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जो राग एवं द्वेष के परिहार से समभाव हो । है वही सामायिक कहें जिनदेव इसमें शक न हो ॥ १०० ॥ हिंसादि के परिहार से जो श्रात्म-स्थिरता बढ़े ।
यह दूसरा चारित्र है जो मुक्ति का काररण कहा ||१०१ ॥ जो बढ़े दर्शनशुद्धि मिथ्यात्वादि के परिहार से । परिहारशुद्धी चरित जानो सिद्धि के उपहार से ॥ १०२ ॥ लोभ सूक्षम जब गले तब सूक्ष्म सुध उपयोग हो । है सूक्ष्मसाम्पराय जिसमें सदा सुख का भोग हो ॥ १०३ ॥ अरहंत सिद्धाचार्य पाठक साधु हैं परमेष्ठी परण । सब श्रातमा ही हैं श्री जिनदेव का निश्चय कथन || १०४ ||