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ज्यों मन रमें विषयानि में यदि प्रातमा में त्यों रमें। योगी कहें हे योगिजन ! तो शीघ्र जावे मोक्ष में ॥५०॥ 'जर्जरित है नरकसम यह देह' - ऐसा जानकर । यदि करो प्रातम भावना तो शीघ्र ही भव पार हो ॥५१॥ धंधे पड़ा सारा जगत निज प्रातमा जाने नहीं। बस इसलिए ही जीव यह निर्वाण को पाता नहीं ॥५२॥ शास्त्र पढ़ता जीवजड़ पर प्रातमा जाने नहीं। बस इसलिए ही जीव यह निर्वाण को पाता नहीं ॥५३॥ परतंत्रता मन-इन्द्रियों की जाय फिर क्या पूछना। रुक जाय राग-द्वेष तो हो उदित प्रातम भावना ॥५४॥