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श्री सजन चित्तवल्लभसटीक
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जिसकौला सर्व जैनी भाइयों के हितार्थ प्रकाशित
कियाजाता है प्रकाशक मुन्शी नाथूरामबुक्सेलर ल.
मेचू भाई करहल निवासी वर्तमान : - दूकान कटनीमुड़वारा जिला
जबलपुर
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लखनऊ 13
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लाला कन्हैयालाल भगवानदासजेन जी के जैनप्रेस में मुद्रितहुआ
जुलाई सन् १८६६ ई. प्रथमवार १००० न्यौछावर )
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॥ प्रस्तावना॥
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| यह सजनचित्तवल्लभ आगे श्रीमान भाई मुन्शी अमनसिंह जी अपीलनवीस ने छपायाथा जिसमें मूल संस्कृत फिर पदच्छेद संस्कृत. अन्वय संस्कृत, टीका संस्कृत और भाषाछंद भाषाटीका ऐसेछःप्रकार का लेखथा परंतु हमारे जैनी भाइयों में कुछ दिनसे संस्कृत विद्या का ऐसा अभाव हुआहै कि हज़ारोंतो क्या लाखों में दोचार कुछ २ पढ़ते हैं इससे ऐसा परमोपकारी ग्रंथ उन भाइयों को जो संस्कृत पढ़ना व्याधि समझते हैं जहर का प्याला जंचनेलगा अनेक भाइयों ने मुझको लिखा कि भाई साहब आप केवल एक सरल भाषाटीका सहित छपवानो तो बड़ा उपकार होगा सो अनेक भाइयों की प्रार्थना छपाया जाता है कि सब को धर्मलाभ होवे ॥
आपलोगोंको हितैषी सेवक मुन्शी नाथूराम लमेचू भाई
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ॐ नमासिद श्रीसजनचित्तवल्लभ काव्य प्रारभ्यते
(शार्दूल विक्रीड़ित छद) नत्वावीरजिनंजगत्त्रयगुरुम्मुक्ति श्रियोवल्लभम् पुष्पेपुक्षयनीतिवाण निवहसंसारदुःखापहं । वक्ष्येभव्य जनप्रबोधजननं ग्रंथसमासादहं ना म्नासज्जनचित्तवल्लभमिमं शृण्वंतु सन्तोजनाः ॥१॥
॥ भाषाटीका ॥ में मल्लिपेन नाम आचार्य इस ग्रंथको कहूंगा। क्या करके वीरजिनेंद्र को नमस्कार करके । कैसे है। बीर जिनेंद्र उर्ध्वमध्य अधः तीनोलोकके स्वामी हैं। फिर कैसंह वीर जिनेंद्र मुक्ति स्त्री के पति हैं फिर कैसे हैं वीरजिनेंद्र कि कामदेव के शोषण १ तापन २ उ. च्चाटन ३ मोहन ४ वशीकरण ५ रूप पंचबाणों के छेदने को शीलरूप वाणके धारक हैं । फिर कसह
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। श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक । वीरजिनेंद्र संसारमै जन्मन मरण जरा ये त्रिदोष तिन | कर पीड़ित देव मनुष्य तिर्यंच नर्क गतियों के प्राणी तिनके दुःखों को नाश करने वाले हैं। और कैसाहै ग्रंथ कि भव्य जीवोंको ज्ञानका देनेवाला है और स. ज्जन पुरुषों के चित्तको प्यारा आनंद देनेवाला ऐसा सार्थक सज्जनचित्तवल्लभ है तिसको संक्षेप रूप है सत्पुरुषो तुम सुनो।
रात्रिश्चन्द्रमसा बिनाजनिवहैनों भातिपद्माकरो यद्वत्पण्डितलोकव र्जितसभादन्तीवदन्तंविना । पुष्पंग न्धविवर्जितंमृतपतिः स्त्रीचेहतद्वन्म निश्चारित्रेण विनानभातिसततंयद्या प्यसौशास्त्रवान ॥२॥
॥ भाषाटीका ॥ (हेमुनि ) चारित्र रहित मुनि शोभा नहीं पाता।। जैसे चंद्रमाके बिना अंधियारी रात्रि शोभा नहीं पाती तैसेही कमलों के बिना सरोवर शोभा को नहीं पाता। तथा पण्डित लोगोंके बिना सभा शोभाको नहीं पाती
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दांतों के बिना हाथी शोभाको नहीं पाता । श्रथवा सुगंधके बिना पुष्प शोभा को नहीं पाते । वा पनिक मरनेपर विधवा स्त्री शोभा की नहीं पाती । ऐमही चारित्र ( शुद्धाचरण ) बिना मुनि शोभाको नहीं पा ता चाहो कैसाही शास्त्रों का ज्ञाता ( जाननेवाला ) क्यों न होवे । कारण कि क्रियाविना ज्ञानकेवलमा भा
किंवस्त्रं त्यजनेनभोमुनिरसावेताव ताजायतेच्वेडेनच्युतपन्नगोगतविपः किंजातवानभूतले। मूलं किंतपसः क्ष मैद्रियजयः सत्यंसदाचारता रागादी श्वविभर्तिचेन्नसयति लिंगीभवेत् केच
लम् ॥ ३ ॥
|| भापाटीका ||
हे मुनि क्या इनवस्त्रों के त्यागने से मुनि हो जाना है ( अर्थात् नग्न होनेसेही महाव्रती न बनो) क्या कांचली के छोड़ने से पृथ्वीपर सर्प निर्विष होजाता है ? ( कदापि नहीं होता है ) तपका मूल क्या है ? ( अर्थात् तप कैसे निश्चल रहसकता है ? ) ऐसा प्रण होते उत्तर करते हैं कि तपके मूल ये हैं | उत्तम
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६ श्रीसज्जनचित्तबल्लभ सटीक । चमा, स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु श्रवण ये पाच विषः | याभिलाषिणी इन्द्रियां हैं इनको जीतना। सत्यवचन बोलना श्रेष्ठ शुद्ध आचरण पालना अर्थात् दोष न लगाना । और जो हृदय में रागादिकों कोही बढ़ाया अर्थात् धन धान्य सवारी चेले महल वस्त्र भूषणादि परिग्रहोंकी अंतरंग में चाह करी तो यह मुनि मुद्रा तो केवल भेष मात्रही हुई (इससे मुनिको अन्तरंग परिग्रह प्रथम छोड़ना योग्य हैं)। | देहेनिर्ममतागुरौबिनयतानित्यंश्रु ताभ्यासताचारित्रीज्वलतामहोपश मतासंसारनिर्वेगता । अन्तरवाहप रिग्रहत्यजनता धर्मज्ञतासाधुता सा घोसाधुजनस्यलक्षणमिदंसन्सारवि क्षेपणम् ॥ ४॥
॥ भाषाटीका ॥ हे साधु साधु जनोंके ये लक्षण संसार (भवभ्रमण ) के नाश करने वाले हैं। सो कौन ? तिनको कहतेहैं । शरीरसे ममत्व न करना।गुरुजनजो गुण
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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक
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वृद्ध वय वृद्ध तप वृद्ध पुरुषहें तिनका विनय (श्रा दरमान) करना | और प्रतिदिन धर्मशास्त्रों का श्र भ्यासकरना | और चारित्र ( जपतपत्रत किया) की उज्ज्वलता अर्थात् शुद्धता से निर्दोष पालना (श्राचरण करना) और को मान माया लोभ मोह और काम इनको उपशम (शांति) करना । श्रीर संसार ( भव भ्रमण ) से डरना और मिथ्यात्व १ क्रोध २ मान ३ माया ४ लोभ ५ हास्य ६ रति ७ प्रति ८ शौक ९ भय १० ग्लानि ११ स्त्रीवेद १२ पुरुषवेद १३ नपुंसकवेद १४ यह १४ प्रकार अंतरंग परिग्रह और क्षेत्र १ वास्तु २ हिरण्य ३ सुवर्ण ४ धन ५. धान्य ६ दासी ७ दास ८ कूप्य ९ भांड १० ये १० वाह्य परिग्रहका त्याग करना । और उत्तम नमा १ मार्दव २ व ३ सत्य४ शौच्य ५ संयम ६ तप७ त्याग = श्राकिंचन & ब्रह्मचर्य १० ये दशप्रकार धर्मका जानना पालना ये साधुओं के लक्षण है ४ ॥ किन्दीक्षाग्रहणेन तेयदिधनाकां क्षाभवेचेतसि किङ्गार्हस्थ मनेनवेश धरणे. |सुन्दरम्मन्यसे । इव्योपार्ज
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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक ।
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नचित्तमेवकथयत्यभ्यन्तरस्थाङ्गना नोचेदर्थ परिग्रह ग्रहमतिर्भिक्षोनस स्पद्यते ॥ ५ ॥
॥ भाषाटीका ॥
हे भिक्षुक ( मुनि) जो तेरे चित्तमें धनकी ( द्रव्य की) यांचा है अर्थात् तु धनको चाहता है, तो दिक्षा ग्रहने से क्या ? अर्थात् क्या कार्यसरा और काहे को धारण की। क्या गृहस्थ का वेश (जो वस्त्राभूषण सहित है) मुनिके नग्न वेशसे बुरा जान पड़ता है । अब तू जो द्रव्य के उपार्जन को मनसे चेष्टा करता है उससे तो तुझे स्त्रीकी चाह जानीजाती है। क्योंकि स्त्री की चाह न होती तो धन लेनेकी बुद्धि कैसे उत्पन्न होती ? काहे से कि उदर पूर्णाको भोजन तो भाग्यानु कूल गृहस्थोंके घरमें मिलही जाता है फिर धन क्यों चाहता है । है मुनि ऐसे आचरण से तो मुनिपद को बहुत कलंक लगता है ॥ ५ ॥
योषापारडुकगोविवर्जितपदेसंति टभिक्षोसदा भुक्त्वाहारमकारितंप
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श्रीयन्जनचित्तवल्लभ सटीक । रगृहेलब्धयथासम्भवम् । पधाव श्यकसस्क्रियासुनिरतो धर्मानुराग वहन् साईयोगिभिरात्मभावनपरो रत्नत्रयालंकृतः ॥६॥
॥ भापाटीका ॥ हेमुनि त नारी नपुंशक और पशुओंसे रहितस्थान में सदाकाल रह । कहा करके पराये गृह अधान ग्रहस्थों के घर जो उन्होंने तेरेलिये नहीं बनाया अथात अपने लिये बनाया है सो रूखा सूखा (चिकनाईरहित वा दाल तरकारी रहित ) जो तुझे तेरे भोगांत राय के नयोपशम अनुसार मिलजावे ऐमा भोजन करके और त्रिकाल सामायक पंचपरमेष्टीकास्तवन तथापंचपरमेष्टीकी बदना३ अतिक्रमण हे प्रत्याख्यान ५ कायोत्सर्ग ६ ये छः आवश्यकरूप सक्रियात्राको करता और दशलक्षण धर्म में प्रेम धरके आत्मभाव में लगताहा सम्यक् रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन सम्य ज्ञान सम्यक्चारित्र) के धारकऐसे मुनिजनाके साथ में वासकर ॥६॥
दुर्गन्धंवदनंवपुर्मलभतम्भिक्षाट
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१० श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक। । नागोजनंशय्यास्थण्डिलभूमिपुत्र तिदिनंकट्यांनतेकपटम् । मुण्डंमु ण्डितमर्द्धदग्धशववत्त्वंदृश्यतेभोज नैःसाधोद्याप्यवलाजनस्यभवतोगो ठीकथंरोचते ॥ ७॥
. ॥ भाषाटीका ॥ हे साधु तेरे मुखमें दुर्गंध आती है कारण की तूने दतधोवन (दांतोन) का त्याग किया है। और शरीर | रज से मैला होरहा है। क्योंकि स्नान करनेका भी त्याग कियाहै। और पराये गृहमें भिक्षा भोजन करता है। कारण कि आरंभ परिग्रहकात्यागीहै । और कठोर कंकरीली भमिपर नित्य सोताहै क्योंकि पलंग विस्तर का त्यागी है और कटि में कोपीनतक नहींहै कारण कि सर्व प्रकारके वस्त्रोंका त्याग कियाहै इससे लोगों की दृष्टि में अधजले मुर्दैकी तुल्य भयंकररूप दृष्टि | पड़ता है सो अब भी तू स्त्रीजनोंके साथ बचनालाप | करनेके लिये मनको लुभाता है सो क्यों मन भ्रमाता| है देख!जोपुरुष पानादि सुगंधित पदार्थखाते नित्य
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श्रीसजनचिनवल्लभ सटीक। ११ स्नानविलेपन करते और नानाप्रकार के सरम भीजन कर वस्त्राभू पणास अलंकृत रहतेह स्त्रियों के चित्तको तो सो पुम्प प्यारे होत तू क्यों मन चन्नाकर ब्रह्मचर्य रत्न को नाश करता ॥ ७॥
अङ्गंशोणितशुक्र सम्भवमिद दोस्थिमज्जाकुलम् बाहोमाक्षिका सन्निभमहोचावृतंसर्वतः । नोचे काकनकादि भिवपुरहो जाशेतम क्ष्यंध्रुवं दृष्ट्वाचापिशरीरसनननिकथं निवेगतानास्तिते ॥८॥
भापाटीका ॥ इस शरीर रूपघर सेतृ उदास नहीं होता सोबड़ा आश्चर्यहे कैसाहे यहशरीर माताके मधिर और पि. ताके वीर्यसे तो उत्पन्न भयाहे और मेद हाइ मन्नाके समूह सेभरा महा अपवित्र है फिर कैसाह यह शरी. र बाहरसे मकवी के पंखके समान पतली खालाले महा हे यदिसर्व ओर लेमढ़ा नहोता तो रक्त मांस कोदव कर हिंसक मांस मची पत्नी काग बगुला भादिइने
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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक ।
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नोच २ कर खाजाते सोऐसा अपवित्र और घिनाव
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ना शरीर रूप घर तिसे देखकर तुझे इससे चित्त में बिरक्तता नहीं होती सोवड़ा आश्चर्य है ॥ ८ ॥
दुर्गन्धंनवभिर्वपुः प्रवहतिद्वारैरिदं संततं तद्दृष्ट्रापिचयस्य चेतसिपुनर्निर्दे गतानास्तिचित् । तस्यान्यद्भुतविव. स्तुकीदृशमहो तत्कारणं कथ्यताम श्रीखंडादि भिरङ्गसंस्कृति रियंव्या ख्यातिदुर्गन्धताम् ॥ ६ ॥
॥ भाषाटीका ॥
यह शरीर महा दुर्गंधित है फिर कैसा है यहशरीर नवद्वारों से ( दो नाक के द्वारोंसे रहेट दो श्रांखों के द्वारों से कीचड़ दो कानों के द्वारोंसे ठेंठ और एक मुहसे खखार और एक लिंगद्वारसे मूत्रवीर्य और एक गुदा द्वारसे मल) सदा पवित्र दुर्गंधित भरे है तिस को देखकर भी जिसके चित्तमें यदि ऐसे शरीर से विराग ता (उदासीनता) नहीं है तो कहिये. भूमण्डल पर और कौनसी वस्तु ऐसी होगी कि जो तिसको बिरागता
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श्रीसजनचित्तवल्लभ सटीक। १३ का कारण होगी। क्योंकि यहकेसर चंदनादि का सं. स्कार शरीरकी दुर्गंधता को प्रगट करताहै । भावार्थ केसर चंदन श्रादि सुगन्धित पदार्थ शरीरसे लगते | ही दुर्गंधित होजाते हैं इससे शरीर प्रगट पने मलि न दुर्गंधित और अपवित्र समझो ॥६॥ स्त्रीणांभावविलासविभ्रमगतिदृष्य नुरागमना ग्मागास्त्वविपवृक्षपक्व फलवत्सुस्वादवन्त्यस्तदा । ईपत्से वनमात्रतोपिमरणं पुंसांप्रयच्छन्ति भोः तस्मादृष्टिविपाहिवत्परिहरत्वं दूरतोमृत्यवे ॥१०॥
भाष टीका।। हे मुनि स्त्रियोंकी भावबिलास विश्रम गतिको (ना. नाप्रकारके बहानों पे अंगदिखानामटकाना मुसक्याना सेनचलाना, गाना प्रेमदिवाना, अनेकभानि चेष्टा करना इत्यादि चालको) देखकर तूतनक भी अपने मनमें अनुराग (प्रेम) मतकर । कसीह येत्रियां । विपरन के पक्के फलवत सुन्दर स्वादवाली हैं। और
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|१४ श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक । किंचिन्मात्र सेवनसे मृत्युको देती हैं। जैसे विषवृक्ष कापका हुआ विकारी फलखानेमे तो सुस्वादहै परंतु थोडासा भीखानेसे अल्पकाल में बिकार (रोग) बढ़ाकर प्राणलेताहै। तैसेही येत्रियां भोगके समयतो सुन्दर प्रिय लगतीहैं परंतु अन्तमें निर्बलता उपदंश मूत्र कृच्छ, प्रमेह आदि रोगकर मरण कोप्राप्ति कर तीहैं। और परमवमें दुर्गति को पहुंचाती हैं। इस लिये दृष्टि विषजाति केसर्प समान इनको भयंकरजा नतू दूरही से छोड़दे ॥१०॥
यद्यद्वाञ्छतितत्तदेवबपुषेदत्तंसुप ष्टत्वया साईनैतितथापित जड़मते मित्रादयोयान्तिकिम्।पुण्यंपापमि तिद्वयञ्च भवतः पृष्टेनुयातीहते त स्मान्मास्म कृथामनागपिभवान्मो हंशरीरादिषु ॥ ११॥
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हे जड़मति हे अज्ञान जो जो बस्नु यह शरीर चाहताहै सोसो सर्ब पुष्टकारी सुस्वादु बस्तु तूने इसेदी अर्थात् अनेक प्रकारकी पुष्टकारी सुस्वादु बस्तुओंसे
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श्रीसन्जनचित्तवल्लम सटीक । १५. नने इसेपोषा, तोभी यह कृनम्न मित्रवन शरीर तेरे साथ नहीं जायगा । तोये जिनको नइष्ट मित्रमानरहा है । और तुझसे प्रत्यन्न भिन्नह सो कैसे तेरेसाथ जायेंगे। तेरेसाथ तो तेरे किएहए पुण्य वा पाप दोही पीछे २ चलेंगे अर्थात् जहांत जन्म लेगा तहांही थे अपना २ फल देने लगेंगे। इससे तू अब रंच मात्र भी शरीर से वा मित्र बांधवों से (संसार में फंसाने । चाला ) रागभाव मतकर यही तुझको परमोपकारी शिक्षा है ॥ ११॥
शोचन्तनमृतं कदापिबनितायद्य स्तिगेहेधनंतचेनास्तिरुदन्तिजीवन धियास्मृत्वापुनःप्रत्यहं कृत्वातहह नक्रियां निजनिजव्यापार चिंताकु लातन्नामापिच विस्मरन्तिकतिभिः सम्बत्सरैःयोपिताः ॥१२॥
॥ भापाटीका ॥ यदि घर में लक्ष्मी हो तो स्त्री भी पति के मन पर शोक संताप नहीं करती है। और जो घर धन
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[१६ श्रीसज्जनचित्तबल्लभ सटीक । नहीं होवे तो अपने जीतव्य की इच्छा धारण करके प्रतिदिन मरे पतिको स्मरण कर कर अवश्य रोती है| और उसकी दग्ध क्रिया करके सम्बन्धीजन सब अपने २ व्यापारिक कार्यों में चिन्तातुर होजाते हैं। और कुछवर्ष व्यतीत होनेपर पत्नी उसका नाम भी भूल जाती है अर्थात् कभी स्मर्ण नहीं करती है। सारांश संसार में कोई किसी का सम्बन्धी नहीं है। सबलोग अपने २ स्वार्थ के सगे हैं। जहां स्वार्थ साधन नहीं | देखते चट अलग होजाते हैं फिर ऐसे अपस्वार्थी लोगों के मिथ्या प्रेममें फंसकर जीवको अपनाअनहित करना उचित नहीं है ॥ १२॥ | अष्टाविंशतिभेदमात्मनिपुरासंरो प्यसाधोवतं साक्षीकृत्यजिनानगुरू नपिकियत्कालंत्त्वया पालितं । म कुंवाञ्छसिशीतबातबिहतोभूत्त्वाधु नातव्रतंदारिद्रोपहतःस्ववान्तमशः नंभुक्तेनुधार्तोपिकिम् ॥१३॥
: ॥ भाषाटीका ॥ हे साधु तूने प्रथम केवली भगवान और जैनगुरू:
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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक १७ नके साथ अष्टाईग मूलगुण ( अहिंमा ५ मा २ अचार्य ३ ब्रह्मचर्य परिगृहत्याग ५ ये पंचमहावन ईयाममिति १ भाषाममिनि २ ईपणा समिति ३ श्रा. दाननित्तेपणा समिनि ४ प्रतिस्थापना ममिनिये ५. समिनि है। स्पर्शन १मना २ घ्राण ३ चन्न? श्रोत्र ५ इनपांच इंद्रियांका दमन । सामायक १ नी. थकका स्तवन रबंदना३ प्रतिक्रमण हे प्रत्याख्यान | ५. कायोत्सर्ग ६ वे छः आवश्यक और भूमिशयन १ स्नानत्याग २ दंतधोवनत्याग ३ वन्नत्याग र केशलुंच ५ उदंडाहार ६ एकवारलघु भोजन ७) ये धारण किया और कुछ समयला पाला अवशीन वाय
आदि के खेदसे घबराकर उस प्रतिज्ञा को छोड़ना चाहता है । सो विचार तो सही कि कोईदीन दरिद्री भी भूखसे पीड़ित हुश्रा अपनी वनको श्राप खानाह। ? भावार्थ नहीं खाता है। तो तू त्यागेडाग परिग्रह को क्यों ग्रहण किया चाहता है ? ॥ १३॥
अन्येपांमरणं भवानगणयन्स्व स्यामरत्वंसदा देहिचिन्तयमींद्रि यद्विपवशीभृत्वापरिभ्राम्यसि । अ
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दृाश्वः पुनरागमिष्यतियमो नज्ञाय तेतत्वतस्तस्मादात्महितं कुरुत्वम चिराद्धम्मैजिनेंद्रोदितम् ॥ १४ ॥
॥ भाषाटीका ॥
हे श्रात्मा तू औरों के मरण को मरण नहीं गिनता है । इसीसे अपने को सदा अमर विचारता है। इन इंद्रिय समूहरूप हाथीका दवायाहुवा भ्रमता फिरता है ठीक यह भी नहीं जानता है कि दुर्निवारकाल कव ( कल या परसों आदि कब) अवश्य श्रावेगा । इस लिये अपना हितकारी सर्वज्ञ केवली का कहा हुआ धर्म तू शीघ्र ही धारण कर ॥ भावार्थ जब काल - चानक जावेगा तब कुछ भी करतव्य काम न आ वेगा इससे पहिले से ही बीतराग धर्मको धारणकर १४ सौख्यंवाञ्छसिकिन्त्वयागतभवे दानंतपोवाकृतं नोचेत्त्वंकिमिहैवमे वलभसेलब्धंतदत्रागतं । धान्यंकिं लभतेविनापिवपनं लोकेकुटुम्बीज नो देहे कीटक भक्षितेक्षसदृशेमोहंवृ थामाकृथा ।। १५ ।।
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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक। १६
॥ भापाटीका ।। हे जीव तू जो सुख की चाहना करता है मो अपने मन में विचार तो सही कितने पूर्व जन्मम कुछ दान दिया था ? वा जप तप संयमरूप पुगय कर्म किया था? यदि नहीं कियातो इसलोक में मुख (जो दान पुण्य जप तपादिका फल है ) तुझको कम मिलेगा? जैसा पूर्व जन्म में किया है उसी के अनुसार तुझे इस जन्ममें प्राप्ति भवा है । संसार में यह बात तो प्रसिद्ध है कि संसार में किसान लोग कहीं बिना बोये भी धान्य काटते हैं जो बोने हैं सो ही काटतहा इस. लिये कीड़ों के खायेईख समान इस मनुष्य देह में तु रथा मोह मतकर भावार्थ इसे पाकर कुछ अान्महित करले यही मुगुरुकी परमोपकारी शिक्षा है ॥ १५ ॥
आयुष्यंतवनिद्रयामपरंचायुत्रि भेदादहो बालत्वेजरयाकियव्यस नतोयातीतिदेहिन्वृथा।निश्चिन्या
मनिमोहपासमधुना संछियवोधा सिना मुक्तिश्रीवनितावशीकरण चारित्रमाराधय ॥१६॥
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श्रीसज्जनचित्तबल्लभ सटीक ।
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हे श्रात्मा बड़े शोक वा प्राश्चर्य का विषय है कि तेरी श्रायुष्यका आधा भाग तो निद्रावश सोते में जाता है और शेष आधा वाल तरुण वृद्ध अवस्थामें वृथा जाता है वालकपनमें तो खेल तमांशा अज्ञान वश प्रिय लगता है तरुण अवस्थामें नाना प्रकार दुर्विसन सेवन वा व्यापारिक चिंता कलह आदि में समय जाता है वृद्ध अवस्था पौरुष हीन और अनेक रोगों का घर है इससे विचारतोकर कियह श्रेष्ठ मनुष्य जन्म पाया तिसमें तने परमार्थ श्रात्महित क्या किया? इससे अब ऐसा निश्चय करके ज्ञानरूप खड़ से मोहरूप पासको काट जिससे मोक्षरूप स्त्री को पावे सो तिसको बश करनहारे श्रेष्ठ चारित्र को धारण कर यह चारित्र देवनर्क तिर्यच गतिमें नहीं धार सकता और इसके धारेबिना मोक्ष लक्ष्मीको नही पासकता ऐसा चित्त में सम्यक् श्रवाणकर ॥ १६ ॥
यत्काले लघुपात्रमण्डितकरोभ वापरेषां गृहे भिक्षार्थभ्रमसे तदाहि भवतोमानापमानेन किम् । भिक्षो
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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक। तामसवृत्तितःकदसनात किंतप्यसेऽ हर्निशम् श्रेयार्थकिलसह्यतेमुनिवरे बांधाक्षुधायुद्भवाः॥१७॥
॥ भापाटीका ॥ हे भिक्षुक हे मुनि ! जिस समय मै तू हाथ में छोटा पात्र ( कमंडल ) लेकर भिना भोजनके अर्थ औरों के (गृहस्थों के ) घरों में जाताहै। तिसकालमें तुझे | मान अपमानसे क्या ( गृहस्थ जो अपनी इच्छा से सरस नीरस भोजन देवे सो ग्रहण कर ) दिनरात्रि तापस वृत्ति और अरोचक ( प्रकृति विरुद्द) भोजनों से क्यों दुखी होता है ? देख! अपने कल्याणके अथीं (चाहनेवाले ) महामुनि क्षुधा पिपासादि ( भूख प्यास आदि) से उपजी बाधाको समताभावसे (सं. क्लेश रहित परणामों से ) सहते हैं अर्थात् परीपहको | जीतते हैं। सो तुझे घबराना उचित नहींह ॥ १७॥
एकाकीविहरत्यनस्थितवलीयदों यथास्वेच्छया योपामध्य रतस्तथा त्वमपिभो त्यक्त्वात्मयूथंयते । त
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२२ श्रीसज्जनचित्तबल्लभ सटीक। . स्मिंश्चेदभिलाषतानभवतः किम्भ्रा भ्यसिप्रत्यहं मध्येसाधुजनस्यतिष्ठ सिनकिंकृत्त्वासदाचारताम॥१८॥
॥ भाषाटीका ॥ हे यति हे मुनि! जैसे चंचल (एक जगह न ठहर ने वाला) विजार(अनेक स्त्रियों को रमनेवाला)सांड़ जो स्वजातीय स्त्रियों में (गायोंके समूह में) रतहुआ सो अपने यूथको (बैल समूह को ) छोड़कर इच्छा पूर्वक (मनमाना ) एकला फिरता है । तैसे ही तू भी विचरे है (फिरता है) जो स्त्रियों में तेरी अभिलाषा (प्रीतिकी चाह ) नहीं है तो प्रतिदिन क्यों भ्रमता फिरता है ? सम्यक् प्रकारचारित्र को धारण कर साधु | जनों के मध्य में क्यों नहीं रहता? यहां आचार्य शिष्य को ऐसे ताड़नारूप बचन कहते हैं। कारण कि विरक्त साधुओंको रागभाव की पुतली स्त्रियोंमें जाना विरागता खोने और कलंकित होने को विपर्यय हेतु है इससे कारण विपर्ययको त्यागना चाहिये ॥ १८॥ . | क्रीतान्नंभवतः भवेतकदशनं रोष स्तदाश्लाध्यते भिक्षायांयदवाप्यते
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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक : २३ यतिजनैस्तद्भुज्यतेऽत्यादरात् । मि क्षोभाटकसम सन्निभतनोः पुष्टि थामाकृथाः पूर्णेकिंदिवसावधौक्षण मपिस्थातुंयमोदास्यति ॥१६॥
॥ भापाटीका ॥ हे भिक्षुक ! (परायेघर भोजन करनेवाला) यदि भोजन तेरे मोलका लिया होता तो स्वादिष्ट न होने पर तू क्रोध भी गृहस्थ दातार पर करता तो फयत्ता अर्थात् शोभादेता । और भिक्षा में तो जैसा भोजन सरस नीरस क्षार मीठा ठंडागर्म जो गृहस्थ ने अपने लिये बनवाया और उसमें से पुण्यहेतु तुझे भी दिया तो तुझे प्रेमसे खाना चाहिये जिससे गृहस्थ का चित्त न पीड़े। क्योंकि जोकुछ भिक्षा में मिलता हेसाधुजन उसको अत्यन्त आदर पूर्वक खाते हैं। इस भाड़े के | घर समान शरीर को वृथा पुष्टमत कर कारण कि जब श्रायु के दिनों की अवधि पूरी हो जावेगी तब क्या काल तुझे ठहरने देवेगा? भावार्थ श्रायु पूर्ण होतेही इस शरीर से श्रात्मा अलग हो परलोक जायेगा। फिर इससे अधिक प्रेमकिसकाम आयेगा इसलिये शरीर से अ.
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२४.
श्रीसज्जनचित्तबल्लभ सटीक 1
धिक राग मतकर यही तेरेलिये परम शिक्षा है ॥ १९ ॥ लब्ध्वार्थयदिधर्म्मदानविषयेदातुं नयैः शक्यते दारिद्रोपहतास्तथापि विषयासक्तिनमुञ्चन्तिये । धृत्वाये चरणं जिनेंद्रगदितंतस्मिन्सदानाद रास्तेषां जन्म निरर्थकं गतमजाकण्ठे स्तनाकारवत ॥ २० ॥
॥ भाषाटीका ॥
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जो मनुष्य धनको पाकरे दान पुण्य में नहीं लगा ते हैं: रात्रि दिन फिर भी कमाई २ में मरते पचते हैं ऐसे सूमों का जन्म तथा जो निर्धन हैं जिनके रहनेको टूटी झोंपड़ी है पहिरने को फटे मैले वस्त्र किंचिन्मामाटी के बर्तनों में कुसमय शाक भांजी से पेट भरते
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हैं, तोभी विषय बासना को नहीं छोड़ते न सच्चारित्र को ग्रहण करते हैं । और जो भगवत प्राणी चारित्रको ग्रहणकर उसमें सदा अनादरसे वर्तते है उस चारित्र मैं शिथिल रहते हैं तिन सबका मनुष्य जन्म बकरी के गले के स्तन समान निकाम है व्यर्थ है ॥ २० ॥ ॥
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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक । २५ लन्ध्यामानुपजाति मुत्तमकुलम् रूपंचनीरोगताम् बुद्धिंधीधनसेवनं सुचरणश्रीमज्जिनेंद्रो दितम् । लो भार्थवसुपूर्णहेतु भिरलंस्तोकायसी ख्यायभो देहिन्देहसुपोतकंगुणभृतं भक्तुंकिमिच्छास्तिते ॥ २१ ॥
॥ भापाटीका ॥ हे आत्मा! मनुष्य जन्ममें उत्तम जाति कुलको पा. याहै (यदिम्लेच्छ शूद्र होता तो क्या उत्तम आचरण करसक्ता?) और रूपवान सुन्दर निरोग शरीर पाया हे रोगीहोता तो क्या धर्म कर्म आचरण कर सकता? | फिर ज्ञान और अच्छे पंडितों का सत्संग मिला है।
और श्रीमग्जिनेंद्र का कहाहुया चारित्र भी तूने पाया है यह सर्व दुर्लभ २ सामग्री पाकर अब त लोभ के वश होकर धनकी चाहना को पूर्ण करने के हेतु कि. चिनगान तग भंगुर सुखकी बांछाकर सर्व गुगुरुप रत्नोकर भराहुया यह शरीररूपजहाज़ संमार समुद्र से पार करने वाला तिसके नोइने को (विनाशको)।
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करता है ।। २१॥
२६ श्रीसज्जनचित्तबल्लभ सटीक। तेरीबुद्धि क्योंकर भरपूर होरही है ? बड़े खेदका विष |य है कि श्रीगुरु का उपदेश तेरे चित्त में प्रवेश नहीं
बेतालाकृतिमर्द्धदग्धमृतकंदृष्ट्वाभव न्तयते यासांनास्तिभयंत्वयासमम होजल्पन्तितास्तत्पुनः। राक्षस्योभु वनेभवन्ति वनितामामागताभक्षि तुं मत्वैवंप्रपलाप्यतांमृतिभयात्वंत त्रमास्थाःक्षणं ॥ २२॥
॥ भाषाटीका। हेमुनि ! जिन तरुण स्त्रियोंको तेरा प्रेतके श्राकार अधजले मुर्दावत भयंकर कुरूप देखकर भी भय नहीं होता और तेरेसाथ प्रेम पूर्वक बचनालाप करती हैं सो स्त्रियां संसार में महा भयावनी राक्षसी हैं तिनको देखकर तू अपने मनमें ऐसा विचारकर किये मायाविनी मेरे खानेको(नाशकरने को ) आईहै ऐसा मनमें दृढ़ निश्चयकर मरनके भयसे तिनकेसन्मुखसे शीघ्र ही भाग तहां क्षणमात्र मत ठहर नहीं तोवे तेरा चारित्ररूप धन और ज्ञानरूप प्राण हरलेवेगी ऐसानिश्चय जान ॥ २२॥
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श्रीसज्जनचिनवल्लभ मटीको २ मागास्त्वंयुक्तीगृहेषु मतविस्त्रा सतांसंसयो विस्वासेजनवाच्यतांभ वतितेनश्येत्पुमर्थह्यतः । स्वाध्याया नुरतोगुरूक्त वचनंशीप समारोपयं स्तिष्ठत्वं विकृतिं पुनव्रजसिचंद्यासि त्वमेवक्षयम् ॥ २३॥
॥ भाषाटीका ॥ 7 .मनि तू निरन्तर (प्रतिदिन ) स्त्रियों के घरमें (निवासस्थान ) विश्वास मतकर अर्थात् निडर हो तहां न बैठ। नहीं तो ऐसा विश्वास करने से तेरी लोक में हास्य होगी सबल रोग तेरी ओर से सन्देह । करेंगे और आपस में कहेंगे कि ये महात्मा नारी भक्त
तेरा सर्व पुरुषार्थ धर्ममक्ष का साधन नाश हो जावेगा। इसहेतु से नू अब धर्मशाम्बीके स्वाध्याय में लीनहुआ सुगमकी उत्तम शिनाको अपने मस्तक पर रख अर्थात् उससुगुमशिनाको सर्वोपरिमान तपो वनम निवासकर और जो न मानेगा अर्थात् सुगम शिक्षा के विपरीत चलेगा (पाचरगा करेगा
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२८ श्रीसज्जनचित्तवल्लम सटीक । इसमें तेरी महाहानि होगी अर्थात् संगसे निकाला जायगा. तप से भ्रष्ट हो लोक निंद्य होगा ॥ २३ ॥
किंसंसकारशतेन विट्जगतिभोः काश्मीरजंजायते किंदेहःशुचितांब जेदनुदिनप्रक्षालनादम्भसा|संस्का रोनखदन्तवक्रवपुषां साधोत्त्वयायु ज्यतेनाकामीकिलमण्डनप्रियइति त्वंसार्थकमाकृथाः ॥ २४॥ ....... ॥ भाषाटीका ॥
हेमुनि क्या सौ.१००संस्कारों से भी संसार में विष्टा (भल ) केसर हो सकता है ? अर्थात् मेले में सैकड़ों सुगंधित वस्तुयें मिलाने से भी केसरके गुणों को (रंग गंध स्वादादि को वह नहीं पहुंच सकता । तैसेही शरीरभी प्रतिदिन के स्नानसेक्या शुद्ध होसकताहै! | अर्थात् नहीं होसकता है. स्नानसे किंचित कालको | ऊपरी देहका मल धुलही गया तो भीतर से मलमूत्र पसीना आदि उसे शीग्रही फिर मैलाकरदेतेहैं। और अंतरंग में कुटिल भाव जनित.जी.पापरूपमल.भरा
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श्रीसन्जनचित्तवल्लभ सटीक २७ हे वहतो पानी में पेठे (घुसे ) रहते भी नहीं धुल सकता है और नख दांत केश और मुखका शृंगार न करता है इससे तो तूमंडन प्रिय कामी प्रगटपने दृष्टि पड़ता है। वीतराग अकामी नहीं होसकता इससे जो ऐसा करनाहै तो सार्थक नाम यति मतरखया अर्थात कुलिंगी वेशी नाम रखाना योग्य है ॥२४॥
वृत्तविंशतिभिश्चतुर्भिरधिकैःसल्ल क्षणीनान्वितै ग्रंथसजनचित्तवल्ल भमिमंश्रीमल्लिपेणोदितं । श्रुत्वात्में द्रियकुञ्जरान्समटतो रुन्धन्तुतेदुर्ज रान् विद्वान्सो विपयाटवीपुसततंसं सारविच्छित्तये ॥ २५॥
॥ भापाटीका ॥ विद्वानलोग चौबीस शार्दूलविक्रीडित छंदों में श्री मत् मल्लिषेणनाम श्राचार्य के बनायेहुए इस परमोराम लक्षण युक्त ग्रंथको सुनकर अपनी चंचल और मस्त मानोहस्ती ज्यों स्वच्छंद होकर विषयरूप बन में चारों ओर घूमता है भटकनेवाली इंद्रियों को रोको
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३० श्रीसंज्जनचित्तवल्लम सटीक । कैसी हैं इंद्रियां महादुर्जय जो कठिनता से जीती जा | सकती हैं तिनको संसार (भव भ्रमण) के नाश के लिये रोको अर्थात् अपने वशीभूत करके जप तपादि सम्यक् चारित्र में लगावो इसी में तुम्हारा परम कर ल्याण है और यही श्रीगुरुकी परम हितकारिणी श्रेष्ठ शिक्षा है ॥ २५॥ इति श्री सज्जनचितवनभ काव्य समाप्तम् भाषाटीका मुंशी नाथूराम लगेचू
रचिव शुभम्भूयात् ।।
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