Book Title: Shrutsagar 2017 07 Volume 04 Issue 02
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RNI:GUJMUL/2014/66126 ISSN 2454-3705 श्रुतसागर | श्रुतसागर SHRUTSAGAR (MONTHLY) July-2017, Volume :04, Issue : 02, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/EDITOR : Hiren Kishorbhai Doshi BOOK-POST / PRINTED MATTER Xxxxxoxoc XXXXXXX * X रावन कायजा XXXXXXOY X X X X जा X XXXXXX नाथ जा अनत नाटा XXXOXOXOXO 04 मा YOXX XXCX यजा नेम पारAANयजा ना नाना । पास जजा Xxoxoxox XXOXOXOXOXO XO जिन चोवीशी का एक सुंदर गट्टाजी का चित्र आचार्य श्री कैलाससागसूरि ज्ञानमंदिर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SO Taaraa WASTE श्री सीमन्धरस्वामी महेसाणा नगर में चातुर्मास प्रवेश की शोभा यात्रा 00000000000000000 श्री सीमन्धरस्वामी महेसाणा नगर में चातुर्मास प्रवेश करते हुए प. पू. गुरु भगवंत For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RNI : GUJMUL/2014/66126 ISSN 2454-3705 (आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर મૃતસાગર SHRUTSAGAR (Monthly) वर्ष-४, अंक-२, कुल अंक-३८, जूलाई-२०१७ Year-4, Issue-2, Total Issue-38, July-2017 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/ आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा भाविन के. पण्ड्या ज्ञानमंदिर परिवार १५ जुलाई, २०१७, वि. सं. २०७३, आषाढ कृष्ण-६ बन आराध त्रा कन्न. हावीर श्रीम काय 卐 असतं त विद्या प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय) श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रम 1. संपादकीय रामप्रकाश झा 2. कक्कावलि 3. Beyond Doubt आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी Acharya Padmasagarsuri गणि सुयशचंद्रविजयजी 4. मांडण संघवी रास 5. चतुर्विंशतिजिन स्तोत्रकोश भाविन के. पण्ड्या 6. गुरुपरंपरा मुनि श्री न्यायविजयजी 7. समाचारसार 8. चातुर्मास सूची म उद्यम कबहुं न छंडीयै, परआसा के मोद। गगरी कैसें फोरयें, उभयो देख पयोध ॥ हस्तप्रतांक-७९१३१ दूसरे के ऊपर आशा रखकर उद्यम नहीं छोड़ना चाहिए। सामने समुद्र को देखकर हमें अपनी गगरी नहीं फोड़ देनी चाहिए। उत्तम प्रीत सुजांण की, कदे न छंडै रंग। औछी प्रीत अजांण की, जैसे रंग पतंग॥ हस्तप्रतांक-८९०१४ ज्ञानी पुरुषों की प्रीत उत्तम होती है, जो कभी अपना रंग नहीं छोड़ती है। परन्तु अज्ञानी पुरुषों की प्रीत पतंग के समान होती है जिसका रंग स्थिर नहीं रहता है। * प्राप्तिस्थान आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नूतन अंक आपके करकमलों में सादर समर्पित करते हुए अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। इस अंक में गुरुवाणी शीर्षक के अन्तर्गत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृति “कक्कावलि” के 'न' से 'र' तक के अक्षरों की गाथा प्रकाशित की जा रही है। इस कृति में वर्णमाला के अक्षरों के अनुसार मानव-जीवन के कल्याण हेतु सार्थक उपदेश दिए गए हैं। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनांशों की पुस्तक 'Beyond Doubt' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है। अप्रकाशित कृति प्रकाशन स्तंभ के अन्तर्गत इस अंक में दो कृतियों का प्रकाशन किया जा रहा है। प्रथम कृति गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. द्वारा संपादित “मांडण संघवी रास” है, जो अद्यावधि सम्भवतः अप्रकाशित है। इस कृति में ऐतिहासिक महापुरुष मांडण संघवी के द्वारा अणसण ग्रहण के प्रसंग का वर्णन किया गया है. अचलगढ की यात्रा तथा संघ में पाले जाने योग्य नियमों का वर्णन किया गया है, साथ ही पंडितमृत्यु को प्राप्त मांडण की पालखी तथा अग्निसंस्कार के वर्णन के साथ-साथ इस दौरान श्रीसंघ के द्वारा की जानेवाली आराधना का भी सुन्दर वर्णन किया गया है। द्वितीय कृति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा में कार्यरत पण्डित श्री भाविनभाई पण्ड्या के द्वारा सम्पादित “चतुर्विंशतिजिन स्तोत्रकोश” है। इस कृति में कवि ने सरल व सुगम्य अनुष्टुप छंद में वर्तमान २४ तीर्थंकरों की स्तुति की है। प्रत्येक स्तुति में कवि ने प्रत्येक तीर्थंकरों के गुणों का आस्वादन इस प्रकार कराया है कि व्यक्ति मोह माया तथा मिथ्या विचारों से मुक्त होकर प्रभुभक्ति में तल्लीन बन जाता है। वि.सं. १६६४ के पूर्व रचित यह कृति अद्यावधि प्रायः अप्रकाशित है। यह कृति सभी हेतु अत्यन्त उपयोगी व भक्तिरसपूर्ण सिद्ध होगी। __ पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के बाद के एक हजार वर्ष की गुरु परम्परा के अन्तर्गत यशोभद्र सूरि, सम्भूतिविजयसूरि तथा भद्रबाहुस्वामी का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। ____ आशा है, इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे अगले अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके। For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कक्कावलि (गतांकथी आगळ...) आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी नीच उंचनो न्याय जुबाने, जूठ सत्य आचार; नीचा ऊंचां कुळथी माने, ते जगनो व्यवहार. सुणजो०॥२६॥ प्रेमी प्रेमी शुं कहो छो, प्रेम पछी छे दुःख; सुख वर्ते छे प्रेमी दिलमां, भागे सघळी भूख. सुणजो०॥२७॥ पामर पामर शं कहो छो, पामरना शिरदार; आशा दासीना जे वशमां, ते पामर नरनार. सुणजो०॥२८॥ पंडित पंडित शुं कहो छो, पंडित परखे सार; परभावे रमतो जे रहेवे, फोकट तस अवतार. सुणजो०॥२९॥ पाजी पाजी शुं कहो छो, पाजी पोते पेख; अंतर गुण- दान करे नहीं, साचो पाजी लेख. सुणजो०॥३०॥ फूलण फूलण शुं कहो छो, मन फूले फूलाय; फूले नहि जेनुं मन फंदे, फूलण नहीं कहेवाय. सुणजो०॥३१॥ बळीयो बळीयो शुं कहो छो, बळीआ गया मशाण; रावण पांडव कौरव योद्धा, रह्यां नहीं निशान. सुणजो०॥३२॥ मँडो भूडो शुं कहो छो, भूल्या ते तो भंड; प्रभुभजनमां भाव न वर्ते, ते भव जलधि झंड. सुणजो०॥३३॥ भूल्यो भूल्यो शुं कहो छो, भूल्या भणीने वेद; ज्ञानी ध्यानी तपी जपीने, माया आपे खेद.. सुणजो०॥३४॥ भटक्या भटक्या शं कहो छो, भटके रणनं रोझ; भटक्या नहीं ते जगमां जोगी, कीधी आतम खोज. सुणजो०॥३५॥ भोळा भोळा शुं कहो छो, भोळा जन भरमाय; परस्वभावे जे जन रमता, भोळा तेह गणाय. सुणजो०॥३६॥ याचक याचक शुं कहो छो, याचक ईंद्र गणाय; परपुद्गल भीखनी आशामां, सहु दुनिया भटकाय. सुणजो०॥३७॥ याचक साचा आतमधनने, याचे तेह गणाय; ज्ञानी ध्यानी योगी साधु, धन धन याचक राय. सुणजो०॥३८॥ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir July-2017 सुणजो०॥३९॥ सुणजो०॥४०॥ सुणजो०॥४१॥ सुणजो०॥४२॥ सुणजो०॥४३॥ SHRUTSAGAR रामा रामा शुं कहो छो, रामा भवनुं मूळ; रामा रागे राम न मळशे, अंते धूलंधूल. राम राम जपतां जे जागे, होवे जन ते राम; आतम ते परमातम रूपे, साचा जाणे राम. रागी रागी शुं कहो छो, जूठा जगना राग; आतम रागे जे रंगाया, धन धन ते सौभाग्य. लालच लालच शुं करो छो, लालचनो नहि अंत; लालच त्यागी रागी जगमां, शोभे साचा संत. वैरी वैरी शुं कहो छो, वैरी आपोआप; वैर शमावे समता आवे, नासे सहु संताप. वेश्या वेश्या शुं करो छो, कुमति वेश्या दिल; विकार वेश्या वैर झेरने, क्षणमां आतम पील. शांति शांति सहु कहे छे, शांति जाणे कोय; शांति जगनी भ्रांति हरती, कबू न दुःखडां होय. सेवा सेवा शुं करो छो, सेवा करता सर्व; परमातम गुरूजननी सेवा, टाळे सघळा गर्व. साधु साधु शुं कहो छो, साधु साधे धर्म; पंचमहाव्रत प्रेमे पाळे, टाळे आठे कर्म. साचुसाचुं शुं कहो छो, साचुं आतम सुख; परमां सुखनी आशा राखे, पामे भवमां दुःख. हार्या हार्या शुं कहो छो, हार्या कामे वीर; रागादिकने जीत्या जगमां, तीर्थंकर महावीर. ज्ञानी ज्ञानी शुं कहो छो, ज्ञानी गोथां खाय; रागद्वेषने जीते जे जन, ज्ञानी तेह गणाय. सुणजो०॥४४॥ सुणजो०॥४५॥ सुणजो०॥४६॥ सुणजो०॥४७॥ सुणजो०॥४८॥ सुणजो०॥४९॥ सुणजो०॥५०॥ (वधु आवता अंके) For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Beyond Doubt (Continue...) Acharya Padmasagarsuri Prabhas said, “Yes, my Lord, this is my doubt. I request you to clarify my doubt and enlighten me.” The Lord Said, “जरामर्यं वा यदग्निहोत्रम्” वा आपि “The adverb is used in the sense of' i.e.’also’. Therefore the sentence is to be understood as follows. “One who is desirous of heaven should perform the sacrificial ceremony and at the same time, one who is desirous of ‘Nirvana’ should engage himself in various forms of worship like Dhyana!, Samyama”, etc. Though the Vedic tenet does not mention about Nirvana, it also does not deny its existence. Heavenly life is the fruit of righteousness and hellish birth is the result of evil deeds, the combination of righteousness and evil deeds leads the soul to take birth in the mortal world. From these statements it is to be understood that when both good and evil Karmas are destroyed, the resultant is Nirvana.” Prabhas swami said, “Oh Lord! The world is beginning less and so it has to be endless. That which has no beginning will also not have any end for it. Hence if the world is eternal, there is no possibil ana i.e. liberation from the world which is of the form of Birth and death. Lord Mahavira replied. “Oh noble one, the substance and the modifications are two different things. The substance i.e. the Jivatman does not meet with the end but its modifications undergo change, because they are of ever-changing nature. The union of two things is always followed by their separation. In every birth, the soul and the body get separated, in the same way the soul pierces the Karmas that are united with it since time immemorial. In the same way the beginning less union of Atman and Karma can come to an end, when the aspirant practices self-control, equanimity, etc., when the soul destroys all Karmic bondage, that state is termed as NIRVANA.' The soul then gets enlightenment and thus the wheel of Samsara i.e. birth and death is pierced through and destroyed. Like the Parmatman, the Jivatman, then acquires infinite 1 Dhyana - Concentration 2 Samyama - Self restraint For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 SHRUTSAGAR July-2017 knowledge and infinite bliss. “Prabhas then asked the Lord as to how the soul was able to acquire infinite knowledge in the absence of the sense organs.” The Lord replied, “Knowledge is a characteristic of the soul and the sense organs are only a medium. As a matter, it can never be formless, so also the soul is never devoid of knowledge. But the veil of Karma obstructs the infinite knowledge inherent in the soul. When the veil of Karma is destroyed, the infinite knowledge and power of the soul is brought to light. This is the reason for the emancipated soul to possess infinite knowledge. Though all the sense organs of a corpse are intact, it does not experience any of the sense pleasures because, the corpse is devoid of consciousness and knowledge. When the soul is liberated, it has perfect knowledge and perfect vision which are called Kevalajnana and Kevaladarshana? respectively. Such perfect souls experience infinite bliss and happiness.” Prabhas swami then enquired as to how the liberated souls experienced infinite happiness, when they had already destroyed the meritorious deeds (Punya) because only in the presence of Punya, the soul can experience happiness. The Lord said, “The meritorious deeds do not result in actual happiness but only produce an illusion of happiness. Hence this happiness is transitory. All worldly pleasures are compared to the itching sensation, which procure pain in the long run. Thus that happiness which procures misery is not true happiness. In ‘Nirvana’, there are no such Karmas which yield illusionary happiness. The bliss that the perfect souls experience is perfect, natural and everlasting. Hence it is said that only in Nirvana, the soul experiences true happiness” Thus Prabhas Swami got his doubt cleared and was delighted and overwhelmed with joy. Time is beginning less and endless, hence one may have a doubt that since time immemorial infinite souls have been going to Moksha, if such is the case, there should be no room for more souls reaching Moksha and the world should have become empty of living beings. But this is not the case. I shall reveal the secret as I have heard it from my preceptors. 1 Kevala Jnana - perfect knowledge 2 Kevala Darshana - Perfect vision For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 8 श्रुतसागर जुलाई-२०१७ Whenever this question was put before the Arhanta, the same answer was given by all the Tirthankars. The number of souls who have got emancipation are equal to the least possible fraction of one unit of number. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “इक्कस्स निगोयस्स वि अनन्तभागो य सिद्धिगओ ।” On account of continuous friction, rain water turns the mountain rocks into fine sand. Since ages, this fine sand is flowing along with the flooded rivers into the sea and is getting accumulated at the bottom of the sea. But one has neither found the mountain disappearing nor the sea has overflowed or stopped further accommodation. The process is natural. Just like the mountain, the world shall never become empty and like the sea, Moksha shall never be filled with emancipated souls. The light of a lamp fills the room and if hundred lamps are lighted, no conflict arises among the lights of the lamps. The light produced is a combination of different lights. In the same way, the liberated souls, merge in the infinite light of the perfect souls in emancipation. No conflict or commotion arises among them. The doubt regarding Nirvana being resolved, the last of the eleven brothers, Prabhas swami, got initiated as the last Ganadhara of Lord Mahavira. Along with him his 300 disciples too became the Lord's disciples. Being imparted the knowledge of 'Tripadi', Prabhas Swami worked out the Dvadashangi, like other Ganadharas. As a result of "The Ganadharavada", the last Tirthankara Lord Mahavira, acquired a total of four thousand four hundred and eleven disciples in a single day. We offer our humble salutations to Lord Mahavira and the eleven great Ganadharas. aartaa कीजै संग, जो कीजै तो होवै भंग । हाथ अंगारौ गहै जु कोय, कै दाजै कै कालो होय ॥ हस्तप्रत क्रमांक- ५३५०८ नीच व्यक्ति की संगति नहीं करनी चाहिए, यदि करते हैं तो वह टूट जाती है। जिसप्रकार कोई व्यक्ति हाथ में अंगारा पकड़ता है, तो या तो हाथ जलता है या काला होता है। For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मांडण संघवी रास Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गणि सुयशचंद्रविजयजी हमणां थोडां समय पूर्वे कोई जैनधर्म द्वेषी तत्त्वो द्वारा अणसणने आत्महत्या गणावी तेने अटकाववा माटेनां प्रयत्नो करायेलां. त्यारे तेनां विरोधमां भारतमां ठेरठेर स्थानकवासी विगेरे फिरकाओ द्वारा विविध गतिविधिओ आचराई हती. ते समये वर्तमानकाळने अनुलक्षीने पोतानां सम्प्रदायनी अणसण संबंधी मान्यता न होवा छतां श्वेतांबरपक्षीय समाज स्थानकवासी समाजनी साथे रह्यो अने बधाए भेगा थई जैन समाजनी एकतानी एक अमीट छाप लोकमानसमां ऊभी करी हती. एनां फळस्वरूपे कोर्टनो चुकादो स्टे तरीके आवी शक्यो हतो.' जे बाबतथी तमे सौ परिचित हशो ज. अहीं आ चर्चा एटला माटे करी छे कारण के प्रस्तुत कृति संघवी मांडणनी अणसण ग्रहण करवा अंगेनी ज विगतो रजू करती प्राचीन कृति छे. विशेषमां कविए ते वखतनी धार्मिक जीवदळनी मरणोत्तर क्रिया पर पण सुंदर प्रकाश पाथर्यो छे. जो के प्रस्तुत कृतिकार कोण छे, ते कृति अपूर्ण होवाने लीधे जाणी शकायुं नथी, पण कृतिनी रचना १७मी सदीमां ज कोइ लोंकागच्छीय साधु अथवा तो श्रावके करी होय तेवुं कृति जोतां लागे छे. हवे सौ प्रथम आपणे कृति परिचय मेळवीशुं. चोवीस तीर्थंकरोने, अरिहंतादि पांचने तथा स्थूलभद्रजीने नमस्कार करी कवि कृतिनी शरूआत करे छे. ते ज ढाळमां देव-गुरूनी स्तुतिनी साथे-साथे थरादथी साह जेसाजीनी निश्रामां निकळेला संघ (पदयात्रा) नी ऐतिहासिक विगतो आलेखाइ छे. तो बीजी ढाळमां संघमां पळातां नियमोनी तेमज हडादरि (अणाद्रा) आवी आबु चड्यानी विगतो छे. त्रीजी ढाळमां कवि अचलगढ यात्रानुं, मांडणना अणसण ग्रहण करवाना मनोरथनुं तेमज ते संबंधी मुहूर्तनुं वर्णन करे छे. आ ज ढाळनी पाछळनी गाथामां नोंधायेली अणसण माटे श्रीसंघ पासे अनुमति मांग्यानी वात काव्यनी महत्त्वपूर्ण सामग्री छे. आ बाजु संघ पण सीरोहीनां चैत्यो जुहारी थराद पाछां फर्यानी, संवरी साह जीवराजजी पण पाटणादि तीर्थयात्रा करी थराद पधार्यानी तेमज संघवी मांडणनां परिवारनी टंकी विगत चोथी ढाळमां छे. खास तो काव्यत्वनी दृष्टिए आ ढाळ सौथी वधु रसाळ छे. त्यार पछीनी ढाळमां कवि अणसण स्वीकारी सिद्धगति पामेलां महापुरुषोनां नामनी एक टूंकी यादी बनावी आपे छे, साथे-साथे अणसण स्वीकारतां मांडणनां देह-तेजनुं वर्णन पण गुंथे छे. छठ्ठी अने सातमी ढाळमां अणसणनां ५६मां दिवसे शक्रस्तव (नमुत्थुणं सूत्र) 1. खुशी की बात है कि इस केस के लिए बहुत सी साहित्य सामग्री कोबा से उपलब्ध करवाई गयी थी। For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 श्रुतसागर जुलाई-२०१७ नुं स्मरण करतां पंडितमरणने पामेलां मांडणनी पालखी, रथयात्रा तेमज अग्निसंस्कारनी विगते वर्णना छे. आ वर्णना तत्कालीन समाजव्यवस्था तरफ आपणुं ध्यान दोरे छे. आ ज ढाळमां कवि साह मांडणनां अणसणथी काळधर्म वच्चे श्रीसंघमां लोको द्वारा करायेली आराधनानुं सुंदर वर्णन करे छे जे पण मननीय छे. काव्यनी छेल्ली ढाळमां कवि रासन समापन करतां पूर्वे पोतानां द्वारा काव्य रचतां थयेली भूलनी क्षमा याचना करे छे. प्रत परिचय प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत झेरोक्ष अमोने श्रीकनकविजयजी गणि हस्तप्रत संग्रह, अमरशाळामांथी मळी छे. प्रतनां कुल ४ पाना, दरेक पानामां ११-१२ लीटी, दरेक लीटीमां ३५ थी ४० अक्षरो छे. कृति लेखक- नाम कृति अपूर्ण होवाथी जाणी शकातुं नथी, पण तेनी लेखनशैली उपरथी ते लहियो ज होवो जोइए. तेथी ज कदाच काव्य झडपथी लखी पूर्ण करवां जतां क्यांक-क्यांक ढाळनां पद्य क्रमांको छूटी गया होय तेवू लागे छे. खास संपादनार्थे कृतिनी हस्तप्रत आपवा बदल पू. अविचलेंद्रविजय म.सा. नो, श्रीअमरशाळा ज्ञानभंडारनां व्यवस्थापकोनो, तेमज मनुदादा, प्रो. कीर्तिभाई विगेरे श्रावकोनो खूब खूब आभार. श्रीमांडण संघवीनो रास ॥ॐ नमः।। श्री गणेशाय नमः ॥ श्री सर्वज्ञाय नमः॥ ॥ वस्तु॥ आदि जिनवर आदि जिनवर अजित जिनराय, संभव अभिनंदन सुमति पद्मप्रभु सुवास जिनवर, शशिप्रभु सुवधि सीतल श्रेयांस वासुपूजि श्रीविमल सुखकर; अनंत शांति कुंथु अरू मल्लि मुनिसुव्रत देव, नमि नेम पास महावीरजिन प्रथम करुं प्रभु सेव ॥राग-गुडी॥ सेव करुं जिनवर तणी प्रणमुं अरिहंत, सिद्ध आचार्य श्रीउपाध्याय वाद् भगवंत; सकल साधु आचारवंत जस गुण छत्रीस, सीलवंत थूलिभद्र सरिस तस नामुं सीस आगि साधु सीधा घणा सीझि छि मुनिराय, सीझेसि मुनिवर अनंत वांदी तस पाय; ॥१॥ ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 11 सुंदर साहा मांडण तणा गाउं गुणसार, संखेपिं कविता कहिसु [सु]णयो सुखकार थिरपुरनयर सोहामणुं तिहां श्रीसंघ मिलीउं, फागुण दि बारस दिन यात्रा सांचरीउं; गाडा वाहिणि छत्रडीमांहि बहू सेजवालां, तिहां बिसि मांणस घणां बहू चालि पालां संघ साथि साजिम घणीणा भल विप्र त्रगाला, बाला बूढा पातला भला नर दुंदाला; साहा जेसादिक संवरी साथिं भद्रक भोला, संघ मजलि थोडी करि नित नित रंगरोला ॥ राग-धन्यासी ॥ ।। ढाल-ऊलालानी ।। तुं राय मनहि विमासि ए ढाल ॥ चालिउ श्रीसंघ जाइ शुकन अनोपम थाइ; मिलीआ मनुष्यना वृंद, हईअडलि अतिहिं आनंद चतुः परवी नवि चालि, अवधि करि तस पालि; चालि ऊगति सूर विघन टल्या सवि दूरि(र) सामग्री सवि सार, संघपति चित्त उदार; गांमि गांमि बिंब अरचि, धन सुठांमि बहू खरचि श्रावक बहु तसु जांण, लोपि नहीं जिन-आंण; विधिसुं संघ चलावि, दिवस निशात गीत गावि हडादरि इम पुहतु, गिरि चडीउं गिहिगिहितु; अरबुदगिरि अति चंग, जिन निरखि थयुं रंग Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ढाल । एक दिन युगलीआं बोलि रे - ए| देशी ] ॥ रंग थयुं जिन निरखि रे, साहा मांडण मनि हरखि रे; स्नात्र सतरे भेदे कीधां रे, काज अपूरव सीधा रे अचलगढिं संघ चडीउ रे, पुन्य-योग बहू जडीउ रे; तिहां कीधां घणां स्नात्र रे, पवित्र करां निज गात्र रे For Private and Personal Use Only July-2017 ॥२॥ ॥३॥ 11811 11211 ॥२॥ ॥३॥ 11811 11411 ॥६॥ 11611 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥९॥ ॥११॥ श्रुतसागर 12 जुलाई-२०१७ गिरि श्रीसंघ ऊतरीउ रे, पुन्य तणु घट भरीउ रे; आवु हडादरि गामि रे, देवुल एक अभिरांम रे ॥८॥ मांडण मनसुं विचारि रे, रतन वर्ल्ड कुंण हारि रे; पांमु नरभव सार रे, जांणु धरम-विचार रे हुं भवसागर भमीउ रे, भावि जिन नवि नमीउ रे; धरम विना बि(ब)हू रलीउरे, धरम-योग हवि मिलीउ रे ॥१०॥ ढीलि तणुं नहीं काज रे, कीजि अणसण आज रे; संवत सोलदोइतालि(१६४२) रे, महूरत विजय विचालि रे शुदि पुनिम चैत्र मासि रे, कीधुं मननि उह्लासि रे; पिहलुं सनाथ तिहा की,रे, पछिं अणसण लीधुं रे ॥१२॥ साहा जेसिं जाणी वात रे, कीधी संघ विक्षा(ख्या)त रे; संघ मांडण साहनि पूछि रे, साहुजी कहु एह सुं छि रे ॥१३॥ वलतुं साहा मांडण भाखि रे, मिं की, जिन-साखि रे; श्रीसंघ अनुमति देयो रे, मुझ जनम सफल करेयो रे ॥१४॥ संघ मिलीनि विचारि रे, धिन्न ए पंचमि आरि रे; कीधुं उत्तम काम रे, राखुं अविचल नाम रे ॥१५॥ कालि तणु दिन रहीइ रे, श्रीजिनहर मांहि जईइ रे; जिन-साखिं उचरावुरे, अणसण विधिसुं करावुरे ॥१६॥ संघ सहू इम बोलि रे, को नही तुम्हचि तोलि रे.......... ॥१७॥ ॥इम श्रीरिसहेसर गायुं पुन्य पवित्र - ए ढाल॥ कीधी सामग्री अणसणीआनी सार, तिहांथी संघ पुहतुं सीरोहीनगर मझारि; वंदनि बहु आवि बोलि अमृत-बोली(ल), साहा मांडण सरिसुं संघ करि कलोल वाराही राइधनपुर दं(द)जां गांम अनेक, तिहांथी आवी वांदि मांडण धिन्न विवेक; नित नित सीरोहीइं चैत्य तणी परवाडि, तस सुंदर श्रावक लेई चालि ऊपाडि ॥१३॥ ॥१४॥ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 13 July-2017 ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ SHRUTSAGAR वाजिंत्र वजावि मद्दल झल्लर ताल, भुंगल दंडारस पंचशब्द कंसाल; श्रीजिनवर पूजी पाछा वलि सुजाण, वुलावा आवी माहाजन दि बहुमान संघ पाछु वलीउ पुहतुं थिरपुर मांहि, सांमहीउ आवं सहूनि भयु अच्छाह; केता दिन अंतरि आव्या साहा जीवराज, आबू सीरोहीइं वांदी श्रीजिनराज पाटण खंभाइति इहमदावादी सार, साहाजीनि साथिं आवें संघ अपार; साहा संघ संघातिं उछव अति घण थाय, ते वात सुणतां हईअडलि हरख न माइ साहा श्रीजीवराजप्रमुख धरमारथी जेह, आवीनि मिलीआ धरम-ध्यांन करि तेह; संघ आवी वांदि सहूअ कहि धिन्न धिन्न, दुरगति-दुख छांडि मांडण पुरुष-रतन्न काउसग बिंब आदिदेव प्रगट करा माहावीर, उछव अति थाइ हरखि साहस-धीर; धिन्न धिन्न मा झबकू धिन्न जागु जस तात, अंजणा कुलकलबी अणसण कीउ विक्षा(ख्या)त धिन्न धिन्न ते रजनी जेणी(णि) रातिं तुं जायु, धिन्न धिन्न साहा मांडण जैन धरम जेणि पायु; धिन्न धिन्न तुम्ह भगनी धिन्न धिन्न तुम्हचु भाई, धिन्न सगां सणीजां तुम्हथी ऊज्वल थाई धिन्न नगर थिराउद जिहां कणि उद्योत करावू, धिन्न धिन्न ते भविअण तुम्ह वंदणि जे आवु; धिन्न तुम्हसुं कामथी पाम्या बहू प्रतिबोध, नर विविध प्रकारिं नियम करि थई जोध ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२२॥ ॥२४॥ श्रुतसागर 14 जुलाई-२०१७ संवामुखि मंडण धिन्न धिन्न साहा जीवराज, जस ऊपरि रहीआ तास सरां सवि काज; धिन्न साहा जीवराज तणु साहा जे सुसष्य(ख्य), धिन्न तुझ बूझवीनि सफल मांहि कीउ मुख्य आ कु(क)लयुग मांहि ति जीतुं मोहराय, जिन-धरम दीपावु तुम्ह समवडि कुण थाय; क्रोध मांन माया लोभ जीतुं विषय-विकार, जाउं बलिहारी सेवकनी करुं सार ॥२३॥ सुण ध्रुव गुण गाइ ते पामि बि(ब)हू दान, अणसण कीधाथी दिन दिन वाधि वांन.. ॥राग-सामेरी॥ सिंघ सेठिनि भीमकुमार, तिम अणसण कीg सार; अणसण कीउं वइर-मुणिंदि, क्षुल्लक सित पांच आणंदि ॥१॥ आणंद कामदेव प्रमुख, श्रावक दस पाम्या सुख; अणसणि यश कीरती वाधी, सुरलोक तणी गति साधी ॥२॥ नागिल श्रावक सुविचार, अणसणि पामु भव-पार; कीधुं परदेसी राई, माहाबल नृपना गुण गाई पांचिं पांडवे अणसण किद्ध, सेनंजय थया ते सिद्ध; धन्नि सालिभद्रि जेम, साहा मांडणि कीधुं तेम ॥अग्यारमि भवि माहाविदेहमांहि - ए ढाल॥ तथा आदनराय पहुतला जांम-ए ढाल ॥राग देसाख ॥ जिम साहा साजनणि अणसण कीर्छ, तेणी परि मांडण साहिं लीधुं; बाई सोभीइं करुं अणसण सार, साहा कुंभि करुं तप सुखकार धिन्न धिन्न साहा मांडणि जग जीतुं, तिं अणसण कीउ जगत वदीतुं; शशि सम वदन सूरजि जिम दीपइ, निवड करम साहा मांडण जीपि(पइ) ॥२॥ मृग सम नयन अचल जिम मेर, कुसुमाउध कीg बहू जेर; सीह तणी परि अणसण पालि, धिन्न साहा मांडण कुल अजूआलि ॥३॥ श्रीनवकार गुणि निशि-दीस, धिन्न धिन्न साहा जेसानुं सीस;........ ॥४॥ 1. बे पंक्ति खूटती होय तेवू लागे छे. ॥३॥ ॥४॥ ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 15 ॥६॥ SHRUTSAGAR July-2017 ॥एह अयोध्या- राज भरहेसरो तुम्हे करु ए - ए ढाल ॥ श्रीअ सिद्ध केरुंअध्यांन साहा मांडण मनि धरइ ए, वरतमांन जिन वीस वंदन नित नित करइ ए; श्रीअ श्रीअमंदस्वामि सेवा मागि मुदा ए, निश-दिन एह ज ध्यान नही कांई आपदा ए ॥५॥ सावधांन थई सार श्रु(श)क्रस्तव जव सुणि ए, दोइ कर शिर जोडि तव मरण पंडित पणि ए; अनुक्रमिं दिवस छपन्न अणसण कीधां थया ए, सतावनमि परभाति मांडण शुभ गति गया ए संवत सोलदोइतालि(१६४२) जेष्ठ शुदि बारसिं ए, सीधा सुरगुरुवारि भविकनि तारसि ए........... ॥७॥ ॥अवसर जाणी इंद्र-ए ढाल ॥ राग-गुडी॥ सीधा मांडण साह जांणी ततक्षिण संघ तिहां आवि सहू ए, विधिसुं तास शरीर लेइ चालतां जय जय शबद कहि बहू ए; हाथी हय सिणगारि कीधा आगलिं धज-पताका लहिलहि ए, उछव अति घण थाइ सुंदर मांडवी ते देखी मन गिहिगिहि ए मांडवी ऊपरि सार गोमट पाखलिं मधुकर गुंजारव करि ए, ऊखेवि बि(ब)हू भोग द्रवि ऊछालतां नृत्य करंता संचरि ए; वाजित्र-ताल मृदंग भुंगल झल्लर ढोल दमामां वाजति ए, तंति नफेरी चंग घूघरी दंडारस भेरिं अंबर गाजति ए दहन तणुं जिहां ठाम आवि तिहां कणि भुं(भू) पुंजी जयणा करि ए, चंदन अगरस् काठ साहा मांडण-तन यतन करी तिहां कणि धरइ ए; अगनि तणु परवेस कीधु तव पछी दीप तणी परि-परि जलइ ए, नाटिक बि(ब)हुं परि थाइ उछव अति घणां संघ तणी आशा फलि(लइ) ए ॥१०॥ एक करि पचखांण जीव हणा तनुं निशि भोजन- एक करि ए, एक तजि परनारि ए बि(ब)हू तप करि व्रत चुथु एक ज धरि ए; एक कहि वस्तु पीआरी आप्या विणि नवि लेवा मुझनि आखडी ए, धिन्न धिन्न एक कहंति एक आसीस घणी दंति (ति)हां मधुरी भाखडी ए॥११॥ 1. बे पंक्ति खूटती होय तेवू लागे छे. ॥८॥ ॥९॥ For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मांडण-मंडण श्रीअ संघनं ए जाणि कीउ धरम उद्योत; रास रंग रचिउ ए. रचतां परम प्रमोद श्रुतसागर 16 ॥१२॥ एक कहि नीलुं झाड हुं भांगु नवि एक कहि खेडि करूं नही ए, एक कहि कूडी-साखि नही देउं एक कहि आरंभ- मांन करुं सही ए; ईणी परि वरण अढार अणसण दिनथकी द(द्र)ह नदीनुं तिहां व्रत लीइ ए, चिंतामणि श्रीसंघ वस्तु विविधपरि नियम करि तेहनि दीइ ए आवुं सहू गांममांहि वांदी जिनबिंब साहा श्रीनी वांणी सुणी ए, पुहचि निज निज ठांमि लीलां भोगवि पूजा करि नित जिन तणी ए; थिरपुर केरुं संघ प्रतपु दिन दिन गयणि जिहां शशि- दिनकरू ए, रिद्धि वृद्धि सुख सार लखिमी अविचल पामुं श्रीसंघ सुंदरू ए ॥ राग-धन्यासी ॥ आंण विना जे मिं करिउ ए, मिच्छा दुक्कड तेह; रास.... अधिकुं ओछ्रं अक्षर थयुं ए, निपुण करुं सोइ सुद्ध रास.... भणि गुणि जे संभलि ए, तस धरि नवह विध्या (धां) न; रास. 1. प्रत अपूर्ण मळेल होवाथी कृति अपूर्ण छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जुलाई-२०१७ For Private and Personal Use Only ॥१३॥ ॥१॥ रास...(आंकणी) प्राचीन साहित्य संशोधकों से अनुरोध श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं या किसी पूर्वप्रकाशित कृति का संशोधनपूर्वक पुनः प्रकाशन कर रहे हैं अथवा महत्त्वपूर्ण कृति का अनुवाद या नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, इसे हम श्रुतसागर के माध्यम से सभी विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादन कार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? यदि अन्य कोई विद्वान समान कृति पर कार्य कर रहे हों तो वे वैसा न कर अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों का सम्पादन कर सकेंगे. निवेदक- सम्पादक (श्रुतसागर) ॥२॥ ॥३॥' Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्विंशतिजिन स्तोत्रकोश भाविन के. पण्ड्या आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबामां हस्तप्रत संपादन तथा वाचकसेवा दरमियान प्रस्तुत कृति ध्यानमां आवेली. जैनसाहित्यमां आपणे आनंदघनजी, देवचंद्रजी, यशोविजयजी, मोहनविजयजी, रामविजयजी, बुद्धिसागरसूरिजी वगेरे विद्वानों द्वारा रचित स्तवनचौवीसी, चैत्यवंदनचौवीसी वगेरे घणी चोवीसीओथी परिचित छीए. प्रस्तुत कृति सामे आव्यां पछी घणां पंडित मित्रोने आ कृति बतावी अने तेमनी प्रेरणा तथा मार्गदर्शनथी आ कृतिनुं संपादन करवानो विचार दृढ बन्यो. कृति परिचय विविध छंदोमां तथा विभिन्न भाषाओमां घणां जैनश्रमण-श्रावको द्वारा तीर्थंकरोनां गुणगानयुक्त कृतिओ जोवा मळे छे, परंतु आ कृतिनी विशेषता ए छे के सरळ संस्कृत भाषामां तथा शास्त्रग्रंथोमां प्रचुर मात्रामां उपलब्ध एवां अनुष्टप् छंदमां कवि तीर्थंकर परमात्मानी स्तवना करे छे. प्रस्तुत कृतिमां कविए सादां, सरळ, सुगम्य श्लोको द्वारा वर्तमान २४ तीर्थंकरोनी स्तुति-स्तवना करेल छे. प्रथम ६ श्लोकोमां कवि प्रस्तावना स्वरूपे सर्वजिनेश्वरोनी स्तुति करे छे. त्यारबाद ऋषभादि दरेक तीर्थंकरनी स्तुति कवि ५-५ श्लोकोमां करे छे, जेमां कविए तीर्थंकरोनां नाम, जन्म, माता-पितानाम, लंछन जेवा वर्णन साथे स्तुति करी छे. कृतिनां प्रारंभिक श्लोकमां ज कविनी स्तुति भावना सिद्ध थाय छे “अहो प्रभो ! प्रभावस्ते दृष्टे यत्त्वयि सम्प्रति। परमानन्दनिस्यंदी भवोऽप्येष ममाभवत् ॥” अर्थात्- हे प्रभु ! आपनो केवो प्रभाव छे ? के आपना दर्शन मात्रथी मारो आ भव, अत्यारे ज परमानंद तत्त्वमा रमण करवा लाग्यो छे. हुं परम आध्यात्मिक आनंदमां ओतप्रोत थई गयो छु. जेम वीतराग परमात्मानां दर्शन मात्रथी आपणे व्यावहारिक विचारोनां वमळमांथी निवृत्त थई अने परमात्मानां स्वरूपमा एकचित्त बनी जईए छीए, ते ज रीते कवि प्रत्येक तीर्थंकरोनां गुणोनुं आस्वादन ए रीते करावे छे के पठन प्रारंभ करतांज अंत सुधी वांचवा आपणे मजबूर बनीए, साथे-साथे सर्व प्रकारनी मोहमाया तथा मिथ्या विचारोमांथी निवृत्त थई प्रभुभक्तिमां लीन बनी जईए. अंतिम ६ श्लोको पण प्रारंभिक श्लोको ज छे, जे प्रत-कृतिमां उपसंहार रूपे प्रयोजायेल छे. For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 18 जुलाई-२०१७ प्रत परिचय ___“चतुर्विंशतिजिनस्तोत्रकोश” नामक प्रस्तुत कृति आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबामा हस्तप्रतांक-१४१४८ पर रहेल एकमात्र प्रतमां उपलब्ध छे. प्रतमां कुल ५ पत्रो छे, दरेक पत्रमा १३ पंक्तिओ तथा दरेक पंक्तिमां लगभग ३६-४० अक्षरो छे, अक्षर सुंदर अने स्पष्ट छे. प्रत्येक पत्र पर भिन्न-भिन्न स्वस्तिक, वापी वगेरे आकृतियुक्त फुल्लिकाओअंकित करेल छे, जेना द्वारा प्रतिलेखकनो कलाप्रेम अने कलाकौशल प्रदर्शित थाय छे. प्रारंभमां “भट्टारक तपागच्छनायक श्री विजयदेवसूरिपरमगुरुभ्यो नमः” का छे, जेनाथी सिद्ध थाय छे के ज्यारे तपागच्छनायकपदे आचार्य श्री विजयदेवसूरीश्वरजी हतां, ते समये प्रत लखवामां आवेल छे. आ उपरांत प्रतिलेखक अंतमां “श्री विनयसुन्दर गणिनां विनेय शिष्य मुनिश्री विजयसुन्दरे श्रीमतिपत्तननगरमां । विक्रम संवत् १६६४ मां पण्डित श्री जयवन्तनां शिष्य गणि श्री विनयविजयनी वाचना माटे लखायेल छे.” आ प्रमाणे सुव्यवस्थित प्रतिलेखनपुष्पिका द्वारा पोतानो परिचय आपे छे. प्रतमां ग्रंथान-१२६ श्लोक आपेल छे, अर्थात् उपसंहारनां ६ श्लोकोने ग्रंथाग्रनी संख्यामां गणना करेल नथी. कर्ता परिचय प्रस्तुत कृतिमां कर्ता संबंधी कोई निश्चित उल्लेख प्राप्त थतो नथी, परंतु प्रतमां आपेल लेखन संवतना आधारे तथा प्रारंभमां आचार्य श्री विजयदेवसरिजी ने नमस्कार करेल होवाथी संभव छे के प्रतिलेखके तेमनी निश्रामां प्रत लखेली होय अथवा आचार्यश्री पर प्रतिलेखकनी अनंत श्रद्धा हशे अथवा तो प्रतिलेखक आचार्य श्रीनी नजीकनी परंपरामां शिष्य-प्रशिष्य स्वरूपे हशे. चतुर्विंशतिजिन स्तोत्रकोश O॥एँ भट्टारकतपागच्छनायक श्री६ विजयदेवसूरिपरमगुरुभ्यो नमः ।। अहो प्रभो प्रभावस्ते, दृष्टे यत्त्वयि सम्प्रति । परमानंदनिःस्यन्दी, भवोऽप्येष ममाभवत् यासौ चिन्तापिसन्तापहेतुत्वेनैव निर्मिता। त्वदालंबनतः सापि प्राप सन्तापहारिताम् ॥२॥ श्रद्धाविहङ्गिकाशिक्यतुल्ययोश्चित्तनेत्रयोः । एकैकस्मिन् धृतोऽसि त्वं पूर्वमद्यैव तु द्वयोः सेयं जीयाज्जिनाधीश त्वद्भक्तेः शक्तिरद्भुता। यया लोकाग्रसंस्थोऽपि हृदि त्वं मे निवेशितः ॥१॥ ॥३॥ ॥४॥ For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 19 भक्तितस्तवनामापि येनेदं जगदे जिन । तेनान्तः शत्रवः सत्यं जिग्यिरे जगदे जिनः यद्वैश्वानरचन्द्रार्कज्योतिषामपि जीवितम् । तदुदेतु स्तवादस्मान्महानन्दमयं महः जय प्रथम तीर्थेश ! जय प्रथम निर्ममा ! | जय प्रथम नीतिज्ञ ! जय प्रथम पार्थिव ! त्वन्मुखेन्दुमयूखेषु प्रेषितेषु पुरः प्रभो ! । सद्यो नाभिकुलक्षीरनीरधिर्ववृधेतराम् मरुदेवीं जगत्रोऽपि मन्ये महिमहीयसीम् । यत्कुक्षिकुहरक्रोडात्प्रसूतस्त्वं जगद्गुरुः क्षिप्रमप्रहतः पन्था मुक्तेर्दुःसञ्चरश्चिरात् । नाथ प्रथमपान्थेन त्वया घण्टापथः कृतः यदि जानासि चेतांसि गतामय कृपामय । विश्वनाथकृते नाथ प्रार्थनेन कृतं मम जयत्यजितनाथस्य नाममन्त्राक्षरावलिः । भूर्भुवःस्वस्त्रयश्रीणां वशीकरणकारणम् जितशत्रुसमुद्भूत विजयाङ्ग भव प्रभो ! । त्वमन्तर्वैरिणो जिष्णुरजितः सत्यमुच्यसे त्वं देवकर्ममर्माणि निर्मूलयसि मूलतः । सत्कर्मवल्लयः किन्तु भवन्ति भवतः प्रभोः जैत्रेधरित्र्यामेतस्मिन् त्वद्यशो जयडिंडिमे । मग्नो मोहमहीभर्तुर्विक्रमोपक्रमध्वनिः 1 यं वीक्ष्य मन्मथेनापि को दण्डमपरोचितम् । शक्रोऽतिविक्रमं कर्तुं त्वत्तः किमपरोचितम् श्रीशं(सं)भव जिनाधीश मुखं पूर्णेन्दुसुन्दरम् । वाणी निर्गच्छदत्यच्छ ज्योत्स्ना सब्रह्मचारिणी नयने नूतनोन्मीलन्नीलनीलोत्पलश्रिणी । ललद्व्यालोलसेलम्बडम्बराचिहुरावलिम् उद्गच्छद्ग्रहनक्षत्रश्रेणि लक्ष्मीसखानखाः । वपुर्लवणिमाक्षुब्ध दुग्धाम्बुनिधिबन्धुरः For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir July-2017 ॥५॥ ॥ श्रीसाधारण ।। ॥६॥ 11311 ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥ श्रीऋषभस्तव ॥ १॥५॥ 11211 ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥ श्रीअजितस्तव ॥ २ ॥५॥ 11211 ॥२॥ 11311 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥४॥ ॥४॥ श्रुतसागर 20 जुलाई-२०१७ इति स्वामिन् भवन्मूर्तिः(तिः)सदा शारदकौमुदी। समस्तजनताचक्षश्चकोरी पारणोत्सवः जितारिहृदयानन्दसेनाशं(सं)भव शं भव। प्रणतानां मनः स्वामिन्नसमोदय मोदय ॥ श्रीसंभवस्तव ॥३॥५॥ तवाभिनन्दन स्वामिन् संवरक्षितिपात्मजः । भूयात्क्रमनखज्योत्स्ना सन्तापप्रशमाय मे ॥१॥ शस्वद्दीपोत्सवं चक्रे देव त्वत्पूतभूतले। क्रमाम्बुजनखाप्रेङ्खन्मयूखमुकुलावलिः ॥२॥ ध्रुवं जाज्वल्यते ज्योतिस्त्वदन्तर्देव केवलम् । यदङ्गनखलक्षेण स्फुलिङ्गः स्फुरितं बहिः ॥३॥ दुरितं दूरतो याति जनात्त्वत्पादसेविनः । नीराजना विधिर्यस्य प्रांशुभिस्खन्नखांशुभिः जगदानन्दनं पापतापप्रशमनन्दनम् । सिद्धार्थानन्दनं वन्दे त्रिसन्ध्यमभिनन्दनम् ॥श्रीअभिनन्दनस्तव ॥ ४ ॥५॥ त्वया श्रीसुमते प्राज्यं-शमसाम्राज्यमर्जितम्। मूलादुन्मूलिताः स्वामिन्कुटिलाः कुन्तलाः पुरः ॥१॥ दुष्टोऽयमिन्द्रियग्रामो निगृहीतः स्ततः परम् । निषिद्धा स्वयमुन्मार्गप्रवृत्तिर्विषयेष्वपि अत्यासन्नमपि स्वैरि गुप्तौ विनिहितं मनः । भयभङ्गुरितं क्वापि जीवनाशं च नाशितम् ॥३॥ लोकोत्तरं ततः किञ्चित्तत्तावन्मीलितं महः । यस्मिन् मग्नः समग्रोऽपि सहसा महसां च यः मेघजन्म तू सन्तापे प्रभवन्ति तवारयः । तन्ममाप्यान्तरान्नेतान् मङ्गलासुत वारय ॥ श्रीसुमतिस्तव ॥ ५॥५॥ पद्मप्रभ प्रभो दृश्यस्त्वं च बन्धकबन्धुरः । वीतरागेष रेखा च प्रथमा प्रथते तव ॥१॥ देवत्वच्चरणाम्भोजपरागैः पिङ्गतां गताः। भवन्ति भविनः काममपरागास्तदद्भुतम् ॥२॥ वाणी नवसुधासारसारिणिर्भुवनप्रभो। महामोहप्ररोहस्य परं दाहाय जायते ॥२॥ ॥४|| ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 21 July-2017 ॥४॥ भस्त व ॥६॥५॥ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥ श्रीसुपार्श्वस्तव ॥ ७ ॥५॥ SHRUTSAGAR सुसीमासम्भवस्यापि लुप्तसीमा गुणास्तव । स्वामिन् धरप्रसूतस्य धरोल्लङ्घियशः पुनः सान्निध्यं दधते तेषां पीयूषरसभोजिनः । येषां हृदि वसत्येव नम्रामरसभोजिनः श्रीसपार्श्वजिनाधीश विश्वत्रितयवारिदः। तवापि वदने कोऽयं लोकः सद्देशनामृतम् पृथ्वीप्रतिष्ट(ष्ठ)सम्भूत सन्तु दूरे गुणास्तव। स्वामिन् किं नामनामापि स्तोतुमस्तोकपाप्मभिः नवक्षो लक्षतां नेतुं नेतस्तव मनो भवः । प्रेङ्खदिज्यासदत्तस्य नातः सयशसः पदम् निस्तीर्यदुस्तरं देव कमलारागसागरम् । अहो महोदयं सर्वाशनां सर्वज्ञ सर्वथा प्राभवं भवतो जातं मदीयं मानसं प्रति। जिनेश ते महामोहक्रोधकामानसम्प्रति चन्द्रप्रभो(भ) प्रभोर्मूर्त्या येषामध्यासितं मनः । तेषां मतिः सितध्यानमकृताभ्यासमासदत् चेतश्चेत्तन्मयीभूतं भविनां भवतां सह। ध्यानोपनिषदभ्यासक्रमः श्रमफलस्तवः षट्चक्रावर्तगर्तेभ्यो निर्गत्य सहजोदयात् । भवन्तमुपतिष्ट(ष्ठ)न्ते सन्तः पारे भवार्ण(ण)वम् तदेकन्यस्तरङ्गेण निस्तरङ्गेण चेतसा। त्वां महान्तो महीयन्ते महासेननृपात्मजम् विश्वे नान्यस्य नैर्मल्यं लक्ष्मणासतराजिते । इति प्रतिज्ञा शीतांशो लक्ष्मणासुतराजिते विधेहि सुविधे सु(शु)द्धं तत्त्वं तत्त्वं ममान्तरम् । येन प्रत्यक्षमीक्षेऽहं निस्सन्देहं महस्तवः शू(सूक्ष्मादप्यतिशू(सूक्ष्मत्वं शुद्धसिद्धान्तवेदिनाम् । तथापि भुवनव्यापि(पी) वैभवं भवतः प्रभो त्वामद्वैतं कलातीतमामनन्ति मनीषिणः । तव स्मरणतः किन्तु सकलः सकलो जिनः ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ भस्तव॥८॥५॥ ॥१॥ ॥२॥ ||३|| For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जुलाई-२०१७ ॥४॥ ॥ श्रीसुविधिस्तव ॥९॥५॥ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ श्रुतसागर 22 त्वां मेनिरे निरालम्बमम्बरान्तरगोचरम्। निमज्जतां भवाम्भोधौ किन्तु त्वमवलम्बनम् सुग्रीवहृदयां(या)नन्दे रामाकुक्षिसमुद्भवे। त्वयि स्मृतिपथं नीते नेतश्चेतः समुद्भवेत् श्रितं शीतलतीर्थेशा क्लेशत्रितयतापितैः । वचस्तव भवारण्यपथिकैर्विश्रमद्रुमः अक्षरैरमृतैः पूर्णाः स्फुरत्प्रवरसञ्चराः। हरन्ति त्वद्गिरस्तृष्णा पुष्णन्त्यः सरसां श्रियम् पुरस्फुरति चेद्देव भवद्वचनवीचयः। तत्किं मुधासुधास्यन्दचन्दनेन्दुमुखी मुखैः सति त्वद्वचसि स्वामिन् निर्मलीकारकारिणे । किमङ्गमङ्गलं लोकैर्गङ्गासङ्गाय गीयते नन्दादृढरथक्ष्माभृत् तनयं यः समानतः । सन्तापैः पात्यते जन्तु कदापि न समानतः श्रेयः श्रेयांसनाथस्य स्मरणेनापि देहिनाम् । पर्यन्यगर्जितेनापि कथं न शिखिनां सुखम् अतिव्यवहितोऽपि त्वं मत्यासन्ने(न संहतिः?)' । प्रमाणमीदृशे ह्यर्थं मिथुनानि वियोगिनाम् नास्त्येवान्यो रसः कश्चित्त्वय्येकरसचेतसाम्। यदि न प्रत्ययस्तस्मिन्नाक्षिकास्तर्हि साक्षिका विष्णुरित्याख्यया साम्ये पित्रोस्त्वं समतामयः। मुक्ताघनरसस्वात्यो नैर्मल्ये निर्मला न किम् जगदानन्दनिन्दायै ते निरेते निरेतसः। कृपाणे चरणन्यासं निशिते निशितेव्यधुः वासुपूज्य जगत्पूज्य लोकोत्तरपदास्पदः । किं तेन युक्तं भक्तेषु संविभक्तं निजश्रियः भवानभ्युदयं बिभ्रदात्मन्येवोदयाचले। प्रीतिरालोक्यते लोकैः कोकैरिव दिवाकरः ॥श्रीशीतलस्तव।।१०।५।। ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥ श्रीश्रेयांसस्तव ॥११॥५॥ ॥१॥ ॥२॥ 1. पाठ अवाच्य है. For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir July-2017 ॥३॥ ॥४॥ ॥ श्रीवासुपूज्य ।। १२ ।।५।। ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ SHRUTSAGAR 23 भक्ताभक्तेषु दृष्टेस्ते निर्विशेषमुपेयुषी। तथापि प्रार्थ्यसे विश्वनाथ स्वार्थपरैः नरैः वसुपूज्यात्मज स्वामिन् जयाङ्गज जगत्पते। श्रितोऽस्मि सर्वथैव त्वां कल्पनाकल्पपादप तनुतेऽतनुते किञ्चित्पुरः पितुरिव प्रभो। मन्मनो मन्मनोल्लापचापलं क्षम्यतामतः समलं विमलं स्वामिन् निजं वाक्ब्रह्मवैभवम् । पनीमः किञ्चिदप्येतत्तव स्तवनकर्मणा । कुस्वामिदोषप्लोषेणग्लपिताकचिता लता। भवद्गुणसुधासारात्पल्लवैरुल्लसत्यसौ विश्वालङ्कार हित्वा त्वां कल्याणैकमयं मया। काव्यरत्नं हहान्येषु कुरीतिषु नियोजितम् कृतवर्मनृपश्यामानन्दन स्तवनात्तव । आजन्मकविताभ्यासकष्टं नष्टं ममाधुना यदन्यवदनोपम्यान्मालिन्यमिदमार्जयत्। त्वन्मुखोपम्यमागम्य सुधांशुस्तदमार्जयत् अनन्तनाथ ज्ञानस्य तवानन्तस्य मङ्गलम् । स्थितं जगत्रयं यस्मिन्नरविन्दे मरन्दवत् सुयशासिंहसेनस्य नन्तदर्शनलालसौ। अनन्तदर्शनेनोच्चैर्भवता मुखिभीकृतौ सत्यं वीर्यन्तवानेतं यदन्तर्वैरिणां गणः। त्रिजगज्जिष्णुरप्येष न प्रभूष्णुः स्मृते त्वयि सदानन्दमयोऽसि त्वमित्येवं को न मन्यते । त्वत्सन्निधानतो जातं यदानन्दमयं मनः वैभवाद्भुतमित्येतत्तवानन्तचतुष्टये। विश्वप्रभो न लोभाय बभूव न च तुष्टये धर्म त्वदाज्ञया भालस्थलं तिलकयन्ति ये। सुभगं भावकी भूयं भजन्ते ते शिवश्रियः प्रभविष्णुः प्रभो तेषां नापत्तापत्रयोद्भवा। यैः स्वकीयै(ये) हृदि न्यस्तस्त्वदाज्ञा चन्दनं द्रवः तव ॥१३॥५॥ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥ श्रीअनंतस्तव ॥ १४ ॥५।। ॥१॥ ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 24 जुलाई-२०१७ ॥३॥ ॥४॥ ॥श्रीधर्मस्तवः ॥ १५ ॥५॥ ॥१॥ ॥२॥ ||३|| ॥४॥ श्रुतसागर जिनेश क्लेशमेवैकं वितनोति जपस्तपः । तरीतरितुमा व भवतो भव तोयधिम् सुव्रताना(भा)नुसम्भूत भवदाज्ञा रसायते । सत्येव किं दृघोपायै जरामरणजिष्णुणिः मूर्ध्नि मेऽस्तु त्वदाज्ञैव कुसुमस्तव कोमलः। तं नाथ प्रार्थ्यतां कोऽन्यः प्रसादस्तव को मलः श्रीशान्तिनाथ नामापि स्मृतं तव जनैर्यदि। सद्यः सम्पन्न एवायं तदुपद्रवचिद्रवम् महिम्न(स्ता?)वकीनस्य स्फूर्त्तिमज्ञानपूर्विणः । मणिमन्त्रौषधादीनामपयान्ति महाघ()ताम् महिमानममानं ते कथं जानन्तु(न्ति) जन्तवः। स्वल्पैः कल्पद्रुमप्रायैर्यन्मतेऽस्खलितागतिम् पूज्यता त्वयि पुत्रेऽभूदचिराविश्वसेनयोः । दत्ते त्वन्महिमा स्वामिन् गुरूणामपि गौरवम् स्तृतस्ते स्तोकतां नौति महिमानी च द्धिभिः । स्वामिन् हारः कथङ्कार महिमानाबिलेऽपि सन् कुन्थुनाथ कथायां ते सत्यामपि सुधानिधौ। विकथा विषकण्डूषैः प्लोषयन्ति कथं मुखम् विहाय त्वं जगन्नेत्र कैरवैकनिशाकरम् । सेव्यन्ते किममी लक्ष्मी ललितैरूष्मलाः खलाः अयमात्मा तवालोकाल्लोकाग्रमपि गच्छति। पात्यते तत्किमन्यान्यचिन्तागम्भीरवारिधौ श्रीसूरिजनितानन्दमुखपद्मे सति त्वयि। अन्यत्रापि मनो भृङ्गः सम्भ्रमी बम्भ्रमीति किम् यस्त्वां ध्यायत्यनिर्धातनिर्मलीमसमानसः। त्वदेकमयतामेति कल्पद्रुमसमानसः श्रीमन्नरजिनाधीश श्रीसुदर्शननन्दनः । तत्तवानन्यसामान्यमौदासीन्यमुपास्महे एकतस्तीर्थकृल्लक्ष्मीरन्यतश्चक्रवर्तिता। जीयाद्वयेऽपि ते धन्यमौदासीन्यमयं मनः ॥शान्तिस्तवः ॥ १६ ॥५॥ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥ श्रीकुन्थुनाथस्तव ॥ १७ ॥५॥ ॥१॥ ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 25 आक्रोशेषु च रूपेक्षेषु स्निग्धेषु स्तवनेषु च । तव श्रवणयोर्भूयाद्भद्रं ताटस्थ्यसुस्थयोः देवीकुक्षि सरोहंसस्वरूपं तत्तवेदृशम् । यत्ततोऽयमिति ज्ञानेऽप्यौदासीन्येन वर्त्तसे न चामरौ न वा मेरौ पुरतः प्रगुणीकृते । न वाभोगे न वा भोगे भवतोऽभिदुरं मनः श्रीमन्मल्लिजिन स्वामिन् रूपं लोकोत्तरं परम् । मनसापि कथं नाथ मादृशैर्दृश्यतां तव स्त्रीपुन्नपुंसकातीतमपनीतगुणत्रयम् । रूप्यन्ते व्यक्तिबन्ध्यन्त त्रिसन्ध्यं ध्यायतां कथम् गन्धरूपरसस्पर्शशब्दादिभिरपाकृतम्। स्वामिन् केन स्वरूपेण भवन्तं मनुजां मनः प्रभो प्रभावतीकुम्भसम्भवस्त्वं निगद्यसे। तथापि त्वामजन्मानं मन्यन्ते तत्त्ववेदिनः स्वरूपं वास्तवं तत्ते पश्यन्तु किमतादृशम् । बाह्य एव परं दृश्येज्झेषामनुमता दृशः तव श्रीसुव्रत स्वामिन् द्वयमप्येतदद्भुतम्। निर्मलं निर्ममत्वञ्च मैत्री च निखिले जने चित्रमिच्छा समुच्छेद्यच्छेकता च विजित्वरी । व्यसनार्त्तेषु सत्वेषु तरुण्या करुणा च ते सर्वथा सर्वभावेषु सम्मता समता च सा । लोकं वृणगुणामोदैर्मोदते च मन(मनः) स्तवः परोपकारिकारित्वव्रतमव्याहतं च तत् । इतश्चेतस्तवोपेक्षा निषन्नं चाद्भुतं प्रभो पद्मासुमित्रयोः पुत्र मैत्र्यादि रुचिराजितम् । भेजे भवन्तं मुक्तिश्रीस्त्वेनैव रुचिराजिनम् श्रीमन्नमे न मे चेतश्चञ्चलत्वं विमुञ्चति । करोमि संयतं तात तदिदं तावकैर्गुणैः मनो मनोभव वृष्टैः सौष्ट(ष्ठ)वादपहस्थितम् । त्वत्प्रसादादवष्टम्भसंरम्भं ल (भ) ते यदि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir July-2017 For Private and Personal Use Only ॥३॥ 11811 ॥ श्रीअरस्तव ॥ १८॥५॥ 11211 ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥ श्रीमल्लिस्तव ॥ १९॥५॥ 11211 ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥ मुनिसुव्रतस्तव ॥ २० ॥५॥ 11311 ॥२॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥३॥ ॥४॥ ॥३॥ श्रुतसागर जुलाई-२०१७ यद्यसौ त्वद्गुणैः स्वामिन् सिद्धः सिद्धौषधेरिव । तज्जरामृत्युदौर्गत्यं जित्वरः स्यान्मनोरसः(मः) निश्शेषविषयभ्रान्ते श्रान्तस्य मनसो यदि। विश्रामस्त्वद्गुणारामे वप्राविजयनन्दनः त्वद्गुणाश्चदमैर्दान्तं स्वान्तं नवतुरङ्गवत् । मोक्षाध्वगामिनः काममस्मान्नवतुरंहसा ॥ श्रीनमिस्तव ॥ २१ ॥५॥ श्रीनेमिनाथ भगवन् भवता च कृतं पदम् । समुद्रविजयावासे तया च शिवसम्पदा ॥१॥ स्थानान्न चलितुं नाथ तदा त्वयि धनुधरे। विप्रक्षक्षोणिपालैश्च राजलक्ष्म्या च चक्रिणः ॥२॥ त्वया च चालितः पाणिग्रहणप्रवणो रथः । उग्रसेननरेन्द्रस्य सुतया च मनोरथः भवांश्च भेजे निर्व्याजमुज्जयन्तगिरेः शिरः । कीर्तिश्च तव लोकाग्रं निर्ममस्येन्दुनिर्मला ॥४॥ शिवानन्दन लोकस्त्वामसमाश्रयमाश्रयत्। एनं स्मरर्शिवात(?)'पातै(तैः) रक्षत रक्ष तत् ॥ श्रीनेमिस्तव ।। २२ ॥५॥ पार्श्वनाथ जगन्नाथ त्वयि सम्प्रति संस्मृते । मामकीनं मनो मेने स्वात्मनः कृतकृत्यताम् नमो मूर्छालतात्पा(त्या)माज्जगन्मित्र तवोदये। इदानीं नेत्रराजीवमुज्जीवितमिदं मम ॥२॥ आसंसारं ममात्मायं तप्तः पातकपातकैः । अद्य त्वदर्शनानन्दसुधासारिरसिच्यत अश्वे(श्व)सेनात्मज स्वामिन् गतस्तन्मयतां त्वया। अद्य स्वहस्तविन्यस्तमहं मन्ये महोदयम् वामेय त्वयि दृष्टेऽद्य क्षीणः(णोऽ)पी(पि) वामनो भवः । जातः श्वा(स्वा)नन्त्यदीर्घोऽपि ममायं वा मनो भवः ॥ इतिश्रीपार्श्वस्तव ॥ २३ ॥५॥ श्रीसिद्धार्थकुलोत्तंस श्रीवीर त्रिस(श)लाङ्गज। मनसाप्यतिदुर्लम्भसम्भावय दृशापि माम् 1. पाठ अवाच्य छे. ॥१॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 27 ॥२॥ ॥३॥ ||४|| SHRUTSAGAR July-2017 तथानेकथमप्यस्तु प्रसादः सादरं मयी। यथेयं त्वत्प्रसादेन वाञ्छा विच्छिद्यते मम तथैकमपि निःकम्पदर्शनं देव देहि मे। यथा त्वदर्शनायापि न पुनः स्पृहयाम्यहम् नान्यदभ्यर्थये किञ्चित् किन्तु नाथ तथा कुरु । न च त्वयि न चान्यस्मिन् प्रार्थनं प्रार्थये यथा विहाय भुवनाभोग रविकल्पविकल्पनाम् । भास्वरं कुरु मे चेतः स्फीतमोहतमोहरम् ।। श्रीवीरस्तवः ॥ २४ ॥५॥ अहो प्रभो प्रभावस्ते दृष्टे यस्त्वयि सम्प्रति । परमानंदनिःस्यन्दी भवोऽप्येष ममाभवत् ॥१॥ यासौ चिन्तापसन्तापहेतुत्वेनैव निर्मिता। त्वदालंबनतः सापि प्राप सन्तापहारिताम् ॥२॥ श्रद्धाविहङ्गिकाशिक्यतुल्यायाश्चित्तनेत्रयोः । एकैकस्मिन् धृतोऽसि त्वं पूर्वमद्यैव तु द्वयोः सेयं जीयाज्जिनाधीश त्वद्भक्तेः शक्तिरद्भता। यया लोकाग्रसंस्थोऽपि हृदि त्वं मे निवेशितः भक्तितस्तवनामापि येनेदं जगदे जिन। तेनान्तः शत्रवः सत्यं जिग्यिरे जगदे जिनः यद्वैश्वानरचन्द्रार्कज्योतिषामपि जीवितम्। तदुदेतु स्तवादस्मान्महानन्दमयं महः ॥इतिश्रीसाधारणजिनस्तुतिः॥छ।। ॥६॥ ॥ इति श्री चतुर्विंशतिजिनस्तोत्रकोशः समाप्तः ॥ लिखितं पण्डितोत्तमपण्डित श्री५श्रीविनयसुन्दर गणिविनेय विजयसुन्दरेण ॥ श्रीमतिपत्तननगरे । संवत् १६६४ वर्षे । पण्डित श्रीजयवन्त शिष्य गणि श्री विनयविजय वाचनाय ॥छ ॥ ग्रन्थाग्रं १२६ श्लोक || शुभं भवतु ॥ कल्याणमस्तु लेखकपाठकयोः ॥छ ॥ यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमसु(शु)द्धं वा मम दोषो न दीयते ॥छ॥ ॥श्री॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ *** For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमण भगवान महावीरस्वामी पछीना एक हजार वर्षनी गुरु परंपरा (गतांकथी आगळ...) मुनिश्री न्यायविजयजी आ दशवैकालिक सूत्र आजे पण विद्यमान छे. अने चार मूळ' सूत्रोमां ते प्रथम गणाय छे. तेमां साधुओनां आचारनुं वर्णन छे. आ सूत्रनुं महत्त्व बतावती नीचेनी गाथाओ धर्मसागर उपाध्याये 'तपगच्छपट्टावली' मां आपी छे: ५. कृतं विकालवेलायां दशाध्ययनगर्भितम् । दशवैकालिकमिति नाम्ना शास्त्रं बभूव तत् ॥१॥ अतः परं भविष्यन्ति प्राणिनो ह्यल्पमेधसः । कृतार्थास्ते मनकवत् भवन्तु त्वत्प्रसादतः ।।२।। श्रुताम्भोजस्य किंजल्कं दशवैकालिकं ह्यदः । आचम्याचम्य मोदन्तामनगारमधुव्रताः ॥३॥ इति संघोपरोधेन श्रीशय्यंभवसूरिभिः । दशवैकालिको ग्रंथो न संवव्रे महात्मभिः ॥ ४ ॥ परिशिष्टपर्व | शय्यंभवसूरि २८ वर्ष गृहस्थावासमां, ११ वर्ष गुरुसेवामां अने २३ वर्ष युगप्रधानपदे रही कुल ६२ वर्षनुं आयुष्य भोगवी वीर नि. सं. ९८मां स्वर्गे गयां. यशोभद्रस्वामी / सूरि आमनो विशेष परिचय नथी मळतो. तेओ तुंगीकायन गोत्रनां हतां. तेमणे २२ वर्षनी भर युवान वये शच्यंभवसूरि पासे दीक्षा लीधी हती. दीक्षा पछी १४ वर्ष गुरुसेवामां अने ५० वर्ष युगप्रधानपदे रही ८६ वर्षनी वये वीर नि. सं.१४८मां तेओ स्वर्गे गयां. विशेषता-अत्यार सुधी आचार्यनी पाटे एक ज आचार्य आवतां. पण यशोभद्रसूरिनी पाटे बे आचार्योनां नाम मळे छे. आनुं कारण ए छे के यशोभद्रसूरिनां प्रथम पट्टधरनुं आयुष्य अल्प होवाथी बीजा आचार्य भद्रबाहुस्वामी तेमनी पाटे गणायां. आ रीते छट्ठी पाटे बे आचार्योनां नाम मळे छे. कोइ कोइ स्थळे बन्ने नामो भिन्न गणीने संख्यामां वधारो करेलो मळे छे. 1. चार मूळ सूत्रोनां नामः १ दशवकालिक, २ उत्तराध्ययन, ३ ओधनिर्युक्ति, ४ आवश्यक. यथार्थ साधुवृत्तिनुं ज्ञान करावनारां आ सूत्रो साधुओने प्रथम भणावाय छे तेथी मूळसूत्र कहेवाय छे. For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR July-2017 ६. संभूतिविजयसूरि अने भद्रबाहुस्वामी/सूरि संभूतिविजयसूरिनो वधु परिचय नथी मळतो. तेमणे ४२मां वर्षे दीक्षा लीधी हती, ४० वर्ष गुरुसेवा करी हती अने ८ वर्ष युगप्रधनापदे रह्यां हतां. आ रीते ९० वर्षनी वये वीर नि.सं. १५६मां तेओ स्वर्गे गयां. आ आचार्य महाराज श्रीस्थूलीभद्रजीनां गुरु तरीके घणी ख्याति पाम्यां छे. भद्रबाहुस्वमीनो जन्म दक्षिणमा प्रतिष्ठानपुर नगरमां, ब्राह्मण ज्ञातिमां, प्राचीन गोत्रमा थयो हतो. कहेवाय छे के तेमने वराहमिहीर नामनो भाई हतो. यशोभद्रसूरिनां उपदेशथी बन्ने भाईओए तेमनी पासे दीक्षा लीधी हती. बन्ने भाई गुरुसेवामां रही शास्त्राभ्यासमां निपुण थयां हतां, परन्तु वराहमिहीरनो स्वभाव क्रोधी होवाथी गुरूए तेने आचार्यपदने अयोग्य जाणी भद्रबाहुने आचार्यपद आप्यु. आथी वराहमिहीरनो क्रोध विशेष वध्यो, पण ते कांइ न करी शक्यो. गुरुनां स्वर्गगमन पछी भद्रबाहु पासे तेणे आचार्यपद मांग्यु, पण तेमणे पोतानां स्वर्गस्थ गुरुनी इच्छा प्रमाणे ते माटे इन्कार कर्यो. आथी वराहमिहीरे गुस्सामां आवी साधुवेशनो त्याग करी राज्याश्रय लीधो. त्या गया पछी पण तेणे बे' प्रसंगे भद्रबाहुनो विरोध कर्यो, पण कंइ सफळता न मळी प्रशंसा मेळववाना लोभमां तेणे त्यां सुधी गप हांकी के सिंहलग्ननां स्वामीए मारा उपर प्रसन्न थईने मने ग्रहमंडलनुं निरीक्षण कराव्यु जेथी हुं ज्योतिष-निमित्त जाणवामां सौथी श्रेष्ठ छु. पण आ गप वधु वखत न चाली. छेवटे ते अपमानित थई मरण पामी व्यंतर बन्यो अने श्रीसंघने उपद्रव करवा लाग्यो. छेवटे भद्रबाहुस्वामीए ते उपद्रवनां निवारण माटे उवसग्गहरस्तोत्र८ बनाव्यु जे अत्यारे पण महाप्राभाविक गणाय छे. भद्रबाहुस्वामीए जैनशासन अने जैनसाहित्य उपर बहु उपकार कर्यो छे. तेओए आ प्रमाणे दश नियुक्तिओ रची छे : १. आवश्यक नियुक्ति, २. पच्चख्वाण नियुक्ति, ३. ओघनियुक्ति, ४. पिंडनियुक्ति, ५. उत्तराध्यन नियुक्ति, ६. आचारांग नियुक्तित, ७. सुयगडांग नियुक्ति, ८. दशवैकालिक नियुक्ति, ९. व्यवहार नियुक्ति अने १०. दशाकल्प नियुक्ति. आ उपरांत छ छेदसूत्रो पण तेमणे रच्यां छे: १. निशीथ, २. बृहत्कल्प, ३. पंचकल्प, ४. व्यवहार, ५. दशाश्रुतस्कंध अने ६. महानिशीथ. दशाश्रुतस्कंधमांथी कल्पसूत्रन उद्धरण पण तेमणे ज कर्यु छे, जे सूत्र पर्युषणा पर्वनां छेल्लां पांच दिवसोमां संघ समक्ष वंचाय छे. आ रीते तेओ जैनसासननां महान उपकारी छे. तेमनां माटेनी नीचेनी बे स्तुतिओ मननीय छे: 1. इतिहास-वेत्ता मुनिराज श्री कल्याणविजयजी माने छे के आ घटना बीजा भद्रबाहुस्वामी साथे संगत थाय छे. For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 30 श्रुतसागर जुलाई-२०१७ उवसग्गहरं थुत्तं काउणं जेण संघकल्लाणं। करुणापरेण विहियं स भद्दबाहु गुरू जयई॥ (विजयप्रशस्ति टीका, पृ.११८नी संग्रहगाथा) यक्तीर्तिगंगां प्रसृतां त्रिकोल्यामालोक्य किं षण्मुखतां दधानः । जगद्धमीभिर्जननो दिदृक्षुगंगासुतोऽध्यास्त मयूरपृष्ठम् ॥ (हीरसौभाग्य काव्य, पृ.१५१) संघ उपर महान उपकारकारी श्री भद्रबाहुस्वामी ७६ वर्षनी उमरे वीर नि.सं. १७०मां कुमारगिरि पर्वत उपर स्वर्गे गयां. तेमणे ४५ वर्षनी वये दीक्षा लई, १७ वर्ष सुधी गुरुसेवा करी १४ वर्ष युगप्रधानपद भोगव्यु हतुं. तेमनां वखतमां जिनशासननु महत्त्व वधारनारो एक प्रसंग बन्यो हतो ते आ प्रमाणे छे : ___पोतानां गुरुभाई श्री संभूतिविजयसूरिनां शिष्य स्थूलीभद्रजी तेमनी पासे पूर्वज्ञाननो अभ्यास करवा इच्छतां हतां. पण भद्रबाहुस्वामी ते वखते नेपालमां ध्यानमां रहेतां होवाथी तेमने वाचना आपवानो अवकाश न हतो. श्रीसंघने आ वातनी जाण थतां तेणे बे गीतार्थो द्वारा तेमने कहेवराव्यु के 'आप साधुओने वाचना आपो. प्रथम तो भद्रबाहुजीए ना पाडी. आथी फरी श्रीसंघे तेमने पूछाव्यु के 'श्रीसंघनी आज्ञा न माने तेने शुं प्रायश्चित आवे?' सूरिजी संघनी महत्ता समजतां हतां, एटले तेओ तरत ज समजी गयां अने अमुक अमुक समये पांचसो साधुओने वाचना आपवानुं स्वीकार्यु. श्रीसंघD केटलुं महत्त्व छे ते आ प्रसंग उपरथी सारी रीते समजी शकाय छे. तेओ श्रुतकेवली अने संपूर्ण चौद पूर्वनां ज्ञाता हतां. जैन सत्यप्रकाश वर्ष-४, पर्युषणपर्व अंकमांथी साभार (क्रमशः) क्या आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं ? पुस्तकें भेंट में दी जाती हैं आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन-स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य तथा प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं की भेंट में आई बहमूल्य पुस्तकों की अधिक नकलों का अतिविशाल संग्रह है, जो हम किसी भी ज्ञानभंडार को भेंट में देते हैं. यदि आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं तो यथाशीघ्र संपर्क करें. पहले आने वाले आवेदन को प्राथमिकता दी जाएगी. For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाचार सार प. पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. का सीमन्धरस्वामी महातीर्थ, महेसाणा में भव्य चातुर्मास प्रवेश दिनांक-०२-०७-२०१७ को सीमन्धरस्वामी महातीर्थ महेसाणा के प्रांगण में जिनशासन के महान प्रभावक राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा, गणिवर्य श्री प्रशांतसागरजी म. सा., पर्यायस्थविर श्री नीतिसागरजी म. सा., मुनिश्री कैलासपद्मसागरजी म. सा., मुनिश्री पुनीतपद्मसागरजी, तथा मुनिश्री भुवनपद्मसागरजी, उपनगर श्रीसंघ में चातुर्मास विराजित प. पू. आचार्य श्री नीतिसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. गच्छाधिपति आ. श्री हेमप्रभसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. आचार्य श्री रामचंद्रसूरीश्वरजी म. सा. के समुदायवर्ती मुनिप्रवर श्री वैराग्यरुचिविजयजी म. सा. आदि श्रमण-श्रमणी भगवन्तों तथा अध्यात्मयोगी आचार्य श्रीमद बुद्धिसागरसूरि समुदाय की सध्वीवर्या श्री पुण्यप्रभाश्रीजी, साध्वी श्री प्रशीलयशाश्रीजी, साध्वी श्री पद्मकीर्तिश्रीजी, साध्वी श्री चन्द्रकीर्तिश्रीजी, साध्वी श्री पुण्यकीर्तिश्रीजी, साध्वी श्री कुसमश्रीजी म. सा. की शिष्या साध्वी श्री कल्पगुणाश्रीजी, साध्वी श्री रत्नमालाश्रीजी, साध्वी श्री कल्परत्नाश्रीजी, साध्वी श्री नीलरत्नाश्रीजी तथा साध्वी श्री हर्षनंदिताश्रीजी म. सा. आदि श्रमणी भगवन्तों के भव्य चातुर्मास प्रवेश के निमित्त हजारों गुरुभक्तों तथा श्रद्धालुजनों ने इस अवसर पर पधारकर प्रसंग की शोभा में वृद्धि की. श्रावण कृष्णपक्ष, अष्टमी, दि. २८-०७-२०१७ को तीर्थंकर श्री नेमिनाथ प्रभु के जन्म कल्याणक एवं साध्वी भगवंत श्री पुण्यप्रभाश्रीजी म. सा. के संयम जीवन के ६९वें वर्ष में पदार्पण एवं ७७वें जन्मदिवस के निमित्त जिनालय में विशेष मंत्राभिषेक तथा महापूजा, सन्ध्या का सुन्दर आयोजन किया गया है. महेसाणा के ट्रस्टी श्री सेवन्तीभाई मोरखीया ने बताया कि परमगीतार्थ, जगद्गुरु पूज्य आचार्यदेव श्रीमद विजयहीरसूरीश्वरजी म. सा. के पुण्य दिवस तथा महान शासन प्रभावक, हम सबके परम उपकारी राष्ट्रसन्त पूज्य आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के ८३वें जन्मोत्सव के मंगल अवसर पर भादरवा शुक्ल-११,१२ दि. २,३-०९-२०१७ शनिवार व रविवार को देव-गुरु-भक्ति उत्सव तथा भव्य समारोह का आयोजन किया गया है. इस चातुर्मास प्रवेशोत्सव के अवसर पर शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढी के ट्रस्टी श्री श्रीपालभाई आर. शाह, शंखेश्वरतीर्थ के ट्रस्टी श्री श्रेयकभाई शाह, श्री कल्पेशभाई वी. शाह, गुजरात राज्य के उप मुख्यमन्त्री श्री नितिनभाई पटेल, दीव-दमन, दादरानगर हवेली, शेलवास के एडमिनिस्ट्रेटर श्री प्रफुल्लभाई पटेल, महेसाणा नगर के मेयरश्री, डी. वाई एस. पी., सूरत शहर के विधायक आदि महानुभाव उपस्थित थे. For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजीसमुदाय के साधु-साध्वी म.सा. के चातुर्मास की सूचि १. प. पू. तपागच्छाधिपति आचार्यश्री मनोहरकीर्तिसागरसूरीश्वरजी, प. पू. आ. श्री उदयकीर्तिसागरसूरीश्वरजी, आदिठाणा - २ श्रीवासुपूज्य जैन मन्दिर, नारणपुरा चार रस्ता - अहमदाबाद २. प. पू. राष्टसंत आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी, म.सा. गणिवर्य श्री प्रशान्तसागरजी म.सा तथा पर्याय स्थविर श्री नीतिसागरजी म.सा. आदिठाणा -६, श्री सीमन्धरस्वामी जैन मंदिर, स्टेट हाईवे, महेसाणा ३. आचार्यश्री वर्धमानसागरसूरीश्वरजी म.सा, आचार्यश्री विनयसागरसूरीश्वरजी म.सा आदिठाणा - २, सांताक्रुज श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ जैनसंघ, सांताक्रुज वेस्ट, मुम्बई-४०००५४ ४. आचार्यश्री अमृतसागरसूरीश्वरजी आदिठाणा - १, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र,कोबा (गांधीनगर) ५. आचार्यश्री अरुणोदसागरसूरीश्वरजी म.सा, प. पू. आचार्यश्री अरविन्दसागरसूरीश्वरजी म. सा. व प. पू. गणिवर्य श्री अमरपद्मसागरजी म.सा आदिठाणा - ५, श्री जालौर भवन, तलेटी के पास, पालीताणा ६. आचार्यश्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म.सा आदिठाणा - २, चन्द्रप्रभस्वामी जिनमन्दिर, पांगुल गली, बेलगांव, (कर्नाटक) ७. आचार्यश्री हेमचन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. सा. आदिठाणा - २, सिहोर श्वे. मू. पू. जैनसंघ, सिहोर, पालीताणा ८. आचार्यश्री प्रसन्नकीर्तिसागरसूरीश्वरजी म.सा, आदिठाणा - २, जैन मंदिर, शांतिनगर, मिरारोड, मुंबई ९. आचार्यश्री विवेकसागरसूरीश्वजी म.सा, आदिठाणा - २, जैन मंदिर, बांद्रा (वे.), मुंबई १०. आचार्यश्री अजयसागरसूरीश्वरजी म.सा, आदिठाणा - ३, हीरसूरि जैन उपाश्रय, सुनारवाडा, सिरोही, (राजस्थान) ११. आचार्यश्री विमलसागरसूरीश्वरजी म.सा, आदिठाणा - २, मेवाड़ भवन, एल.बी.एस. रोड, भांडुप वेस्ट - मुम्बई १२. आचार्यश्री महेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म.सा, आदिठाणा - ३, श्री शीतलनाथ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनसंघ, लाईन बाजार, धारवाड, (कर्नाटक) १३. गणिवर्य श्री नयपद्मसागरजी म. सा. आदिठाणा - ३, श्री पार्श्व प्रेम मू. पू. श्वे. जैन संघ, __ सीमन्धरस्वामी जैन मन्दिर, ९० फीट रोड, भायंदर – ठाणे (महाराष्ट्र) १४. मुनिश्री शांतिसागरजी म.सा आदिठाणा - १, बुद्धिसागरसूरि समाधिमंदिर- विजापुर (गुजरात) १५. सध्वीवर्या श्री पुण्यप्रभाश्रीजी, आदिठाणा - ९, श्री सीमन्धरस्वामी जैन मंदिर, स्टेट हाईवे, महेसाणा For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प.पू. गुरुभगवंत के चातुर्मास प्रवेश के प्रसंग पर उपस्थित उपनगर श्रीसंघ महेसाणा में विराजित पूज्य आचार्यदेव श्री नीतिसूरीश्वरजी म. सा. के समुदाय के गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री हेमप्रभसूरीश्वरजी म. सा. तथा आचार्य श्री रामचन्द्रसूरि समुदाय के श्री वैराग्यरुचिविजयजी म. सा. दीप प्रागट्य करते हुए (बाये से) दीव-दमन, दादरा-नगर हवेली के एडमिन. श्री प्रफुल्लभाई पटेल, चेन्नई के गुरुभक्त श्री किरणजी जैन, आदिवासी जाति के चेयरमेनश्री जयंतीभाई बारोट, कोबा के ट्रस्टीश्री कल्पेशभाई वी. शाह व आणंदजी कल्याणजी पेढी के ट्रस्टीश्री श्रीपालभाई आर. शाह. For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City SO, and on 20th date of every month under Postal Regd. No. G-GNR-334 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2018. एअाधनोप्रस्तावानाहाष्टयञ्चयिसंप्रतियरमानंदनिस्पंदीरवाणघममानवतार यामिाविंतापिसंता पविचारानवनिर्मिता चदालेबलनतासापि धायसवायदारिताका विदंगिकाशाक्यस्य योश्चिानवाया पाककस्मिन शुवासिवायम ISESIGश्य क वध्या: सया विजायाजिनाधीश वझातम्याक्किा रचता ययालाकाम संस्बाणिदिवे-स्मविशित धान तिन नवनामा। विजेनेदंगदा सिनामनातवा यः सरत्यानि गिरगाटसिनः यथाशनरीचापक जयनयानामपि जीवित वादखुम्न दादास्मान्महानदमयमाछाति साझराजिम नवधि: बाइनिश्रीवविवाविजिनेसाबकासमाENEलि। स्वितंयेदितानमाइतवायथावविनयसुदरगाणविन पESSISEयाचमय दर गाग्रामसियतमनार मदतर६६ववाधापंडित श्रीजयचेनध्यिगाणश्रीविनयनिजयां वाचनायाधिगधायश्यामाकायुक्तेशवायकवासमवलेखकवावकण्या-rail याहशेवस्वकष्टावाहवालिस्वितंमयायविमोवााममादाघानदायातबार श्री चतुर्विंशतिजिन स्तोत्र की रिक्ताक्षर युक्त कलात्मक हस्तप्रत का अंतिम पत्र BOOK-POST / PRINTED MATTER प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा जि. गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205,252 फेक्स (079)23276249 Website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org Printed and Published by : HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Printed at : NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate, Dhobighat, Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.& Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI For Private and Personal Use Only