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श्रुतसागर
जुलाई-२०१७ उवसग्गहरं थुत्तं काउणं जेण संघकल्लाणं। करुणापरेण विहियं स भद्दबाहु गुरू जयई॥
(विजयप्रशस्ति टीका, पृ.११८नी संग्रहगाथा) यक्तीर्तिगंगां प्रसृतां त्रिकोल्यामालोक्य किं षण्मुखतां दधानः । जगद्धमीभिर्जननो दिदृक्षुगंगासुतोऽध्यास्त मयूरपृष्ठम् ॥
(हीरसौभाग्य काव्य, पृ.१५१) संघ उपर महान उपकारकारी श्री भद्रबाहुस्वामी ७६ वर्षनी उमरे वीर नि.सं. १७०मां कुमारगिरि पर्वत उपर स्वर्गे गयां. तेमणे ४५ वर्षनी वये दीक्षा लई, १७ वर्ष सुधी गुरुसेवा करी १४ वर्ष युगप्रधानपद भोगव्यु हतुं. तेमनां वखतमां जिनशासननु महत्त्व वधारनारो एक प्रसंग बन्यो हतो ते आ प्रमाणे छे : ___पोतानां गुरुभाई श्री संभूतिविजयसूरिनां शिष्य स्थूलीभद्रजी तेमनी पासे पूर्वज्ञाननो अभ्यास करवा इच्छतां हतां. पण भद्रबाहुस्वामी ते वखते नेपालमां ध्यानमां रहेतां होवाथी तेमने वाचना आपवानो अवकाश न हतो. श्रीसंघने आ वातनी जाण थतां तेणे बे गीतार्थो द्वारा तेमने कहेवराव्यु के 'आप साधुओने वाचना आपो. प्रथम तो भद्रबाहुजीए ना पाडी. आथी फरी श्रीसंघे तेमने पूछाव्यु के 'श्रीसंघनी आज्ञा न माने तेने शुं प्रायश्चित आवे?'
सूरिजी संघनी महत्ता समजतां हतां, एटले तेओ तरत ज समजी गयां अने अमुक अमुक समये पांचसो साधुओने वाचना आपवानुं स्वीकार्यु. श्रीसंघD केटलुं महत्त्व छे ते आ प्रसंग उपरथी सारी रीते समजी शकाय छे. तेओ श्रुतकेवली अने संपूर्ण चौद पूर्वनां ज्ञाता हतां. जैन सत्यप्रकाश वर्ष-४, पर्युषणपर्व अंकमांथी साभार
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