Book Title: Aagam 43 Uttaradhyanani Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम (४३)
"उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि:
प्रत
सुत्राक
[१]
गाथा
||१७८२०७||
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श्रीउत्तरा
पउयसयसहस्साणि से एगे पउतंगे, एवं तव्वं, 'अणेगाई' ति असंखेज्जाई, ताई जाई 'पण्णवतो' प्रज्ञा अस्यास्तीति प्रज्ञा- वणिम्चूणौं । वान् अतस्तस्य ज्ञानवतः, स्थीयत इति स्थितिः, 'जाई जीयति दुम्मेहा' इमेहि अप्पकालिएहिं जीयंति 'दुम्मेह' ति दुम्युद्धि-15 दृष्टान्तः ७ और-1 गा 'ऊणे वाससयाउए' हीणवाससयाउए, भगवता परिससताउएसु मणुएस धम्मो पणीतो इत्यतः ऊणे वाससयाउए, भणितो | श्रीया कागिणी अश्वदिढतो य । इदाणि चवहारदिQतो, तप्पसिद्धिनिमित्तं मण्णति-'जहा य तिणि वणिया॥१९१-२७९॥सिलोगो, ॥१६३॥
जहा एगस्स वणियगस्स तिण्णि पुत्ता, तेण तेसिं सहस्सं सहस्सं दिनं काहावणाणं, भणिया य-एएण वबहरिऊण एत्तिएण। कालेण एज्जाह, ते तं मूलं घेसूण णिग्गया सणगरातो, पिथप्पिथेसु पट्टणेसु ठिया, तत्थेगो भोयणच्छायणवज्ज यमज्जम-11 सवेसावसणविरहितो वीहीए वबहरमाणो विपूललाभसमनितो जातो, वितितो पुण मूलमविद्दवतो(जहा)लाभगं भोयणच्छायणमल्लासंकारादिसु उब जति, पण य अच्चादरेण ववहरति, ततितो न किंचि संपवहरति, केवलं ज्यमज्जमंसवेसगंधमल्लतंबोलसरीरोपकारकियासु अप्पेणेव कालेण तं दवं णिपियंति,जहावाहिकालस्स सपुरमागया,तत्थ जो छिन्नमूलो सो सचस्स असामी जातो, पेसए
उवचरिज्जति, बितितो घरवावारे णिउत्तो भत्तपाणसंतुट्ठो, ण दायब्बभोगब्वेसु ववसायति,ततिओ सबस्स घरबित्थरस्स सामीकतो, जा केई पुण कहंति-तिनि वाणियगा पत्तेयं २ धवहरांति, तत्थेगो छिन्नमूलो पेसत्तमुवगतो, केण वा संववहारं करेउ ?, अच्छिन्नमूलो र
पुणरवि वाणिज्जाए भवति, इयरो बंधुसहितो मोदए, एस दिट्ठतो, अयमत्थोवण्णतो-'वहारे उधमा एसा, एवं धम्मे विजाणह। (१९२-२७९) एवामेव-तिथि संसारिणो सचा माणुस्सेसु आयाता, तत्थेगो मद्दवज्जवादिगुणसंपन्नो मज्झिमारंभपरिग्गहजुत्तो ।।१६।। कालं काऊण काहावणसहस्समूलत्थाणीयं तमेव माणुसचं पडिलहति, चितितो पुण सम्म ईसणचरित्तगुणसुपरिणिहितो सरागसंजमेण
दीप अनुक्रम [१७९२०८]
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