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parmanamri
श्रीसज्जनचिनवल्लभ मटीको २ मागास्त्वंयुक्तीगृहेषु मतविस्त्रा सतांसंसयो विस्वासेजनवाच्यतांभ वतितेनश्येत्पुमर्थह्यतः । स्वाध्याया नुरतोगुरूक्त वचनंशीप समारोपयं स्तिष्ठत्वं विकृतिं पुनव्रजसिचंद्यासि त्वमेवक्षयम् ॥ २३॥
॥ भाषाटीका ॥ 7 .मनि तू निरन्तर (प्रतिदिन ) स्त्रियों के घरमें (निवासस्थान ) विश्वास मतकर अर्थात् निडर हो तहां न बैठ। नहीं तो ऐसा विश्वास करने से तेरी लोक में हास्य होगी सबल रोग तेरी ओर से सन्देह । करेंगे और आपस में कहेंगे कि ये महात्मा नारी भक्त
तेरा सर्व पुरुषार्थ धर्ममक्ष का साधन नाश हो जावेगा। इसहेतु से नू अब धर्मशाम्बीके स्वाध्याय में लीनहुआ सुगमकी उत्तम शिनाको अपने मस्तक पर रख अर्थात् उससुगुमशिनाको सर्वोपरिमान तपो वनम निवासकर और जो न मानेगा अर्थात् सुगम शिक्षा के विपरीत चलेगा (पाचरगा करेगा