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॥११॥
श्रुतसागर
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जुलाई-२०१७ गिरि श्रीसंघ ऊतरीउ रे, पुन्य तणु घट भरीउ रे; आवु हडादरि गामि रे, देवुल एक अभिरांम रे
॥८॥ मांडण मनसुं विचारि रे, रतन वर्ल्ड कुंण हारि रे; पांमु नरभव सार रे, जांणु धरम-विचार रे हुं भवसागर भमीउ रे, भावि जिन नवि नमीउ रे; धरम विना बि(ब)हू रलीउरे, धरम-योग हवि मिलीउ रे
॥१०॥ ढीलि तणुं नहीं काज रे, कीजि अणसण आज रे; संवत सोलदोइतालि(१६४२) रे, महूरत विजय विचालि रे शुदि पुनिम चैत्र मासि रे, कीधुं मननि उह्लासि रे; पिहलुं सनाथ तिहा की,रे, पछिं अणसण लीधुं रे
॥१२॥ साहा जेसिं जाणी वात रे, कीधी संघ विक्षा(ख्या)त रे; संघ मांडण साहनि पूछि रे, साहुजी कहु एह सुं छि रे
॥१३॥ वलतुं साहा मांडण भाखि रे, मिं की, जिन-साखि रे; श्रीसंघ अनुमति देयो रे, मुझ जनम सफल करेयो रे
॥१४॥ संघ मिलीनि विचारि रे, धिन्न ए पंचमि आरि रे; कीधुं उत्तम काम रे, राखुं अविचल नाम रे
॥१५॥ कालि तणु दिन रहीइ रे, श्रीजिनहर मांहि जईइ रे; जिन-साखिं उचरावुरे, अणसण विधिसुं करावुरे
॥१६॥ संघ सहू इम बोलि रे, को नही तुम्हचि तोलि रे..........
॥१७॥ ॥इम श्रीरिसहेसर गायुं पुन्य पवित्र - ए ढाल॥ कीधी सामग्री अणसणीआनी सार, तिहांथी संघ पुहतुं सीरोहीनगर मझारि; वंदनि बहु आवि बोलि अमृत-बोली(ल), साहा मांडण सरिसुं संघ करि कलोल वाराही राइधनपुर दं(द)जां गांम अनेक, तिहांथी आवी वांदि मांडण धिन्न विवेक; नित नित सीरोहीइं चैत्य तणी परवाडि, तस सुंदर श्रावक लेई चालि ऊपाडि
॥१३॥
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