयक्तिक भेद वास्तविक है, जीवोंसे भिन्न कोई ब्रह्मतत्त्व नहीं है । ब्रह्मतत्त्वका जो पारमार्थिक सच्चिदानन्द स्वरूप उपनिषदोंमें माना गया है यह पारमार्थिक स्वरूप जैनदृष्टिसे प्रत्येक जीवात्मामें अन्तर्निहित है, सिर्फ आवरणोंसे