SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गुरुवाणी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पू. आ. पद्मसागरसूरिजी वाक् संयम परम कृपालु आचार्य-भगवन्त श्री हरिभद्रसूरिजी ने धर्मबिन्दु ग्रन्थ के द्वारा आत्मा के परम गुणों को, आत्मा के विशुद्ध धर्म को, जीवन और व्यवहार के आचरण को बहुत सुन्दर तरीके से समझाने का प्रयास किया है। उन्होंने बताया है कि प्रतिदिन उपयोग में आने वाली वस्तु, जीवन और व्यवहार का एक मात्र आधार, हमारी वाणी है। इससे ही सारा व्यवहार चलता है। इसके माध्यम से व्यक्ति जगत् का प्रेम प्राप्त करता है। इस वाणी के प्रकाशन के द्वारा अरिहन्त प्रभु के गुणों का स्मरण किया जाता है। ऐसे महत्व की इस वाणी का उपयोग किस प्रकार विवेक पूर्वक किया जाये? वह परिचय उन्होंने इस सूत्र के द्वारा दिया है। वाणी की पवित्रता तभी आयेगी जब उसके अन्दर किसी प्रकार के विकार का विचार प्रवेश न करे । सर्वत्र निन्दासंत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषु ॥ इसी सूत्र पर गत तीन दिनों से हमारा विचार चल रहा है । व्यक्ति की आदत है। यह उसका अनादिकालीन संस्कार है। जब-जब प्रसंग आता है, व्यक्ति आवेश में आकर वाणी का दुरुपयोग कर बैठता है । परिणाम स्वरूप जीवन में संघर्ष होता है । सारा ही जीवन काम और क्रोध की आग में जलकर कोयला बन जाता है। सारी मधुरता चली जाती है। जीवन का सारा आनन्द चला जाता है। वाणी के माध्यम से जीवन में हमारे अन्दर की जो कविता बाहर आनी चाहिये, वह सब नष्ट हो जाती है। जीवन कर्कश बन जाता है। उसके सारे मधुर स्वर रुदन में बदल जाते हैं; व्यक्ति सिवाय पश्चाताप के कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता । शीर्ष अन्दर शून्य मिलता है। इसलिये ग्रंथकार ने स पर अधिक जोर दिया और कहा कि जीवन में यदि आपको धार्मिक बनना है तो सर्वप्रथम इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त करना है। विषय के अनुकूल नहीं बनना चाहिए, अपितु विषय को अपने ऐसा अनुकूल बना लिया जाये कि ये सारी इन्द्रियाँ धर्म प्राप्ति के साधन बन जायें । For Private and Personal Use Only यदि इन इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त हो जाये तो आत्मा को प्राप्त करना अति सरल बन जायेगा। आज तक कभी हमने इसका प्रयास नहीं किया। सारा जीवन जीकर भी आध्यात्मिक रूप में हम मरे हुए हैं। अंगों से मूर्च्छित उस जीवन का कोई मूल्य नहीं जिसमें धर्म सक्रिय नहीं। जिसमें धर्म आपके कार्यक्षेत्र को मार्गदर्शन देने वाला नहीं ।
SR No.525292
Book TitleShrutsagar 2014 08 Volume 01 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanubhai L Shah
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2014
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy