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श्रुतसागर
वेयण पडिया जे जीव हवइ १०२, मरण बंधण थी छोडावइ ।
वेदनाए
नहु हवइ, परभव तसु दुख
दूहा
मोह असात अन्नाण भय, उदय अलप जसु होइ । काल करी ते ऊपजइ, पंचेंदी सुभलोइ
मोह उदय१०३ जेहनइ घणो १०४, भय अन्नाण असात । पंचेंदी पणि मरि करिय, एकेंद्री गति पात १०५
धरम नही जीव जग नही ०६, नही परभव अणगार । इम जाणइ मूढ मति१०७, तेहनइ थिर संसार
पुण्य पाप बे१०८ जगि अछइ, जिणि छइ मुनि सुविचार । जेहनइ मनि छइ एहवउ, ते १०९९ 'रुलइ संसार
निरमल न्यान चारितधर, समकित सार सरीर । भवसायर दुत्तर तरी, पहुचइ सिवपुर धीर इंद्रभूति जे पूछीयउ, धरम अधरम विशेष । श्रीमुखि भाषइ वीरजिण, तासु विचार विशेष
गौतम पृच्छा एहवी, प्रश्नोत्तर अडयाल । भवियण भावइ संभलउ१११, श्रवणि सुधा सुविसाल
भणइ गुणइ जे भावधरि, तिहां घरि रंग अभंगि। मनवंछित सेहला११२ फलइ, इम पभणइ नयरंग
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सितम्बर-२०१८
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॥४८॥
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॥५१॥
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इति श्री गौतम पृच्छा समाप्ता लिखिता पं. षे (खे) महर्षमुनिना छाजहड गोत्रीय साह श्री सामीदासजी पठनार्थम् ॥ श्रीः॥छः॥ श्रीः ॥
१०२. जीवावइ, १०३. उदय हुइ (अभयप्रतौ), १०४. 'घणो' अभयप्रतौ नास्ति, १०५. पाल (अभयप्रतौ), १०६. नही जगि, १०७. मन, १०८. बेउं, १०९. नर (अभयप्रतौ), ११०. चरित्तधर, १११. सांभलउ, ११२. सोहिला.