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सागार या अनगा रहो पर प्रातमा में वास हो । जिनवर कहें अति शीघ्र ही वह परमसुख को प्राप्त हो ॥६५॥ विरले पुरुष ही जानते निज तत्त्व को विरले सुने । विरले करें निज ध्यान अर विरले पुरुष धारण करें ॥६६॥ 'सुख-दुःख के हैं हेतु परिजन किन्तु वे परमार्थ से । मेरे नहीं' - यह सोचने से मुक्त हों भवभार से ॥६७॥ नागेन्द्र इन्द्र नरेन्द्र भी ना आतमा को शरण दें। यह जानकर हि मुनीन्द्रजन निज प्रातमा शरणा गहें ॥६॥ जन्म-मरे सुख-दुःख भोगे नरक जावे एकला। अरे ! मुक्तीमहल में भी जायेगा जिय एकला ॥६६॥