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संपादकीय
रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नूतन अंक आपके करकमलों में सादर समर्पित करते हुए अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
इस अंक में गुरुवाणी शीर्षक के अन्तर्गत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृति “कक्कावलि” के 'न' से 'र' तक के अक्षरों की गाथा प्रकाशित की जा रही है। इस कृति में वर्णमाला के अक्षरों के अनुसार मानव-जीवन के कल्याण हेतु सार्थक उपदेश दिए गए हैं। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनांशों की पुस्तक 'Beyond Doubt' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है।
अप्रकाशित कृति प्रकाशन स्तंभ के अन्तर्गत इस अंक में दो कृतियों का प्रकाशन किया जा रहा है। प्रथम कृति गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. द्वारा संपादित “मांडण संघवी रास” है, जो अद्यावधि सम्भवतः अप्रकाशित है। इस कृति में ऐतिहासिक महापुरुष मांडण संघवी के द्वारा अणसण ग्रहण के प्रसंग का वर्णन किया गया है. अचलगढ की यात्रा तथा संघ में पाले जाने योग्य नियमों का वर्णन किया गया है, साथ ही पंडितमृत्यु को प्राप्त मांडण की पालखी तथा अग्निसंस्कार के वर्णन के साथ-साथ इस दौरान श्रीसंघ के द्वारा की जानेवाली आराधना का भी सुन्दर वर्णन किया गया है। द्वितीय कृति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा में कार्यरत पण्डित श्री भाविनभाई पण्ड्या के द्वारा सम्पादित “चतुर्विंशतिजिन स्तोत्रकोश” है। इस कृति में कवि ने सरल व सुगम्य अनुष्टुप छंद में वर्तमान २४ तीर्थंकरों की स्तुति की है। प्रत्येक स्तुति में कवि ने प्रत्येक तीर्थंकरों के गुणों का आस्वादन इस प्रकार कराया है कि व्यक्ति मोह माया तथा मिथ्या विचारों से मुक्त होकर प्रभुभक्ति में तल्लीन बन जाता है। वि.सं. १६६४ के पूर्व रचित यह कृति अद्यावधि प्रायः अप्रकाशित है। यह कृति सभी हेतु अत्यन्त उपयोगी व भक्तिरसपूर्ण सिद्ध होगी। __ पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के बाद के एक हजार वर्ष की गुरु परम्परा के अन्तर्गत यशोभद्र सूरि, सम्भूतिविजयसूरि तथा भद्रबाहुस्वामी का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। ____ आशा है, इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे अगले अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके।
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