Book Title: Shrutsagar 2014 08 Volume 01 03
Author(s): Kanubhai L Shah
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर | श्रुतसागर SHRUTSAGAR (MONTHLY) Volume : 01, Issue : 03 Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/ Editor : Kanubhai Lallubhai Shah चतुर्विध श्रीसंघनी सेवा अने उपासनामां जीवन व्यतीत करनार शेठ श्री श्रेणिकभाई आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री महावीर जैन आराधना केन्द्रना प्रांगणमा शेठश्रीना सुकृतोनी अनुमोदनार्थे करेल बहुमाननी पावन क्षण For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर श्रुतसागर SHRUTSAGAR (Monthly) वर्ष-१, अंक-३, कुल अंक-३, अगस्त-२०१४ * Year-1, Issue-3, Total Issue-3, August-2014 वार्षिक सदस्यता शुल्क-रू. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/ अंक शुल्क - रू. १५/- * Issue per Copy Rs. 15/ आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक : कनुभाई लल्लुभाई शाह हिरेन के. दोशी एवं ज्ञानमंदिर परिवार १५ अगस्त, २०१४, वि.सं. २०७०, श्रावण वद-५ म की प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स : (०७९) २३२७६२४९ Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रम हिरेन के. दोशी पू. आ. श्री पद्मसागरसूरीजी ५ संजयकुमार झा १. संपादकीय २. गुरुवाणी ३. दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थान कुलक ४. योगनिष्ठ पू. आ. श्री बुद्धिसागरसूरिजीनु जीवन अने कवन ५. भाषा और लिपि एक समीक्षात्मक अध्ययन ६. पुस्तक समीक्षा ७. चातुर्मास सूचि ८. समाचार सार कनुभाई ल. शाह डॉ. उत्तमसिंह डॉ. हेमन्त कुमार संजयकुमार झा प्राप्तिस्थान : आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर परिवार डाईनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ * प्रकाशन सौजन्य श्री हीरालालभाई रसिकदास कापडियानी श्रुतभक्ति अने श्रुतसेवाना अनुमोदनार्थे श्री विबोधचंद्र हीरालाल कापडिया अंधेरी-मुंबई-४०००५८ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्पणम्... समर्पणम्... दीर्घद्रष्टा, श्रीसंघहितचिंतक श्रेष्ठिवर्य श्री श्रेणिकभाई शेठना सादर चरणोमां... एमना सुकृतोनी पुण्यस्मृतिमां श्रुतसागर पत्रिकानो आ अंक सादर समर्पित करीए छीए ट्रस्टीगण श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोबा For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय श्रुतसागरनो तीजो अंक आपश्रीना हाथमा छे. दर वखतनी जेम आ अंकमां पूज्य गुरुभगवंतश्रीए वाणी विशे अपायेल मननीय प्रवचन आ पत्रिकाना माध्यमे प्रकाशित कर्यु छे. वाणीना उपयोग अने दुरुपयोगनी विगते वात करीने पूज्यश्रीए आत्मसाधनानो मार्मिक उपाय जणाव्यो छे. ___पार्श्वचंद्रसूरि महाराज द्वारा रचित दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थान कुलक आ अंकमां प्रकाशित कर्यु छे. कर्ता अने कृतिनो विषय बन्ने सारी रीते परिचित होवाथी प्रस्तावनामां महत्त्वना अंशोने स्थान आप्यु छे. लिपि विषयक लेखो अने एनी माहितीओ वाचकोने उपयोगी थता ए ज श्रेणिमा लिपि साथे भाषानो योग्य समन्वय अने संबंध दर्शावतो 'भाषा और लिपि एक समीक्षात्मक अध्ययन' नामनो लेख असे प्रकाशित कर्यो छे. लिपि के भाषाना खास अभ्यासु वाचको ज नहीं पण दरेक वाचक आ लेखथी काळना फलक उपर भाषा अने लिपिना योगदान अने संबंधनुं महत्त्व समजी शकशे. योगनिष्ठ प. पू. आ. गुरुदेवश्री बुद्धिसागरसूरिश्वरजी म. सा.न आचार्यपदनुं शताब्दिवर्ष अत्यारे प्रवर्तमान छे त्यारे पू. बुद्धिसागरसूरिश्वरजी म. सा.नी जीवन अने कवननो विस्तारथी परिचय करावतो लेख असे प्रकाशित कर्यो छे. आ ज श्रेणिमां आगामी लेखो एमना सर्जन अने साधना विशेना रहेशे. पू. बुद्धिसागरसूरिजी म. सा. ना समुदायतुं चातुर्मासिक सूचिपत्र आ साथे प्रकाशित कर्यु छे. तो दर वखतनी जेम आ अंकमां जुना मेगेझिनमांथी कोई लेख प्रकाशित कर्यो नथी. एक वात श्रुतसागरनी : आ पत्रिका तमारी छे अने तमारा थकी ज आ पत्रिकानुं प्रकाशन छे. एटले आपश्री आ पत्रिकामा लेख/कृति विगेरे पाठवी शको छो अने पाठवशो. साथे साथे आ पलिकाना स्तर अने ध्येयने विकसाववा आपश्री पोताना अभिप्राय/सझाव विगेरे निःसंकोच शहेर शाखा कार्यालय (प्राप्तिस्थान एड्रेस) उपर मोकली शको छो. एक वात पुस्तकालयनी : आपश्री ज्ञानमंदिरना वाचक होय अने आपश्रीन अभ्यासकार्य पूर्ण थया बाद आपश्री पासे आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबाचें कोई पुस्तक के प्रत विगेरे होय तो वहेली तके ज्ञानमंदिरमां जमा करावशोजी. जेथी अन्य वाचकोने श्रुतनो अंतराय न थाय अने अन्य वाचक पण आपनी जेम पुस्तकथी लाभान्वित थाय. पुस्तको जमा कराववा माटे अमारी शहेर शाखा कार्यालय (प्राप्तिस्थान एड्रेस) उपर मोकली शकाशे. For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गुरुवाणी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पू. आ. पद्मसागरसूरिजी वाक् संयम परम कृपालु आचार्य-भगवन्त श्री हरिभद्रसूरिजी ने धर्मबिन्दु ग्रन्थ के द्वारा आत्मा के परम गुणों को, आत्मा के विशुद्ध धर्म को, जीवन और व्यवहार के आचरण को बहुत सुन्दर तरीके से समझाने का प्रयास किया है। उन्होंने बताया है कि प्रतिदिन उपयोग में आने वाली वस्तु, जीवन और व्यवहार का एक मात्र आधार, हमारी वाणी है। इससे ही सारा व्यवहार चलता है। इसके माध्यम से व्यक्ति जगत् का प्रेम प्राप्त करता है। इस वाणी के प्रकाशन के द्वारा अरिहन्त प्रभु के गुणों का स्मरण किया जाता है। ऐसे महत्व की इस वाणी का उपयोग किस प्रकार विवेक पूर्वक किया जाये? वह परिचय उन्होंने इस सूत्र के द्वारा दिया है। वाणी की पवित्रता तभी आयेगी जब उसके अन्दर किसी प्रकार के विकार का विचार प्रवेश न करे । सर्वत्र निन्दासंत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषु ॥ इसी सूत्र पर गत तीन दिनों से हमारा विचार चल रहा है । व्यक्ति की आदत है। यह उसका अनादिकालीन संस्कार है। जब-जब प्रसंग आता है, व्यक्ति आवेश में आकर वाणी का दुरुपयोग कर बैठता है । परिणाम स्वरूप जीवन में संघर्ष होता है । सारा ही जीवन काम और क्रोध की आग में जलकर कोयला बन जाता है। सारी मधुरता चली जाती है। जीवन का सारा आनन्द चला जाता है। वाणी के माध्यम से जीवन में हमारे अन्दर की जो कविता बाहर आनी चाहिये, वह सब नष्ट हो जाती है। जीवन कर्कश बन जाता है। उसके सारे मधुर स्वर रुदन में बदल जाते हैं; व्यक्ति सिवाय पश्चाताप के कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता । शीर्ष अन्दर शून्य मिलता है। इसलिये ग्रंथकार ने स पर अधिक जोर दिया और कहा कि जीवन में यदि आपको धार्मिक बनना है तो सर्वप्रथम इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त करना है। विषय के अनुकूल नहीं बनना चाहिए, अपितु विषय को अपने ऐसा अनुकूल बना लिया जाये कि ये सारी इन्द्रियाँ धर्म प्राप्ति के साधन बन जायें । For Private and Personal Use Only यदि इन इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त हो जाये तो आत्मा को प्राप्त करना अति सरल बन जायेगा। आज तक कभी हमने इसका प्रयास नहीं किया। सारा जीवन जीकर भी आध्यात्मिक रूप में हम मरे हुए हैं। अंगों से मूर्च्छित उस जीवन का कोई मूल्य नहीं जिसमें धर्म सक्रिय नहीं। जिसमें धर्म आपके कार्यक्षेत्र को मार्गदर्शन देने वाला नहीं । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अगस्त-२०१४ नियंत्रित और व्यवस्थित जीवन न हो, इन्द्रियों पर विवेक का अनुशासन न हो, ज्ञानियों की भाषा में कहा गया है कि वह आत्मा मृत है। अंदर से मूर्छित आत्मा को मृत की संज्ञा दी गई है। यहाँ तो हमें अपने व्यवहार से अपनी धार्मिकता का परिचय देना है। हर इन्द्रिय पर हमारा अनुशासन होना बहुत जरूरी है। खा-पीकर के तो सारी दुनिया चली जाती है। ऐसा जीवन कोई मूल्य नहीं रखता है। इसीलिए मानवजीवन को परमात्मा को पाने का परम साधन कहा गया है। इसे मोक्ष का मंगल-द्वार माना गया है। न जाने पूर्व जन्मों में कितने पुण्य आपने किए होंगे, प्रयत्न पूर्वक कितनी धर्म-साधना आपने की होगी। उसके परिणामस्वरूप इस वर्तमान जीवन की प्राप्ति हुई है। चौरासी लाख जीवन योनियों की मान्यता है वैदिक और जैन दर्शन की परम्परा में। दोनों ही दर्शन इसे स्वीकार करते हैं। __कितनी ही योनियों में हमारा परिभ्रमण हुआ। न जाने कहाँ-कहाँ भटक कर हम यहाँ आये हैं। इसलिए यदि जरा भी प्रमाद किया, तो वे ही योनियाँ फिर-से आपके स्वागत के लिए तैयार हैं; फिर-से यह परिभ्रमण का चक्र चलेगा। परिग्रह की वासना को लेकर, जगत् को प्राप्त करने की कामना को लेकर; पूरे संसार का परिभ्रमण चलता है और संसार जीवित रहता है। हम बार-बार मरते हैं परन्तु यह हमारा संसार जीवित रहता है, जिन्दा बना रहता है। यह कभी मरता नहीं। होना यह चाहिये कि हमारे अन्दर से संसार मर जाये। मन के अन्दर से संसार के विषय मूर्छित हो जायें और मैं पूर्ण जागृत रहूँ। अपने पूर्णतम को प्राप्त करूँ। ___ इस ग्रन्थकार ने अन्तर की करुणा से इस सूत्र की रचना की है। जगत का मुख्य कारण वैर, कटुता और वैमनस्य है। इसका जन्म इससे ही होता है। बोलने में विवेक का अभाव हो सकता है क्योंकि भाषा पर आपका कोई नियन्त्रण नहीं है। जिसे हमारे यहाँ समिति माना गया। समिति का मतलब ही होता है उपयोग, यत्न । कार्य और उस कार्य के विवेक को यहाँ समिति माना गया, भाषा समिति । क्रियाओं के अन्दर, पौषध प्रतिक्रमण के अन्दर हम इसका उपयोग करते हैं कि विवेक पूर्वक और मर्यादित रूप में बोलूंगा। जरूरत पड़ने पर ही मैं इसका उपयोग करूँगा। समिति का मतलब होता है सारा ही जीवन-व्यवहार। इसे आधार माना गया है। इस आधार पर यदि आपका नियन्त्रण न रहे तो यह धर्म की इमारत कैसे और कब तक टिकेगी? यह आप स्वयं सोचिये! यदिजीवन में व्यक्ति ने उद्देश्यमूलक कुछ नहीं किया। खा-पीकर, मौज करके, जीवन व्यतीत कर दिया। सभी विषयों के आधीन रहते हुए दुर्दशा पूर्वक अपनी मृत्यु को प्राप्त हो गया, तो ऐसे व्यक्ति की मृत्यु हो जाये तो अन्तिम संस्कार करवाने के For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR AUGUST-2014 लिए भी कोई तैयार नहीं होता। मोहल्ले वाले बाहर से लोग बुलाकर उस लाश को निकलवा देते हैं और जंगल के अन्दर किसी एकान्त स्थान पर ले जाकर उस लाश को डाल दिया जाता है। कहीं किसी पापी व्यक्ति की ऐसी ही मृत्यु हुई। वहाँ कोई योगी पुरुष अपनी साधना में अपूर्व आनन्द ले रहा था। एकान्त वातावरण था। प्राकृतिक सुन्दरता बिखरी हुई थी। ऐसे मंगलमय वातावरण में भी अचानक उसके मन में जरा चंचलता आई। विकृति आ गई। भाव में आवेश का प्रवेश हो गया। योगी पुरुष ने विचार किया कि आज यहाँ आस-पास का वातावरण कुछ दूषित नजर आता है। मेरे ध्यान में, साधना में, चित्त की एकाग्रता में यह व्यग्रता कैसे आ गई? मेरे भाव के अन्दर आज आवेश का प्रवेश कैसे हो गया? जरूर कहीं आस-पास दृषित वातावरण हुआ होगा। निरीक्षण किया। आत्मगवेषक व्यक्ति बड़ा जागृत रहता है। निरीक्षण के बाद उनको मालूम पड़ा, किसी व्यक्ति की लाश लाकर कोई वहाँ डाल गया है। जंगल के भूखे प्राणी वहाँ आ गये, लाश को सूघंने लगे। वन्य प्राणियों में सियार को बडा चालाक माना जाता है। कहावत में जंगल का राजा सिंह बताया जाता है। उसको एक दिन एक धुन सवार हुई। जितने भी उसके दरबार में प्राणी थे, सभी को बुलाया। सिंह के आमन्त्रण को कौन अस्वीकार करे? सभी आये। एक-एक को बुलाकर उसने कहा कि हमारे किसी साथी ने कहा है कि तुम्हारे मुँह से बडी दुर्गन्ध आती है। बास आती है। क्या यह सच है? मुझे मेरी दुर्गन्ध मालूम नहीं पड़ती; तुम सँघो तो? बेचारे बकरी वगैरह सब आये। आकर सूंघने लगे। मुँह तो गटर है। दुर्गन्ध तो आयेगी ही। वैसे ही उन्होंने वहाँ कह दिया - हाँ हजूर, जो आपने कहा वह बिल्कुल सच है। आपके मुँह से जरा दुर्गन्ध तो आती है। ___बडा अप्रिय लगा सिंह को शब्द और उसने उसी समय उन पर आक्रमण किया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया। जितने भी जानवर वहाँ आये थे, सबके साथ इसी प्रकार का व्यवहार हुआ। सियार सावधान था, जब उसका नम्बर आया और उसे बुलाकर पूछा कि जरा बताओ तो सही कि यह दुर्गन्ध मेरे मुँह से आती है या नहीं? ये जानवर तो इस प्रकार कह कर गये हैं। तुम बताओ कि सत्य क्या है? सियार ने कहा हजूर! आपका आदेश मुझे शिरोधार्य है, परन्तु मुझे जोर की सर्दी लगी हुई है। जुकाम लगा है। नाक काम नहीं करती। मैं सूंघू तो भी खुशबू या बदबू मालूम नहीं पड़ती। इस तरह वह बच गया। वह अपनी होशियारी से, वाणी की चतुराई से बचा। अन्य जिनते भी आये, सब मौत के घाट उतर गये। सियार का यह कहना कि मुझे सर्दी लगी है। मालूम नहीं पड़ता दुर्गन्ध है या सुगन्ध।' उसकी चतुराई थी। (क्रमशः) For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थान कुलक संजयकुमार झा कृति का संक्षिप्त परिचय - दोहा, चौपाई व छंद में ग्रथित यह कृति ब्रह्मचर्य १० समाधिस्थान कुलक, नववाड व नववाडि सज्झाय के नाम से प्रचलित है. इसके कर्ता नागपुरीय बृहत्तपागच्छीय आचार्य श्री साधुरत्नसूरि के शिष्यरत्न आचार्य श्री पार्श्वचंद्रसूरि हैं. इन्हें लोकख्यात नाम आचार्य पासचंद व आचार्य पासचंदसूरि के नाम से भी लोग जानते हैं. यह कृति ४१ गाथाबद्ध भाषा मारुगूर्जर में अनुमानतः विक्रम की १६वीं सदी में रची गयी है. रचनास्थल का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, फिर भी कर्ता का विचरणक्षेत्र विशेषरूप से राजस्थान व गुजरात होने से इन्हीं दो प्रदेशों में से कहीं एक जगह होना प्रतीत होता है. तत्कालीन राजस्थान व गुजरात में प्रयुक्त ग्राम्यभाषा का सरस प्रभाव व भाषामाधुर्य स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है. कर्ताने अपनी रचना के माध्यम से भव्य जीवों को ब्रह्मचर्यमय जीवन कैसे जीया जाय, ब्रह्मचर्य की रक्षा कैसे करें, ब्रह्मचर्यभंग के किन-किन कारणों से सुरक्षित रहें, आदि को उपदेश द्वारा समझाने का सफल प्रयास किया है. रचना का आधार उत्तराध्ययनसूत्र का अध्ययन- १६, दशब्रह्मचर्यसमाधिस्थान है. १० विध ब्रह्मचर्य समाधिस्थान वर्णन होने से उक्त शीर्षक की सार्थकता सिद्ध होती है. उत्तराध्ययनसूत्र के साथ-साथ ब्रह्मचर्यरक्षण संबंधी विवरण स्थानांग व समवायांगसूत्र में भी ९ गुप्तियों में वर्णित है. अब हम १० ब्रह्मचर्य समाधिस्थान का क्रमशः संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास करते हैं १. निर्ग्रथ को स्त्री, पशु अथवा नपुंसक का जहाँ निवासस्थान या संसर्ग हो वहाँ वास नहीं करना चाहिए. २. विकथा का ही अंश स्त्रीकथा है, अतः स्त्रीकथा न करें. ३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठें अथवा अकेली स्त्री के साथ वार्तालापादि कोई व्यवहार न करें. ४. स्त्रियों के मनोहर एवं मनोरम अंगों को दृष्टि जमाकर न देखें व न ही चिन्तन करें. For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR ___AUGUST-2014 ५. दीवार आदि की ओट में छिपकर स्त्रियों के कामविकारजनक शब्द न सुनें, तात्पर्य यह है कि स्त्रियों के कूजन, गूंजन, गायन, रोदन, हास-परिहास आदि विकारजन्य हाव-भावपरक चेष्टाएँ न देखें और न सुनें. ६. पूर्वावस्था में की हुई रति-क्रीडा, आमोद-प्रमोद आदि का चिंतन-स्मरण न करें. ७. सरस, स्वादिष्ट, पौष्टिक आहार न करें, अर्थात् रसनेन्द्रिय को सुखकारक आहार ग्रहण न करें. ८. नियत प्रमाण से अधिक आहार-पानी का सेवन न करें, अर्थात् परिमित आहार लें. ९. शरीर विभूषा न करें, अर्थात् अंगराग,आभूषण, सुन्दर परिधान आदि न करें. १०. पांच इन्द्रियों के विषय-शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श के विषयों में आसक्त न होवें. ___ इस प्रकार ब्रह्मचर्य का समुचित पालन व रक्षण हेतु शास्त्रों में दिये गये निर्देशों को जनभाषा में १० ब्रह्मचर्य समाधिस्थान का सुन्दर वर्णन किया गया है. ब्रह्मचर्यरूपी वृक्ष को मन में रोपकर श्रद्धारूपी विमल जल, सम्यक्त्वरूपी गुणों से इस वृक्ष के मूल को दृढ करें. इसी प्रकार पत्र, शाखा, तना आदि वृक्ष के अवयवों को समुचित उपमा द्वारा अन्तर्मन में ब्रह्मचर्यवृक्ष आरोपण करने हेतु कर्ता ने अपने उपदेशयुक्त निर्देशों के द्वारा कण्टकाकीर्ण मार्ग को निष्कण्टक बनाने का प्रयास किया है. ___ ब्रह्मचर्य रक्षण से संबंधी दूसरे ग्रंथों में सुन्दर उपाय बताये गये हैं- मूलाचार में शीलविराधना के १० कारण वर्णित हैं. अनगारधर्मामृत में १० नियमों में से ३ भिन्न नियम बताये गये हैं. वैदिक ग्रंथ अंतर्गत स्मृति में भी ब्रह्मचर्यरक्षा के लिये स्मरण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रियानिष्पत्ति इन ८ मैथुनप्रेरक प्रकारों से बचने के लिया कहा गया है. ___ अंत में कर्ता अपनी विनम्र भावना दर्शाते हुए अंतिम कड़ी में उल्लेख करते हुए बताते हैं कि - साधक ब्रह्मचर्यरक्षा हेतु नववाडरूप ब्रह्मचर्यतरु को हृदय में आरोपण करता है, कथित १० स्थानक के अनुसार संयमित रहता है, वह ब्रह्मचर्यवृक्ष के मोक्षरूप फल का आस्वादन करता है. ऐसे ब्रह्मचारी व सुकृतधारी ब्रह्मचारी को पासचंद (पार्श्वचंद्र) नमन करता है. कर्ता का संक्षिप्त परिचय - स्वनामधन्य नागपुरीय बृहत्तपागच्छाचार्य श्री पार्श्वचंद्रसूरि से विद्वदजगत् एवं श्रमण परंपरा में इनसे भला कौन अनजान होगा. For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 श्रुतसागर अगस्त-२०१४ इनका व्यक्तित्व-कृतित्व चतुर्विध श्रीसंघरूपी गगन में नक्षत्र की भाँति देदीप्यमान है. राजस्थान के आबूतीर्थ समीप हमीरपुर गाँव में श्रावक श्री वेलग शाह की धर्मपत्नी विमला देवी की कुक्षि से वि.सं.१५३७ चैत्र शुक्ल नवमी शुक्रवार के पावन दिन इनका जन्म हुआ. बाल्यकाल के लघुतम ९ वर्ष में ही संवत् १५४६ के अक्षयतृतीया के पुण्यदिवस को इन्होंने सांसारिक जीवन से विरक्त होकर आचार्य श्री साधुरत्नसूरि के द्वारा दीक्षा ली. संयमजीवन की मंगलमयी यात्रा निर्विघ्न रूप से गतिशील रही. अद्वितीय प्रतिभा के धनी पार्श्वचंद्र को वि.सं.१५५४ अक्षयतृतीया के दिन नागौर-राज. में उपाध्यायपद से विभूषित किया गया. वि.सं. १५६५ वैशाख शुक्ल तृतीया को जोधपुर में आचार्यपद से अलंकृत किया गया. इसी कड़ी में संवत् १५९९ के अक्षयतृतीया के ही पावन दिन में शंखलपुर-गुजरात में युगप्रधान पद पर इन्हें आरोहित किया गया. अपने संयम जीवन में जिनशासन के अनेक मंगलकारी कार्य करते हुए चंद्रोद्योतसम उज्ज्वल यशस्वी जीवन व्यतीत कर ७५ वर्ष की आयु में वि.सं.१६१२ मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया रविवार को जोधपुर (राज.)में समाधिपूर्वक कालधर्म हुआ. इनकी विशेषता रही है कि १८ लिपियाँ व विविध भाषाओं के कुशल विद्वान, संस्कृत-प्राकृत के निष्णात, आगमादि गहन पदार्थों के ज्ञाता होने पर भी इन्होंने जनसामान्य को ध्यान में रखते हुए अधिकाधिक रचनाएँ लोकभाषा में की हैं. आगमों पर रचित अभयदेवसूरि, शीलांकसूरि व जिनहंससूरि की संस्कृत टीकाओं को सरलतम ढंग से समझाने हेतु बालावबोध व टबार्थ की भी रचनाएँ इन्होंने की हैं, जो लोकोपकारी हैं. इनके जीवन की कुछेक उल्लेखनीय घटनाएँ तो जानने योग्य हैं. ___वि.सं.१५६४ नागोर (राज.) में क्रियोद्धार कराना. आपश्री के संयमग्रहण से लेकर कालधर्म तक शुक्ल पक्ष तृतीया का सुन्दर संयोग पाया गया है. आपसे प्रभावित हो जोधाणा नरेश राव मालव को आपसे मिलना व श्रावक बनना. रत्नपुरी में आपके उग्रतप से प्रभावित होकर क्षेत्रपाल बटुकभैरव का शासनसेवा हेतु आपके पास आना. अहमदाबाद के चौमासे में पधारे तो उस समय प्लेग रोग से पूरा नगर प्रभावित था, जनसमुदाय को रोगग्रस्त देख अपने तपप्रभाव से नगर को रोगमुक्त किया. कसाईयों द्वारा वध हेतु लिये जाते गाय को वासक्षेप द्वारा अदृश्य करना. तत्कालीन नवाब को अहिंसक बनाना. गुजरात के उनावा गाँव में एक सोनारन द्वारा For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 11 SHRUTSAGAR AUGUST-2014 गोचरी में प्राप्त गोबर की घटना हेतु सोनार की क्षमायाचना करने पर अपने तपोबल से उसके समक्ष गोबर की जगह खीर बताना. हिन्दु-मुस्लिम की एकता व २४ पीरों को प्रतिबोधित करना. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक बार अकालग्रस्त व दूसरी बार मेघाच्छादित जोधपुर को उस संकट से मुक्त करना. एक जनश्रुति अनुसार स्वर्गलोग से आकर शत्रुसंकटग्रस्त जोधाणा नरेश को दर्शन देकर चिन्तामुक्त करना. आपके कीर्त्तिमय कल्याणकारी जीवन से प्रभावित होकर आपके अनुयायियों तथा भक्तों की संख्या भी कम नहीं है. आज आपकी परंपरा को माननेवाले पार्श्वचंद्रगच्छ व पायचंदगच्छ के नाम से जाने जाते हैं. परंपरावर्ती अनुयायियों द्वारा आपकी अष्टप्रकारी पूजा, भास, गुरुगीत आदि ढेर सारी गुरुभक्तिपरक रचनाएँ आज भी प्राप्त होती हैं. प्रत परिचय - आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा - गांधीनगर में स्थित हस्तप्रत भंडार में प्रत क्रमांक - ०९४६८ के आधार पर इस कृति का सम्पादन किया है. इस प्रतमें दो कृतियाँ आलेखित हैं. प्रथम कृति प्रस्तुत कृतिकार के पट्टशिष्य समरसिंघ (समरचंद्र) द्वारा रचित ब्रह्मचर्यबावनी पत्र - १ से ४ पर है तथा पत्र-४ से ६ पर स्थित प्रस्तुत द्वितीय कृति है. इसका लेखनकालादि विवरण वि.सं. १६९२ आश्विन शुक्ल प्रतिपदा बुधवार है. इसे मुनि मल्लिदास के शिष्य मुनि मनोहर ने श्राविका चंदाबाई के पठनार्थ मालपुर में लिखा है. अक्षर सुवाच्य एवं सुन्दर हैं तथा प्रायः पाठ शुद्ध है. प्रत की भौतिक स्थिति भी उत्तम है. इस प्रत की लं. २७ से.मी. व चौ. ११.५ से.मी. है. पत्रों में पंक्तियाँ १० से १२ हैं तथा एक पंक्ति में अक्षर ४० से ५० के मध्य हैं. इस प्रत के अतिरिक्त ४ अन्य प्रतें भी हमारे ज्ञानमंदिर में उपलब्ध हैं. जिसमें ३ प्रत अपूर्ण हैं. ४थी प्रत नं. ४३६९९ संपूर्ण है इसे पाठान्तर आदि के लिये उपयोग किया है. नोट - हस्तप्रत के मूलपाठ को यथावत् रखा गया है, संदर्भ प्रत के अनुसार सुसंगत पाठ व शुद्धता हेतु आंशिक फेरबदल किया गया है. कोई क्षति या शुद्धिस्थल का अवसर दृष्टिगोचर हो, तो विद्वद्वर्ग क्षमाभावी होकर उदार हृदय से दृष्टिपथ पर लाने की कृपा करें. धन्यवाद ! For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर www.kobatirth.org 12 दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थान कुलक ॥ श्री जिनाय नमः ॥ ॥ ६० ॥ श्री नेमीश्वर पाय नमी, पामी सुगुरु पसाउ । मन उल्लासई संथुणउ, परम ब्रह्मव्रतरीव' ॥१॥ ब्रह्मचर्यना गुण घणा, रयण जेम जगि सार । सुरगुरुजीभई कह, तउ पुण न लहइ पार ॥२॥ तरुणपणई' जे तारुआ', ते विरला संसारि । खुता नारि' नदी जलिइं, ते किम पुहुचई पार ॥३॥ शिवगामी तेणइ ज भवि, स्वामी मल्लि नेमि । भचेर मनि थिरकर, मुकति पहुता खेमि ॥४॥ जीव विमासी' जोइतउं, जीवन खिण-खिण जाइ । अंजलिना जलनी परइं, तिम करि जिम थिर थाइ ॥ ५॥ गुरु आराम' जोइ, जिनप्रवचन आरा 1 मनथाई तरु रोपियउ, बंभचेर अभिराम ॥६॥ श्रद्धा सारण जल विमल, वहइ तिहां सुविवेक । सुदृढमूल समकित भलउ, गुणगण पत्र अनेक ॥७॥ पंचमहाव्रत'विडिम' सम, तत्त्वविगति तसु खंध । तेनी शाखा भावना, मउर जि (जे) शुभनउं बंध ॥ ८ ॥ उत्तम सुरसुख तसु कुस (सु)म, मुगति ति फल अतिचं 1 महावृक्ष ते राखिवा, हियडइ अविहड रंग ॥ ९ ॥ ॥ ढाल ॥ उत्तराध्ययनि बोल्या सोलमइंजी, बंभ समाहीठाण । कीधा उत्तम तरुवर पाखलिइंजी, ए दश वाडि समाण ॥ १० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भवियण भावइं निरतउ पालिइंजी, व्रतमांहि गुरुअउ बंभ । दंभ कदाग्रह दूर परहरी जी, नरभव लहिय दुर्लभ ॥ ११॥ ( आंचली) स्त्री पसु (शु) पंडक वसतिइं जिणइ वसइजी, तिह न करेवउ वास । इहनी संगति भलीय न जाणियइंजी, व्रतनउं करय विणा ॥ १२ ॥ For Private and Personal Use Only अगस्त २०१४ 1. राजा. 2. यौवनवय, 3. तरी जनारा, 4. विचारी, 5. माळी, 6. बगीचो, 7. वृक्ष (?) 8. मोर. भवियण भावई... Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 13 AUGUST-2014 विकट डाली संगमि जे रमइजी, कुक्कड मूसग मोर | वीससिया ते वरांसियाजी", पामइ दुक्ख अघोर ॥१३॥ भवियण भावई... प(पी)घलइ रमणी अगणी संगतइंजी, मानव मन जतु"कुंभ" । न चलइ गयंवर शृंडई चालव्याजी, विरला ते जगि थंभ ॥१४॥ भवियण भावई... विकल विवेकइं पसुय ति बापडाजी", नीलज" करता केलि । ष(स)हचर देखी लखण महासतीजी, रुलिय घणउं मन मेलि ॥१५॥ भवियण भावई... अतिचिंति चंचल कायर पंडगाजी", वरतइ तीजइ" वेदि । तजि तजि संगति मति रति तेहनीजी, म पडिसि भवदुह खेदि" ॥१६॥ भवियण भावई... इम जाणी आणी मति मनइंजी', राखि प्रथम ए वाडि । राखे" भंजी भोला पइसतीजी", प्राणई प्रमदा धाडि ॥१७॥ भवियण भावई... ॥ ढाल चुपै (चौपाइ)॥ हवइ कहीइ छइ बीजउ ठाण", रूप जाति कुल देश वखांण । रमणी तणी कथा जे कहइ, तेहनउ ब्रह्मव्रत किम रहइ ॥१८॥ वेणि भुयंगम गतिइं मराल', नयणि हरिण हरिलंक विशाल । वदन चंद्र वसु कुंभ सरोज", करयुग चरणइं जीति" सरोज ॥१९॥ इणि परि रमणि रूप वर्णवइ, मुगधलोकना मन भोलवइ । संभलि आणि विषय" मनरंगि, पासि पडइ जिम दीप पतंग ॥२०॥ अशुचि मूत्रमलनउ कोठिलउ', कूड कलह कज्जल कूपिलउ” । बारह श्रोत्र निरंतर वहइ, चर्म दीवडी ऊपम लहइ ॥२१॥ क्षणभंगुर औदारिक देह, सप्तधातुमय आमय गेह । चक्री चउथउ आणी हियइ, रूप अनित्यपणउं जोइयइ ॥२२॥ इत्थीकथा विकथामांहि गिणी, तीजइ अंगइ जिणरि भणी । सप्तम अंगइ अनरथ दंड, तिण कहता हुइ पाप प्रचंड ॥२३॥ 9. विश्वास करनार, 10. खोटो भरोसो, 11. लाख, 12. निर्लज्ज, 13. देह (?), 14. साप, 15. हंस, 16. सिंह जेवी पातळी कमर, 17.कुप्पी (शीशी) For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 14 अगस्त-२०१४ अथवा नारि जिहां एकली, तेहनी संगति न हुवइ भली । धर्मकथा पुण तास म भाखि, बीजी वाडि इम निश्चल राखि" ॥२४॥ लीजी वाडि हिव चित्ति विचारि, नारि सरिस" व(ब)इसिवउ निवारी । इक आसणि तिहां दीपइ काम, चउथा व्रतनउं भाजई ठांम ॥२५॥ इम बइसतां हुइ अति आसंग, आसंगइ फरसाइं अंग"। अंगफरस वसि विषय विकार", जोवउ श्रीसंभू" अणगार ॥२६॥ इणि" कारणइं नियाणउं कर्यो, बारम चक्रवर्ती अवतर्यो । चित्रइं ते प्रतिबोध्यउ घणउं, लेश न आयो विरति हि तणउं ॥२७॥ इसउ जाणि इक आसण वारि, जननि(नी) बहिन जइ पुण हुइ नारि(री) । तेह जि व(ब)इसी ऊठइ जिहां, मुहुर्त एक न कल्पइ तिहां ॥२८॥ स्त्रीना इंद्रीय" अंग उपांग, मनहर निरखि माणि मनरंग । चित्रलिखित जउ हुइ पूतली, न जोइयई भाषइ केवली" ॥२९॥ दशवी(वै)कालिक प्रवचनमांहि, एह वचन जाणी आराहि । छेदइ“ चक्षु कुशील कहाइ, लख भव रूलियउ रूपी राय ॥३०॥ चउथी वाडि जाणि इम" पालि, हिवइं पंचमी हियइं संभालि । परियच भीति तणई आंतरइ, निशि निवास नारी जिह करइ ॥३१॥ सुरत केलि रस विहंगति नादि, कुंजई गायइ मधुरइ सादि । रोवइ दाधी दुह दवजाल, विलवइ विरह कराली बाल ॥३२॥ बात करइ मुखि हडहड हसइ, जेणय विषयराग उल्हसइ । शी(सी)ता हासइ अनरथ जोइ, रावणवध जाणइ सहु कोइ ॥३३॥ ब्रह्मचारि ए नहु सांभलइ, चित्त चलइ मति धी(ध)रम टलइ । वसई नही थानिक एहवइ, छटुउ ठाणउं सांभलि हवइ ॥३४॥ ॥ढाल ॥सासनादेवीय पाय पणमेवीय ए ढाल॥ पामिय योवन जुवइ संजोग, ऋद्धि सामग्रिय सवि लही ए । पंच इंद्रिय वसई भोगव्या भोग, पहिलना चित्ति चिंतइ नही ए । चिंतव्या दुर्गतिदायक एह स(शोल्य, विस विसहरइ मनही ए। तेहथी अधिक एम करि संदेह, एहवी वात आगमि कही ए ॥३५॥ श्रेष्टि माकंदिय पुत्र जिणरक्खियउ, यक्षशिक्षा सह वीसरी ए। देविमुख सनमुख तेणि जइ निरखियउ, पुव्वसंगति मति चित धरी ए । 18. कामक्रीडा. For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 15 19 तिक्ख करवाल" स्युं कीध शतखंडित, जलहि जलि दह दिशि बलि कर्यउ ए । जोइ निपालित थयउ जइ पंडित, सेलगि वेगि हि ऊधर्यो ए ॥ ३६ ॥ सातमी वाडिनउ कहिउं सरूप, ब्रह्मआचार विचारीयई ए । कवल उपाडता झरइ घृतबिंदु, तेय आहार निवारीयइ ए । चक्रधर रसवती रसिक भूदेव, कामसरप सरि विडंबियउ ए । इम गिणी टालिवी सरस रससेव, रसनइंद्रिय बल जीपिवउ ए ॥३७॥ 20 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरुषनइ कवल बलीस आहार, आठनई वीस नारी तणउं ए । 21 पंडक कवल चउवीस ए मान, अधिक आहार दूषण घणउ ए । ब्रह्मव्रतधारिनई ऊण गुण जाणि", जोय कंडरीक गयउ सातमी ए ॥ तुच्छ भोजन करी सूत्र हियडइ, धरी राखियइ वाडि इम आठमी ए ॥ ३८ ॥ 22 ५३ नवमीय परिहरइ अंग सिंगार, कामदीपन जिनवर भणई ए । कंकण मुंद्रडी कुंडल हार, न्हाण विलेपण "अविगिणइ " ए । थई सुमालिया अंग बाउसिया, दुसिया दोस ते साहुणी ए । बहुदूषण भूषण टालीयइ, पालीयइ आण जिणवर तणी ए ॥३९॥ 44 शद्दरसरूव ब (व) लि" गंधनइ फास, विषय पंच ए छंडियइ ए । इक इक मोकलइ जाणि जण "एकलइ, पंच ए वंचिय खंडियइ ए । मृगरस जस रूप पतंग, गंधि अलि फरसि गज गंजियइ ए । वाड नहुं भंजियइ दशम मनरंगि, दंसणि तासु जग रंजियइ ए ॥ ४० ॥ ॥ कलश ॥ इम बंभ तरु गिणि वाडिसम, जिणि दशय थानक सद्दह्या ! गुण तासु भाव्या सुदृढ राख्या, छिद्र पडता निग्रह्या । तेहि निर्मल मुक्तिमय फल, अचल थानकि वासिया । जय ब्रह्मचारी सुकृतधारी, पासचंदि नमंसिया ॥४१॥ AUGUST-2014 19. तलवार, 20 जीतवुं, 21. नपुंसक, 22. अवगणवु. ॥ इति ब्रह्मचर्य दशसमाधिस्थानक कुलकं समाप्तम् ॥ संवत् १६९२ वर्षे अश्वनिमासे शुक्लपक्षे प्रतिपदा तिथी ज्ञवासरे । लिपिकृतं मुनि श्री मल्लिदासतत्सिष्य मुनिमनोहरेण । पठनार्थं सुश्राविका बाई चंदा शुभं भवतु । मालपुरवरे । For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर १. धार २. सुहगुरु ३. नारा ४. श्रीधा ५. विडि ६. अति फल चंग ७. श्री ८. व्रतनई होइ विणास ९. बिरली संगति www.kobatirth.org १०. अतिघोर ११. मनजनमना कुंभ १२. न चलिइ सुडिइ गयवर चालवाजी, विरला ते जणि थंभ | पडसि भवदुःख खेदि । १६. मति ए मनिइजी १७. राखी जाइ १८. सताजी १९. पाणिइं २०. . बीजउ हाणा २१. ब्रह्मचर्ज २२. उरोज २३. रणित (?) २४. विषइ २५. फसि २६. कोट्टड २७. कपट २८. उपम २९. उदारिक 16 पाठांतर सूचि ३०. आणिणि ३१. जिवर १३. वापुडा १४. तीजी १५. तीजी गति मत्ति रति संगति तेहनाजी, ४४. एह ४५. नाहि ४६. गूंजइ ४७. जाणइ ३२. हइ ३३. धर्मकथापणे तासु म भाखि, वीजी वाडि मनि निश्चहचल राखि ३४. सहित ३५. भंजइ ३६. निज अंग Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७. अंग फरसत होए विषयविकार ३८. संभूति ३९. तेणि ४०. लेसय न आवी चरित्तातणउ ४१. ईभिट ४२. इमइ न जोवइ भावइ वला ४३. वेदहि अगस्त २०१४ ४८. वइसइ ४९. भणइ कयवन्नउ ए ढाल जीवन ५०. ५१. पाठांतर प्रतमां आ पाठ कडी नं. ३८मीना बीजा चरण बाद आवे छे. ५२. जाणियइ ५३. अवगणई ५४. दुषणा ५५. सद्दरुववलि ५६. जाण जे ५७. सयल ५८. खंडिते For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योगनिष्ठ आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीनं जीवन अने कवन कनुभाईल. शाह ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी अने कर्मयोगी तरीके जेमनी ओळख बनी छे एवा आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजीनुं 'सूरिपद' नुं आ शताब्दी वर्ष छे. आ योगीने अढारे आलमना लोकोए 'अवधूत' नुं बिरुद आप्युं छे. आ जनसमूह योगीजीने संत तरीके आदरमान आपे छे. तेमज समाजसुधारक तरीके विशेष भावथी अने मानथी जूए छे. घंटाकर्णवीरनो प्रादुर्भाव अने महूडीमां एमनी स्थापना अने प्रतिष्ठा करावीने लोकोने कुरिवाजो अने अंधश्रद्धानी बदीओथी दूर करीने एक साचा 'वीरत्व' नी प्रेरणा पूरी पाडी छे. समाज अंधश्रद्धा अने क्रियाकांडोनी नागचूडमां फसायो हतो, शिक्षणनो प्रचारप्रसार तेमना प्रारंभिक तबक्काओमां हतो तेवा समये प्रजामां नवी जागृतिनी लहेर प्रसराववा ओगणीसमी सदीना उत्तरार्धमा अने वीसमी सदीना प्रारंभे वि. सं. १९३०, महावदि चौदश, महाशिवरात्रिना दिने गुर्जरदेशनी गुणियल भूमि विजापुरमां एक कणबी कुटुंबमां बहेचरदासनो जन्म थयो हतो. मातानुं नाम अंबा अने पितानुं नाम शिवा पटेल हतुं. बाळक बहेचर प्रथमथी ज वडीलोनी शिखामण ग्रहण करीने सत्य, अहिंसा अने दयाना पाठो शीख्यो हतो. पितानो धंधो खेतीनो एटले बहेचरने खेती करतां साधु-संतोनी सेवा करवानो अने भजनो सांभळवानो अपूर्व शोख हतो. बहेचर बाळपणथी सरस्वती देवीना अठंग पूजारी हता. गोखलामां सरस्वती देवीनी छबी मूकी तेनी सामे निरंतर आराधना करता. तेमना परम मित्र श्री डाह्याभाईनी सहायथी प्राचीन ग्रंथोमांथी एक सरस्वती देवीनो मंत्र मळ्यो. मंत्र स्मरणना प्रभावे चित्त स्थिर थयुं, धर्म प्रत्येनी आस्था दृढ बनी. समयना वहेण साथे बहेचरनो श्री रविसागरजी म. सा. साथै परिचय थयो. साधु सत्संगथी लौकिक जीवनमांथी रस ओछो थतो गयो. श्री बहेचरे श्री रविसागरजीने पोताना गुरु बनाव्या. वि. सं. १९४५मां शास्त्राभ्यास करवा अमदावादनी विद्याशाळामां पंदर वर्षनी उंमरे दाखल थया. अभ्यासने लीधे दर्शन, पूजन, स्वाध्याय अने आवश्यक क्रियाओ एमनां जीवननां अभिन्न अंग बन्यां. पू. रविसागरजीनी प्रेरणाथी वधु अभ्यास माटे तेओ महेसाणा गया. महेसाणामां श्री यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाळामां तलस्पर्शी अध्ययन कर्यु. अध्ययन बाद एमने वैराग्यनी भावना होवाथी माता - पिताना मृत्यु बाद बहेचरदासे पालनपुर For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 18 अगस्त- २०१४ जईने गुरुदेव श्री सुखसागरजी पासे दीक्षा आपवानी विनंती करी. सुखसागरजीए संघ अने तेमनां सगां-संबंधीओनी अनुमति लईने श्री बहेचरदासने विधिपूर्वक वि. सं. १९७५ना मागसर सुदि छट्टने दिवसे दीक्षा आपी, बहेचरदासने मुनि बुद्धिसागर बनाव्या. बहेचरे बुद्धिसागर बनी आत्मसाधनाना पंथे प्रयाण आदर्यु. आ ज बुद्धिसागर आगळ जता आत्मसाधनाना अतूट बळथी योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजी तरीके ओळखाया. हेच दीक्षा लईने बुद्धिसागर बन्या. एमना जीवनमां बनेली महत्त्वनी प्रारंभिक घटना अने त्यारबाद बनेली अनेक घटनाओ ध्यानमां लईए तो ए स्पष्ट थशे के बहेचरनुं जीवन केवी रीते घडायुं तथा कई घटनाथी एमना जीवनमां वळांक आव्यो. बहेचरना कुटुंबनो मुख्य व्यवसाय खेतीनो एटले बपोरना समये खेतरनुं काम परवारी बधां भेगा थईने झाडना छांयडे बेसी शिरामण करतां. बहेचरने खोयामां सुवाडेलो हतो. खोयुं झाडनी डाळीए बांधेलुं हतुं. एक काळोतरो नाग झाडनी डाळीए खोया पर फेण चढावीने बेठो हतो. सौ आ दृश्य जोईने हेबताई गयां सौना मनमां फाळ पडी के हवे शुं थशे? माता अंबाए मनोमन बाधा-मानता राखी. बधांना आश्चर्य वच्चे थोडी ज वारमां नाग फेण संकेलीने वाडमां सरकी गयो. बहुचरदेवीनी दयाथी बाळक बची गयो होवानुं जाणी माता अंबाए पुत्रनुं नाम बहेचर राख्युं. आठ वर्षनी उमरे बहेचरे श्रीमाळीवाडानी धनेश्वर पंड्यानी गामठी शाळामां भणवानो प्रारंभ कर्यो. बहेचर गामठी शाळामां चालीसा सुधी भण्यो. पछी दोशीवाडामां शेठ नथुभाईना डहेलामां आवेली नारायण भट्टनी शाळामां अभ्यास कर्यो. बहेचर अभ्यासमां सारा गुणथी पास थतो होवाना कारणे शाळाना शिक्षकोने तेना पर घणुं हेत हतुं अने विद्यार्थीओ पण बहेचरने मान आपता हता. सांजना समये ढोरो सीममांथी चरीने गाममां पाछां फरी रह्या हतां. त्यारे एक भेंस भडकी अने दोडवा लागी. सामे जे व्यक्ति आवे तेने अडफेटमां लेती. ते समये सामेथी एक वृद्ध मुनि आवता देखाया. हाथमां दंड लईने धीमे धीमे आवी रह्या हता. लोकोए मो पाडी के मुनिने बचावो... बचावो... हमणां भेंस जो मुनिने अडफेटमा लेशे तो मुनिनो जान-जोखममां मुकाशे. मुनिने मोतना मुखमांथी बचाववा कोई आगळ आव्युं नहि. बराबर ए ज वखते एक युवान दोडतो आवीने धीरे रहीने भेंसना शिंगडा पकडी लीधां. धीमेथी पाछा हठीने ए युवाने मुनिने बचाववा भेंसना माथे डांगथी प्रहार कर्यो. भेंस लाकडीना प्रहारथी शांत थई अने मुनि भगवंत हेम खेम उगरी गया. For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 19 SHRUTSAGAR AUGUST-2014 आ युवान ते बीजो कोई नहि पण ते हतो बहेचर. बहेचर खूब हिंमतवाळो हतो. बहेचरे समयसूचकता वापरीने भेंसने काबुमां लीधी न होत तो परिणाम कंई जुद ज आवत! आ घटनाने लीधे वडीलोए तेने शाबाशी आपी, मित्रोए मुबारकबादी आपी. मुनिए बहेचरने पासे बोलाव्यो. मुनिए बहेचरने आशीर्वाद स्वरूप धर्मलाभ आप्या. अने वधुमां जणाव्यु के प्राणीने लाकडी न मराय. तारा आ फटकाथी प्राणीने केटलुं दुःख थयु हशे? एने य जीव छे ने? अबोल प्राणी पोतानुं दुःख व्यक्त करी शके नहिं, जीव तो दरेकनो सरखो ज छे. गुरु महाराजना शब्दो एना हैये चोंटी गया हता के जे दुःख आपणने थाय छे तेवू ज दुःख अबोल प्राणीओने पण थाय. बहेचर तो आ वात सांभळीने सडक रही गयो. बहेचरे मुनिने प्रश्न कर्यो के आ कयो तमारो धर्म छे? पोतानो जीव ज्यारे जोखममां होय त्यारे पोतानुं रक्षण करवं नहि? मुनि भगवंते बहेचरने का के “अमारो धर्म छे जैन धर्म. आ धर्म शरीरना बळनी नहि, आत्मबळनी वात करे छे. भाई! सांभळ, मारे ते मोटो नथी, तारे ते मोटो छे." आ वातथी बहेचरन मन विचारना चकडोळे चढ्यु. मुनि भगवंत साथेनो संवाद अने एमनी साथेनी मुलाकात एना दिलमां कोतराई गई. पिता शिवाभाई विचारता के बहेचरने थयु छे शु? ज्यारे घरमां दूध न होय अने दोहवानो वखत थाय त्यारे बहेचर वाछरडाने छोडी मुकतो अने गायन बधं दुध धवडावी देतो. बहेचर एम मानतो हतो के गायना दुध पर मानवीनो नहि पण तेना बच्चांनो एटले के वाछरडानो पहेलो अधिकार छे. वाछरडाने दूध धवडाव्या सिवाय मानवी ते दूध लईने उपयोग करे छे ते खरेखर खोटुं छे. मूंगा जीवनी आंतरडी ककडाववामां एने जीवहिंसा देखाइ. बहेचरने माता-पिताना मरणना समाचार मळता ते विजापुर पहोंच्यो. बहेचरने सौ प्रथम ए विचार आव्यो के हवे मायाना बंधन तूट्यां, दीक्षा लेवानो समय आवी गयो छे. बहेचरे सौनी साथे रडवानु बाजु पर मूकीने हृदयमां शोकनो तीव्र आंचको अनुभव्यो. माता-पिताना मरण पाछळ जमणवार करवानो रिवाज समाजमां प्रचलित हतो. देवू करीने पण लोको मरण पाछळ जमणवारनी क्रिया करता. आना कारणे केटलाये लोको देवादार थइ गया हता. तेथी बहेचरे देवू करीने जमणवार करवाना आ रिवाजनो सखत विरोध कर्यो. आवा कुरिवाजो समाजमांथी नष्ट थवा जोइए ए विचारीने एमने पोते आ क्रिया न करी अने समाजना अंधश्रद्धाभर्या रिवाजो बंध कराववामां अग्रेसर बन्या. For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 20 श्रुतसागर अगस्त-२०१४ विजापुरना श्रेष्ठि हता श्री नथुभाई मंछाराम शेठ, धर्मीजीव अने भावनाशाळी पण एटला ज. शेठने बहेचर प्रत्ये खूब ज व्हाल. एमनां धर्मपत्नी जडावबहेनने पण बहेचर प्रत्ये एटली ज ममता. बहेचर धार्मिक परीक्षामा सारा नंबरे पास थवाथी एने इनाम मळ्यु. बहेचरने खूब आनंद थयो. शेठनी उमर मोटी, वांचवानी तकलीफ एटले एमणे बहेचरने बोलावीने का के 'हवेथी तारे मने सारा ग्रंथो वांची संभळाववाना छे. बहेचरने आ वात खूब ज गमी. कारणके बहेचरने वांचननो शोख हतो. बहेचर उत्तम कोटिना ग्रंथो शेठने वांची संभळावतो अने शेठ शांतिथी सांभळता. आथी बहेचरने पण घणा ग्रंथोनुं वांचन थयु. शेठे बहेचरने संस्कृत शीखवानी पण व्यवस्था करी आपी. वडोदरा नरेश महाराजा सयाजीराव गायकवाड शिक्षणप्रेमी हता. वडोदरा राज्यमां प्रजा पुस्तको वांचीने जीवन सारी रीते जीवी शके ते माटे गामे गाम शाळा अने पुस्तकालयनी स्थापना कराववामां तेओ अग्रेसर हता. बुद्धिसागरसूरिनी वाणीनो जादु एमने पिछान्यो हतो. एटले महाराजाए पोताना राजमहेलमां पधारवा अने प्रतिबोध पमाडवा विनंती करी हती. आचार्यश्रीए ए विनंतीनो स्वीकार करी लक्ष्मीविलास पेलेसमां पुनित पगला पाड्यां. आ दिवसे वडोदरा नरेशना निमंत्रणथी सभाखंडमां सारी एवी संख्यामां श्रोताओ श्रीमद्वं व्याख्यान सांभळवा भेगा मळ्या हता. श्रोताओमा हता - अमीर उमराव, नगर श्रेष्ठीओ, प्रकांड पंडितो, विद्या-वाचस्पतिओ, शास्त्रीओ, धूरंधरो, मुत्सुद्दीओ अने राज्यना कारभारीओ. वडोदराना आ राजवीए एमनु प्रसंगोचित स्वागत कर्यु. एक शिक्षणप्रेमी अने प्रजा दिल जीतनार राजवी अने एक योगीपुरुष अने समाजने धर्मवाणीमां जकडनार संत पुरुष- मिलन समाजना हितमा परिणम्यु. लक्ष्मीविलास पेलेसमां 'आत्मोन्नति' विषय पर आचार्यश्रीए व्याख्यान आप्यु. गुरुदेवश्रीनी वाणीमा रहेला तत्त्व अने एना ऊंडाणनी राजवी पर व्यापक असर थई. आq मनने शांति अर्पतुं व्याख्यान वडोदरा नरेशने प्रभावित करी गयु. एना परिणामे विजयादशमीना दिवसे थता पाडाना वध करवानी खोटी परंपराने बंध करवानी जाहेरात वडोदरा नरेशे करी. ए काळमां ज्ञाननी भक्ति करतां साधु महात्माओ पोतानो साधु समुदाय वधे ए बाबतना सघन प्रयत्लो करता. वधारे शिष्यो होय ते साधु समुदायनी महत्ता विशेष अंकाती. समाज साधुओनी संख्याबळने जोइने एमने वधु मान आपता ने आवकारता. जे साधुने शिष्यो ओछा होय तेनो समाजमां भाव न पूछातो. एटले समाजनी आवी For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 21 AUGUST-2014 मनोवृत्तिना कारणे दरेक साधु पोताना शिष्यो वधे ए दिशामां विचारता ने शिष्यो नाववाना प्रयत्न करता. बाळकोने तेमना माताता-पितानी आज्ञा वगर ज साधुओ गुप्त रीते साधुनो वेश पहेरावी देता. परंतु बुद्धिसागरजी म. सा. आवी प्रवृत्तिनी विरुद्ध हता. ते समये एमने लोकमुखे एवा समाचार सांभळ्या के ए एक साधु महात्माए पोताने १०८ शिष्यो करवानी प्रतिज्ञा लीधी छे. आवी वातोथी बुद्धिसागरजी म. साहेबने दुःख थतुं अने विचारता के आवा शिष्यो कई रीते धर्मने समजे, समजावे जे शिष्यो समज्या विना साधुताने वरे छे ते भविष्यमां साधुनो वेश छोडी दे तो समाजमां जैन धर्म वगोवाय अने जैनशासननी अवहेलना थाय ते वात जुदी. तेमने पोताने आ रीते शिष्यो बनाववानी रीत बिलकुल पसंद न हती, परंतु ते पोते पोताना शिष्यो अमरता पामे, समाजनुं कल्याण सधाय एवा शिष्यो तैयार करवा अंगे विचारता. महापुरुषो हंमेशा खराब तत्त्वमांथी पण सारुं ग्रहण करी लेता होय छे. ए समयमां कोई साधुनी १०८ शिष्योनी प्रतिज्ञा सांभळी पू. आचार्य भगवंतश्री १०८ ग्रंथो रचवानी प्रतिज्ञा ग्रहण करी. आ ग्रंथो मारा काळधर्म बाद पण परमात्माना विचारोने परमात्मानी आज्ञाने समाजमा फेलावे, समाजना लोकोमां खूणे खूणे पहोंचाडे अने ते मारफत समाजनुं कल्याण सधाय एवा १०८ अमर ग्रंथो हुं तैयार करीश. आवी प्रतिज्ञाना परिणामे जैनशासनने १०८ करतां पण वधु ग्रंथो प्राप्त थया. आचार्यश्रीनां प्रवचनोथी गुजरातमां ज नहि परंतु मारवाड, मेवाड, महाराष्ट्र विगेरे जे प्रदेशमा एमनुं विचरण थयुं त्यां त्यां आत्म तत्त्वनी ज्योत सतेज प्रज्वलित बनी. पूज्य योगनिष्ठ आचार्य श्रीए ए समयना विद्वान साहित्यकारो जेवा के महाकवि श्री नानालाल, केशव हर्षद ध्रुव तेमज पंडित मदनमोहन मालविया अने लाला लजपतराय साथे पण अनुक्रमे साहित्यनी अने राष्ट्रोन्नतिनी चर्चाओ अने अति उत्तम टीना विचानुं आदान प्रदान करेलुं जोवा अने वांचवा मळे छे. समाजोन्नति माटे व्यसनोनो निषेध, कुरिवाजो दूर करवा, अन्य धर्मो प्रत्ये समभाव राखवो अने समाजना नीचला वर्गो माटे निशाळोनी स्थापना कराववी वगेरे कार्योमां पण पूज्यश्रीए ऊंडो रस लीधो हतो. आम धर्मनी साथे साथे समाज अने राष्ट्र निर्माणनी प्रवृत्तिओमां एमनुं कार्यक्षेत्र विस्तरेलुं अने विकसेलुं हतु. (पूज्य श्री द्वारा रचित केटलांक तात्त्विक ग्रंथोनी अने एमनी प्रेरणाथी स्थपायेल केटलीक विरल कोटीनी संस्थाओ द्वारा श्री संघना योगदाननी विशेष वातो आ ज लेखनी श्रेणिमां क्रमशः रजु करवामां आवशे.) For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषा और लिपि: एक समीक्षात्मक अध्ययन डॉ. उत्तमसिंह प्राचीनकाल से मानव स्वकीय संस्कृति एवं इतिहास का निर्माण करता हुआ निरन्तर आगे बढ़ रहा है। इसके प्रमाण पुरातन गुहा-चिलों, भवनों के खण्डहरों, समाधियों, मंदिरों तथा अन्य वस्तुएँ जैसे-मृद्भाण्ड, मुद्राएँ, मृणमूर्तियाँ, ईंटें, अस्त्रशस्त्र आदि उपलब्ध प्राचीन सामग्री से मिल जाते हैं। इनके अलावा शिलालेख, चट्टानलेख, ताम्रलेख, भित्तिचित्र, ताडपत्र, भोजपत्र, कागज, कपडा एवं मुद्रालेख आदि भी उसकी अनवरत प्रगति के सूचक हैं। ये ही वे अवशेष हैं जिनके माध्यम से मनुष्य अपने इतिहास का ताना-बाना बुनते हुए नई खोज के साथ एक विकसित और सभ्य समाज का निर्माण करता हुआ प्रगतिपथ पर आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है। उदाहरणार्थ प्राचीन गफाओं में मिलनेवाले वे चित्र जिन्हें तत्कालीन मानव ने उकेरा था; उन्हें उसके तत्कालीन जीवन का साक्षात् इतिहास कहा जा सकता है। धीरे-धीरे इतिहास और संस्कृति के विकासक्रम में मानव एक ऐसे बिन्दु पर पहँचता है जहाँ एक ओर वह चित्रों से लिपि की ओर बढता है तो दूसरी ओर अपनी भाषा का विकास करता है। इस प्रकार लिपि और भाषा के सहारे आदिकाल से अद्यपर्यन्त तक मनुष्य अपने को प्रतिबिम्बित करता आ रहा है। __ सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ भाषा एवं लेखनकला का विकास भी होता रहा। प्रारंभ में लिखने के साधन गुफाओं की दीवारें, ईंट, पत्थर, मृदपाल एवं शिलापट्ट आदि थे। देश-काल-परिस्थिति अनुसार ये साधन बदलते गये और लिपि एवं भाषा परिस्कृत होती गयीं। भाषा एवं लिपि का संबन्ध / उद्भव और विकास : भाषा और लिपि का परस्पर अविनाभाव संबन्ध है। इनके उद्भव और विकास का इतिहास आज भी गवेषकों के लिए शोध का विषय बना हुआ है। मानव जब जंगलों एवं गुफाओं में रहता था तब वह अपनी गुफा में जाद-टोने के लिए विविध प्रकार की रेखाओं के माध्यम से कुछ आकृतियाँ बनाया करता था। अपने घोडों तथा अन्य पालतु जानवरों की पहचान के लिए उनके शरीर पर विविध कोटि के चिह्न बनाया करता था। किसी बात को स्मरण रखने के लिए बेलों तथा रस्सियों में गाँठ बाँधकर रखता था। इस प्रकार प्राचीनकालीन मानव विविध साधनों के माध्यम से दीर्घकाल पर्यन्त अपने भावों को प्रकट करता रहा। इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर समयानुसार विविध For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR AUGUST-2014 लिपियों का विकास होता चला गया। लिपि-विज्ञानियों ने चित्रों एवं लकीरों को विकसित कर वर्णाकार प्रदान किया और इन आकृतियों को लिपि नाम दिया गया। धीरे-धीरे विविध भाषाओं की अपनी-अपनी लिपियाँ बनने लगीं। कुछ भाषाओं के उच्चारण-वैविध्य के कारण उनकी अपनी लिपियाँ विकसित हईं। जैसे गुजराती, बंगला, मैथिल, उडिया, तामिल, तेलुगु, मलयालम आदि। ये लिपियाँ भी हैं और भाषा भी हैं। जैसा कि हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, मराठी आदि सिर्फ भाषा हैं, लिपि नहीं। अक्सर हम देखते हैं कि आज भी कई लोग हिंदी या संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाबद्ध ग्रंथ जो नागरी लिपि में लिखे हुए होते हैं; को भी हिंदी लिपि में लिखा हआ कहते हैं; जबकि हिंदी नाम की कोई लिपि ही नहीं है। सही में वह लिपि तो देवनागरी अथवा नागरी लिपि है। मनुष्य के विचारों को व्यक्त करने का माध्यम वाणी है। यह वाणी विभिन्न भाषाओं के माध्यम से संसार में प्रकट होती है। इन भाषाओं को लंबे समय तक स्थाई रूप से सुरक्षित रखने व एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का काम लिपि करती है। अतः भाषा के दो प्रमुख आधार माने गये हैं- (१) ध्वनि या नाद और (२) दृश्य। किसी भाषा का पहले ध्वनि रूप प्रकट होता है। बाद में वह दृश्य स्वरूप के रूप में अपने विकास का मार्ग प्रशस्त कर लेती है। अतः हम कह सकते हैं कि भाव तथा विचारों के प्रकाशन का ध्वनि-स्वरूप भाषा है और उसका दृश्य-स्वरूप लिपि। अर्थात् भाषा को दृष्टिगोचर करने के लिए जिन प्रतीक-चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें लिपि कहते हैं। भाषा और लिपि का संबन्ध सिक्के के दो पहलुओं के समान है। भाषा के बिना किसी लिपि की संभावना हो ही नहीं सकती। हाँ बिना लिपि के भाषा संभव है। अनेक बोलियाँ और उपभाषाएँ ऐसी हैं जो भावों और विचारों को व्यक्त करने का कार्य करती हैं, किन्तु लिपि के अभाव में उनका विशेष महत्त्व या प्रचार-पसार नहीं हो पाता। भाषा या बोली का ध्वनि स्वरूप स्थान-काल की सीमा में रहकर ही प्रकट किया जाता है, जबकि लिपि भाषा को स्थान और काल के बंधन से मुक्त कर देती है। इसका तात्पर्य यह है कि बोली गई भाषा किसी स्थान विशेष में उपस्थित व्यक्तियों तक ही सीमित रहती है, किन्तु लिखी गई भाषा दीर्घकाल पर्यन्त विस्तृत असीम भूमि पर कहीं भी उन विचारों और भावों को पहुँचा सकती है। इसी लिए लिपि को भाषा का एक अनिवार्य एवं अत्युत्तम अंग माना गया है। भाषा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने तथा दीर्घकाल पर्यन्त जीवित रखने का काम लिपि ही करती है। For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अगस्त-२०१४ लिपि के अभाव में अनेक भाषाएँ उत्पन्न होकर नष्ट हो गईं। आज उनका नामोनिशान तक नहीं रहा। लिपि भी इससे अछूती नहीं रही। ललितविस्तर आदि प्राचीन ग्रंथों में तत्कालीन प्रचलित लगभग चौंसठ लिपियों का नामोल्लेख मिलता है, लेकिन आज उनमें से अधिकांश लिपियाँ अथवा उनमें लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है। कुछ प्राचीन लिपियाँ आज भी एक अनसुलझी पहेली बनी हुई हैं। उनमें लिखित अभिलेख आज-तक नहीं पढे जा सके हैं। मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर के आस-पास विस्तृत पर्वतों एवं गुफाओं में टंकित 'शंख लिपि' के सुन्दर अभिलेखों को भी आज-तक नहीं पढा जा सका है। इस लिपि के अक्षरों की आकृति शंख के आकार की है। प्रत्येक अक्षर इस प्रकार लिखा गया है कि उससे शंखवत आकृति उभरकर सामने दिखाई पडती है। अतः अनुमान लगाया जा रहा है कि शायद यह शंख लिपि है। विद्वान् गवेषक इन लेखों को पढने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अभी तक योग्य सफलता नहीं मिल सकी है। खरोष्ठी लिपि को भी पूर्णतः नहीं पढा जा सका है। आज भी विविध सिक्कों, मुदपालों एवं मुहरों पर लिखित ऐसी कई लिपियाँ और भाषाएँ हमारे संग्रहालयों में विद्यमान हैं जो एक अनसुलझी पहेली बनी हुई हैं और हमारे भाण्डागारों की शोभा बढा रही हैं। अतः इतना तो निश्चित कहा जा सकता है कि भाषा और लिपि दोनों ही एकदूसरे के विकास में गाडी के दो पहियों की तरह अहम भूमिका अदा करती हैं। लिपि के अभाव में कोई भी भाषा अपनी निश्चित सीमा से बाहर नहीं जा सकती है। जिन भाषाओं के पास अपनी लिपि है वे आज खूब फल-फूल रही हैं। कुछ भाषाएँ ऐसी भी हैं जिनकी अपनी लिपि तो नहीं है लेकन दूसरी लिपियों में आसानी से लिखी-पढी जा सकती हैं। ये भाषाएँ इतनी शुद्ध, स्पष्ट और व्याकरणसम्मत हैं कि किसी भी लिपि में हूब-हू लिखी-पढी जा सकती हैं। जैसे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, मराठी आदि भाषाओं की अपनी कोई लिपि नहीं है, लेकिन इन्हें किसी भी लिपि में लिखा-पढा जा सकता है। एक प्रकार से देखें तो ये भाषाएँ देवनागरी लिपि पर आधारित हैं। इन्होंने देवनागरी लिपि को विशेषरूप से अपनाया है, लेकिन अन्य लिपियों में भी इन भाषाओं का साहित्य प्राचीनकाल से लिखा जाता रहा है जो हमें विविध ग्रन्थागारों में पाण्डुलिपियों एवं अभिलेखों के रूप में प्राप्त होता है। भाषा और लिपि साम्य-वैषम्य : * भाषा के विकास में लिपि का अत्यधिक महत्त्व है। लिपि के अभाव में भाषा अपनी सीमा और परिधि से बाहर नहीं जा पाती, किन्तु लिपि का आधार मिलते ही १. ललितविस्तर में वर्णित चौंसठ लिपियों में शंख लिपि का नामोल्लेख मिलता है। For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 25 AUGUST-2014 भाषा का विकास एवं विस्तार प्रारंभ हो जाता है। लिपि के द्वारा ही भाषा में अधिक सूक्ष्मता और निश्चितता आती है। * विदित हो कि प्राचीनकाल में धर्म, साहित्य तथा इतिहास का लिपि से उतना घनिष्ट संबन्ध नहीं था जितना आज है। आज लिपि के अभाव में साहित्य, इतिहास आदि का होना असंभव-सा प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । लिपि के अभाव में भी साहित्य, इतिहास आदि हो सकते हैं और थे भी। अन्तर सिर्फ इतना हो जाता है कि लिपि के अभाव में वे अनिश्चित से रहते हैं; धर्म मंत्र-तंत्र का, साहित्य कविता का और इतिहास लोक-कथाओं का रूप ग्रहण कर लेता है। प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कहानियाँ तथा विभिन्न देशों की परंपरागत लोक-कथाएँ इसके उदाहरण हैं। * जिस प्रकार लेखनकला के अभाव में साहित्य का होना संभव है, उसी प्रकार वर्णमाला के अभाव में लिपि का होना भी संभव है। वर्णमाला के अभाव में मनुष्य रज्जु, रेखा-चित्र, लीपने, माढने आदि द्वारा अपने भावों तथा विचारों को लिपिबद्ध करता था। अतः लिपि के अन्तर्गत वर्ण-लिपि के अतिरिक्त रज्जु-लिपि, रेखा-लिपि, चित्र-लिपि आदि को भी सामिल किया जा सकतता है। * भाषा ध्वन्यात्मक होती है जबकि लिपि चिह्नात्मक अथवा अक्षरात्मक होती है। भाषा बोली जाती है जबकि लिपि लिखी जाती है। अर्थात् भाषा का उद्गम स्थान मुख है जबकि लिपि हाथ द्वारा लिखी जाती है। * भाषा को दीर्घकाल पर्यन्त जीवित रखने का काम लिपि करती है। अर्थात् लिपि भाषा को स्थायित्व प्रदान करती है। भाषा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का काम भी लिपि ही करती है। प्राचीनकाल में यह कार्य पत्र द्वारा संदेशा भेजने के रूप में किया जाता था, जिसमें काफी समय लगता था। लेकिन आज वैज्ञानिक साधनों के विकास के साथ यह कार्य ईमेल, एस.एम.एस, फैक्स अथवा वॉटस्अप द्वारा तुरन्त हो जाता है। * मुख से बोला गया शब्द शीघ्र ही बदला जा सकता है, परन्तु लिखी गई बात को बदलना सरल नहीं होता है। बोली हुई वाणी तुरन्त ही वायु में विलीन होकर नष्ट हो जाती है, लेकिन लिखित बातें हजारों वर्षों तक स्थिर रहती हैं। * लगभग दो हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन सम्राट अशोक के शिलालेख तत्कालीन ब्राह्मी लिपि के कारण आज भी हमारी मूल्यवान निधि के रूप में सुरक्षित हैं। अतः यह निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि हमारे सामने आज जितना भी पुरातन साहित्य विद्यमान है, वह लिपि के स्थायित्व का ही परिणाम है। भाषा और साहित्य की सुरक्षा के लिए भी लिपि ही एकमात्र साधन है। इस प्रकार मानवजाति के विकास में भाषा और साहित्य का जो महत्त्व है, लिपि का भी उससे कम नहीं माना जा For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 26 श्रुतसागर अगस्त-२०१४ सकता है। वर्तमान में कई लिपियाँ एवं भाषाएँ आधुनिक विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति एवं राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। यहाँ कुछ प्रमुख भारतीय भाषाओं एवं लिपियों को निनोक्त सूचि द्वारा प्रदर्शित किया जा रहा है भाषा लिपि । ब्राह्मी, खरोष्ठी संस्कृत, प्राकृत, पालि अपभ्रंश, मागधी, हिंदी, मराठी पंजाबी गुरुमुखी गुजराती मैथिल शारदा, ग्रंथ, प्राचीन नागरी (देवनागरी) नेवारी, नंदी नागरी, टाकरी, डोंगरी गुरुमुखी गुजराती मिथिलाक्षर बंगला उडिया तामिल तेलुगु मलयालम अर्बी, पर्सियन बंगाली उडिया तामिल तेलुगु मलयालम अर्बी, पर्सियन, (फारसी) उर्दू उर्द्ध उपरोक्त सूचि में गहरे बोल्ड अक्षरों में लिखित नाम भाषा भी हैं और लिपि भी। इसके अतिरिक्त अन्य सभी नाम ऐसे हैं जो या तो केवल भाषा हैं या फिर केवल लिपि। अस्तु इस लेख के माध्यम से हमने यहाँ भाषा एवं लिपि का किंचित परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, आशा है जिज्ञासु गवेषक लाभान्वित होंगे। For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुस्तक समीक्षा डॉ. हेमन्त कुमार * पुस्तक नाम : आगमसद्दकोसो (आगम शब्दकोश) * संकलन कर्ता : मुनिश्री दीपरत्नसागरजी म. सा. *प्रकाशक आगम श्रुत प्रकाशन, खानपुर-अहमदाबाद * प्रकाशन वर्ष : ईस्वी सन् २००१ * कुल भाग : ४ * मूल्य : २४००/- (संपूर्ण सेट की कीमत) भाषा : प्राकृत, संस्कृत एवं गुजराती परम पूज्य मुनिश्री दीपरत्नसागरजी म.सा. द्वारा संकलित आगम शब्दकोश में ४५ आगमों के धातु-कृदन्तादि रूप, देशी शब्द, संख्यावाची शब्द, प्रचलित सर्वनाम, अव्यय, पर्यायवाची शब्द तथा विशेषनामवाले शब्दों के अर्थ दिए गए हैं. जैनशास्त्र व आगम के मर्मज्ञ विद्वान मुनिश्रीजी ने प्रस्तुत कोश में मात्र मूल आगमों के शब्द ही लिए हैं, जिनकी कुल संख्या ४६,००० हैं. आगमों की नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति आदि के शब्द नहीं लिए हैं. मुनिश्रीजी ने इस विशाल शब्दकोश को चार भागों में विभाजित करके अध्ययन-अध्यापन, संकलन, संरक्षण आदि की दृष्टि से उपयोगी बना दिया है. आकर्षक आवरण पृष्ठ, सुन्दर छपाई एवं अक्षरों की स्पष्टता के कारण यह प्रकाशन अपनी उपयोगिता को सिद्ध कर रहा है. यों तो पूर्व में भी आगमों के शब्दकोश प्रकाशित हो चुके हैं, किन्तु उनमें संकलित शब्दों को कई प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित आगमिक पाठ को आधार बनाया गया है, पाठभेद के कारण पाठकों/संशोधकों को पाठ मिलान करने में कठिनाई होती थी. उसी कठिनाई को ध्यान में रखते हुए पूज्य मुनिश्रीजी ने पहले संपूर्ण आगमों के सर्वाधिक मान्य पाठ को सूत्र क्रमांक के साथ पैंतालीस भागों में प्रकाशित किया, फिर उसके आधार पर शब्दों का संकलन कर शब्दकोश का निर्माण किया है. इससे पाठकों/संशोधकों को किसी भी शब्द का संदर्भ देखने में बहुत ही सुविधा होगी. इस कोश के शब्दों का आधारग्रंथ मुनिश्रीजी द्वारा संपादित व आगम श्रुत प्रकाशन, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित आगम सुत्ताणि मूल के पाठ हैं, इसलिए पाठकों/ संशोधकों को पाठ मिलान के लिए इस प्रकाशन का ही उपयोग करना उचित होगा, क्योंकि आगम शब्दकोश में प्रयुक्त सूत्र क्रमांक इसी प्रकाशन के पाठ के आधार पर दिए गए हैं. पूज्यश्री ने सूत्र क्रमांक देकर पाठकों/संशोधकों का समय बहुत बचाया हैं, क्योंकि अब उन्हें श्रुतस्कंध, अध्याय आदि को ढूँढना नहीं पड़ेगा, सीधा उसी सूत्र क्रमांक पर जाने से अपेक्षित शब्द मिल जाएगा. For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 28 श्रुतसागर अगस्त-२०१४ ___ग्रन्थ के आरम्भ में ही आगमों के नाम व उसके संकेत दिए गए हैं, जैसेआयारो-आया०, सूयगडो-सूय०, भगवती-भग० आदि. इसके अतिरिक्त मूलाक्षर के अनुसार संकेत व आगमों के अनुक्रम दिए गए हैं. इस कोश में मूल शब्दों का संस्कृत व गुजराती अर्थ के साथ संबंधित आगम के सांकेतिक नाम के साथ सूत्र संख्या दी गई है. आगम के मूल शब्दों को बोल्ड टाईप में लिए गए हैं, उसके आगे कोष्ठक में इटालिक टाईप में संस्कृत अर्थ हैं और उसके बाद सामान्य टाईप में गुजराती अर्थ दिए गए हैं. उसके नीचे आगम का संक्षिप्त नाम तथा उसके बाद सूत्र का क्रमांक दिया गया है. जैसे- भग. ४५, अर्थात् भगवतीसूत्र के ४५वें सूत्र में ढूँढने से वह शब्द मिल जाएगा. जहाँ चौकोर कोष्ठक में “दे" शब्द लिखा हो, इसका अर्थ है कि वह शब्द देशी है. यदि गुजराती शब्द ऊपर दिए गए शब्द के अनुसार ही हो, वहाँ “ऊपर" इसप्रकार लिखा है. आगम शब्दकोश के प्रकाशन से हस्तलिखित आगमिक ग्रंथों के सूचीकरण कार्य से जुड़े हुए विद्वानों, संशोधकों एवं संस्थाओं को बहुत ही सुविधा मिल रही है. वे इस प्रकाशन का भरपूर उपयोग अपने कार्य में संदर्भग्रंथ के रूप में कर रहे हैं. इस प्रकाशन के सहयोग से अपूर्ण आगमिक प्रतों का नाम निम्न विधि से ज्ञात किया जा सकता हैं - हस्तप्रत के एक ही वाक्य या पैराग्राफ में रहे अल्प प्रचलित दो-तीन या चार शब्दों को सर्वप्रथम क्रमशः आगम शब्दकोश में ढूँढा जाता है. प्रथम शब्द मिलने पर फिर आवश्यकतानुसार क्रमशः दूसरे-तीसरे शब्दों को भी इसी प्रकार मिलान किया जाता है कि ये दोनों-तीनों शब्द किसी एक ही आगम में एक ही सूत्रांक पर मिल रहे हैं? यदि दो शब्दों के आधार से निर्णय करने में असुविधा हो, अनेक विकल्प मिल रहे हों, तो तीन शब्दों की तुलना की जाती है. तीन शब्दों पर भी काम न चले तो चार शब्दों को पकड़ा जाता है. फिर एक या दो विकल्प बचते हों तो उस-उस आगम में उस-उस जगह पर जाकर पाठ मिलाकर तय किया जाता है. उपरोक्त विधि से किसी भी अपूर्ण आगमिक हस्तप्रतों में रहे योग्य कृति का निर्धारण किया जा सकता है और यत्र-तत्र बिखरे पड़े हस्तप्रतों को एक साथ मिलाया जा सकता है. कहने का तात्पर्य यह है कि यह प्रकाशन जैन विद्या के क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों/संशोधकों के लिए कोई भी इस तरह का आगमिक संदर्भ ढूँढने हेतु आशीर्वादरूप सिद्ध हो रहा है. यह प्रकाशन जैन साहित्य के क्षेत्र में एक सीमाचिह्न रूप में पूज्यश्री की प्रस्तुति है. संघ, विद्वद्वर्ग, जिज्ञासु इसी प्रकार के और भी उत्तम प्रकाशनों की प्रतीक्षा में हैं. सर्जनयात्रा जारी रहे, ऐसी शुभेच्छा है. ___अन्ततः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रस्तुत प्रकाशनजैन साहित्य गगन में देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति जिज्ञासुओं को प्रकाशित करता रहेगा. पूज्य मुनिश्रीजी से आग्रहभरा निवेदन है कि वे शेष आगम पंचांगी के शब्दों हेतु भी कोश तैयार करने का अनुग्रह करें. उनके इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन. For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूज्य योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी म.के समुदाय की चातुर्मास सूचि १. आचार्य श्री मनोहरकीर्तिसागरसूरीश्वरजी म. तथा आचार्यश्री उदयकीर्तिसागरसूरिजी म. आदि, जैन तपागच्छ उपाश्रय, हनुमान शेरी, गठामण दरवाजा पालनपुर (गुजरात) ३८५००१ आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी म. तथा पंन्यासश्री देवेंद्रसागरजी म. पंन्यासश्री हेमचंद्रसागरजी म. पंन्यासश्री विवेकसागरजी म. गणिवर्यश्री प्रशांतसागरजी म. मुनिश्री विमलसागरजी म. आदि ठाणा-१४ श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ जैन तीर्थ, नाकोड़ा, पो. मेवानगर (बाड़मेर) (राजस्थान) ३४४०२५ ३. आचार्य श्री वर्धमानसागरसूरिजी म. तथा पंन्यासश्री अजयसागरजी म. आदि ठाणा-५ जैन उपाश्रय, पो. मांडाणी (सिरोही) राजस्थान - ३०७८०१ ४. आचार्य श्री अमृतसागरसूरिजी म. आदि श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा (गांधीनगर) गुजरात – ३८२००७ ५. आचार्य श्री अरुणोदयसागरसूरिजी महाराज आदि ठाणा-३ जैन उपाश्रय, नारणपुरा अमदाबाद-३८००१३ ६. आचार्य श्री विनयसागरसूरिजी म. आदि ठाणा-२ भवानीपुर, कोलकाता-२० For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 30 श्रुतसागर अगस्त-२०१४ ७. पंन्यास श्री प्रसन्नकीर्तिसागरजी म. आदि ठाणा-२ जैन उपाश्रय, आजाद चौक महेसाणा (गुजरात) ३८४००१ ८. पंन्यास श्री राजकीर्तिसागरजी म. आदि ठाणा-३ श्री बुद्धिसागरसूरि समाधि मंदिर विजापुर (महेसाणा) गुजरात ९. पंन्यास श्री अरविंदसागरजी म. आदि ठाणा-३ मीराम्बिका जैन संघ, अमदाबाद १०. पंन्यास श्री महेन्द्रसागरजी महाराज आदि ठाणा-३ केशवापुर जैन संघ, श्री नाकोडा भैरव आयंबिल भवन केशवापुर, हुबली (कर्णाटक) ५८००२३ ११. गणिवर्य श्री नयपद्मसागरजी महाराज आदि ठाणा-३ मातृ आशिष जैन श्वे. मू. संघ नेपीयंसी रोड, मुंबई - ४००००६ १२. मुनिश्री सुमतिसागरजी महाराज आदि ठाणा-२ मलाड़ (वेस्ट) मुंबई - ४०००६४ योगनिष्ठ आचार्यश्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.केसमुदाय की ___आज्ञानुवर्तिनी साध्वीजी के चातुर्मास कीसूचि १. साध्वी श्री पुण्यप्रभाश्रीजी म. आदि ठाणा-५ जैन उपाश्रय, पो. महुडी (गांधीनगर) गुजरात २. साध्वी श्री सूर्यलताश्रीजी म. आदि ठाणा-८ उमरा, सुरत (गुजरात) ३. साध्वी श्री मयणलताश्रीजी म. आदि ठाणा-३ महुडी (गांधीनगर) गुजरात ४. साध्वी श्री तत्त्वगुणाश्रीजी म. आदि ठाणा-८ अडाजन पाटीया, सुरत (गुजरात) . ५. साध्वी श्री सुधर्माश्रीजी म. आदि ठाणा-२ रामनगर, साबरमती, अमदाबाद-३८०००५ For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 31 SHRUTSAGAR ६. साध्वी श्री रम्यगुणाश्रीजी म. आदि ठाणा-५ हनुमान शेरी, पालनपुर (गुजरात) ७. साध्वी श्री रत्नत्रया श्रीजी म. आदि ठाणा-८ महुडी जैन उपाश्रय, पालीताणा (गुजरात) ८. साध्वी श्री सुनयनाश्रीजी म. आदि ठाणा - २ आमलीपोल, झवेरी वाड, अमदाबाद - ३८०००१ ९. साध्वी श्री धर्मरत्नाश्रीजी म. आदि ठाणा- ६ श्राविका उपाश्रय, आजाद चौक, महेसाणा (गुजरात) १०. साध्वी श्री ज्योतिप्रभाश्रीजी म. आदि ठाणा- २ जय एपार्टमेंट, रामनगर, साबरमती, अमदाबाद ११. साध्वी श्री कल्पगुणाश्रीजी म. आदि ठाणा- ३ श्रीविमलनाथ जैनमंदिर, बालोतरा ( राजस्थान) १२. साध्वीश्री कल्याणधर्माश्रीजी तथा नलिनयशाश्रीजी म. आदि ठाणा-६ नाकोड़ा, मेवानगर (राजस्थान) जि. बाड़मेर १३. साध्वी श्री रत्नमाला श्रीजी म. आदि ठाणा-२ बगसरा (सौराष्ट्र) गुजरात १४. साध्वी श्री मुक्तिरत्नाश्रीजी म. आदि ठाणा- ३ मीरांम्बिका सोसाईटी, अमदाबाद १५. साध्वी श्री नमोरत्नाश्रीजी म. आदि ठाणा - २ नारणपुरा, अमदाबाद १६. साध्वी श्री कल्पशीलाश्रीजी म. आदि ठाणा-२ सोलारोड, पारसनगर, अमदाबाद १७. साध्वीश्री पीयुषपूर्णाश्रीजी म. आदि ठाणा - ३ वाड़ज, अमदाबाद १८. साध्वीश्री नयतत्त्वज्ञाश्रीजी म. आदि ठाणा गिरि विहार, पालीताणा १९. साध्वी श्री मयणाश्रीजी म. आदि ठाणा-२ ठाकुरद्वार, मुंबई - २ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only AUGUST-2014 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुतसागर 32 अगस्त २०१४ राजस्थान के परम आस्था केन्द्र श्री नाकोडा तीर्थे पूज्य गुरुभगवंतश्री का चातुर्मास प्रवेश सानंद सम्पन्न Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संकलन : संजयकुमार झा वि.सं. २०७० आषाढ शुक्ल तृतीया को परम पूज्य राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. आदि ठाणा चतुर्विध श्रीसंघ के साथ नाकोडाजी तीर्थ में वर्षावास प्रवेश सानंद परिपूर्ण हुआ. पंन्यास प्रवर श्री देवेन्द्रसागरजी म. सा., पंन्यास प्रवर श्री विवेकसागरजी म. सा. एवं प्रभावक प्रवचनकार मुनिवर्य श्री विमलसागरजी म. सा. आदि ठाणा से परिवृत पूज्य गुरुदेव श्री जब नाकोडातीर्थ के पवित्र परिसर में पधारे तब नाकोडा तीर्थ का वातावरण हर्षोल्लासमय बन गया. श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ ज्ञानशाला के प्रांगण में नवकारशी के बाद ठीक ०८.४५ से शोभायात्रा का प्रारंभ हुआ. तत्पश्चात् दादा के दरबार में पूज्य गुरुभगवंत श्रीने श्री संघ सहित भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन किये. चातुर्मासिक प्रवचन व शिबिर हेतु निर्मित भव्य मंडप में सबने अपना-अपना स्थान ग्रहण किया. ज्ञानशाला के अध्यापक श्री नरेन्द्रभाई कोरडिया के साथ में श्रीसंघ ने गुरुवंदन किया. तदनंतर पूज्य आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. द्वारा मंगलाचरण किया. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ ट्रस्ट के अग्रणी द्वारा चतुर्विध श्रीसंघ का हृदयोल्लासपूर्वक अभिनन्दन किया. युवा प्रवचनकार पूज्य मुनि श्री विमलसागरजी म. सा. ने अपने उद्बोधन द्वारा तीर्थ, गुरु व चातुर्मासिककाल के भावी आयोजन से श्रीसंघ को अवगत कराया. नाकोडा तीर्थ के अध्यक्ष ने स्ववक्तव्य में पूज्य गुरुभगवंत श्री के वर्षावास हेतु पधारने हेतु हार्दिक आभार प्रकट किया. भावुक होकर अध्यक्ष श्री ने यह भी बताया की इस तीर्थ के उपाध्यक्ष दिवंगत सेठ श्री सोहनलालजी चौधरी (कोबातीर्थ के भूतपूर्व अध्यक्ष) की हार्दिक अभिलाषा थी कि गुरुदेव श्री का चातुर्मास नाकोडा तीर्थ में हो, इस हेतु सेठजी ने कई बार गुरुदेव को निवेदन भी किया था. आज उनकी अभिलाषा फलीभूत हो रही है तो वे स्वयं नहीं है, अपि तु उनकी आत्मा जहाँ भी होगी उन्हें तसल्ली जरूर मिलेगी. सम्पूर्ण चातुर्मास का लाभ श्री मुकेशजी मोदी, श्री वीरेन्द्रजी मोदी एवं श्री भरतभाई मोदी एवं समस्त मोदी परिवार ने लाभ लिया. For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाकोडा तीर्थमां चातुर्मास प्रवेश प्रसंगनी अविस्मरणीय क्षणो HTROT S ODO For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir TITLE CODE : GUJ MUL 00578. SHRUTSAGAR (MONTHLY). POSTAL AT GANDHINAGAR. ON 15TH OF EVERY MONTH. PRICE : RS. 15/-DATE OF PUBLICATION AUGUST - 2014 नाकोडा तीर्थ- मनोरम दृश्य तथा चातुर्मास प्रवेश प्रसंगे उपस्थित जनसमूह / Aathaantibid h unt प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252, फेक्स (079)23276249 Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org BOOK-POST / PRINTED MATTER PRINTED, PUBLISHED AND OWNED BY : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, PRINTED AT: NAVPRABHAT PRINTING PRESS. 9-PUNAJI INDUSTRIAL ESTATE, DHOBHIGHAT, DUDHESHWAR, AHMEDABAD-380004 PUBLISHED FROM: SHRI MAHAVIR, JAIN ARADHANA KENDRA, NEW KOBA, TA. & DIST. GANDHINAGAR, PIN : 382007, GUJARAT EDITOR : KANUBHAI LALLUBHAI SHAH. For Private and Personal Use Only