Book Title: Adhyatma Vicharna
Author(s): Sukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
Publisher: Gujarat Vidyasabha

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Page 32
________________ श्रात्मतत्त्व २३ व्यवहृत हुआ; और चेतनतत्त्व क्षेत्रज्ञ, आत्मा, चेतन, पुरुष जैसे नामों से कहा जाने लगा। इसके अतिरिक्त, सांख्यविचार की इस भूमिकामें एक दूसरा मान्यताभेद भी रूढ़ हुआ । वह यह कि जड़तत्त्व तो पूर्व की भाँति परिणामी ही माना गया; पर परिणामी, अव्यक्त, प्रधान या प्रकृतिसे सर्वथा भिन्न और स्वतंत्र माना जानेवाला चेतनतत्त्व तो कूटस्थ - अपरिणामी ही समझा जाने लगा | तत्त्वद्वैतविचारसरणी पहले ही से जीव-जीव दोनों स्वतंत्र तत्त्वोंको परिणामी मानती थी, जब कि सांख्यपरम्पराकी यह दूसरी द्वैतवादी भूमिका एक जड़तत्त्वको परिणामी तथा दूसरे चेतन तत्त्वको अपरिणामी मानने लगी। ऐसा क्यों हुआ, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है । ऐसा प्रतीत होता है कि तत्त्वाद्वैतकी भूमिकामें से तत्त्वद्वैतकी भूमिकामें जब सांख्यविचारकोंने प्रवेश किया तब उन्होंने ऐसा सोचा होगा कि यदि जड़से चेतनको सर्वथा भिन्न एवं स्वतंत्र मानें तो उसे जड़की अपेक्षा उच्च कोटिका ही मानना उचित है । दोनों परिणामी ही रहें तो फिर उनमें आपस में विशेषता क्या रही ? परिणामी होने की वजहसे प्रत्येक तत्त्व सतत एवं स्वयमेव परिणत तो होता ही रहता है और साथ ही साथ दूसरे विरोधी तत्त्व के प्रभावसे भी प्रभावित होता रहता है ।' ऐसी स्थिति में जड़ यदि चेतन तत्त्वके प्रभाव से प्रभावित हो तो चेतन तत्त्व भी जड़ के प्रभावसे प्रभावित क्यों न हो ? और यदि उन दोनों तत्त्वोंपर एक दूसरेका असर पड़े तो फिर तत्त्वतः उन दोनोंमें फर्क क्या रहा ? एक तत्त्व मानकर उसमें जड़ एवं चेतन दोनों सृष्टियोंकी शक्ति मानना और ऐसी दोनों सृष्टियों की शक्तिसे समन्वित १. जीव और अजीव परस्पर प्रभावित होते हैं - यह भूमिका जैनपरम्परा में स्पष्ट रूपसे सुरक्षित है ।

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