Book Title: Aagam 43 Uttaradhyanani Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम (४३)
"उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि:
प्रत
सुत्राक
[१]
करणनिक्षेपाः
गाथा
|११५
१२७||
Re
श्रीउत्तराभवति, कसाएमृ विविह आहणइ हिंसति अक्कोसति कलहसाहसीहोति, णिहापमत्तोवि पलीवणगादिषु विणस्सति, इंदियप्रमत्ताचूणों वि मगादयो विणासं पार्वति, जहा 'सहेण मिगों', गाहा, एस पमादोऽवि पंचविहो भणिओ, तस्स य पडिवस्खे अप्पमादो, सोवि
४ पंचविहो, एस चे अप्पमादेण भणितब्बो, 'पंचविहो य पमादो' गाहा (१८१-१९१) किंच गतो णामीनप्फणो, सुत्तालावगअसंस्कृता. निफण्णो, सत्तं उच्चारतव्य 'असंखतं जीवित मा पमादए' वृत्तं ( ११५० १९१) संस्क्रियते स्म संस्कृत, न संस्कृतं अस१३स्कृ तं, यतः पूर्वकृतकारणं कतरतो विनाशमाप्यत् पुनः संस्कार्यते तत् संस्कृतं भवति, पथा छिद्रपटः पुणोवि संविज्जति तुनिज्जति
इवा, जंतु विणद्वैपुण न सकति संस्कर्तुं तदसंस्कृतं भवति, यथा घटभेद इत्यादि, अथवा आकाशादीनि चा नित्यद्रव्याणि असं. स्कृतानि, तत्थ इमा गाहा 'उत्तरकरणेण' गाहा (१८२-१९४ प्र०) संस्कृतति वा करणंति वा एगहुँ, तेण करणेन तमेव निक्खिवतन्वं-'णाम ठवणा' गाहा (१८३-१९४) णामकरणं जस्स करणामिति णाम, अथवा णामस्स णामतो वा जंतं
करणं तं णामकरणं, अक्खणिक्खेवो जो जस्स करणस्स आगारबिसेसोत्ति, दचस्स दव्वेण वा दन्चमि वा जे करणं तं दबकरणंति, नातं दुविहं- आगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणए अणुवउत्ते, णोआगमतो जाणगसरीर० भवियसरीर तब्बहरिनं, वतिरित्तं
दुविहं- सण्णाकरणं णोसण्णाकरणं च, तत्थ सण्णाकरणं अणेगविहं च, जीम जैमि दवे करणसण्णा भवंति तं सण्णाकरणंति, तंजहा- कडकरणं अद्धाकरणं पेलुकरणं एवमादि, 'सण्णा णामति मती तं णो णाम जमभिहाणं ।। जंवा तदत्थवियले कीरति
दव्यं तु दविणपरिणामं । पेलुकरणादि गहितं तदत्यहीणं ण वा सद्दो ॥१॥ जति ण तदत्वविहीणं तो किं दबकरणं जतो तेणं । दिव्वं कीरति सद्देण करणंति य करणरूढीओ ॥२॥ इदाणिं पोसण्णाकरणं, तं दुविहं, तं०- पयोगकरणं वीससाकरणं च, विस्स
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दीप अनुक्रम [११६१२८
-A2004
॥१०॥
SRO
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