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- अध्यात्मविचारणा ब्रह्मतत्त्वको कूटस्थनित्य स्वरूप मानता है, जब कि रामानुज विशिष्टाद्वैतवादी होनेसे ब्रह्मतत्त्वसे कुछ भिन्न ऐसे जड़ और चेतन जीवतत्त्वको भी वास्तविक मानता है। मध्व तो न्यायवैशेषिककी भाँति सर्वथा द्वैतवादी होनेसे जीवात्माओंके बहुत्व
और उनके पारमार्थिक अस्तित्वको स्वीकार करता है । फ़र्क हो तो इतना ही कि वह रामानुजकी तरह जीवको अणुरूप मानकर उसका कूटस्थनित्यत्व घटाता है । मध्व ब्रह्म या विष्णु तत्त्वको तो जीवसे भिन्न, कूटस्थनित्य और विभु मानता है। वल्लभ ब्रह्मतत्त्वको विभु मानकर उसके परिणामरूपसे ही जीव एवं जगत्का वर्णन करता है । ऐसा परिणाम स्वीकार करनेसे परब्रह्ममें परिणामित्वकी आनेवाली आपत्तिको दूर करनेके लिए वह ब्रह्मको अविकृत-परिणामी कहता है; अर्थात् परिणामि होनेपर भी ब्रह्ममें विकार नहीं होता। इस तरह वल्लभ सांख्यकी प्रकृतिका परिणामित्व ब्रह्मतत्त्वमें मानकर भी उसे अविकृत-परिणामि कहकर कूटस्थनित्यत्वका दूसरे ही प्रकारसे समर्थन करता है।'
आत्मतत्त्वविषयक वैदिक दर्शनोंकी मान्यताओंका ऊपर जो संक्षेपमें उल्लेख किया है वह इतना समझाने के लिए कि वैदिक दर्शनोंमें कूटस्थनित्यवाद किस-किस तरह और किस-किस अंशमें समर्थित होता रहा है। अब हम यह देखेंगे कि कैसे-कैसे स्वरूपभेद तथा कल्पनाभेदके कारण मोक्षके स्वरूपके विषयमें इन वैदिक दर्शनोंके मन्तव्योंमें फर्क पड़ता है तथा भिन्नता आती है।
वैदिक दर्शनोंकी मान्यताओंमें आत्माके स्वरूपके विषयमें जो सर्वप्रथम ध्यान देने जैसा फर्क है वह चैतन्यविषयक है । ___ १. विशेष विवरण के लिए देखो श्री० गो० ह० भट्टकृत ब्रह्मसूत्रअणु-भाष्यके गुजराती अनुवादकी प्रस्तावना तथा गणवरवादकी प्रस्तावनामें आत्मतत्त्वविचार पृ० ८६-६१ ।