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योगसार
पद्यानुवाद
डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल
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योगसार पद्यानुवाद ( जोइन्दुकृत योगसार का हिन्दी पद्यानुवाद)
पद्यानुवादक :
डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल
शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, एम० ए०, पीएच० डी०
प्रकाशक :
पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट
ए-४, बापूनगर, जयपुर - ३०२०१५
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प्रथम संस्करण : १५,००० हजार १५ मई १९६१ ई० जन्म-जयन्ती : आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी
मूल्य : ५० पैसे
योगसार पद्यानुवाद का संगीतमय कैसेट भी उपलब्ध है। मुद्रक : जयपुर प्रिण्टर्स, जयपुर
इस पुस्तक के मूल्य कम करने में १ हजार एक रुपया श्री देवेन्द्रकुमारजी रहीस, सहारनपुर एवं १ हजार एक रुपया श्रीमती नीलावैन विक्रमभाई कामदार बम्बई को ओर से प्राप्त हुए हैं ।
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योगसार पद्यानुवाद सब कर्ममल का नाशकर पर प्राप्त कर निज-पातमा ।
जो लीन निर्मल ध्यान में नमकर निकल परमातमा ॥१॥ :सब नाशकर घनघाति अरि अरिहंत पद को पालिया। सकर नमन उन जिनदेव को यह काव्यपथ अपना लिया ॥२॥ है मोक्ष की अभिलाष पर भयभीत हैं संसार से । है समर्पित यह देशना उन भव्य जीवों के लिए ॥३॥ ' अनन्त है संसार-सागर जीव काल अनादि हैं। पर सुख नहीं, वस दुःख पाया मोह-मोहित जीव ने ॥ ४॥
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भयभीत है यदि चर्तुगति से त्याग दे परभाव को। परमातमा का ध्यान कर तो परमसुख को प्राप्त हो ॥५॥ बहिरातमापन त्याग जो बन जाय अन्तर-प्रातमा । ध्यावे सदा परमातमा बन जाय वह परमातमा ।। ६ ।। मिथ्यात्वमोहित जीव जो वह स्व-पर को नहिं जानता। । संसार-सागर में भ्रमें दृगमूढ़ वह बहिरातमा ॥७॥
जो त्यागता परभाव को अर स्व-पर को पहिचानता। । है वही पण्डित आत्मज्ञानी स्व-पर को जो जानता ॥८॥ __ जो शुद्ध शिव जिन बुद्ध विष्णु निकल निर्मल शान्त है।
बस है वही परमातमा जिनवर-कथन निन्ति है ।। ६ ।।
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जिनवर कहें 'देहादि पर' जो उन्हें ही निज मानता । संसार-सागर में भ्रमें वह प्रातमा बहिरातमा ॥१०॥ 'देहादि पर' जिनवर कहें ना हो सकें वे श्रातमा । यह जानकर तू मान ले निज श्रातमा को श्रातमा ॥ ११ ॥ तू पायगा निर्वारण माने श्रातमा को प्रातमा । पर भवभ्रमरण हो यदी जाने देह को ही प्रातमा ||१२|| श्रातमा को जानकर इच्छारहित यदि तप करे । तो परमगति को प्राप्त हो संसार में घूमे नहीं ॥ १३ ॥ परिणाम से ही बंध है पर मोक्ष भी परिणाम से । यह जानकर हे भव्यजन ! परिणाम को पहिचानिये ||१४||
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निज श्रातमा जाने नहीं अर पुण्य ही करता रहे।
तो सिद्धसुख पावे नहीं संसार में फिरता रहे ॥१५॥ निज प्रातमा को जानना ही एक मुक्तीमागं है । कोइ अन्य काररण है नहीं हे योगिजन ! पहिचान लो ॥ १६ ॥ मार्गरगा गुरणथान का सब कथन है व्यवहार से । यदि चाहते परमेष्ठिपद तो श्रातमा को जान लो ॥ १७॥ घर में रहे जो किन्तु हेयाहेय को पहिचानते । वे शीघ्र पावें मुक्तिपद, जिनदेव को जो ध्यावते ॥ १८ ॥ तुम करो चिन्तन स्मरण श्रर ध्यान श्रातमदेव का । बस एक क्षरण में परमपद की प्राप्ति हो इस कार्य से ||१६||
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मोक्षमग में योगिजन यह बात निश्चय जानिये । जिनदेव पर शुद्धातमा में भेद कुछ भी है नहीं ॥२०॥ सिद्धान्त का यह सार माया छोड़ योगी जान लो । जिनदेव पर शुद्धातमा में कोई अन्तर है नहीं ॥२१॥ है पातमा परमातमा परमातमा ही प्रातमा । हे योगिजन यह जानकर कोई विकल्प करो नहीं ॥२२॥ परिमाण लोकाकाश के जिसके प्रदेश असंख्य हैं। बस उसे जाने प्रातमा निर्वाण पावे शीघ्र ही ॥२३॥ व्यवहार देहप्रमारण अर परमार्थ लोकप्रमारण है। जो जानते इस भांति वे निर्वाण पावें शीघ्र ही ॥२४॥
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योनि लाख चुरासि में बीता अनन्ता काल है ।
पाया नहीं सम्यक्त्व फिर भी बात यह निर्भ्रान्त है ||२५|| यदि चाहते हो मुक्त होना चेतनामय शुद्ध जिन । श्रर बुद्ध केवलज्ञानमय निज श्रातमा को जान लो ॥ २६ ॥ जबतक न भावे जोब निर्मल प्रातमा की भावना । तबतक न पावे मुक्ति यह लख करो वह जो भावना ||२७|| त्रैलोक्य के जो ध्येय वे जिनदेव ही हैं श्रातमा । परमार्थ का यह कथन है निर्भ्रान्त यह तुम जान लो ॥ २८ ॥ जबतक न जाने जीव परमपवित्र केवल आतमा । तबतक न व्रत तपशील संयम मुक्ति के कारण कहे ||२६||
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जिनदेव का है कथन यह व्रत शील से संयुक्त हो । जो श्रातमा को जानता वह सिद्धसुख को प्राप्त हो ॥३०॥ जबतक न जाने जीव परमपवित्र केवल श्रातमा । तबतक सभी व्रत शील संयम कार्यकारी हों नहीं ||३१|| पुण्य से हो स्वर्ग नर्क निवास होवे पाप से । पर मुक्ति रमणी प्राप्त होती श्रात्मा के ध्यान से ||३२|| व्रत शील संयम तप सभी हैं मुक्तिमग व्यवहार से । त्रैलोक्य में जो सार है वह श्रातमा परमार्थ से ॥३३॥ परभाव को परित्याग कर अपनत्व श्रातम में करे । जिनदेव ने ऐसा कहा शिवपुर गमन वह नर करे ॥३४॥
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व्यवहार से जिनदेव ने छह द्रव्य तत्त्वारथ कहे । हे भव्यजन ! तुम विधीपूर्वक उन्हें भी पहिचान लो ॥३५॥ है प्रातमा बस एक चेतन प्रातमा ही सार है। बस और सब हैं अचेतन यह जान मुनिजन शिव लहैं ॥३६॥ जिनदेव ने ऐसा कहा निज प्रातमा को जान लो। यदि छोड़कर व्यवहार सब तो शीघ्र ही भवपार हो ॥३७॥ जो जीव और अजीव के गुणभेद को पहिचानता । है वही ज्ञानी जीव वह ही मोक्ष का कारण कहा ॥३८॥ यदि चाहते हो मोक्षसुख तो योगियों का कथन यह । हे जीव ! केवलज्ञानमय निज प्रातमा को जान लो ॥३६॥
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सुसमाधि अर्चन मित्रता र कलह एवं वंचना । हम करें किसके साथ किसकी हैं सभी जब प्रातमा ॥४०॥ गुरुकृपा से जबतक कि श्रातमदेव को नहिं जानता । तबतक भ्रमे कुत्तीर्थ में श्रर ना तजे जन धूर्तता ॥ ४१ ॥ श्रुतकेवली ने यह कहा ना देव मन्दिर तीर्थ में । बस देह देवल में रहें जिनदेव निश्चय जानिये ॥ ४२ ॥ जिनदेव तनमन्दिर रहें जन मन्दिरों में खोजते । हँसी आती है कि मानो सिद्ध भोजन खोजते ॥ ४३ ॥ देव देवल में नहीं रे मूढ ! ना चित्राम में | वे देह देवल में रहें सम चिंत्त से यह जान ले ॥ ४४ ॥
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सारा जगत यह कहे श्री जिनदेव देवल में रहें। पर विरल ज्ञानी जन कहें कि देह-देवल में रहें ॥४५॥ यदि जरा भी भय है तुझे इस जरा एवं मरण से । तो धर्मरस का पान कर हो जाय अजरा-अमर तू ॥४६॥ पोथी पढ़े से धर्म ना ना धर्म मठ के वास से । ना धर्म मस्तक लुंच से ना धर्म पीछी ग्रहरण से ॥४७॥ परिहार कर रुष-राग प्रातम में वसे जो प्रातमा । बस पायगा पंचमगति वह प्रातमा धर्मातमा ।।४।। आयू गले मन ना गले ना गले प्राशा जीव की। मोहस्फुरे हित नास्फुरे यह दुर्गति इस जीव की ॥४६॥
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ज्यों मन रमें विषयानि में यदि प्रातमा में त्यों रमें। योगी कहें हे योगिजन ! तो शीघ्र जावे मोक्ष में ॥५०॥ 'जर्जरित है नरकसम यह देह' - ऐसा जानकर । यदि करो प्रातम भावना तो शीघ्र ही भव पार हो ॥५१॥ धंधे पड़ा सारा जगत निज प्रातमा जाने नहीं। बस इसलिए ही जीव यह निर्वाण को पाता नहीं ॥५२॥ शास्त्र पढ़ता जीवजड़ पर प्रातमा जाने नहीं। बस इसलिए ही जीव यह निर्वाण को पाता नहीं ॥५३॥ परतंत्रता मन-इन्द्रियों की जाय फिर क्या पूछना। रुक जाय राग-द्वेष तो हो उदित प्रातम भावना ॥५४॥
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जीव पुद्गल भिन्न हैं पर भिन्न सब व्यवहार है । यदि तजे पुद्गल गहे प्रातम सहज ही भवपार है ॥५५॥ ना जानते-पहिचानते निज प्रातमा गहराई से । जिनवर कहें संसार सागर पार वे होते नहीं ॥५६॥ रतन दीपक सूर्य घी दधि दूध पत्थर पर दहन । सुवर्ण रूपा स्फटिकमरिण से जानिये निज प्रात्मन् ॥५७॥ शून्यनभसम भिन्न जाने देह को जो प्रातमा । सर्वज्ञता को प्राप्त हो पर शीघ्र पावे आतमा ॥५॥ आकाशसम ही शुद्ध है निज प्रातमा परमातमा । आकाश है जड़ किन्तु चेतन तत्त्व तेरा पातमा ॥५६॥
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नासान दृष्टिवंत हो देखें अदेही जीव को। वे जनम धारण ना करें ना पिये जननी-क्षीर को ॥६॥ अशरीर को सुशरीर पर इस देह को जड़ जान लो। सब छोड़ मिथ्या-मोह इस जड़देह को पर मान लो ॥६॥ अपनत्व प्रातम में रहे तो कौन सा फल ना मिले ? बस होय केवलज्ञान एवं अखय प्रानन्द परिणमे ॥१२॥ परभाव को परित्याग जो अपनत्व प्रातम में करें। वे लहें केवलज्ञान अर संसार-सागर परिहरें ॥३॥ हैं धन्य वे भगवन्त बुध परभाव जो परित्यागते । जो लोक और प्रलोक ज्ञायक प्रातमा को जानते ॥६४॥
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सागार या अनगा रहो पर प्रातमा में वास हो । जिनवर कहें अति शीघ्र ही वह परमसुख को प्राप्त हो ॥६५॥ विरले पुरुष ही जानते निज तत्त्व को विरले सुने । विरले करें निज ध्यान अर विरले पुरुष धारण करें ॥६६॥ 'सुख-दुःख के हैं हेतु परिजन किन्तु वे परमार्थ से । मेरे नहीं' - यह सोचने से मुक्त हों भवभार से ॥६७॥ नागेन्द्र इन्द्र नरेन्द्र भी ना आतमा को शरण दें। यह जानकर हि मुनीन्द्रजन निज प्रातमा शरणा गहें ॥६॥ जन्म-मरे सुख-दुःख भोगे नरक जावे एकला। अरे ! मुक्तीमहल में भी जायेगा जिय एकला ॥६६॥
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यदि एकला है जीव तो परभाव सब परित्याग कर ।
ध्या ज्ञानमय निज श्रातमा श्रर शीघ्र शिवसुख प्राप्त कर ॥७०॥
हर पाप को सारा जगत ही बोलता - यह पाप है । पर कोई विरला बुध कहे कि पुण्य भी तो पाप है ॥७१॥ लोह और सुवर्ण को बेड़ी में अन्तर है नहीं । शुभ-अशुभ छोड़ें ज्ञानिजन दोनों में अन्तर है नहीं ॥७२॥ हो जाय जब निर्ग्रन्थ मन निर्ग्रन्थ तब ही तू बने । निर्ग्रन्थ जब हो जाय तू तब मुक्ति का मारग मिले ॥७३॥ जिस भांति बड़ में बीज है उस भाँति बड़ भी बीज में । बस इसतरह त्रैलोक्य जिन श्रातम बसे इस देह में ||७४ ||
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जिनदेव जो मैं भी वही इस भाँति मन निभ्रान्त हो। है यही शिवमग योगिजन ! ना मंत्र एवं तंत्र है ॥७५।। दोतीन चउर पाँच नव पर सात छह पर पांच फिर । पर चार गुण जिसमें बसें उस प्रातमा को जानिए ॥७६॥ 'दो छोड़कर दो गुरण सहित परमातमा में जो वसे । शिवपद लहें वे शीघ्र ही इस भाँति सबजिनवर कहें ॥७७॥ तज तीन त्रयगुरण सहित नित परमातमा में जो वसे । शिवपद लहें वे शीघ्र ही इस भाँति सब जिनवर कहें ॥७८।। जो रहित चार कषाय संज्ञा चार गुण से सहित हो । तुम उसे जानों पातमा तो परमपावन हो सको ॥७॥
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जो दश रहित दश सहित एवं दशगुरणों से सहित हो । तुम उसे जानो प्रातमा पर उसी में नित रत रहो।।८।। निज प्रातमा है ज्ञान दर्शन चरण भी निज प्रातमा । तप शील प्रत्याख्यान संयम भी कहे निज प्रातमा ॥१॥ जो जान लेता स्व-पर को निर्धान्त हो वह पर तजे। जिन-केवली ने यह कहा कि बस यही संन्यास है ।।२।। रतनत्रय से युक्त जो वह पातमा ही तीर्थ है। है मोक्ष का कारण वही ना मंत्र है ना तंत्र है ॥३॥ निज देखना दर्शन तथा निज जानना ही ज्ञान है। जो हो सतत वह प्रातमा की भावना चारित्र है ॥२४॥
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जिन - केवली ऐसा कहें- 'तहँ सकल गुरग जहँ प्रातमा ।'
बस इसलिए ही योगीजन ध्याते सदा ही प्रातमा ॥ ८५ ॥ तू एकला इन्द्रिय रहित मन वचन तन से शुद्ध हो । निज श्रातमा को जान ले तो शीघ्र ही शिवसिद्ध हो ॥ ८६ ॥ यदि बद्ध और प्रबद्ध माने बंधेगा निर्भ्रान्त ही । जो रमेगा सहजात्म में तो पायेगा शिव शान्ति हो ॥ ८७ ॥ जो जीव सम्यग्दृष्टि दुर्गति गमन ना कबहूँ करें । यदि करें भी ना दोष पूरब करम को ही क्षय करें ॥८८॥ सब छोड़कर व्यवहार नित निज प्रातमा में जो रमें । वे जीव सम्यग्वृष्टि तुरतहि शिवरमा में जा रमें ॥८६॥
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सम्यक्त्व का प्राधान्य तो त्रैलोक्य में प्राधान्य भी। बुध शीघ्र पावे सदा सुखनिधि और केवलज्ञान भी ॥१०॥ जहहोय थिर गुणगणनिलय जिय अजर अमृतप्रातमा। तह कर्मबंधन हों नहीं झर जाँय पूरव कर्म भी ॥१॥ जिसतरह पद्मनि-पत्र जल से लिप्त होता है नहीं। निजभावरत जिय कर्ममल से लिप्त होता है नहीं ॥२॥ लीन समसुख जीव बारम्बार ध्याते प्रातमा । वे कर्म क्षयकर शीघ्र पावें परमपद परमातमा ॥३॥ पुरुष के आकार जिय गुणगणनिलय सम सहित है । यह परमपावन जीव निर्मल तेज से स्फुरित है ॥१४॥
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इस प्रशुचिन्तन से भिन्न श्रातमदेव को जो जानता ।
नित्य सुख में लीन बुध वह सकल जिनश्रुत जानता ॥६५॥ जो स्व-पर को नहिं जानता छोड़े नहीं परभाव को । वह जानकर भी सकल श्रुत शिवसौख्य को ना प्राप्त हो ॥ ६६ ॥ सब विकल्पों का वमन कर जम जाय परमसमाधि में । तब जो प्रतीन्द्रिय सुख मिले शिवसुख उसी को जिन कहें ॥ ६७ ॥ पिण्डस्थ और पदस्थ पर रूपस्थ रूपातीत जो । शुभध्यान जिनवर ने कहे जानो कि परमपवित्र हो ॥ ६८ ॥ 'जीव हैं सब ज्ञानमय' - इस रूप जो समभाव हो । है वही सामायिक कहें जिनदेव इसमें शक न हो ॥ ६६ ॥
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जो राग एवं द्वेष के परिहार से समभाव हो । है वही सामायिक कहें जिनदेव इसमें शक न हो ॥ १०० ॥ हिंसादि के परिहार से जो श्रात्म-स्थिरता बढ़े ।
यह दूसरा चारित्र है जो मुक्ति का काररण कहा ||१०१ ॥ जो बढ़े दर्शनशुद्धि मिथ्यात्वादि के परिहार से । परिहारशुद्धी चरित जानो सिद्धि के उपहार से ॥ १०२ ॥ लोभ सूक्षम जब गले तब सूक्ष्म सुध उपयोग हो । है सूक्ष्मसाम्पराय जिसमें सदा सुख का भोग हो ॥ १०३ ॥ अरहंत सिद्धाचार्य पाठक साधु हैं परमेष्ठी परण । सब श्रातमा ही हैं श्री जिनदेव का निश्चय कथन || १०४ ||
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________________ वह पातमा ही विष्णु है जिन रुद्र शिव शंकर वही / बुद्ध ब्रह्मा सिद्ध ईश्वर है वही भगवन्त भी // 10 // इन लक्षणों से विशद लक्षित देव जो निर्देह है। कोई अन्तर है नहीं जो देह-देवल में रहे // 106 // जो होयगे या हो रहे या सिद्ध अबतक जो हुए। यह बात है निभ्रान्त वे सब आत्मदर्शन से हुए // 107 // भवदुखों से भयभीत योगीचन्द्र मुनिवरदेव ने / ये एकमन से रचे वोहे स्वयं को संबोधने // 108 / / जोइन्दु मुनिवरदेव ने वोहे रचे अपभ्रंस में। लेकर उन्हीं का भाव मैंने रख दिया हरिगीत में।