Book Title: Abhidhan Chintamani
Author(s): Hemchandracharya, Nemichandra Siddhant Chakravarti, Hargovind Shastri
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan
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अभिधानचिन्तामणिः १ तेषां च देहोऽद्भतरूपगन्धो निरामयः स्वेदमलोज्झितश्च । श्वासोऽब्जगन्धो रुधिरामिषन्तु गोक्षीरवाराधवलं पवित्रम् ।। ५७ ॥ आहारनीहारविधिस्त्वदृश्यश्चत्वार एतेऽतिशयाः सहोत्थाः। क्षेत्रे स्थितिर्योजनमात्रकेऽपि नृदेवतिर्यग्जनकोटिकोटेः ॥५८ ।। वाणी नृतिर्यक्सुरलोकभाषासंवादिनी योजनगामिनी च । भामण्डलं चारु च मौलिपृष्ठे विडम्बिताहर्पतिमण्डलश्रीः ॥५६॥ साग्रे च गव्यूतिशतद्वये रुजावैरेतयो मार्यतिवृष्टयवृष्टयः । दुभिक्षमन्यस्वकचक्रतो भयं स्यान्नैत एकादश कर्मघातजाः ।। ६०॥
१. उन तीनों कालोंमें होनेवाले २४-२४ तीर्थङ्करोंके जन्मके साथ ही होनेवाले ४ अतिशय होते हैं; उनमें से प्रथम अतिशय यह है कि-उन तीर्थङ्करोंके शरीरका रूप तथा गन्ध अद्भत होता है, उनके शरीरमें रोग, पसीना, तथा मेल नहीं होती। द्वितीय अतिशय यह है कि उन तीर्थङ्करोका श्वास कमलके समान सुरभि होता है । तृतीय अतिशय यह है कि-उम तीर्थङ्करोंका रक्त गौके दूधकी धारके समान श्वेत होता है तथा मांस अपक्क मांसके समान गंधवाला नहीं होता है । और चतुर्थ अतिशय यह है कि उन तीर्थङ्करों का भोजन और मलमूत्रत्याग सामान्य चर्मचतुसे नहीं देखा जा सकता, ( किन्तु अवधिलोचनवाले पुरुषसे ही देखा जा सकता है )॥
२. पूर्वोक्त ( १।२६-२८) तीर्थङ्करोंके ज्ञानावरणीय कर्मके क्षय होनेसे उत्पन्न ११ अतिशय होते हैं । १म अतिशय-केवल एक योजनमात्र स्थान ( समवसरण-भूमि ) में कोटि-कोटि मनुष्यों, देवों तथा तीर्यञ्चोंकी स्थिति हो जाती है । २य अतिशय-उनकी वाणी (अर्द्धमागधी भाषा ) मनुष्यों तिर्यञ्चों तथा देवोंकी भाषामें परिवर्तित हो जाती है अर्थात् तीर्थङ्कर अर्द्धमागधीरूप एक ही भाषामें उपदेश देते हैं, किन्तु वह मनुष्य तिर्यञ्च तथा देवलोगोंकी भाषामें बदल जाती है, अत एव एक ही भाषाको वे तीनों अपनी-अपनी भाषामें ग्रहण करते हैं तथा वह तीर्थङ्करोक्त वाणी एक योजनतक सुनायी पड़ती है । ३ य अतिशय-तीर्थङ्करोंके शिरके पिछले भागमें सूर्यमण्डलकी शोभाके समान तेजःपूर्ण और सुन्दर भामण्डल ( प्रभासमूह ) होता है । क्रमशः ४-११ श अतिशय-साग्र दो सौ गव्यूति अर्थात् एक सौ पच्चीस योजनतक र आदि रोग, परस्पर विरोध, ईतियां ( धान्यादिको नष्ट करनेवाले चूहा तथा पशु-पक्षी आदिके उपद्रवविशेष, मारो ( किसी उपद्रवसे सामूहिक मृत्यु ), अत्यधिक वृष्टि, वृष्टिका सर्वथा अभाव (सूखा), दुर्भिक्ष और अपने या दूसरे राष्ट्रसे भय नहीं होते हैं ।