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ISSN 2454-3705
श्रुतसागर |श्रुतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY)
September-2018, Volume : 05, Issue : 04, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/
EDITOR : Hiren Kishorbhai Doshi
'BOOK-POST / PRINTED MATTER |
माणERRAVAITANYARI
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शेठ भांडा शाह निर्मित त्रैलोक्यदीपक सुमतिनाथ जिनालय,
बीकानेर का उस्ता शैली की चित्रकारी
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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प. पू. मुनि श्री पद्मरत्नसागरजी म. सा. की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में चित्र पर पुष्पमालार्पण करते हुए श्रद्धालुगण
किल्याणकाशयानुमान
उस्ता चित्रशैली के कुछ नमूने
HTTELU
Munita arenaliram
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वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/
अंक शुल्क - रु. १५/
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र)
श्रुतसागर
શ્રુતસાગર
* संपादक
हिरेन किशोरभाई दोशी
SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-५, अंक-४, कुल अंक-५२, सितम्बर-२०१८
Year-5, Issue-4, Total Issue- 52, September-2018 Yearly Subscription - Rs.150/Price per copy Rs. 15/आशीर्वाद
फ्र
3
राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
* सह संपादक
जैन
महावीर
रामप्रकाश झा
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार
१५ सितम्बर, २०१८, वि. सं. २०७४, भाद्रपद शुक्ल- ६
आराधना
अमृतं
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तु विद्या
Septermber-2018 ISSN 2454-3705
केन्द्र,
कोवा
* संपादन सहयोगी
राहुल आर. त्रिवेदी
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प्रकाशक
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय) श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७
फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१८
अनुक्रम
रामप्रकाश झा
6
1. संपादकीय 2. आध्यात्मिक पदो 3. Awakening 5. पर्युषणपर्व स्तुति 4. चोवीसजिन सवैया 6. गौतमपृच्छा संधि 7. बीकानेरनी 'उस्ता' चित्र शैली
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी Acharya Padmasagarsuri श्री राहुल आर. त्रिवेदी डॉ. जागृति बी. प्रजापति आर्य मेहुलप्रभसागर गणि श्री सुयशचंद्र विजयजी
8. समाचार सार
आया आदर बैसणो जाता बोलै जीकार । मिलिया हसकर बोलणो उत्तम घरा आचार॥
हस्तप्रत नं. १२००९० भावार्थः- जिस घर में आनेवाले (अतिथि) को आदरपूर्वक बैठने के लिए कहा जाता हो, जानेवाले को जीकार (पुनः पधारना) जैसे शब्द कहे जाते हों, और एक दूसरे से मिलने पर हँसकर बात करते हों, ऐसा उत्तम घर का आचार
* प्राप्तिस्थान* आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनीक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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SHRUTSAGAR
Septermber-2018
संपादकीय
रामप्रकाश झा __ श्रुतसागर का यह नूतन अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है।
प्रस्तुत अंक में गुरुवाणी शीर्षक के अन्तर्गत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृति “आध्यात्मिक पदो” की गाथा ४८ से ५३ तक प्रकाशित की जा रही हैं। इस कृति के माध्यम से आध्यात्मिक उपदेश देते हए अहिंसा, सत्यपालन, आहारादि से संबंधित साधारण जीवों को प्रतिबोध कराने का प्रयत्न किया गया है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक 'Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है, जिसके अन्तर्गत जीवनोपयोगी प्रसंगों का विवेचन किया गया है।
अप्रकाशित कृति के अंतर्गत इस अंक में सर्वप्रथम आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर की कार्यकर्ली डॉ. जागृतिबेन प्रजापति के द्वारा सम्पादित लेख “चोबीसजिन सवैया" प्रकाशित किया जा रहा है। कुल अट्ठाईस गाथा की इस कृति में चौबीस तीर्थंकरों के माता-पिता, लांछन, सौंदर्य आदि का वर्णन करते हुए उनकी स्तवना की गई है। द्वितीय कृति के रूप में पर्वाधिराज पर्युषण के शुभावसर पर ज्ञानमन्दिर के पण्डित श्री राहुल आर. त्रिवेदी के द्वारा सम्पादित “पर्युषणपर्व स्तुति” नामक एक लघु कृति का प्रकाशन किया जा रहा है, जो अद्यपर्यन्त लगभग अप्रकाशित है। इस कृति में पर्युषण पर्व में की जानेवाली आराधनाओं का संक्षिप्त में वर्णन किया गया है। तृतीय कृति के रूप में आर्य मेहुलप्रभसागरजी म.सा. के द्वारा सम्पादित “गौतमपृच्छा संधि” प्रकाशित की जा रही है। प्रस्तुत कृति गुरु गौतमस्वामी की जिज्ञासा और प्रभु महावीरस्वामी के समाधान पर आधारित है। विभिन्न प्रकार की ४८ शंकाओं का परमात्मा महावीर प्रभु से प्राप्त समाधानों को काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है।
पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में “बीकानेर की उस्ता चित्रशैली” नामक लेख का प्रकाशन किया जा रहा है। यह लेख यद्यपि प्रबुद्ध जीवन के अगस्त अंक में प्रकाशित हो चुका है। परन्तु लेख की विषयवस्तु तथा प. पू. गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. की भावना का आदर करते हुए श्रुतसागर के प्रस्तुत अंक में इसका पुनः प्रकाशन किया जा रहा है।
हम आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे आगामी अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके।
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आध्यात्मिक पदो
(हरिगीत छंद)
स्याद्वादनयसापेक्षथी बायबल कुराणो वेद छे, तेमज पुराणो सत्य जे ते, वेद मन नहि खेद छे; स्याद्वादनय सापेक्षथी जे बौद्धना ग्रंथोवाळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. सर्वज्ञ श्रीमत् केवली ज्ञानी महन्तो जे थया, तेनां वचन जे सत्य ते वेदो अपेक्षाए लह्या; जे सत्य नहि ते वेद नहि प्रामाण्यता ज्यां ना ठरी, एव अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. शास्त्रो मे ते धर्मनां वा पन्थनां जे जे थयां, सवळा पडे ते जैनने सम्यकत्वसापेक्षा ठर्यां; सम्यकत्व वण मिथ्यात्वीने अवळीज दृष्टि मन ठरी, एव अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. सर्वज्ञ आगम परिणमे जेना हृदयमां नयवडे, तेने ज साचुं परिणमे ते वेद सापेक्षाबळे; लाखो करोडो जातनी सापेक्षदृष्टियो वळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. चारे निखेपे वेद छे वेदान्त उपनिषदो तथा, अनुयोग चारे वेद छे व्यवहार शुभ सघळी कथा, आगमथकी नोआगमे छे वेद, भावे संवरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. साचा हृदयनां बाळको वेदो अमारा मन गम्या, जे तत्त्व शोधोने करे, ते वेद मारा मन गम्या; मुक्ति मळे जे योगथी ते वेद श्रद्धा मन रळी, एव अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. जेथी मनुष्यो सुख लहे ने दुःख सर्वे जाय छे, ते ते उपायो वेद छे ज्ञानी हृदयमां च्हाय छे;
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आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी
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होमाय नहि ज्यां दुःखडां ते वेदवाणी नहि ठरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. जे शब्द घोषक वेदीया पूरूं न खावानुं लहे, ते शब्द रूपी वेदनी मोटाई ना दुनिया कहे; अन्तर् प्रभुता जागती तेथी ज वाणी नीकळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. वेदो अनादि कालथी तीर्थंकरोनी वाणीए, सहु जातनी शिक्षाभर्या आचारथी मन आणीए; प्रामाण्य सर्वोत्कृष्ट छे निरवद्य वाणी जय करी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. स्वतंत्र सारां हृदय छे वेदो खरा मन आणीए, दुःखो टळे परतंत्रता ते वेद साचा जाणीए; विश्वोन्नति शान्ति विषे शुभ वेद ज्योति झळहळी, वी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. जे जे मरेला वेद तेतेमारता जगजीवने, समजण पडे नहि मूर्खने तेमज वळी महाकलि बने; ज्ञानोदधि मृतवेदने बाहिर् काढे (छांळथी) उछळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. आ विश्वमांहि वेदना पर्याय शब्दो जे लह्या, भाषा गमे ते जातनी पण ज्ञानने कहेता रह्या; सम्यग् थता ज्यां निर्णयो जाता न लोको आथडी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. मानव गमे ते जातना अध्यात्मज्ञानी जे अहो, ते ते मनोहर वेद छे सापेक्षदृष्टया मन लहो; पूर्वे अहो जे भासतुं ते हाल भासे छे वळी, एव अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी.
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(क्रमशः)
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Awakening
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September-2018
(from past issue...)
Acharya Padmasagarsuri
On account of the impact of the preaching of the Acharyashri, Kumarpal became profoundly influenced by the Jain Dharma or doctrines and discarded his immoral ways. Moreover, he constructed new Jain temples and reconstructed the dilapidated ones. He made a royal proclamation prohibiting the killing of animals and birds. He went on pilgrimages many times. He established at every place a library (of Jain Scriptures) and contributed to the progress and increase of Jains.
The sun of the Jain faith, Jainacharya, Sri Hemachandrasuri shone far in all glory and gave up peacefully his mortal body at the age of 84, in the year of Samvat 1229.
The Jain world was plunged in sorrow on account of this bereavement but we have with us his great works which we can study and from which we can derive enlightenment.
Rightness or Thoroughness
Knowledge is the friend of the soul; but falseness or illusion is its enemy. The Tatvarthsuthra says:
मिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ।
Mithyadarshanavirati pramadakashaya yoga bandhahetavaha | (Illusion, Intemperance; Intoxication (with money and power); Passions and Yoga (evil propensity) are the five causes of bondage. Sri Umaswati who wrote this considered Mithyatwa as a cause of bondage of Karma.
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Mithya or illusion takes two forms. The first one is the negligence of Reality; and the secod one is belief in the unreality. The difference between the two is this. The first one can occur also in a stage of total ignorance. The second can occur only in the phase of thoughtfulness. The first type is the unrealized Mithyatwa. This may be found in animals, birds and other creatures which are not thoughtful. The second one is realized Mithyatwa. This is found in thoughtful beings like human beings. The being that can think can have faith; and the faith may be in reality or unreality.
(Continue...)
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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१८ पर्युणपर्व स्तुति
राहुल आर. त्रिवेदी भारतवर्ष पर्वो (त्योहारो) का देश है। पर्व शब्द का अर्थ है परम पवित्र दिवस। वैसे तो प्रत्येक मास में कोई न कोई पर्व आता है, किन्तु वर्षा ऋतु में जैन-जैनेतर पर्यों की बहुलता है जैसे- आषाढचौमासी, गुरुपूर्णिमा, रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी, पर्युषण, ऋषिपञ्चमी, गणेशचतुर्थी, अनन्तचतुर्दशी, श्राद्ध, नवपदजी की ओली, नवरात्र, दशहरा, दीपावली, ज्ञानपंचमी आदि। इनमें से चौमासी, पर्युषण, नवपदजी की ओली, दीपावली एवं ज्ञानपंचमी जैसे लोकोत्तर जैन पर्व इहलोक-परलोक में कल्याणकारी पर्व हैं। उसमें भी सर्व शिरोमणि पर्व जो है वह पर्युषण महापर्व है। __ व्याकरण की परिभाषा में पर्युषण' शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं तो परि' उपसर्ग पूर्वक वस्' धातु से 'अन' प्रत्यय लगता है और 'वस्' धातु का 'उष्' आदेश हो जाता है तथा र्' एवं 'ष' के बाद रहे 'न' का 'ण' हो जाने पर ‘पर्युषण' शब्द निष्पन्न होता है। पर्युषण का अर्थ है आत्मा के समीप रहना । इसमें तपस्यादि द्वारा शरीर का शोषण व आत्मा का पोषण होता है। पर्युषण में प्रवचन, पौषध, प्रतिक्रमण, तप-त्याग, सेवापूजा, भक्ति-भावना एवं क्षमापनादि से आत्मा को पुष्ट किया जाता है। क्षमाप्रधान इस पर्व में प्रतिदिन के प्रतिक्रमण में ४ गाथाओं वाली स्तुति, थुई, थोय अवश्य बोली जाती है। प्रसंगानुसार बोली गई स्तुति विशेष भाववृद्धि का कारण बनती है. यहाँ ऐसी ही एक प्रायः अप्रगट कृति पर्युषणपर्व स्तुति का प्रकाशन किया जा रहा है. कृति परिचय :
वैसे पर्युषण महापर्व की कई स्तुतियाँ प्रकाशित हैं, प्रत्येक वर्ष पर्युषण के समय हर्षोल्लास के साथ ऐसी स्तुति बोली जाती है। पर्युषण से सम्बन्धित ऐसी अनेक भाववाही कृतियाँ हैं, जो अप्रकाशित हैं। यदि इन कृतियों को प्रकाशित किया जाए तो अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। पर्वाधिराज पर्युषण के प्रसंग पर एक ऐसी ही कृति का प्रकाशन किया जा रहा है। चार गाथाओं में निबद्ध इस कृति में सर्वप्रथम आसन्न उपकारी, शासनपति भगवान महावीर स्वामी का स्मरण किया गया है. श्रीकल्पसूत्र की महिमा दर्शाते हुए कर्ता ने लिखा है- 'सूत्र सिद्धांत मे राजा कहीइ कल्पसूत्र जग जाणोजी' कल्पसूत्र को सर्वशास्त्रों का राजा कहा गया है तथा इसमें आनेवाले अधिकारों की बात करते हुए कहा है - ‘च्यार चरित्र जिन आंतरा कहीइ वीर पास
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Septermber-2018
नेम आदि वखांणोजी थेरावली समाचारी साधु पट्टावली अवधारोजी' महावीरस्वामी, पार्श्वनाथ, नेमिजिन एवं आदिजिन इन ४ जिनेश्वर भगवंतों का विस्तृत चरित्र, अन्य जिनेश्वरों की अन्तरावली, साधु भगवंतों की पट्टावली, स्थविरावली, सामाचारी का भी उल्लेख किया गया है। जिनपूजा, संघपूजा, महोत्सव के वर्णन के साथ अंत में कर्त्ता ने गोमुख, धरणेन्द्र, पद्मावती एवं चक्रेश्वरीदेवी का उल्लेख करते हुए कृति को पूर्ण किया है। सरल एवं सुगम भाषाशैली में निबद्ध यह कृति सरलता से लोकभोग्य बन सकती है।
कर्ता परिचय :
प्रस्तुत कृति की रचना गणि रंगविजयजी के द्वारा की गई है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में उपलब्ध सूचनानुसार रंगविजयजी नाम के ९९ विद्वान प्राप्त होते हैं, उनमें से गणि रंगविजय के नाम से १३ विद्वान मिलते हैं. इनमें से प्रस्तुत कृति के कर्ता कौन हैं, उसकी स्पष्टता नहीं हो पाई है। परन्तु कृति के अंत में कर्ता के नाम से पहले वाले पद में है कि- 'देवी चक्केसरी जिन पाय सेवीजी' यहाँ जिनेश्वर भगवान के अर्थ में ‘जिन’' शब्द प्रयुक्त हुआ हो ऐसा लगता है। कई बार कवि अपना एवं अपने गुरु का नामोल्लेख गर्भितरूप से भी करते हैं. यदि यहाँ भी ऐसा मान लिया जाए ‘जिन' शब्द में गुरु का नाम गर्भित हो तो संभव है कि इनके गुरु का नाम 'जिन' शब्द से प्रारंभ होने वाला 'जिनराज' या 'जिनविजय' आदि हो । वैसे आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में उपलब्ध सूचना के अनुसार ‘प्रश्नोत्तररत्नमाला' के टबार्थ के रचयिता के रूप में खरतरगच्छीय 'मुनि रंगविजय' नामक एक विद्वान के गुरु का नाम संवत् १६९२ की प्रति क्रमांक- ६०४८० में 'खरतरगच्छाधिराज युगप्रधान जिनराजसूरिशिष्य श्रीरंगविजयेन' मिलता है । सम्भवतः इन्ही रंगविजयजी ने प्रस्तुत कृति की रचना की हो, ऐसा माना जा सकता है। विशेष संशोधन विद्वज्जन करें। प्रत परिचय :
प्रस्तुत कृति का संपादन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा हस्तप्रत ग्रंथागार की प्रति क्रमांक- ५६२५८ के आधार पर किया गया है। जिसका लेखन संवत् वि. १९०३ है। प्रत में कुल १० पत्र हैं, यह कृति प्रथम पत्र पर लिखित है. प्रत के प्रत्येक पत्र में पंक्तिसंख्या १४ से १८ एवं प्रतिपंक्ति अक्षरसंख्या ३९ है । अक्षर स्पष्ट, सुंदर एवं सुवाच्य हैं। आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में प्रस्तुत कृति की अन्य दो प्रतियाँ उपलब्ध हैं, यथा क्रमांक- ७१९२४, वि. १९ वीं एवं ९८४२३ वि. १९ वीं है ।
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सितम्बर-२०१८
॥१॥
श्रुतसागर
गणि रंगविजयजी रचित
पर्युषणपर्व स्तुति ॥GO॥ सासननायक वीर जिनेसर परव पजूसण भाख्योजी अती आडंबर ओछव घरि घरि दान दया मन राखोजी सकल परब मे मुगट नगीनो परब पजूसण कहीइजी छठ अठम तप पोसह करता अविचल पदवी लहीइजी सुंदर बाली रूप रसाली वदन वदे सुकमालीजी जिन चोवीसें पूजा करावो पीऊ अनोपम परम निहालीजी जीव तणी अमार पलावो पण्य करी काया पोषोजी अनेक प्रकार पूजा पकवांन करीने सयल संघ संतोषोजी सूत्र सिद्धांत मे राजा कहीइ कल्पसूत्र जग जाणोजी च्यार चरित्र जिन आंतरा कहीइ वीर पास नेम आदि वखांणोजी थेरावली समाचारी साधु पट्टावली अवधारोजी निज गुरुमुखथी श्रवणे सुणीने केवल कमला लहिं सारोजी दान संवच्छरी पडिक्कमणुं करतां नीरमल काया कीजेजी इण परि परव पजूसण करीने हेलां सिववधु वरीईजी गोमुख धरणेंद्र पदमावती देवी चक्केसरी जिन पाय सेवीजी गणि रंगविजय मेरु आस्या पूरो चउवीह संघ सुख देवीजी
॥ इति श्रीपजूसण स्तुति संपूर्ण ॥
॥२॥
॥३॥
॥४॥
सांवत्सरिक मिच्छामि दुक्कडं खामेमि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे ।। मित्ति मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणइ ॥
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चोवीसजिन सवैया
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डॉ. जागृति बी. प्रजापति
मोक्षप्राप्तिना विविध मार्गोमां भक्तिमार्ग पोतानुं आगवुं स्थान धरावे छे. सामान्य वर्गनी व्यक्ति पण तेने सरळताथी अपनावी पोताने आत्मकल्याणना मार्गे वाळी शके छे। एटले ज आपणा महापुरुषोए प्रचुरमात्रामां भक्तिकाव्योनी रचनाओ करी छे आ काव्यो स्तवन, स्तुति, स्तोत्र, छंद, लावणी, धवल, फागु, बारमासा, चौपाई आदि अनेक प्रकारोमां जोवा मळे छे । तेमांथी प्रस्तुत कृतिनो काव्यप्रकार ‘सवैया' छे।
1
केटलाक काव्योना नाम साथे छंदनुं नाम अविछिन्नपणे जोडायेलुं होय छे। तेम प्रस्तुत कृतिनुं नाम पण छंद नामयुक्त '२४ तीर्थंकर सवैया' छे । आ रीते काव्य नाम साथे छंद नाम श्रवणगोचर थतां तेनी पद्य रचनानुं स्वरूप नजर समक्ष उपस्थित थई जतुं होय छे। कृतिना शीर्षक उपरथी काव्यना छंदनो संबंध जाणवा मळी जतो होय छे। प्रस्तुत कृतिमां वर्तमान चोवीशीना २४ तीर्थंकरोनी स्तवना करवामां आवी छे २४ जिनेश्वरोमां प्रत्येक जिननी स्तवना करतां एक-एक काव्यो तो होय छेज, तेम एक ज कृतिमां चोवीसे य जिनेश्वरोनी स्तवना करतां काव्यो पण प्रचुरमात्रामां जोवा मळे छे, तेमांनी ज आ एक रचना छे। आ कृतिमां जिनेश्वरोना माता-पिता, लंछन, आभूषणसौंदर्य, विगेरे बाबतोनो ध्यानमां लई वर्णनपूर्वक स्तवना करेल छे। कृतिपरिचय :
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उपलब्ध कृति २८ गाथानी छे तेमां प्रारंभिक त्रण गाथा मंगलाचरणनी अने २५ गाथा विषयवस्तुनी छे। प्रारंभमां भगवती सरस्वतीनी प्रार्थना करवामां आवी छे। बीजी अने त्रीजी गाथामां गौतमस्वामी अने २४ जिननुं स्मरण कर्तुं छे । आकृतिमां चोवीसजिननुं वर्णन करेल छे । चोवीस तीर्थंकरनी चोवीस गाथा अने पच्चीसमी गाथामां रचना प्रशस्ति आपवामां आवी छे । कृतिनो प्रकार सवैया छे । तेमां चार अने छ चरणना पद आपेल छे । प्रस्तुत कृतिनी रचना सं. १८१४ भाद्रपद शुक्ल ४ ना दिने हरिसागर द्वारा नाडोल शहेरमां करायेल छे.
T
कर्तापरिचय :
कर्ता विषे विशेष माहिती उपलब्ध नथी. कर्तानी परंपरामां तेमना गुरु आगमसागर अने दादागुरु जिनेंद्रसागरनुं नाम मळे छे. आ उपलब्ध प्रतने आधारे कृतिनुं रचनावर्ष
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सितम्बर-२०१८ वि. १८१४ मळे छे. जेना आधारे कर्ता- वर्ष १८मी सदी उत्तरार्ध थी १९मी सदी पूर्वार्धमां थयो होय तेम कही शकाय. कर्तानी अन्य कोई कृति होय तेवू जाणवा मळ्यु नथी. प्रतपरिचय :
प्रस्तुत कृतिथी संबंधित चार प्रतो आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबामां उपलब्ध छे. तेमां बे प्रतो संपूर्ण ने बे प्रतो अपूर्ण छे.
(A)प्रतनं. ४३७८० ने आधार प्रति मानीने आ कृतिनुं संपादन करवामां आव्यु छे. आ प्रतनां प्रतिलेखक खंतिविजयनो समय सं.१८९८ मळे छ। प्रतमां कुल ५ पत्रो छे। प्रत्येक पत्रमा १३ पंक्तिओ अने प्रत्येक पंक्तिमा ४४ थी ४६ अक्षरो छे। प्रतिलेखन कार्य संदर, स्वच्छ अने मोटा अक्षरमां करेल छ । प्रतमां गेरू लाल रंगथी अंकित विशिष्ट पाठ छ। अने अंक स्थानमा सादा रेखा चित्र दोरवामां आवेल छ । आवश्यकतानुसार आ प्रतना पाठांतर माटे १९वीं सदी की (B)प्रत नं.८७८५४नो उपयोग कर्यो छे।
___चोवीस तीर्थंकर रास सवैइया लिख्यते ॥ दूहा ॥ सेवी' माता सरसती, वचन विलास विनोद ।। सुगुरु चरण चित लायके, परम हुइ प्रमोद गुणनिधी' गौत्तम स्वामको, एह धुरी अभिधांन । सकल इष्ट दायक सदा, विधसुं ताहि वखांण"
॥२॥ तवै चौवीसे जिनतणो', हाव भाव सुविलास । रचुं सवैइया अधिक रस, सैमुख बुधिप्रकास
॥३।। सवैया २३॥ प्रथमेश जिनेस' तुहारीय सेव करें मिली देव युगादि जिणं, मरुदेवीय मात वनिता नाथ मुगति को साथसु एम भणं । सुवर्णह' वांन नाभीसुत जांन वृषभह लंच्छन तस तणं,12 अतिसयवंत वडे भगवंत नमै हरी तंत' सुख घणं
॥१॥
॥१॥
1. B सरस 2. A सगुरु 3. B पावत परम परमोद 4. B गुणवंत 5. B धूरे 6. B लब्धवंत तृभुवनतिलो निरुपम ताह वखांन 7. A चउवीसै जिनवर चवै 8. B अपनि 9.A जेनेस 10. B जाता वनिता 11. B सुवन 12. B लंछन तास तणं 13. B संतसु
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Septermber-2018
॥२॥
SHRUTSAGAR
॥ श्रीऋषभनाथजी वर्णनं ॥ सवैयौ २४॥ बीजा जीनराय' की मूरत देखी सुरनर किंनर- सोहि मोहै है, अज्योध्या' कै भुप अनुपम रुप' लंच्छन ताह गयंद सोहै है। 'विजयासुत आय भली पर भाय सुताह घरे सुधैय कहै है, भगवत ध्यावै सोइ सुख पावै करहीरं सदा सीस आण वहै है"
॥ श्रीअजितनाथजी वर्णनः(न) श्री सवैया २३ सौ ॥ सकल्ल समीहित पूरणइ छतराय जितारी नंदन है, श्री संभवनाथ ही संभव्यौ दिल्ल मै मोह मिथ्यात निकंदन है।' हयवर लंच्छन सेनाही मायसु तन्न परिमल्ल चंदन है।" 12सो पंचमीगति को दत्त करो जिन तोह करी हरी वंदन है
॥ श्रीसंभवनाथजी वर्णनं ॥ सवेयौ २५ सौ ॥ अभिनंदन वंदन कोडि' सुरासुर आय के पाय करै नृत्य सेई, रसताल कंसालं भव लह जल्लरी भैरन फैरी सुवीण वजैई। धप्पमप्पधम्मप्प ददौं हिं कदौं हिंक मूर्ज मृदंग कि ध्वनि एई, सुरचै हरी नाटिक भरह भेद सै बोलती ध्वनिव ताततथेई
॥ श्रीअभिनंदननाथजी वर्णनं । सवैयौ २३ सौ ॥
॥३॥
॥४॥
सुमति के सद्म" सुमति जिनैशर पतंग ज्यूं तेज अतिह झलकै, आस्य सुध्यानिधि” कांति मुखे भाल मृगमणि मज्झीरम्य चलकै ।
1. B जिनराज, 2. A किनरः 3. B अजोध्या, 4. B सरूपह 5. B जितशत्रु के नंद कुलवर संदर तोहि पूज्यां दूरगति खोहै है, 6. B विजयासुत आय भली परनाय सुताह घरे शुश्रेक होहै है, 7. यह चरण प्रत B में नहीं है, 8. B मिथ्यात्व, 9. यह चरण प्रत B में प्रथम क्रमांक पर है, 10. B सेनसु, 11. यह चरण प्रत B में क्रमांक द्वितीय पर है, 12. B कंचन वनसु तन्न सोहावत राय जीतारी को नंदन हें, 13. B कोड, 14. B जुवीण, 15. B धपमप्पधमप्प दोडि कदौंडिक मूर्ज मृदंग की धुनि, 16. A पद्म 17. B आस्य सु धानधि, 18. B सुखे, 19. B मुगृमणि सझरम्य चल्लकें,
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कांनैय' कुंडल बांह बाजुबंध कौठै' नवलख हार हलकै, याहि विध पूजै ध्यांन धरे हरी ताह घरे लछीलील' भलकै
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॥ श्रीसुमतिनाथजी वर्णनं ॥ सवैयौ २४ सौ ॥
छठा जीनराज को नांम ग्रहौ' प्रानी ताहि कै नांम सै रीध लटै है, त्यां इत ओपद्रव याध ही व्याध ही कष्ट अनैष्ट तै' दर कटै है । सुमति कुं देह कुंमत्ति कुं टालत पाप अजान' सैठै' गहठै है, हरीयंद अखे श्रीपद्मजिनेसर तोहि नम्यां रस रंग रटे है
॥ श्रीपद्मप्रभू (भु) जिन वर्णनं ॥ सवेयौ २४ सौ ॥
सु सुपारस जेम कह्यौ पिण पार न है" कह्यौ जिन कुं, सुदू 'की उपम' एही वरे भ्रम सारथी सार कह्या इनकुं । सबला भवपार तर्या अरू तार कै तारक नांम धर्या तिन कुं, निसदिन पृथीसुतः" ध्यांन रखै हरी तोही कुं छोडि भजै किन कुं
॥ श्रीसुपारसनाथजी वर्णनं । सवेयौ २४ सौ ॥
चंद्रप्रभु चंद्र जेम वपु वर किरत " किलानिधि सुभ विते है, महसेन नरेसर अंगज हो तुम थै फिर उरकुं कौन गिनै है । हथ जोर रहै निसदिन दूयार मै'' सोही तो तोरी ही आस अतै है, याही ज अरज करी हरी नाथजी वंछित कीज अगाज सुने है
॥ श्रीचंद्रप्रभू (भु)जी वर्णनं ॥ सवेयौ २४ सौ ॥
सुविधिश जिनैश की अंगी विराजति अंग थै उप अनुप वरी है, सवी” संत ज्युं“ जाय नमै प्रभु पाय रहै लयलायक भाव'' धरी है ।
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सितम्बर-२०१८
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॥६॥
11611
11211
1. B कानसे, 2. B कोटि, 3. A लछीछील 4. B ग्रह, 5. B अनिष्ट सो, 6. B अग्यान, 7. B सोवे, 8. B पिन पारस नाहि, 9. B ओपम, 10. Bप्रथीसुत, 11. B किर्न, 12. B दोआर में, 13. B सब, 14. A B सबसंतजु, 15. B सुभाव
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॥९॥
SHRUTSAGAR
Septermber-2018 मनमोहन मूरती देखत थै मेरी नैन अमीरस पूर भरी है, कहै' कीरपालसु मेरे गुसांइजी एसी अस्तुत हरी जु करी है
॥ श्री वै। सुवधिनाथजी वर्णनं ॥ सवेयौ २४ सौ ॥ शुभ सुंदर सुरति शीतल की नीरखी हरखी गुण गावत है, इक तार जिनंद को राखी हीयै प्रभु पुरनहार कहावत है। अरू' एक मनै करी ध्यान धरे शिर साहिब आण सुठावत है, इस जी(जि)नराजकी सेव करी हरी संपद रीझसु पाउत है ॥१०॥
॥ इति श्रीशीतलनाथजी वर्णनं ॥ सवेयौ २३ सौ ॥ याही संसार मै सार पदारथ है रत हे रत तोहि कु हेरा, तोहि का ग्यांन पिछांन’ लीया तब टाल दीया भव का अरु फेरा। तु शरणागति नायक लायक साहिब ध्यान थै सुख घनैरा। श्रीय को धांम श्रेयश जिनेशर नाम लीय हरी उठ सवेरा
॥११॥
॥ श्रीश्रेयंसनाथजी वर्णनं ॥ सवेइयो २३ सौ ॥
॥१२॥
लाल ही लाल बन्यौ मेरी साहिब लाल शरीर की क्रांत है नीकीः(की), लोचन लाल गुलाल वीराजीत मांनु विद्रूम्म की छब है फीकी' । श्रीवासपूज्य कै भाल सुसोभित रत्नजडीत है सोवन टीकी, अब कै आतुर होय रही हरी देखन जोत' जिनेसरजी की
॥ श्रीवासुपुज्यजी वर्णनं ॥ सवेयौ २४ सौ ॥ विमल्ल(ल)जिणंद है विमलमूरती कंचन वन सुतभ सुहावै'', स्यामा निज मात सुरंग है गात तसु अंग जात कुं सेवत भावै।
1. B कथ है, 2. B अस्तूत, 3. A शुभ 4. B प्रभु, 5. B ईमडी, 6. B रीझ सो पावत, 7. B पिचान, 8. B श्रेय को, 9. A वीकी 10. B ज्योति, 11. B सोहावे, 12. B श्यामा
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सितम्बर-२०१८ कृतवर्मा नंद आनंद को कंद अपच्छर वृंदं मिली गुण गावें', वर्दै हरी एम सेवो एम जिन जेम सहज मै सिध वधु घर आवै ॥१३॥
॥ श्रीविमलनाथजी वर्णनं । सवेयौ २४ ॥ अनंतरुप अलख अगोचर तोहि का भाषित भेद जीने', जिनै भव भेद की वास लही मांनु जेम लीयै चचरी कन लीनै । तौही का नाम की गवर' मै रंग राग मै रहते सदा रस भिनै । कहै हरी एम अनंत जिनेसर अनंत ही तेरे ग्यांन खजीनै
॥ श्रीअनंतनाथजी वर्णनं ॥ सवेइयो २३ सौ॥ ध्रम को दाता ही धरम जिनेशर धर्म को मारग सोही वतायो, लखचोरासी जीव की जोन' मै भ्रमत भ्रमत भ्रम मिटायो॥ धर्म' जिणंद की सेउ गहै भवी:' ध्रम प्रभाव थै सुख सवायौ ॥ पूरव पून्य थै भाग्य जग्यो हरी धर्म जिनेसर के पद पाया
॥ श्रीधर्मनाथजी वर्णनं ॥ सवेयौ ३२ सौ ॥
॥१४॥
॥१५॥
तोही सै लय लागी अब मेरी भव भ्रांत भागी सयल प्रभु शांतिजी शांति वरताइ है, अचिरा के नंद सुखकंद वंद मुखचंद ज्यौति जिलमील झिलती सूर थे सवाइ है। सकल इंद नागेंद नमे पाय आय सब चरण कै शरण रहै। सदा सुखदाई है, शौलमा श्रीशांति जिन तहारी सेव सेती वदत हरीयंद मै रीधसिधः भरपाइ है।।१६।।
॥ श्रीशांतिनाथजी वर्णनं । सवेया २४ सौ ॥ श्रीकुंथुजिनेसर हे अलवेसर इश्वर तीन जगत मै मोटे, तुं पुन्य पडूर गुणे' भरपूर ते जै करी सूर है सूर कै धौटे।
1. यह चरण प्रत A में नहीं है. 2. A वहै, 3. B अनंतअरुप, 4. B झीने, 5. B भवी, 6. B चंचरी, 7. B की गद्वार, 8. Aकी 9. B लख्यचोरासीय जीउ की योन, 10. B ध्रम्म, 11. B जिनंद के पाउ गहै भवी, 12. B शरन गहे, 13. B सोलमा, 14. B गुने
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॥१८॥
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Septermber-2018 श्रीदेवीय नंदन वंदन थे फिर आवत नां कब ही घर तौटै॥ मिटै दुख दूर हरी जस पूर सौ सुख कु लेवत पोटे ही पौटै
॥१७॥ ॥ श्रीकुंथनाथजी वर्णनं ॥ सवेयौ २५ सौ ॥ अरदास सुणो अरनाथ जिनेशर औ ब्रह्म मूढ अजांण फर्यो है, भव कानन झंगी मे खूच रह्यौ जीऊ जायः(य) निगोद के धाम पर्यो है। फिर हु पुन्यराशि को योगे करी नर देह लही ध्रम सार वर्यो है, अपनै कुल रीत होवै जु करी हरी या विध ते परणाम कर्यो है
॥ श्रीअरनाथजी वर्णनं ॥ सवेयौ २३ सौ ॥ मल्लिजिणंद मीले परतिख्य कै उज्जल त्रिण ही रत्न दीयो है, तिण की सेव करे नितमेव युं सार संसार मै जान लीयो है। रत्न कुं यत्न करी सोही पालत जण अविचल राज कीया है। यो पंथ दील मे धार नीजै हरी पाउत जन्म ने फेर जीया है
॥ श्रीमल्लीनाथजी वर्णनं ॥ सवेयो २४ सौ ॥ श्रीमुनिसुव्रतनाथ कुं कागद भेजत पंथी नही इसो सो तिहां जांही, सिद्धपुरी इयांथी दूर भई दसवाही आराति कुं जानत नाही। संदेसु की रीत अरित भई फूनी आवत जावत नांही गुसांई, कहत हरी निज ग्यांन सै जानि ज्यौ वंदत है हम नित” इहांई
॥ श्रीमुनिसुव्रतनाथजी वर्णनं ॥ सवेईयौ २४ सौ ॥ नमै नमी पाय सुरनर आय जसै गुण गाय भेद के जोरे, प्रभु पद ध्यायः सदा सुख थाय सुभावना भाय कुंगति कुं मोरें। भगे भडवाय दूर दूख जाय लछि घर आय रहै हथ जोरे, श्री नमीजिणंद के पाऊ ग्रहै हरी ताह घरे गज पायक' घोरे
॥१९॥
॥२०॥
॥२१॥
1. B टोटे, 2. A फेर्यो 3. B विध से, 4. B जत्न, 5. Aकया 6. A उं पंथ 7. B लीजे, 8. B पंथी कउ नही जांही, 9. A निभ 10. Bध्याय, 11. B गहैं, 12. B पायके
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॥ श्रीनमीनाथजी वर्णनं ॥ सवेयौ २३ सौ ॥
यादववंश को अंश कहावत नेम नीरंजन' नेम जुधारी ॥ श्री उग्रसेनसुता सय सोड दयी' पशु बांनी सुनी त' करारी ॥ तोरणथे रथ फेर दीये परयाण' कीए गीरनार दिसारी ॥ सहूं के आय नमै हरी पाय शीवादेवी माय जयांणदकारि ॥ श्रीनेमनाथजी वर्णनं ॥ सवेयौ २६ ॥ वामा कै नंदन पाप ही निकंदन चंदन ही शीतल मन भायौ है झिगमिंग मूगट वदन छंद छब क्रांति आगें सूरज ही हरायौ है। कमठ शठ हठ करत दूर नाग युगल' धरेणे (णें) द्र' पद पायौ है। एसै जिनराज सुख काज वद आनंद हरी हर्षधर गुण गायौ है ॥ श्रीपार्श्वनाथजी वर्णनं । सवेयौ २३ सौ श्रीमहावीर वीरां सीरo वीर तपै करी धीर ज्युं मेरू गिरंदो || कंचन काय हरी छिन पाय सिद्धारथ राय अखे कुलचंदो || त्रीसला’ माय तणा सुत पाय भवीजन आय सदा वर वदो । एम हरी वरनै " जिनसासन वीर को भ्रम सदा चिरनंदो "
||
10
॥ श्रीमहावीरजिन वर्णनं ॥ सवेइयौ २४ सौ ॥
सितम्बर-२०१८
3
वर्ष चउदस संवत अढारमैः भाद्रवा सूद चोथ सवाया ।। नयर नाडुल'2 मै स्तुत करी चतुर्विंसती " ईश्वर के गुण गाया ॥ पंडित जैणे(णें)द्रसागर अकै शिष्य आगम सागर प्राज्ञ कहा तास भणे'4 हरीसागर आखित संपद सुख वीलास पद पाया'' ॥ इति श्रीचोवीस जीनरा चउवीस सवैईया संपूर्ण ॥
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॥२२॥
॥२३॥
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॥२५॥
1. B निरंजन, 2. B चोर दई, 3. A श्री उग्रसेनसुता सय सोड दयी पशु सांती सुनी टकरारी, B श्री उग्रसेनसुता सद्य चोर दई पसु बांनी सुनि तकरारी, 4. A परीनांण 5. B दसारी, 6. B जुगल, 7. B धरणेंद, 8. B शिर, 9. B त्रिसल्ला, 10. B वरते 11. B चिरवंदो, 12. B नाडोल, 13. A चतुर्विसती, 14. B तणो, 15. B सुख सुयश कुं पाया,
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वाचकवर्य श्री नयरंग विरचित
गौतम पृच्छा संधि
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Septermber-2018
आर्य मेहुलप्रभसागरजी
गणधर भगवंत श्री गौतमस्वामी से कौन परिचित नहीं! जो अपनी गृहस्थावस्था में वेद, पुराण, उपनिषद आदि शास्त्रों के प्रकांड विद्वान थे। जिन्होंने परमात्मा महावीर के पास वैशाख शुक्ला एकादशी के पावन दिन अपनी दीर्घकाल संचित शंका का समाधान प्राप्तकर शिष्यत्व - श्रमणत्व के साथ गणधर पद शोभायमान किया ।
गणधरत्व प्राप्त होते ही किं तत्तं पूछकर अपनी जिज्ञासाओं के समाधानों को स्व-पर के उपकार के लिए प्रकट किया । जिन्हें समुपस्थित पर्षदाओं ने श्रवणकर कर्ण-कुहरों के साथ आत्म-पावन करते हुए अनेक जीवात्माओं ने व्रतादि अंगीकार किये।
जिज्ञासा करना भी विशिष्ट गुण है । जिज्ञासा से तत्त्व की महत्वपूर्ण बातों के पूर्ण ज्ञान के साथ अपरिचित नूतन चर्चा भी हृदयगोचर होती है । जिज्ञासा को विनयपूर्वक अभिव्यक्त कर समाधान प्राप्त करने में गुरु गौतमस्वामी का नाम मुखर रूप से लिया
जाता है ।
उपदेशमाला ग्रंथ की छठी गाथा में विनीत शिष्य की पहचान बतलाते हुए गौतमस्वामीजी का उदाहरण भी इसी तथ्य को प्रकट करता है
भद्दो विणीयविणओ पढमगणहरो समत्तसुयनाणी । जाणंतो वि तमत्थं विम्हियहिययो सुणइ सव्वं ॥६॥
सब
भद्र अर्थात् कल्याण और सुखवाले, कर्म जिससे दूर हो वह विनय, विशेष प्रकार से प्राप्त है विनय जिनको, ऐसे वर्धमानस्वामी के प्रथम शिष्य श्रुतकेवली गौतमस्वामी हु भी अन्य समग्र लोगों को प्रतिबोध करने के लिए प्रश्न पूछते थे और भगवंत जब प्रत्युत्तर प्रदान करते तब विस्मयपूर्वक रोमांचित, प्रफुल्लित नेत्र व मुख की प्रसन्नतापूर्वक प्रत्युत्तर को श्रवण करते थे । उसी तरह विनीत शिष्य को बाह्यअभ्यंतर भक्ति से गुरु के कहे हुए अर्थों को श्रवण करना चाहिए।
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ऐसा कहा जाता है कि गौतमस्वामी के मन में जब भी कोई जिज्ञासा उत्पन्न होती, तब वे अनुभव ज्ञान अथवा विशिष्ट ज्ञान के स्थान पर नम्रातिनम्र बनकर वीरप्रभु से समाधान प्राप्त करते ।
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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१८ आगमों में स्थान-स्थान पर “भंते!” और “गोयम!” पद इसी का द्योतक है। और यही पद्धति कठिन विषयों को समझने के लिए अतिप्रसिद्ध हुई।
भगवतीसूत्र आदि शास्त्रों में उल्लिखित छत्तीस हजार से अधिक प्रश्न इसके जीवंत उदाहरण सुविदित हैं।
प्राकृत भाषा में रचित अज्ञातकर्तृक गौतमपृच्छा पर अनेक टीका, स्तबक आदि उपलब्ध होते हैं। जिनसे गौतमपृच्छा की उपादेयता का सहज अनुमान होता है।
प्रस्तुत गौतमपृच्छा संधि भी इसी जिज्ञासा-समाधान पर आधारित है। विभिन्न प्रकार के ४८ प्रश्नों को प्रकटकर परमात्मा महावीर से प्राप्त समाधानों को काव्यात्मक रूप देते हुए वर्णन किया गया है।
जिज्ञासा-समाधानों को संक्षेप में काव्यात्मक रूप देना दुष्कर कार्य है। वाचकवर्य नयरंगजी महाराज ने अपनी शैली में इस प्रकार का गुंफन कर श्रमसाध्य कार्य किया है। इसमें दोहा छंद का प्रयोग हुआ है ।
जैन मारुगुर्जर कवियो में प्रस्तुत रचना का निर्माण संवत् इस प्रकार दिया है सं.१६१(७?)३ वै.व.१० सिंधुदेशे शीतपुरे। अर्थात् सिंधुदेश (वर्तमान पाकिस्तान) के शीतपुर गांव में विक्रमादित्य के राज्याभिषेक के पश्चात् १६१३ या १६१७ वर्ष की वैशाख कृष्णा दशमी के दिन प्रस्तुत रचना की गई।
हस्तप्रत में कुछ स्थानों पर छंदानुसार पंक्ति का सामंजस्य करते हुए छन्द संख्या दी गई है। प्रस्तुत संपादन में अविकल छंद संख्या दी गई है। ___यद्यपि खरतरगच्छ साहित्य कोश, जैनगुर्जर कविओ और आदर्श प्रति में गौतमपृच्छा अथवा गौतमपृच्छा भाषा दोहा लिखकर कृति का परिचय दिया गया है, परन्त आचार्य कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर कोबा गांधीनगर की प्रति क्रमांक १७६१ के अंत में गौतमपृच्छा संधि बतलाया है।
संस्कृत के महाकाव्य सर्गों में, प्राकृत के महाकाव्य आश्वासों में, अपभ्रंश के महाकाव्य संधियों में और मारुगुर्जर के महाकाव्य अवस्कंधों में विभक्त होते हैं। परवर्ती कवियों ने अनेक संधि वाले खंडकाव्यों को संधि काव्य नाम दिया है। कृति का नामाभिधान तदनुसार किया गया है।
गौतमपृच्छा आधारित काव्यात्मक कृतियाँ निम्नलिखित उपलब्ध होती हैं
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SHRUTSAGAR
Septermber-2018 गौतमपृच्छा चौपाई साधुहंस
१५ वीं शताब्दी गौतमपृच्छा चौपाई लावण्यसमय १५४५ गौतमपृच्छा स्तवन
ऋषभदास
१६७८ गौतमपृच्छा चौपई समयसुन्दरोपाध्याय १६९५ गौतमपृच्छा स्तवन श्रीसारोपाध्याय १६९९ गौतमपृच्छा
नंदलाल
१८९० गौतमपृच्छा सज्झाय रूपविजय १८वीं शताब्दी
सोभचंद ऋषि एवं कतिपय अज्ञातकर्तृक भी प्राप्त होते हैं। कर्ता परिचय
जैसलमेर दुर्ग में विश्व विरासत समान ज्ञानभंडार की स्थापना करने वाले श्रुतसंरक्षक खरतरगच्छाचार्य श्री जिनभद्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य श्री जिनचंद्रसूरीश्वरजी महाराज की शिष्य परंपरा में समयध्वजजी महाराज - ज्ञानमंदिरजी महाराज - गुणशेखरजी महाराज - नयरंगजी महाराज हुए। ____वाचक नयरङ्गजी महाराज प्राकृत, संस्कृत और मरुगुर्जर भाषाओं के ज्ञाता थे
और इन भाषाओं में आपने रचनाएँ की हैं। प्राकृत भाषा में विधि कन्दली प्रकरण की रचना की और सं० १६२५ में स्वयं ने उसकी संस्कृत में वृत्ति वीरमपुर में लिखी। आपने सं० १६२४ में संस्कृत भाषा की रचना परमहंस संबोध चरित्र वीतमयुर नगर में रची। मारुगुर्जर में आपकी निम्न रचनाएँ प्राप्त होती हैं
प्रस्तुत गौतमपृच्छा संधि के अतिरिक्त मुनिपति चौपइ सं० १६१५, सतरभेदी पूजा सं० १६१८, अर्जुनमाली संधि सं० १६२१, कुबेरदत्त कुबेरदत्ता चौपइ सं० १६२१, केशी-प्रदेशी सन्धि, गौतमस्वामी छन्द, गुर्वावली, हुण्डिका १२५बोल लुकोपरि सं० १६१५, हुण्डिका ८४बोल तकराणामुपरि सं० १६१५, जिनप्रतिमा छत्तीसी, चौबीसी स्तवन एवं स्फुट लघुकाव्य आदि।
आपकी शिष्य परंपरा ने भी पूर्व गुरुओं की परंपरा का अनुसरण करते हुए साहित्य-सेवा का क्रम जारी रखा, जो उल्लेखनीय है
आपके शिष्य विमलविनयजी महाराज के द्वारा रचित अनाथी मुनि संधि, शांतिनाथ विनंती स्तवन, चिंतामणि पार्श्वनाथ स्तवन, जिनकुशलसूरि गीत, अरहन्नक चौढालिया, गजसुकुमाल गीत आदि प्राप्त होते हैं। इनके शिष्य मुनि राजसिंहजी महाराज हुए,
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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१८ जिनके द्वारा रचित विद्याविलास रास और आरामशोभा चौपाई प्राप्त है। इनकी विद्वत् शिष्य परंपरा में धर्ममंदिरजी महाराज, पुण्यकलशजी महाराज, जयरंगजी महाराज, तिलकचंदजी महाराज आदि अनेक विद्वानों की कृतियाँ उपलब्ध होती हैं। प्रति परिचय
खरतरगच्छ साहित्य कोश में यह कृति क्रमांक ६०३ पर उल्लिखित है।
अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में संरक्षित प्राचीन प्रतियों के संग्रह में प्रस्तुत कृति गोटका संख्या ३३३ की पृष्ठसंख्या ३८७ से ३९० पर लिखी हुई है। जिनमें प्रति पृष्ठ पन्द्रह पंक्तियाँ हैं और प्रायः तीस अक्षर प्रति पंक्ति में लिखे गये हैं। प्रत्येक पंक्ति की समाप्ति पर रक्तवर्णीय मषी से दंड किया गया है। मध्य में रक्तवर्णीय गोल दीर्घबिन्दु सहित वापिका स्वरूप स्थान सुशोभित है। गोटका की पुष्पिका इस प्रकार है- 'लिखिता पं. खेमहर्षमुनिना ॥ छाजहड गोत्रीय साह श्री सामीदासजी पठनार्थम् ॥श्रीः ॥छः ॥श्रीः ॥'
प्रतिलेखक पंडित श्री क्षेमहर्षजी महाराज स्वयं भी विद्वान थे। आपखरतरगच्छीय सागरचन्द्र शाखान्तर्गत विशालकीर्तिजी महाराज के शिष्य थे। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर श्री क्षेमहर्षजी महाराज के द्वारा रचित कृतियाँ उपलब्ध होती हैं । यथा
चन्दनमलयगिरि चौपई वि. १७०४ मरोट, जिनकुशलसूरि अष्टक स्तोत्र संस्कृत, पुण्यपाल श्रेष्ठि चौपई वि. १७०४, फलौदी पार्श्वजिन बृहत्स्तवन गाथा ७४ सहित स्फुट रचनाएँ।
संपादन हेतु अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर का गोटका संख्या ३३३ का उपयोग किया गया है. पाठांतर हेतु आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर कोबा गांधीनगर की प्रति क्रमांक १७६१ का उपयोग किया गया है। वि.सं. १६८५ की इस प्राचीन प्रति में अनेक स्थानों पर पाठभेद नजर आते हैं। उपयोगी पाठों को रखते हुए शेष पाठों को देवनागरी अंकों के साथ पाठांतर में दिया गया है। प्रारम्भ की 9 गाथाओं में 1 से 48 तक प्रश्नांक दिए हैं। प्रति की प्रशस्ति इस प्रकार है
इति गौतमपृच्छा संधिः ॥ श्रीरस्तु॥ |संवत् १६८५ वर्षे फागुण सुदि ९ दिने रविवारे श्रीमरुस्थली देसे श्री महाजन नगरे श्री खरतरगच्छे वाचनाचार्य श्री विजयमंदिर गणिवराणां शिष्य सौभाग्यमेरुगणिना लिखितमिदं ॥ शिष्य ईसरकृते॥
प्रति के अंत में लेखक ने अपनी लघुता को प्रकट करते हुए विनम्रतापूर्वक लिखा है
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॥१॥
SHRUTSAGAR
Septermber-2018 अज्ञानभावान्मतिविभ्रमाद्वा, यदर्थहीनं लिखितं मयात्र॥ तत्सर्वमार्यैः परिशोधनीयं, कोपं न कुर्यात्खलु लेखकस्य ॥१॥ हस्तप्रति की प्रतिलिपि उपलब्ध करवाने हेतु आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर कोबा के संचालक गण और अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर के संचालक श्री विजयचंदजी नाहटा एवं श्री रिषभजी नाहटा को साधुवाद।
वाचकवर्य श्री नयरंग विरचित गौतम पृच्छासंधि
ढाल १(सिंधिनी) वीर जिणंद तणा पय वंदि, त्रिकरण शुद्धि करी आणंद । धर्म अधर्म तणउ फल जाणि, श्री गौतम पूछइ सुप्रमाण किणि करमइ जीव नरकइ जाइ', तेहिज जीव अमर किम थाई। तिरिय तणी गति किणपरि लहइ, माणसपणउ किसइ संग्रहइ' ॥२॥ नर नई नारि नपुंसक तेम, अलप दीरघ आऊखउ केम। भोगरहित किम भोगी होइ', सुभग दुभग किणपरि जीव सोइ किम मेधावी किम दुरमती, पंडित नइ मूरिख” किण गती। किणपरि धीर' वहइ किम भीर, 19, विद्या निफल सफल किम वीर मिलइ लिषमी नासइ घर आइ, किम ते वाधइ निश्चल थाइ। किसइ करम सुत जीवइ नहीं, बहु बेटा किम बधिरउ सही किम जाचंध” जिम्यउ नवि जरइ8, कोढ़ी किम कूबड अणुसरइ। दासपणउ जीव पामइ किसई', निरधन सधन हुवइ किणि वसइ रोगी रोगरहित किम सदा, हीण अंग मूक, 37 एकदा। किसइ करम टूटउ8 पंगुपणउ”, केम सरूप कुरूपी' भणउ किम जीव वेयण सहइ असात', वेयण रहित किसइ विख्यात । किसइ करम पंचेंद्री जोइ", एकेंद्री किण करि७,45 ते होइ निश्चल किणकरि हवइ संसार, तसु संषेपइ किसइ47 विचार । किण करमइ भवजल निधि तरी, जीव लहइ सासय सिवपुरी १. माणुसपणउ, २. किणिकरि, ३. किणि, ४. किणिपरि भीर हवइ किम धीर, ५. होइ किम (अभयप्रतौ), ६. मूंक, ७. किणिपरि, ८. कहउ, ९. सुविचार,
॥३॥
||४||
॥५॥
॥६॥
॥७॥
॥८॥
॥९॥
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श्रुतसागर
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जग-जीवबंधव त्रिभुवन राय, भगवन भाषउ करिय पसाय । किणि किणि करम तणा" फल एह, भांजउ" सामी सयल संदेह
सितम्बर-२०१८
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॥१०॥
ढाल २
(गउडी माहे, बालुडा नी)
१८
इम पूछ्यउ भगवंत, वीर जिणेसर, मधुर वाणि एहवउ कहइ ए । सुणि गोयम विरतंत, ए जीव एकलउ, पुण्य पाप ना फल लहइ ए सेवइ आश्रव घोर, निंदक साधुनउ, च्यारि कषाय जिको करइ ए । कृतघन चित्त कठोर, आल पलापीय, पिसुन ते नरकइ अवतरइ ए तप संजम सुपवित्त, दान परायण, सहज सरल करुणानिलउ १५ ए । श्री गुरुवयण सरत्त, ते जीव मरि करि, देवलोक थाइ सुर भलउ ए आंपण काजइ प्रीति, मंडइ मित्र सुं", काज सर्यइ" विहडइ सही ए । जाणइ १९ कूडइ चित्त, परजीव वंचक, थाइ तिरिय संसय नहीं ए सरल चित्त सुकमाल, क्रोध रहित नित, न्याई दानइ आगलउ ए । साधु गुणे सुविसाल, रागी जीवडउ, ते हुइ माणस निरमलउ ए संतोषिण सुविनीत, सरल सोहागणि, सीलादिक गुणधारिणी ए । नारि जे जगहि वदीत, साच चवइ मुखी, पुरुष पणइ अवतारिणी ए जे नर चवइ" सदंभ, कूड कपट करि, वंचइ परिजन ” आंपणउ ए । नहीय वेसास सुलंभ, जेहनउ ते परिभवि, मरिय लहइ" महिलापणउ ए ॥१७॥ जे लंछइ वृष आस, बलद तणा वलि, वींधइ नाक विविध परइ ए । ते नर अतहि निरास, मरिय नपुंसक, थई संसारइ संसरइ ए निरदय मारइ जीव, न गिणइ जे परभव, दुष्ट चित्त जगि जाणिवउ ए । ते जीव मरिय सदीव, अलप आऊखउ, ऊपजिस्यइ मनि आंणिवउ ए राखइ जीव अनेक, करुणासागर, अभयदान २५ दायक हवइ६ ए। गिणियइ जे सुविवेक, ते नर भोगवइ, दीरघ आऊखउ चिर लगइ ए
१
॥११॥
॥१२॥
॥१३॥
112811
॥१५॥
॥१६॥
॥१८॥
॥१९॥
112011
१०. भवियण (अभयप्रतौ), ११. तला (अभयप्रतौ), १२. भंजउ, १३. सुहपत्त, १४. सहजि, १५. करणिनिलउ, १६. सुं रत्त, १७. सिउं, १८. सर्या, १९. 'ति' (अभयप्रतौ), २०. चपल, २१. परियण, २२. 'ते' अभयप्रतौ नास्ति, २३. लहिस्यइ, २४. 'जे' अभयप्रतौ नास्ति, २५. अन्नदान, २६. जगइ
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॥२३॥
॥२४॥
॥२५॥
SHRUTSAGAR
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Septermber-2018 आपणपइ नवि देय, वारइ पर भणी, दीधइ पछतावउ करइ ए। एहवउ जे करम करेइ, भोगरहित गिणि, ते जीव भवमांहि संचरइ ए ॥२१॥ सयणासण आहार, प्रासुक पाणीय, साधु भणी भावइ दीयइ ए। ते नर भोग उदार, पामइ गोयम, एह अरथ आणइ हीयइ ए
॥२२॥ देव सुगुरु अणगार, विणय परायण, संत दंत मूरति हवइ ए। मधुरउ मुखि सुविचार, ते नर उत्तम, सोभागी हुइ परभवइ ए निरगुण करइ२ अहंकार, तपसीनंदक, सासण करइ विडंबणा ए। जे जीव रागी अपार२२, कालइ ते नर, पामई दुख दोहग घणा ए भणइ गुणइ२३ सविसेस, अरथ धरइ मनि, भगति करइ गुरुजन तणी ए। सूधउ द्यइ उपदेस, जाण भवंतरि, बुद्धि वाधइ तेहनी घणी ए नाणवंत गुणपुन्न, साधु चरणधर, तेहनी जे हीला करइ ए। ते जीव मरिय अधन्न, मेधावरजित, घोर संसारइ संचरइ ए
॥२६॥ सेवा सारइ जेह, गिरुया" गुरु तणी, पुण्य पाप जाणइ सहू ए। देव गुरु श्रुत ससनेह, ते नर पंडित हुइ२६, परभव सुख लहइ बहू ए ॥२७॥ खाजइ पीजइ सार, मारि न पातक, धरम किसउ हुस्यइ भलउ ए। भणियइ कुण उपगार, इम जे चीतवइ, ते मरिनइ हुइ काहलउ ए कूकड़ तीतर लाव, सस मृग सूयर, धारी वध बंधन करइ ए। ते जीव दुट्ठ सहाव, भीरु भवंतरी, सयल काल दुखियउ फिरइ ए सर्व जीवनइ त्रास, न करइ जे नर, तेम करावइ पणि नही ए। परनइ पीड पणास, करइ निरंतर, ते जगि धीर हुवइ सही ए
ढाल३ (राग देशावरी, तुंगीया गिरि शिखर सोहै एहनी) विनय कुडउ करीय वंचइ, नाण अनइ विन्नाण२ रे । गुरु भणी अवगणइ जे नर, विद्या तसु५ अप्रमाण रे
॥३१॥
॥२८॥
॥ २९॥
॥३०॥
२७. 'जे' अभयप्रतौ नास्ति, २८. गुरु श्रुत (अभयप्रतौ), २९. हुवइ, ३०. करिय, ३१. तपसीनिंदक, ३२. राग उदार (अभयप्रतौ), ३३. सुणइ (अभयप्रतौ), ३४. वधइ (अभयप्रतौ), ३५. गुरुजण, ३६. 'हुइ’ कोबा प्रतौ नास्ति, ३७. परभवि लहइ सुख, ३८. हवइ, ३९. तपगार, ४०. विकरइ, ४१.वंछइ, ४२. विनाण, ४३. अवगिणइ, ४४. विज्जां, ४५. तासुं,
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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१८ वीर वाणी चित्त६ आणी, जाणि सुधा समाणि रे। गुरु वखाणी भविक प्राणी, चेति चतुर सुजाण रे आंकणी।। वीर०॥३२॥ गुरु प्रतइ बहुमान आपइ, विनय गुण अवगाह रे। इसीपरि विद्या भणंतां, सफल होइ जगि मांहि रे
वीर०॥३३॥ दान देई चित्त चिंतइ दीयउ मइ कोइ? आल रे। तेहनइ घरि थई लिखमी, जाइ थोडइ काल२ रे
वीर०॥३४॥ यथासगतइ घणी भगतइ'३, दीयइ दिवरावई दान रे। तेहनइ घरि घणी कमला, मिलइ अतहि प्रधान रे
वीर०॥३५॥ आपणइ चित्तइ गमइ जे नर ५, साधुनइ द्यइ भावि रे। दीयइ पछतावउ६ आणइ, रिद्धि तसु थिर ना थाइरे वीर०॥३६॥ तिरिय पंखी माणसा“ ना, करइ बाल वियोग रे। तेहनइ संतान न हुवइ, हूया मरइ सरोग रे
वीर०॥३७॥ सर्व जीवह कृपासागर, तेहनई बहु पुत्त रे। अणसुण्यउ जे भणई'२ सुणीयउ, बधिर ते सुविगुत्तरे वीर०॥३८॥ जे अदीठउ कहइ दीठउ, मनि करइ निरबंध रे। चंड६५ करमविपाक कालई, ते हुवइ जाचंध रे
वीर०॥३९॥ जाणतउ मनि अति असुंदर, भात पान ७ असार ८ रे। ते साधुनइ जे दीयइ नर, जरइ नही आहार रे वीर०॥४०॥ जीव अंकइ वन प्रजालइ, जे हणइ७३ वणराय रे। मधु पडावइ आंप पाडइ, मरि ते कोढी थाइरे
वीर०॥४१॥ ढाल ४ (छाहुलीनी) बलद महिष ऊंट ऊपरइ, अतिभारारोपण करइ। इणि परइ, ते ६ जीव मरि हुइ कूबडउ ए॥ ४६. चित्ति, ४७. प्रतिइं, ४८. अविगाहि, ४९. हुवइ, ५०. चित्ति, ५१. कांइ, ५२. ततकाल, ५३. थइ थुइ सकति घणीय भगतिइं, ५४. दीवारइ (अभयप्रतौ), ५५. जे, ५६. ‘पछतावउ न’ अभयप्रतौ विद्यते, ५७. 'ना' अभयप्रतौ नास्ति, ५८. माणुसां, ५९. विजोग, ६०. मरि मरि जाइ (अभयप्रतौ), ६१. हवइ ते, ६२. कहइ, ६३. सविगुत्त, ६४. मुनि, ६५. जेम (अभयप्रतौ), ६६. लेइ, ६७. पाणी, ६८. आसी, ६९. ‘ते’ अभयप्रतौ नास्ति, ७०. 'नर' (अभयप्रतौ), ७१. तसु नर (अभयप्रतौ), ७२. तसु जरइ (कोबा प्रतौ), ७३. हनइ (अभयप्रतौ), ७४. नइ (अभयप्रतौ), ७५. एणि, ७६. ‘ते’ कोबाप्रतौ नास्ति,
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॥४२॥
॥४३॥
॥४४॥
॥४५॥
SHRUTSAGAR
Septermber-2018 जाति मदइ अहंकारीय, वेचइ जीव वधारीय। हारीय, जनम हुवइ ते दासडउरे दान विनय गुणवरजित, त्रिविध दोष मदगरजित । तरजित, ते जीव मरि दलिद्री हुवइ ए॥ विनयवंत वलि त्यागीय, चरण गुणे वइरागीय । सोहागीय, ते हुवइ धनवंत परभवइ ए घात करइ वेसासीय, पाप सहू अप्रकासीय । हुसीय, अन्नजनम २ ते ३ रोगीयउ ए । वेसासी प्रतिपालइ ए, पाप ठाण सवि टालइ ए। कालइ ए, रोगरहित ५ ते भोगीयउ ए कला करइ लघु लाघवी, लोक मुसइ परि नवनवी। परभवी, अंगहीण ते ऊपजइ ए । सीलवंत मुणि गुणनिधि, तेहनइ निंदइ निर्बुद्धि । इणिविधि, मूंकइ ते परभव संपजइ ए छेदइ पंख विहंग तणी, लोभ वसई१२ क्रिडा भणी। परि घणी, ढूंटउ थाइ ते मरि करी ए॥ चउपद द्रुपद घणुं खडइ, मरमि३ हणी जे भडभडइ। ते जुडइ, पंगुपणइ जीव अवतरी ए
॥४६॥ सरल सभावि धरम करइ, सयल जीव करुणा धरइ। देव गुरु, भगतउ५ रूप मयण हवइ ए। कुटिल सभावई ६ जे जुत्तउ, परजीवह दरसण रत्तउ। तेहत्तउ, मरिनइ कुरूपी संभवइ ए जंत्रक सादंड१०° रासड़ी, कुंत खग्ग०१ वेयण वडी। तडफडी, करइ ते मरि लहइ छेदना ए॥ ७७. जोग, ७८. दरिद्री, ७९. श्रवण, ८०. सोहागीय (अभयप्रतौ), ८१. वइरागीय (अभयप्रतौ), ८२. अन्यजनमि. ८३. 'ति' (अभयप्रतौ). ८४. वयण. ८५. भोगरहित (अभयप्रतौ). ८६. नंदइ (अभयप्रतौ), ८७. निरविधि (अभयप्रतौ), ८८. 'इणिविधि’ अभयप्रतौ नास्ति, ८९. संभवइ (अभयप्रतौ), ९०. पंखि (अभयप्रतौ), ९१. लोक (अभयप्रतौ), ९२. मुसइ (अभयप्रतौ), ९३. मरण (अभयप्रतौ), ९४. परि, ९५. भत्तउ, ९६.सुभावइ, ९७. जि, ९८. परजीवि, ९९. सरणइ (अभयप्रतौ),१००.साडग (अभयप्रतौ),१०१. खडग,
॥४७||
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श्रुतसागर
वेयण पडिया जे जीव हवइ १०२, मरण बंधण थी छोडावइ ।
वेदनाए
नहु हवइ, परभव तसु दुख
दूहा
मोह असात अन्नाण भय, उदय अलप जसु होइ । काल करी ते ऊपजइ, पंचेंदी सुभलोइ
मोह उदय१०३ जेहनइ घणो १०४, भय अन्नाण असात । पंचेंदी पणि मरि करिय, एकेंद्री गति पात १०५
धरम नही जीव जग नही ०६, नही परभव अणगार । इम जाणइ मूढ मति१०७, तेहनइ थिर संसार
पुण्य पाप बे१०८ जगि अछइ, जिणि छइ मुनि सुविचार । जेहनइ मनि छइ एहवउ, ते १०९९ 'रुलइ संसार
निरमल न्यान चारितधर, समकित सार सरीर । भवसायर दुत्तर तरी, पहुचइ सिवपुर धीर इंद्रभूति जे पूछीयउ, धरम अधरम विशेष । श्रीमुखि भाषइ वीरजिण, तासु विचार विशेष
गौतम पृच्छा एहवी, प्रश्नोत्तर अडयाल । भवियण भावइ संभलउ१११, श्रवणि सुधा सुविसाल
भणइ गुणइ जे भावधरि, तिहां घरि रंग अभंगि। मनवंछित सेहला११२ फलइ, इम पभणइ नयरंग
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सितम्बर-२०१८
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॥४८॥
॥४९॥
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॥५१॥
॥५२॥
॥५३॥
114811
॥५५॥
॥५६॥
इति श्री गौतम पृच्छा समाप्ता लिखिता पं. षे (खे) महर्षमुनिना छाजहड गोत्रीय साह श्री सामीदासजी पठनार्थम् ॥ श्रीः॥छः॥ श्रीः ॥
१०२. जीवावइ, १०३. उदय हुइ (अभयप्रतौ), १०४. 'घणो' अभयप्रतौ नास्ति, १०५. पाल (अभयप्रतौ), १०६. नही जगि, १०७. मन, १०८. बेउं, १०९. नर (अभयप्रतौ), ११०. चरित्तधर, १११. सांभलउ, ११२. सोहिला.
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Septermber-2018
बीकानेरनी 'उस्ता' चित्र शैली
गणि श्री सुयशचंद्र विजयजी भारतना शिल्प-स्थापत्य अने चित्रकळाना विकासमां राजस्थाननो बहु मोटो फाळो छे. राजस्थानी चित्रकारोए पोतानी आगवी चित्रशैलीओ द्वारा पोतानी स्वतंत्र
ओळख उभी करी छे. विशिष्ट देहाकृति, आकर्षक वेशभूषा, नयनाभिराम रंगविन्यास तेमज तदनुरूप आभूषणादिना चित्रण द्वारा ते चित्रकारोए जाणे-अजाणे पण पोतानी प्रांतिय संस्कृति, परिवहन कर्यु होय तेवू ते चित्रोमां अनुभवी शकाय छे. जोधपुरी, जयपुरी, मेवाडी, बुंदी, कोटा, नाथद्वारी विगेरे चित्रशैलीओनी जेम बीकानेरनी पण 'उस्ता' नामे ओळखाती एक विशिष्ट चित्रशैली छे. प्रस्तुत लेखमां आपणे ते उस्ता चित्रशैलीनो संक्षिप्तमां परिचय जोई|. उस्ता कळानो इतिहास
मूळे आ कळानो उद्भव क्यां थयो ? तेनी अमोने जाणकारी प्राप्त थई शकी नथी. परंतु प्रायः विक्रमनी १६मी सदी आसपास ईरान, मुलतान, अफघानस्थान थई ते कळा भारतमां आवी तेवी नोंध मळे छे. त्यारपछी सम्राट अकबरना शासनकाळमां बीकानेरना राजवी रायसिंघजी द्वारा 'शाही चित्रकार' ना बिरूदनुं प्रलोभन आपी दिल्हीथी चित्रकारोने बोलावी अही बिकानेरमां तेमनो वसवाट करावायो. ते चित्रकारो पोताना कार्यमां अति निपुण होई 'उस्ताद' तरीके ओळखाता जे समय जता 'उस्ता' एवा अपभ्रष्ट नामथी ओळखावा लाग्या. अंते समय जता ते उस्ता शब्द ज तेमनी चित्रकळानी ओळख बन्यो.
ते चित्रकारोमां उस्ता अलिराज, शाह मुहम्मद, मुहम्मद रुकानुद्दिन जेवा अनेक ख्यातनाम चित्रकारो थया. वेल-बुट्टा जेवा प्राकृतिक चित्रण उपर सुवर्णना वरखनी कराती नकशी करवामां तेमनी हथरोट हती. तेमणे वैभवतुं प्रतीक गणाती आ कळाने राजमहेलनी छतो पर, दिवालो पर, स्तंभो पर तेमज दरवाजादि स्थानो पर चित्रीत करी. जेमांनी केटलीक नकशीओ आजे पण बीकानेरना अनुप महेल, दरबार होल, शीशा महेल, डुंगर निवास, सुरत विलास जेवा प्राचीन ऐतिहासिक स्थानो पर सचवायेली छे.
महेलादिना सुशोभन बाद राजा कर्णसिंह वडे सौ प्रथम लक्ष्मी नारायणप्रभुनु मंदिर आ चित्रकळाथी शणगारायुं त्यारबाद आ कळाना मूळ स्वरूपमां थोडा घणा फेरफारो समये उमेराता सामान्य जनसमुदायमां पण आ वैभवी कळानो प्रचार प्रसार
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सितम्बर-२०१८ वध्यो. जो के ब्रिटिशरोना सत्ताकाळ पछी राज्योना विलीनीकरण वखते आ कळाने थोडो धक्को लाग्यो. पण परंपरागत कळाने जाळवी राखवा मथता उस्ता कलाकारो द्वारा ते कळा-संरक्षणना भरपूर प्रयत्नो कराया. जेना फळ स्वरूपे राजमहेलो, मंदिरो, जिनालयोथी शरू थयेली ते कळा आजे छेक झरूखा, अत्तरदानी, सुरही, पलंग, फोटोफ्रेम, धातुनी के माटीनी राचरचीली सामग्रीओ पर चित्रीत थई लोकोना घर सुधी पहोंचेली देखाय छे. उस्ता कळा विकासमां जैनोनं प्रदान ___ बीकानेरना लक्ष्मी नारायण मंदिर, गडमंदिरादिनी जेम जैनोए पण अहींना जिनालयादिनी शोभामां अभिवृद्धि करवाना उद्देशथी उस्ता कारीगरोने आश्रय आपी तेमनी पासे जिनमंदिरोमां तेमज उपाश्रयोमां महापुरुषोना जीवन चरित्रना के गुरु भगवंतोना चित्र बनावराव्यां. आवा जैन दर्शनना चित्रो बनावनारा चित्रकारोमां उस्ता मुरादबक्ष घणो प्रसद्ध तेमज कुशळ चित्रकार थयो. आ चित्रोनी विशेषता केवळ सुवर्णना वरखथी करायेल वेल-बुट्टानी नकशी ज न हती, परंतु ते चित्रोनी रंगपूरणी पण त्यां विशेष महत्व धरावती. उघडता-चमकदार रंगोथी उपसावेला चित्रनो पृष्ठभूना रंगोनी साथे सुमेळ करी चित्रनी त्रिपार्श्विय (थ्री. डी. आकृति) उभी करवी ते पण उस्ताओनो आगवो कसब हतो.
अहींना शेठ भांडा शाह वडे निर्मित करायेला त्रैलोक्यदीपक नामना सुमतिनाथ प्रभुना जिनालयमां उपरोक्त बन्ने पद्धतिना संयोजनथी चितरायेला घणा चित्रो आजे पण दृश्यमान थाय छे. जिनालयना रंगमंडपमां गुंबजनी उपरना भागे आलेखायेल चित्रोमां स्थूलिभद्रजी, भरत-बाहुबलीजी, विजय शेठ-शेठाणी, ईलाची-पुत्र, सुदर्शन शेठ, नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ प्रभुना जीवन-चरित्रना चित्रो तेमज विश्वना सौथी लांबा विज्ञप्तिपत्र (९७ फूट)ना चित्रो आ शैलीना उत्कृष्ट नमूना छे.
भांडा शाहना जिनमंदिरनी जेम बोहरो की शेरीनें प्रभु महावीरस्वामीजीजिनालय पण बीकानेर- अद्भूत चित्र स्थापत्य छे. वि. सं. २००२ मां एटले के ७२वर्ष पूर्वे शेठ भेरूदांन हाकिम कोठारीए आ जिनालय, निर्माण करी जिनालयनी प्रदक्षिणामां महावीरस्वामीजीना २७ भवो ने तथा पृथ्वीचंद्र-गुणसागर, शालिभद्रजी मेतारज मुनि, श्रीपाळ-मयणादिकना जीवनना विशिष्ट प्रसंगोने आ ज चित्रशैलीमां आलेखाव्या. ते सिवाय पण चिंतामणि पार्श्वनाथ प्रभुनुं जिनमंदिर, नेमिनाथ प्रभुनु जिनालय, पार्श्वचंद्रगच्छना चैत्यादिमां उस्ता चित्रकारीना थोडा घणा नमूनाओ नजरे पडे छे.
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Septermber-2018 समृद्ध जैन श्रावकोए जिनालयो ने शणगार्या बाद पोताना घरोने, हवेलीओने पण आ ज चित्रशैली द्वार भव्यता आपी. जेमांनी रामपुरियों की हवेली, ढड्डों की हवेलीमांनी केटलीक कलाकृतिओ आजे पण त्यां मोजूद छे. आम आ उस्ता कळानुं परिवहन करवामां जैनोनुं विशेष प्रदान रह्यं छे. जो के फक्त उस्ता कळा ज नहीं परंतु शिल्पकळा, चित्रकळा, काष्ठकळा, लेखनकळादि अन्य कळाओने विकसाववामां पण जैन श्रमणोए तेमज श्रेष्ठिओए तेवो ज सुंदर पुरुषार्थ को. सांप्रदायिकताना बंधनोने दूर करी, उदारचरित थई तेमणे आ कळाओने पोषी तेना सर्वोच्च शिखर सुधी पहोंचाडी, आबू-देलवाडाना देहरा, उस्ताद शालिवाहनना चित्रो, खंभातना पार्श्वनाथ प्रभुना जिनालयना काष्ठशिल्पो तेनो बोलतो पूरावो छे. उस्ताचित्र निर्माणना तबक्का
अन्य चित्रकळानी जेम आ चित्रनुं काम पण केटलाक तबक्कामां करवामां आवे छे. सौ प्रथम तेमां कुदरती लेपद्रव्यथी के घसीने चित्रभूमिने सपाट करवामां आवे छे. त्यारपछी इच्छित चित्रनुं प्रमाण लई चित्रभूमि पर तेनु काचु चित्र दोरवामां आवे छे. 'अकबरा' नामना त्यारपछीना स्तरमां चित्रने अनुरूप रंगपूर्ति करी चित्र सुकवी देवामां आवे छे. ते सूकाई गया बाद चीकणी माटी, गुंदर, गोळ तथा नौसादर क्षारनुं मिश्रण तैयार करी पीछीनी मददथी ते चित्रमांना इच्छित भागने उपसावाय छे. पछी उपसावेलो ते भाग सूकाई जता तेनी उपर बे वार पीळा रंगनो हाथ मारी सोनाना वरखना पाना तेना पर लगाडाय छे. अने छल्ले पीछीनी मददथी चित्रना शेष भागोमां रंगपूर्ति करी आउट लाईन द्वारा चित्रना अंतिम तबक्काने पूर्ण कराय छे. विशेषे करी आ प्रकार- काम वेल-बुट्टा के फूल-पांदडादि प्राकृतिक चित्रणमां, अथवा स्त्री-पुरुषो के देव-देवीओना अलंकारो के वस्त्रादिना छेडा विगेरेमां तथा सिंहासन, चित्रबोर्डरादिमां जोवा मळे छे.
प्रांते प्रस्तुत लेखननुं मूळ अमारी राजस्थान विहारयात्रा छे. पू. गुरु म.सा. पू.आ.श्री. विजयसोमचंद्रसूरिजीनी निश्रामां अमे प्रायः ७० जेटला साधु-साध्वीजी भगवंतोए राजस्थानना केटलाक तीर्थोनी यात्रा करी. जिनालयोथी मंडित ते भूमिनी ज्यारे अमे स्पर्शना करी त्यारे अनायासे ज ते-ते तीर्थोनी, गामोनी कोईने कोई ऐतिहासिक के सांस्कृतिक सामग्री अमने जडी आवी. तेमांनी केटलीक सामग्रीओनुं अमारा वडे संकलन पण करायु. ते संकलनमांनी ज एक सामग्री ते उस्ता चित्रकळाना चित्रो. अत्यारे पण कदाच सेंकडो भाविको तीर्थयात्राए जता हशे. हजुय त्यां आवी
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सितम्बर-२०१८
श्रुतसागर
घणी सामग्री पडी हशे परंतु समयाभावे के तदनुरूप दृष्टिना वैकल्यथी सामग्री होते छते यात्राळुओ ते माणी शकता नथी. प्रस्तुत लेख वांची, विचारी तीर्थयात्राए जता भाविको रघवाटने छोडी दई तीर्थना बाह्याभ्यंतर सौंदर्यने माणे, तेमज वडवाओना दूरंदेशिता, उदारचरितादिगुणोने समजी, जीवनमां उतारी स्व-परना कल्याणने साधनारा बने ए ज शुभेच्छा.
प्रकाश्यमान
नवग्रंथसर्जन व संशोधन-संपादन के क्षेत्र में किये जा रहे कार्यों के विषय में ज्ञात हुआ है कि आचार्य श्री रत्नाकरसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न आचार्य श्री रत्नाचलसूरीश्वरजी म. सा. द्वारा श्री गोविन्दाचार्य की टीका से युक्त प्राचीन कर्मग्रन्थ (कर्मस्तव) तथा खरतरगच्छीय श्री पूर्णभद्रगणि विरचित धन्यशालिभद्रचरित्र का सम्पादन किया जा रहा है.
उपर्युक्त ग्रंथ यथासमय प्रकाशित किये जायेंगे, यह जानकारी श्रुतसागर के वाचकों तथा संशोधन-संपादन कर रहे विद्वानों हेतु उपयोगी सिद्ध होगी।
वाचकों से अनुरोध है कि इस प्रकार की सूचनाएँ यदि आपके पास उपलब्ध हों, तो कृपया हमें प्रेषित करें । ये सूचनाएँ अन्य विद्वानों हेतु अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होंगी।
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निवेदक
संपादक (श्रुतसागर)
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श्रुतसागर
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सितम्बर-२०१८
समाचारसार
राष्ट्रसन्त प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा में भायंदर चातुर्मास के अन्तर्गत आयोजित विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम
व नाकोडाभैरव फाउन्डेशन चेरिटेबल ट्रस्ट का उद्घाटन प. पू. गच्छाधिपति आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वरजी तथा प. पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा में भायंदर, मुंबई में दि. १६ अगस्त २०१८ को नाकोडाभैरव फाउन्डेशन चेरीटेबल ट्रस्ट (श्री सी.बी. जैन परिवार) के द्वारा हाईटेक डायग्नोस्टिक एन्ड मेडिकल सेन्टर का उद्घाटन किया गया। जिसका संचालन श्री भूपेन्द्र वोरा (महुडीवाले) ने किया।
जिनशासन के महान प्रभावक, राष्ट्रसन्त पूज्यपाद आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में भायंदर, मुंबई की पावन धरा पर श्री बावन जिनालय के प्रांगन में दि. १९ अगस्त २०१८ को श्रावण सुद १ रविवार के दिन प्रातःकाल ८:४५ से ११:४५ बजे तक सर्वलब्धिनिधान महामंगलकारी श्री गौतमस्वामी लब्धि अनुष्ठान तथा दि. २६ अगस्त २०१८ को श्रावण सुद १५ रविवार के दिन प्रातःकाल ८:४५ से ११:४५ बजे तक श्रुत की अधिष्ठात्री माँ सरस्वतीदेवी की विशिष्ट साधना-अनुष्ठान का आयोजन किया गया, जिसमें बहुत बड़ी संख्या में श्रद्धालु भक्तों ने भाग लिया।
इस अवसर पर पूज्य आचार्यदेव श्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी म. सा., पूज्य गणिवर्य श्री प्रशान्तसागरजी म. सा., पूज्य पर्यायस्थविर नीतिसागरजी म. सा. आदि श्रमणवृंद एवं साध्वीवर्या श्री नलिनयशाश्रीजी म. सा. आदि श्रमणीवृंद की पावन उपस्थिति में संगीतकार श्री आशीष मेहता ने अपनी मधुर स्वलहरियों की शमा बाँध दी, जिसे सुनकर श्रोतागण मन्त्रमुग्ध हो गए।
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' श्री गौतम स्वामी महापूजन के अवसर पर उपस्थित श्रद्धालुगण
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'नाकोड़ा भैरव फाउन्डेशन चेरिटेबल ट्रस्ट के उद्घाटन समारोह में उपस्थित प.पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. एवं ।
प.पू.आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वरजी म.सा. |
Nakoda Bhairav Foundation Charitable Trust
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City SO, and on 20th date of every month under Postal Regd. No. G-GNR-334 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2018. उस्ता शैली में चित्रित धन्नाशालिभद्र दीक्षा शोभायात्रा का चित्र BOOK-POST/PRINTED MATTER प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा जि. गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फेक्स (079)23276249 Printed and Published by : HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Printed at : NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate, Dhobighat, Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and b Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.& Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI 0 For Private and Personal Use Only