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जीव पुद्गल भिन्न हैं पर भिन्न सब व्यवहार है । यदि तजे पुद्गल गहे प्रातम सहज ही भवपार है ॥५५॥ ना जानते-पहिचानते निज प्रातमा गहराई से । जिनवर कहें संसार सागर पार वे होते नहीं ॥५६॥ रतन दीपक सूर्य घी दधि दूध पत्थर पर दहन । सुवर्ण रूपा स्फटिकमरिण से जानिये निज प्रात्मन् ॥५७॥ शून्यनभसम भिन्न जाने देह को जो प्रातमा । सर्वज्ञता को प्राप्त हो पर शीघ्र पावे आतमा ॥५॥ आकाशसम ही शुद्ध है निज प्रातमा परमातमा । आकाश है जड़ किन्तु चेतन तत्त्व तेरा पातमा ॥५६॥