Book Title: Aagam 43 Uttaradhyanani Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 202
________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३२७३५८|| चूौँ ११ । श्रीउत्तराण लब्भति । कथं लन्भति !, तेसिं चेव विवच्चासेण । अधवा इमेहिं लम्भति-'अह अहहिं ठाणेहिं ।।३३०-३४५।। सिलोगो, अविनीत अथेत्यामन्त्रणे, शिक्षा शीलयतीति शिक्षाशीलो, गृह्णातीत्यर्थः, हसनशीलो हसिरो न हसिरोऽहसिरः, दंतो इंदियदमेण गोइंदि- स्थानानि विनीत यदमेण य, ण य म उदाहरति आयरियाणं जेण दुम्मिज्जति, णोऽशीलो गृहस्थ इव, ण विशीलो भूतिकम्मादीहि, ण सिया अवबहुश्रुतपू० धूते अइलोलुए आहारविगतीहि, अकोहणे ण रूसति, सच्चरतो ण मुसाबादी, संजमरतो वा, सिक्खासीलो जस्स सिक्ख॥१९६॥ यति एरिसं सील,अविणयस्स ठाणाई-"अह चोदसहिं ठाणेहिं ॥३३२-३४७|सिलोगो,कण्ठ्यः। अभिवणं.३३३-३४७॥ पुणो पुणो रूसति, एवं च पकुव्वति-अच्चतं कुब्वति, तहा मित्तिज्जमाणो वमतित्ति जहा कोइ भायणादि रंगिउ ण याणेति, I हा अन्नो धम्मसद्धाए अहं करेमित्ति, इयरी प्रत्युपकारभया पेच्छति, सुयं लवण मज्जति अइबहुस्सुतोत्ति । 'अवि पावपरिक्खेवी 30*३३४-३४७|| सिलोगो, ण पावं परिक्खियति, किंचि पडिचोदितो माइक्खबियाणि उग्मणेति,मित्ताणवि रुस्सति, सेसाणं च रुहो। चव, जाव सुटु पितो मिचो तस्स परंमुहस्स अवनं भासति रहत्ति, जाहे न सुप(ण)ति कोइ भणति, णाणादिसु उज्जुत्ते, सो इतरो पडिसो यो) भवति, 'पइन्नवाई०३३५-३४७॥सिलोगो, अपरिक्खिउं जस्स व तस्स व कहेति, दुहणसीलो दुहिलो, महिसो या दुहिलत्ति, थद्धे लुद्धे अनिग्गहे पुबमाणिता, असंविभागी' आहारादिसु, अचियत्तोऽदरिसणो वा, अथवा तं तं भासति बद्ध(ट्टोति द| ॥१९६॥ वा जेण अचियत्तो भवति, अप्रिय इत्यर्थः, एवंगुणजातीओ अविणीओ। 'अह पन्नरसहि ठाणेहिं ॥३३६-३४७॥ सिलोयो, पुब्बद्ध कण्ठथं 'णीयवत्ति'ति' णीयापिनी, कथं', उच्यते--‘णीयं सेज्जं गत(ति) वाण, यिं च आसणाणि य । णियं च पाय | ४| वंदेज्जा, णीय कुज्जा य अंजलि ॥१॥' 'अचवले'त्ति चवलो चउव्यिहो-गतिशहाणरभासा३भावे, गतिचवलो दवदवचारी, दीप अनुक्रम [३२८३५९] [201]

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