Book Title: Aagam 43 Uttaradhyanani Choorni
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 165
________________ आगम (४३) "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [०३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: प्रत सुत्राक [१] गाथा ||१७८२०७|| श्रीउत्तरा | मण्णति-पुत्त ! 'आउरचिनाई एयाई॥२४९-२७३॥ गाथा, जहा आउरो मरिउकामो जे मग्गति पत्थं वा अपत्थं वा त उरभ्रचूणौँ । | दिज्जति से, एवं सो पंदितो मारिजिहिति जदा तदा पेच्छिहिसि, उक्तो दृष्टान्तः। प्रकृतमुपदिश्यते- 'तओ से पुढे परि-द दृष्टान्ता ७ और-14 | बूढे ॥१७९-२७४|| सिलोगो, 'तत' इति ततो जवसौदनप्रदानात् पुष्यते वा पुष्टः परिवृहितः परिवृढः, मिद्यतेऽनेनेति मेदः। श्रीया उदीर्णान्तः उदीर्यते वा उदरं पीणिए' विपुलदेहे, प्रीणीत: तपित इत्यर्थः, विपुलदेहे नाम मांसोपचितः, 'आएस ॥१५९॥४॥ ला परिकखए। कर्मवत् कर्मकर्तेतिकृत्वाऽपदिश्यते-मांसोपचयादसौ स्वयमेव मेदसा स्फुटन्निव आएसं परिकखए, कथं सो|H आगच्छेदिति, उत्सवादिा , यत्रायमुपयुज्येत, अथवा परिकंखति, 'जाव न एजति आएसो' ।।१८०-२७४|| सिलोगो, याव-11 परिमाणावधारणयोः, कह दुही जबसोदनेऽपि दीयमाने ?, उच्यते, वधस्य वध्यमाने इष्टाहारे वा वध्यालंकारेण वाऽलीक्रयमाणस्स लाकिमिव सुख, एवमसौ जवसोदगादिसुखेऽपि सति दुःखमानेवा, 'अह पत्तंमि आएसे' अथेत्ययं निपात आनन्तर्ये, श्रिताः तस्मिन् प्राणा इति शिराः, ततो सो वच्छगो तं नंदियगं पाहुणगेसु आगएसु वधिज्जमाणं दई तिसितोऽवि भएणं माऊए माथणं णाभिलसति, ताए भण्णति-किं पुत्र ! भयभीतोऽसि , हेण पाहुयपि मंण पियसि. तेण भण्णइ- अम्म! कत्तो मे मज्ज थणामिलापो, णणु सो वच्छतो पीदतो अज्ज केहिवि पाहुणएहिं आगएहिं ममं अग्गतो विणिग्गयजीहो विलोलनयणो विस्सरं रसंतो अत्ताणो असरणो विणिहतोत्ति तब्भयातो कतो मे पाउमिच्छा ?, ततो ताए भणति- पुत्ता ! णणु तदा साचे ते कहिय, जहा आउरचिण्णाई एयाई, एस तेसिं विवागो अणुपचो । एस दिईतो 'जहा खलु से ओरन्भे ॥१८१-२७४॥ 8 ॥१५९।। सिलोगो, यथा येन प्रकारेण, खलु विशेषणे, स एव विशिष्यत इति स इति प्रागुक्ता, उरसा भ्राम्यति विभर्ति वा तमिति उरभ्रः, - दीप अनुक्रम [१७९२०८] - - [164]

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