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अध्यात्मविचारणा गया था। ऐसे कई प्राचीन उल्लेख मिलते हैं कि जिस तरह पुरुष नाना अर्थात् अनेक हैं उसी तरह प्रधान भी नाना ही हैं । प्रत्येक आत्माके साथ प्रधान अलग-अलग और इसी प्रधानका प्रसव या प्रतिप्रसव ही आत्माका क्रमशः बन्ध या मोक्ष है । परन्तु समय बीतनेपर यह मान्यता स्थिर न रही। सांख्यचिन्तकोंने सोचा कि देहभेदसे पुरुष भले ही भिन्न-भिन्न हों, पर प्रत्येक पुरुषके लिए एक-एक प्रधान क्यों माना जाय ? प्रधान व्यापक तो माना ही जाता था; अतः उन्हें स्वाभाविक तौरपर विचार तो आया ही होगा कि व्यापक नाना प्रधानके स्थनामें एक ही व्यापक प्रधान मानकर और उसीके आविर्भावरूपसे नाना सत्त्व-नाना बुद्धियाँ स्वीकारकर नाना पुरुषों के बन्ध-मोक्षकी उपपत्ति क्यों न की जाय ? ऐसा मालूम होता है कि इस विचारके फलस्वरूप प्रधानबहुत्ववादमेंसे प्रधानैकत्ववाद निष्पन्न हुआ। इस भूमिकामें यद्यपि प्रधान एक ही माना गया, फिर भी पुरुष तो देहभेदसे भिन्न ही माने जाते थे। यह मान्यता ही इस समय सांख्यदर्शनके नामसे प्रसिद्ध है।
प्रधानैकत्व और पुरुषबहुत्ववादकी उपर्युक्त भूमिकामेंसे एक नया विचार प्रादुर्भूत हुया । वह यह कि यदि एक ही प्रधानमेंसे नाना सत्त्वप्रधान नानां बुद्धियाँ मानकर जीवभेद एवं बन्धमोक्षकी व्यवस्था हो सकती है तो व्यापक एवं कूटस्थ नाना पुरुष माननेकी क्या आवश्यकता है ? जिस तरह वास्तव में प्रधान एक ही माना जाता है उसी तरह पुरुष भी वास्तव में यदि एक ही माना जाय तो भी प्रधानके सात्त्विक बुद्धिरूप नाना
१. मौलिक्यसांख्या ह्यात्मानमात्मानं प्रति पृथक्-पृथक् प्रधानं वदन्ति;उत्तरे तु सांख्याः सर्वात्मस्वप्येकं नित्यं प्रधानमिति प्रपन्नाः ।
-षड्दर्शनसमुच्चय-गुणरत्नीय टीका, का० ३६.