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इस प्रशुचिन्तन से भिन्न श्रातमदेव को जो जानता ।
नित्य सुख में लीन बुध वह सकल जिनश्रुत जानता ॥६५॥ जो स्व-पर को नहिं जानता छोड़े नहीं परभाव को । वह जानकर भी सकल श्रुत शिवसौख्य को ना प्राप्त हो ॥ ६६ ॥ सब विकल्पों का वमन कर जम जाय परमसमाधि में । तब जो प्रतीन्द्रिय सुख मिले शिवसुख उसी को जिन कहें ॥ ६७ ॥ पिण्डस्थ और पदस्थ पर रूपस्थ रूपातीत जो । शुभध्यान जिनवर ने कहे जानो कि परमपवित्र हो ॥ ६८ ॥ 'जीव हैं सब ज्ञानमय' - इस रूप जो समभाव हो । है वही सामायिक कहें जिनदेव इसमें शक न हो ॥ ६६ ॥