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________________ - - २२ श्रीसज्जनचित्तबल्लभ सटीक। . स्मिंश्चेदभिलाषतानभवतः किम्भ्रा भ्यसिप्रत्यहं मध्येसाधुजनस्यतिष्ठ सिनकिंकृत्त्वासदाचारताम॥१८॥ ॥ भाषाटीका ॥ हे यति हे मुनि! जैसे चंचल (एक जगह न ठहर ने वाला) विजार(अनेक स्त्रियों को रमनेवाला)सांड़ जो स्वजातीय स्त्रियों में (गायोंके समूह में) रतहुआ सो अपने यूथको (बैल समूह को ) छोड़कर इच्छा पूर्वक (मनमाना ) एकला फिरता है । तैसे ही तू भी विचरे है (फिरता है) जो स्त्रियों में तेरी अभिलाषा (प्रीतिकी चाह ) नहीं है तो प्रतिदिन क्यों भ्रमता फिरता है ? सम्यक् प्रकारचारित्र को धारण कर साधु | जनों के मध्य में क्यों नहीं रहता? यहां आचार्य शिष्य को ऐसे ताड़नारूप बचन कहते हैं। कारण कि विरक्त साधुओंको रागभाव की पुतली स्त्रियोंमें जाना विरागता खोने और कलंकित होने को विपर्यय हेतु है इससे कारण विपर्ययको त्यागना चाहिये ॥ १८॥ . | क्रीतान्नंभवतः भवेतकदशनं रोष स्तदाश्लाध्यते भिक्षायांयदवाप्यते d ।
SR No.010712
Book TitleSajjan Chittavallabh Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherNathuram Munshi
Publication Year1899
Total Pages33
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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