________________
सुसमाधि अर्चन मित्रता र कलह एवं वंचना । हम करें किसके साथ किसकी हैं सभी जब प्रातमा ॥४०॥ गुरुकृपा से जबतक कि श्रातमदेव को नहिं जानता । तबतक भ्रमे कुत्तीर्थ में श्रर ना तजे जन धूर्तता ॥ ४१ ॥ श्रुतकेवली ने यह कहा ना देव मन्दिर तीर्थ में । बस देह देवल में रहें जिनदेव निश्चय जानिये ॥ ४२ ॥ जिनदेव तनमन्दिर रहें जन मन्दिरों में खोजते । हँसी आती है कि मानो सिद्ध भोजन खोजते ॥ ४३ ॥ देव देवल में नहीं रे मूढ ! ना चित्राम में | वे देह देवल में रहें सम चिंत्त से यह जान ले ॥ ४४ ॥