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________________ [१६ श्रीसज्जनचित्तबल्लभ सटीक । नहीं होवे तो अपने जीतव्य की इच्छा धारण करके प्रतिदिन मरे पतिको स्मरण कर कर अवश्य रोती है| और उसकी दग्ध क्रिया करके सम्बन्धीजन सब अपने २ व्यापारिक कार्यों में चिन्तातुर होजाते हैं। और कुछवर्ष व्यतीत होनेपर पत्नी उसका नाम भी भूल जाती है अर्थात् कभी स्मर्ण नहीं करती है। सारांश संसार में कोई किसी का सम्बन्धी नहीं है। सबलोग अपने २ स्वार्थ के सगे हैं। जहां स्वार्थ साधन नहीं | देखते चट अलग होजाते हैं फिर ऐसे अपस्वार्थी लोगों के मिथ्या प्रेममें फंसकर जीवको अपनाअनहित करना उचित नहीं है ॥ १२॥ | अष्टाविंशतिभेदमात्मनिपुरासंरो प्यसाधोवतं साक्षीकृत्यजिनानगुरू नपिकियत्कालंत्त्वया पालितं । म कुंवाञ्छसिशीतबातबिहतोभूत्त्वाधु नातव्रतंदारिद्रोपहतःस्ववान्तमशः नंभुक्तेनुधार्तोपिकिम् ॥१३॥ : ॥ भाषाटीका ॥ हे साधु तूने प्रथम केवली भगवान और जैनगुरू:
SR No.010712
Book TitleSajjan Chittavallabh Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherNathuram Munshi
Publication Year1899
Total Pages33
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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