Book Title: Aayurvediya Kosh Part 01
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 10
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशक की विज्ञप्ति स कालचक्र का प्रभाव आज तक किसी ने भी नहीं पाया; न कोई यह जान की सका कि कल क्या होगा। जो श्राज या इस क्षण में है न मालूम उसका इस क्षण के बाद क्या होगा। समय के अनुसार संसार में अनेकानेक परिवर्तन हो चुके, हो रहे हैं, और आगे भी होंगे । इसी चक्र के अनुसार प्रत्येक वस्तु का नाश और विकाश होता श्राया है। श्राज उसी काल चक्र में से प्रेरित हुमा मैं अापके समक्ष पा रहा हूँ ! कोई कुछ भी नहीं कर सकता । समय ही सब कुछ करा लेता है । इसीलिए कहा भी है ___ तुलसी जस भवितव्यता तैसी मिले सहाय । श्राप न श्रावे ताहि पै ताहि तहाँ ले जाय ॥ इसी के अनुसार यह कार्य भी हुश्रा है । जिस कोष के लिए प्राज कई वर्ष से आयुर्वेदिक-बायु -मंडल अपनी गुञ्जार से समस्त संसार को गुञ्जायमान कर रहा था, उसी वायु-मंडल की प्रेरणा से हमारे मित्रों ( बाबू रामजीतसिंह व बाब दलजीतसिंह) को प्रेरणा हुई और वे उससे प्रेरित होकर इस कमी की पूर्ति के लिए तल्लीन होगा और जनता की इच्छा के अनुसार इस श्रायुर्वेदीय-कोष को रच डाला; और मेरे समद, जो ऐसे ही कोष के प्रकाशन के लिए सदैव प्रयत्नशील था, उपस्थित किया । इस कोष को को देखा तो जनता के अनुरूप ही पाया। फिर क्या था । समय की प्रेरणा से उन्मत्त होकर, अपनी शकि का विचार किए बिना नमालूम किस अान्तरिक इच्छाशक्ति के बल इस अपार भार को अपने निर्मल कन्धों पर लेकर उद्यहन करने को तैयार होगया | उसी के फल स्वरूप उसका यह पहिला भाग जनता के समक्ष उपस्थित कर रहा हूँ । मञ्च आप देखें किइस कोषमें सम्पूर्ण ज्ञातव्य विषय हैं वा नहीं ? जहाँ तक अपना विचार था और समयकी प्रेरणा जैसो थी, कि बिना परिश्रम किए ही यादा पढ़ा लिखा या एक, भाषाका विद्वान भी सभी आयुर्वेदीय संसार की बातें जो पृथक् पृथक् पैधियों (यथा-एलोपैथी डॉक्टरी यूनानी, प्रायुर्वेदीय) में भरी पड़ी हैं, जान जाएँ और जिनमें हमारे वैद्य दूसरी पंथी के मर्मज्ञ के सामने शिर नीचा कर जाते थे; वह दूर हो जाय | वह इस कोष से दूर होगई या नहीं ? विद्वान जन लिखने की दया करें। इस वृहत्काय कोष के प्रकाशित करने के विषय में हमारे कुछ भ्रातृगणों के प्रश्न होगे कि प्रायुर्वेद-शास्त्र में कई निघण्टु इस समय मी वर्तमान थे, फिर इस नवीन बृहत्काय कोप के निर्माण करने की क्या आवश्यकता यो ? इसके उत्तर में ही प्रकाशक का निवेदन है कि अवश्य कई निघण्टु है; परन्तु श्राप लोगों ने कभी भी उनकी तुलना नहीं की। यदि आप तुलना कर लेते तो उपयुक्र बात कदापि न कहते । कुछ समयसे हमारे यहाँ वैद्य-समाज में प्रमाद प्रागया है और उन्हो'ने "हेतुलिंगौषध शानं स्वस्थातुर परायणम् । त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यमायुर्वेद मनु शुश्रुमः ॥ इन सूत्रों को ही भुला दिया और रोग निश्चय तथा उसमें दोष कल्पना और रस अवस्था के लिए औषध विवेचन करना ही छोड़ दिया । सिर्फ रोग का नाम और उसके लिये उस रोग की चिकित्सा में वर्णित कोई सी भी औषध बना कर दे देना ही कथक व्यवसाय समझ लिया था । यह धारणा बढ़ते २ यहाँ तक बढ़ी कि जिसका अन्त अब तक भी नहीं हुआ। इसी प्रवाहमें लिखे हुए चिकित्सा-ग्रंथ तथा निघण्टु (जो केवल मात्र पादिस्य प्रकाश के लिए ही रचे गए थे) ग्रंथों पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया । यह दशा जब इधर भारतवर्ष में हो रही थी तब यूनानी लोग "हेतुलिंगौषधज्ञानम्" इस सूत्र पर विचार करते हुए रोगविज्ञान और प्रौषधनिज्ञान को पूर्ण करने में अधिक परिश्रम करने लग गए । उसका प्रतिफल यह हुआ कि मायुर्वेदीय For Private and Personal Use Only

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