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जिन - केवली ऐसा कहें- 'तहँ सकल गुरग जहँ प्रातमा ।'
बस इसलिए ही योगीजन ध्याते सदा ही प्रातमा ॥ ८५ ॥ तू एकला इन्द्रिय रहित मन वचन तन से शुद्ध हो । निज श्रातमा को जान ले तो शीघ्र ही शिवसिद्ध हो ॥ ८६ ॥ यदि बद्ध और प्रबद्ध माने बंधेगा निर्भ्रान्त ही । जो रमेगा सहजात्म में तो पायेगा शिव शान्ति हो ॥ ८७ ॥ जो जीव सम्यग्दृष्टि दुर्गति गमन ना कबहूँ करें । यदि करें भी ना दोष पूरब करम को ही क्षय करें ॥८८॥ सब छोड़कर व्यवहार नित निज प्रातमा में जो रमें । वे जीव सम्यग्वृष्टि तुरतहि शिवरमा में जा रमें ॥८६॥