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सम्यक्त्व का प्राधान्य तो त्रैलोक्य में प्राधान्य भी। बुध शीघ्र पावे सदा सुखनिधि और केवलज्ञान भी ॥१०॥ जहहोय थिर गुणगणनिलय जिय अजर अमृतप्रातमा। तह कर्मबंधन हों नहीं झर जाँय पूरव कर्म भी ॥१॥ जिसतरह पद्मनि-पत्र जल से लिप्त होता है नहीं। निजभावरत जिय कर्ममल से लिप्त होता है नहीं ॥२॥ लीन समसुख जीव बारम्बार ध्याते प्रातमा । वे कर्म क्षयकर शीघ्र पावें परमपद परमातमा ॥३॥ पुरुष के आकार जिय गुणगणनिलय सम सहित है । यह परमपावन जीव निर्मल तेज से स्फुरित है ॥१४॥