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________________ --namastarametamarh -- - - - श्रीयन्जनचित्तवल्लभ सटीक । रगृहेलब्धयथासम्भवम् । पधाव श्यकसस्क्रियासुनिरतो धर्मानुराग वहन् साईयोगिभिरात्मभावनपरो रत्नत्रयालंकृतः ॥६॥ ॥ भापाटीका ॥ हेमुनि त नारी नपुंशक और पशुओंसे रहितस्थान में सदाकाल रह । कहा करके पराये गृह अधान ग्रहस्थों के घर जो उन्होंने तेरेलिये नहीं बनाया अथात अपने लिये बनाया है सो रूखा सूखा (चिकनाईरहित वा दाल तरकारी रहित ) जो तुझे तेरे भोगांत राय के नयोपशम अनुसार मिलजावे ऐमा भोजन करके और त्रिकाल सामायक पंचपरमेष्टीकास्तवन तथापंचपरमेष्टीकी बदना३ अतिक्रमण हे प्रत्याख्यान ५ कायोत्सर्ग ६ ये छः आवश्यकरूप सक्रियात्राको करता और दशलक्षण धर्म में प्रेम धरके आत्मभाव में लगताहा सम्यक् रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन सम्य ज्ञान सम्यक्चारित्र) के धारकऐसे मुनिजनाके साथ में वासकर ॥६॥ दुर्गन्धंवदनंवपुर्मलभतम्भिक्षाट
SR No.010712
Book TitleSajjan Chittavallabh Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherNathuram Munshi
Publication Year1899
Total Pages33
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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