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निज श्रातमा जाने नहीं अर पुण्य ही करता रहे।
तो सिद्धसुख पावे नहीं संसार में फिरता रहे ॥१५॥ निज प्रातमा को जानना ही एक मुक्तीमागं है । कोइ अन्य काररण है नहीं हे योगिजन ! पहिचान लो ॥ १६ ॥ मार्गरगा गुरणथान का सब कथन है व्यवहार से । यदि चाहते परमेष्ठिपद तो श्रातमा को जान लो ॥ १७॥ घर में रहे जो किन्तु हेयाहेय को पहिचानते । वे शीघ्र पावें मुक्तिपद, जिनदेव को जो ध्यावते ॥ १८ ॥ तुम करो चिन्तन स्मरण श्रर ध्यान श्रातमदेव का । बस एक क्षरण में परमपद की प्राप्ति हो इस कार्य से ||१६||