Book Title: Aagam 43 Uttaradhyanani Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 206
________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक %51s [१] गाथा बहुश्रुतपू० ||३२७३५८|| ॥२०॥ सुतणाणेणं अणते भाचे जाणति ण पासति, जह य इंदो महन्तीए सुरविभूतीए वच्चति, एवं सोऽचि । 'जहा से तिमिरविद्धंसे बहुश्रुता॥३५०-३५३।। सिलोगो, तिमिर-अन्धकारं तं विद्धंसति-विणासति, जाच मज्झण्णो ताव उडेति, ताव से तेयोसा पद्धति, पच्छा नामपमा परिहाति, अहवा उत्तितो सोमो भवति हेमंतियबालमूरिओ, एवं जहा आइच्चो तेएण जलति एवं बहुस्सुतोऽवि तेजवान् । |'जहा से उडुबई चंदे ॥३५१-३५३॥ सिलोगो, उडूइं-णखत्ताई तेसि पती उडपति, सो य अद्धपहे णिवपरिवारो (अट्टमी| आइसु णेढपरिवारो) पडिपुण्णो हि पडिपुण्णमंडलो पुण्णमासीए अतीव सोभयति, एवं बहुस्सुतोऽपि चंद इव सोमलेसो सीस-15 परिवारितो सोभयति, एवं एक्कक्केण गुणेण दिईता भणिता । इमो अणेगेहिं भण्णति-'जहा से सामाइयाण॥३५२-३५३॥ सिलोगो, जहा कोट्ठागारो णाणाविधाण घण्णाण सुपडिपुण्णो, एवं बहुस्सुतो णाणाविधाण सुतणाणविसेसाण सुपडिपुण्णो ।। 'जहा सा दुमाण पवरा० ॥३५३-३५३|| सिलोगो, जह जंबू अमितफला देवावासो य, एवं बहुस्सुतोऽवि सुयणाणअमियफलो, देवावि य से अभिगमणादीणि करेंति । 'जहा सा नईण पवरा०॥३५४-३५३।। सिलोगो, जहा सीता सव्वणदीण महल्ला बहूहिं च जलासतेहिं च आइण्णा, एवं चोदसपुवी विऽसेससुतणाणेण महान् प्राधान्ये वकृति, अणेगे यणं सुतत्थी उबसप्पति । 'जहा| से णगाण पवरे॥३५५-३५३॥ सिलोगो, जहा मन्दरो पिरो उस्सिओ दिसाओ य अस्थ पवति, एवं बहुमुतोऽवि बहुसुयत्तणेणेव 3 थविरो उस्सिओ य दबदिसाभावदिसापभावगो य ।। किं बहुणा ?-'जहा से सयंभुरमणे' ।।३५६-३५शा सिलोगो, जहा सयंभुरमणो समुदो अक्खयोदगे रयणाणि य अस्थि गंभीरो य, एवं बहुस्सुतोवि अक्खयसुयणाणजलो णाणादिरयणोववेतो सुत ।।२००॥ गाणगुणोववेत्तणेण य गंभीरो, न हु उच्छुलो । 'समुहगंभीरसमा' ॥३५७-३५३।। सिलोगो, जहा समुद्दो अवगाढतणेण गंभीरो दीप अनुक्रम [३२८३५९] SHIKAREERASAE CRORECASC [205]

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