Book Title: Aayurvediya Kosh Part 01
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राय दीय-रात के धुरन्धर-विद्वानों एवं अनेक-शास्त्र-पारङ्गत पण्डितों को भी यथावसर जिसकी सहायता लेनी पड़े, विविध क्रिया-कुशल वैद्यों को भी अावश्यकता पड़ने पर जिसका आश्रय लेना पड़े, तथा अनेक अकुशल एव' स्वल्पमति वद्य और छात्र समुदाय को भी जिसके भारद्वार से अपने को पूर्ण बनाने के लिए ज्ञान-याचना करनी पड़े. ऐसे वेंदीय-कोष को कितना सारगर्भित, कितना महान् एवं सर्वाङ्गपूर्ण होने की अावश्यकता है, इसकी कल्पना प्रायः सभी विज्ञ-वद्य कर सकते हैं । मेरा अनुभव है कि योरोप में जब की एमे गहान कार्य उपस्थित होते हैं, उस समय उस देश के अनेक सर्वोत्तम विद्वान, जो कि अपने अपने विषयों के विशेषज्ञ होते, परस्पर सहयोग द्वारा, कों तक दृढ़ परिश्रम एवं प्रचुर-धन व्यय करके, उसे सत्रालाई बनाने की यथाशक्ति चेष्टा करते हैं। इतना ही नहीं, वरन् नवीन नवीन खोज और सुधार पर चिसयान रखो हर, उसमें श्रावस्यक परिवर्तन और सुधार करने के लिए जीवन भर सतक रहते है और मुबार करने जाते हैं। वास्त्र में यह कार्य कितना उत्तरदायित्व-पूर्ण, दुःसाध्य एवं दुरूह है, इस विज्ञ-जन स्वयं समझ सकते हैं। इस विषय में लेखकों को कितनी गम्भीर गवेपमा एवं पाण्डित्य की प्रावश्यकता होती है, कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, कितनी बाधाओं का अतिक्रमण करना होता है, इसका र्भाग्यवश, भारतवर्ष के विद्वानांने इस प्रकार की सामूहिक सहयोगिता पर अभी तक ध्यान नहीं दिया है। फलतः सच्चे उत्साही लेखकों की एकमात्र अपने परिश्रम एवं अध्यवसाय पर निर्भर रहना पड़ता है। एतदतिरिक, भारतवर्ष में प्रेस के लिए प्रतिलिपि करना, मुद्रण एवं संशोधनादि की कठिनाइयों के साथ ही आर्थिक-शिष्टता भी प्रायः रहती ही है । अतः इन सब परिस्थितियों के होते हुए भी इस महान् धायुर्वेदीय-कोष' कर्ता ग्रंथकारद्वय का उत्साह एवं साहस सराहनीय है। एक आयुर्वेदीय-कोष के प्रस्तुत करने में जो सबसे बड़ी एवं विचारणीय वाधा है. यह है पारिभाषिक शब्दों का अर्थ-निर्णय । कितने ही शब्द ऐसे हैं जिनके अर्थ सन्दिग्ध होते हैं और संस्कृत भाश में नानार्थक शाद भी पाने का है। यह बाधा, श्रायुर्वेद को प्रायः सभी शाखाओं में किसी न किसी रूप में वर्तमान है, और वंद के साथ लिखा पढ़ता है कि इस विषय के एक सर्वमान्य निर्णय पर पैद्य समाज अाज तक भी नहीं एनसका। इसमें भी विशेषतः शारीर-विषयक एवं नानार्थ-प्रकाशक क्षेपजों की परिमापा पर अधिक ध्यान देने को प्रावश्यकता है। यहाँ शारीर- मन-राधी जो कार्य प्रत्यक्ष शारीर द्वारा प्रतिपादित हुआ है उससे नैव-समुदाय भली नि पर्शिका है, किन्तु औपज निर्णय का काम अब भी वहुत पीछे है। उदाहरणार्थ अष्टवर्ग की औपधियों को ही ले लीलिए । यदि इनके विनिश्चय के लिए काली प्रयल हुए है तथापि कोई यर्वमान्य विश्वसनीय निर्णय शुभी तक सुप्रसिद्ध नहीं है। रास्ता एवं तगा भादि जैसी सामान्य औषधियों के परिचय में भी बहुत गत भेद है, क्योंकि देश देश में निम्न भिन्न प्रकार की दी एक ही नाम से प्रसिद्ध है। अतः इन सब समन्वयाची के समाचार करने के लिए सनी द्वगन के साथ गवेषण (Research) करने की नितान्त ४ादश्य याता। घायु की सेवा में तन-मन-धन अर्पण करके ही इसका पुनरुत्थान करना है। इसी कार्य की पूर्वि पर शायुर्वेदीय-कीप की साक्षरता निर्भर करता है। अतः इम और मैं लेखक महाशयों का ध्यान साय करता कि वे इस कोप को विशेष उपयोगी बनाने के लिए, विविध-विषयों के विशेपों एवम् विद्वानों से तहितपयक गयेपणा सिद्ध परामर्श सदैव लेते रहें, ताकि समय समय पर इसमें आवश्यक परिवर्तन "बम परिकारादि हो सके। ग्रायुर्वेद, तित्री एवम् ऐलोपैथो श्रादि प्रायः सभी वर्तमान प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से सम्बन्ध रखने वाले विषयों को इस ग्रंथ में समावेश किया है, जिससे इसका कलेवर अति-विशाल होगया है। इन विषयों की कही तक और किप मात्रा में इस ग्रंथ में सन्निविष्ट करने की आवश्यकता थी, इसे विद्वान पाठक स्वयं विचार ले। For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 895