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श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक ।
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नचित्तमेवकथयत्यभ्यन्तरस्थाङ्गना नोचेदर्थ परिग्रह ग्रहमतिर्भिक्षोनस स्पद्यते ॥ ५ ॥
॥ भाषाटीका ॥
हे भिक्षुक ( मुनि) जो तेरे चित्तमें धनकी ( द्रव्य की) यांचा है अर्थात् तु धनको चाहता है, तो दिक्षा ग्रहने से क्या ? अर्थात् क्या कार्यसरा और काहे को धारण की। क्या गृहस्थ का वेश (जो वस्त्राभूषण सहित है) मुनिके नग्न वेशसे बुरा जान पड़ता है । अब तू जो द्रव्य के उपार्जन को मनसे चेष्टा करता है उससे तो तुझे स्त्रीकी चाह जानीजाती है। क्योंकि स्त्री की चाह न होती तो धन लेनेकी बुद्धि कैसे उत्पन्न होती ? काहे से कि उदर पूर्णाको भोजन तो भाग्यानु कूल गृहस्थोंके घरमें मिलही जाता है फिर धन क्यों चाहता है । है मुनि ऐसे आचरण से तो मुनिपद को बहुत कलंक लगता है ॥ ५ ॥
योषापारडुकगोविवर्जितपदेसंति टभिक्षोसदा भुक्त्वाहारमकारितंप