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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१८ जिनके द्वारा रचित विद्याविलास रास और आरामशोभा चौपाई प्राप्त है। इनकी विद्वत् शिष्य परंपरा में धर्ममंदिरजी महाराज, पुण्यकलशजी महाराज, जयरंगजी महाराज, तिलकचंदजी महाराज आदि अनेक विद्वानों की कृतियाँ उपलब्ध होती हैं। प्रति परिचय
खरतरगच्छ साहित्य कोश में यह कृति क्रमांक ६०३ पर उल्लिखित है।
अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में संरक्षित प्राचीन प्रतियों के संग्रह में प्रस्तुत कृति गोटका संख्या ३३३ की पृष्ठसंख्या ३८७ से ३९० पर लिखी हुई है। जिनमें प्रति पृष्ठ पन्द्रह पंक्तियाँ हैं और प्रायः तीस अक्षर प्रति पंक्ति में लिखे गये हैं। प्रत्येक पंक्ति की समाप्ति पर रक्तवर्णीय मषी से दंड किया गया है। मध्य में रक्तवर्णीय गोल दीर्घबिन्दु सहित वापिका स्वरूप स्थान सुशोभित है। गोटका की पुष्पिका इस प्रकार है- 'लिखिता पं. खेमहर्षमुनिना ॥ छाजहड गोत्रीय साह श्री सामीदासजी पठनार्थम् ॥श्रीः ॥छः ॥श्रीः ॥'
प्रतिलेखक पंडित श्री क्षेमहर्षजी महाराज स्वयं भी विद्वान थे। आपखरतरगच्छीय सागरचन्द्र शाखान्तर्गत विशालकीर्तिजी महाराज के शिष्य थे। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर श्री क्षेमहर्षजी महाराज के द्वारा रचित कृतियाँ उपलब्ध होती हैं । यथा
चन्दनमलयगिरि चौपई वि. १७०४ मरोट, जिनकुशलसूरि अष्टक स्तोत्र संस्कृत, पुण्यपाल श्रेष्ठि चौपई वि. १७०४, फलौदी पार्श्वजिन बृहत्स्तवन गाथा ७४ सहित स्फुट रचनाएँ।
संपादन हेतु अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर का गोटका संख्या ३३३ का उपयोग किया गया है. पाठांतर हेतु आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर कोबा गांधीनगर की प्रति क्रमांक १७६१ का उपयोग किया गया है। वि.सं. १६८५ की इस प्राचीन प्रति में अनेक स्थानों पर पाठभेद नजर आते हैं। उपयोगी पाठों को रखते हुए शेष पाठों को देवनागरी अंकों के साथ पाठांतर में दिया गया है। प्रारम्भ की 9 गाथाओं में 1 से 48 तक प्रश्नांक दिए हैं। प्रति की प्रशस्ति इस प्रकार है
इति गौतमपृच्छा संधिः ॥ श्रीरस्तु॥ |संवत् १६८५ वर्षे फागुण सुदि ९ दिने रविवारे श्रीमरुस्थली देसे श्री महाजन नगरे श्री खरतरगच्छे वाचनाचार्य श्री विजयमंदिर गणिवराणां शिष्य सौभाग्यमेरुगणिना लिखितमिदं ॥ शिष्य ईसरकृते॥
प्रति के अंत में लेखक ने अपनी लघुता को प्रकट करते हुए विनम्रतापूर्वक लिखा है
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