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________________ ANA AAAANAN ANANPAP - - |१४ श्रीसज्जनचित्तवल्लभ सटीक । किंचिन्मात्र सेवनसे मृत्युको देती हैं। जैसे विषवृक्ष कापका हुआ विकारी फलखानेमे तो सुस्वादहै परंतु थोडासा भीखानेसे अल्पकाल में बिकार (रोग) बढ़ाकर प्राणलेताहै। तैसेही येत्रियां भोगके समयतो सुन्दर प्रिय लगतीहैं परंतु अन्तमें निर्बलता उपदंश मूत्र कृच्छ, प्रमेह आदि रोगकर मरण कोप्राप्ति कर तीहैं। और परमवमें दुर्गति को पहुंचाती हैं। इस लिये दृष्टि विषजाति केसर्प समान इनको भयंकरजा नतू दूरही से छोड़दे ॥१०॥ यद्यद्वाञ्छतितत्तदेवबपुषेदत्तंसुप ष्टत्वया साईनैतितथापित जड़मते मित्रादयोयान्तिकिम्।पुण्यंपापमि तिद्वयञ्च भवतः पृष्टेनुयातीहते त स्मान्मास्म कृथामनागपिभवान्मो हंशरीरादिषु ॥ ११॥ -- RANA How nd .. ॥ भाषाटीका ॥ de-a हे जड़मति हे अज्ञान जो जो बस्नु यह शरीर चाहताहै सोसो सर्ब पुष्टकारी सुस्वादु बस्तु तूने इसेदी अर्थात् अनेक प्रकारकी पुष्टकारी सुस्वादु बस्तुओंसे
SR No.010712
Book TitleSajjan Chittavallabh Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherNathuram Munshi
Publication Year1899
Total Pages33
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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