Book Title: Anekant 1954 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहमः । 177 वस्तुतत्त्व-संयोत विश्वतत्त्व-प्रकाशक. dhana वार्षिक मूल्य ६) एक किरण का मूल्य ॥) नीतिविरोषध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् ।। परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः । वर्षे १३ वीरसेवामन्दिर, दरियागंज, देहली सितम्बर किरण ३ . आश्विन वीर नि० संवत् २४८०, वि० संवत २०११ २०११ ) १६५४ समन्तभद्र-भारती देवागम अभावैकान्त-पक्षेऽपि भावाऽपह्नव-वादिनाम् । विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । बोध-वाक्यं प्रमाणं न केन साधन-दूषणम् ।। १२॥ अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति नर्नाऽवाच्यमिति युज्यते ॥१३॥ 'यदि अभावैकान्तपक्षको स्वीकार किया जाय—यह (भावैकान्त और अभावैकान्त दोनोंकी अलग-अलग माना जाय कि सभी पदार्थ सर्वथा असत्-रूप हैं-तो मान्यतामें दोष देखकर ) यदि भाव और अभाव इस प्रकार भावोंका सर्वथा अभाव कहने वालोंके यहाँ दोनोंका एकात्म्य (एकान्त ) माना जाय, तो स्याद्वाद(मतमें ) बोध (ज्ञान) और वाक्य (भागम) दोनोंका न्यायके विद्वेषियोंके यहा-उन लोग के मतमें जो ही अस्तित्व नहीं बनता और दोनोंका अस्तित्व न अस्तित्व-नास्तित्वादि सप्रतिपक्ष धर्मों में पारस्परिक अपेक्षाबननेसे ( स्वार्थानुमान, परार्थानुमान आदिके रूपमें) को न मानकर उन्हें स्वतन्त्र धर्मों के रूपमें स्वीकार करते कोई प्रमाण भी नो बनता; तब किसके द्वारा अपने हैं और इस तरह स्याद्वाद-नीतिके शत्रु बने हुए हैं-वह अभावैकान्त पक्षका साधन किया जा सकता और एकात्म्य नहीं बनता; क्योंकि उससे विरोध दोष आता दूसरे भाववादियों के पक्षमें दूषण दिया जा सकता है-भावैकान्त अभावैकान्तका और अभावैकान्त भावहै-स्वपक्ष-साधन और पर पक्ष-दूषण दोनों ही घटित कान्तका सर्वथा विरोधी होमेसे दोनोंमें एकात्मता घटित न होनेसे प्रभावकान्तपक्ष-वादियोंके पक्षकी कोई नहीं हो सकती। सिद्धि अथवा प्रतिष्ठा नहीं बनती और वह सदोष ठहरता (भाव, अभाव और उभय तीनों एकान्तोंकी है। फलतः अभावकान्तपक्षके प्रतिपादक सर्वज्ञ एवं महान् मान्यतामें दोष देख कर) यदि अवाच्यता (अवक्तव्य) नहीं हो सकते। एकान्तको माना जाय-यह कहा जाय कि वस्तुतत्त्व Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त । वर्ष १३ सर्वथा अवाच्य ( अनिर्वचनीय या अवक्तव्य) है-तो स्वरूपकी तरह यदि पररूपसे भी किसीको सत् माना वस्तुतत्त्व 'अवाच्य' है ऐसा कहना भी नहीं बनता- जाय तो चेतनादिके अचेतनत्वादिका प्रसंग पाता है। और इस कहनेसे ही वह 'वाच्य' हो जाता है, अवाच्य' नहीं पररूपकी तरह यदि स्वरूपसे भी असत् माना जाय, तो रहता; क्योंकि सर्वथा अवाग्यकी मान्यतामें कोई वचन- सर्वथा शून्यताकी आपत्ति खड़ी होती है। अथवा जिस व्यवहार घटित ही नहीं हो सकता।' रूपसे सत्व है उसी रूपसे असत्वको और जिस रूपसे ___ कथचित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । असत्त्व है उमी रूपसे सत्वको माना जाय, तो कुछ भी तथोभयमवाच्यं च नय-योगान्न सर्वथा ॥ १४॥ घटित नहीं होता। अतः अन्यथा मानने में तत्व या वस्तुकी '(स्याहाद-न्यायके नायक हे वीर भगवन् !) आपके कोई व्यवस्था बनती ही नहीं, यह भारी दोष उपस्थित शासनमें वह वस्तुतत्त्व कथञ्चित् (किसी प्रकारसे होता है।' सत्-रूप ही है, कथश्चित् असत्-रूप हो है, कथञ्चित् क्रमार्पित-द्वयाद् द्वैतं सहाऽवाच्यमशक्तितः। उभयरूप ही है, कथश्चित् अवक्तव्यरूप ही हे अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ॥ १६ ॥ (चकारसे) कथञ्चित् सत् और अवक्तव्यरूप ही है; वस्तुतत्त्व कश्चित् क्रम-विवक्षित स्व-पर-चतुष्टयकथश्चित् असत् और अवक्तव्य रूप ही है, क्थश्चित् की अपेक्षा द्वैत (उभय रूप-सदमद्रूप अथवा सदसत् और अवक्तव्यरूप ही है; और यह सब अस्तित्व-नास्तित्वरूप- और कथश्चित् युगपत् नयोंके योगसे है-वक्ताके अभिप्राय-विशेषको लिए हुए विवक्षित स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा कथनमें वचनकी जो सप्तभंगात्मक नय-विकल्प हैं उनकी विवक्षा अथवा अशक्ति-असमर्थताके कारण अवक्तव्यरूप है। (इन इष्टिसे है-सर्वथा रूपसे नहीं-नयष्टिको छोड़ कर चारोंके अतिरिक्त) सत, असत और उभय के उत्तर में सर्वथारूपमें अथवा सर्वप्रकारसे एकरूपमें कोई भी अवक्तव्यको लिए हए जो शेष तीन भंग-सदवक्तव्य, वस्तुतत्व व्यवस्थित नहीं होता। असदवक्तव्य और उभयावक्तव्य-हैं वे (भी) अपने सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् । अपने हेतुसे कथञ्चित् रूपमें सुघटित हैं- अर्थात् असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते । १५॥ वस्तुतस्व यद्यपि स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा कञ्चत् "(हे वीर जिन !) ऐसा कौन है जो सबको- अम्तिरूप है तथापि युगपत् स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा चेतन-अचेतनको, द्रव्य-पर्यायादिको, भ्रान्त-अभ्रान्तको कहा न जा सकनेके कारण प्रवक्तव्यरूप भी है और अथवा स्वयंके लिए इष्ट अनिष्टको-स्वरूपादिचतुष्टयकी इसलिए स्यादरस्यवक्तम्यरूप है इसी तरह स्यानास्यदृष्टिसे-स्वद्गव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी वक्तव्य और स्यादस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य इन दो भंगोंको अपेक्षसे-सत् रूप ही, और पररूपादिचतुष्टयकी भी जानना चाहिए।' दृष्टिसे-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी। अपेक्षासे-असत् रूप ही अंगीकार न करे ? -कोई अस्तित्वं प्रतिषेध्ये नाऽविनाभाव्येक-धर्मिणि । भी लौकिकजन, परीक्षक, स्याद्वादी. सर्वथा एकान्तवादी विशेषणत्वात्साधये यथा भेद-विवक्षाया ।। १७ ।। अथवा रूचेतन प्राणी ऐसा नहीं है, जो प्रतीतिका लोप एक धर्मी में अस्तित्वधर्म नास्तित्वधर्मके साथ करने में समर्थ न होनेके कारण इस बातको न मानता हो। अविनाभावी है-नास्तिस्वधर्मके विना अस्तित्व नहीं यदि (स्वयं प्रतीत करता हुश्रा भी कुनयके वश-विपरीन- बनता-क्योंकि वह विशेषण है-जो विशेषण होता है बलि अथवा दराग्रहको प्राप्त हा) कोई ऐसा नहीं वह अपने प्रतिषेध्य ( प्रतिपक्ष धर्म ) के साथ अविनाभाव मानता है तो वह (अपने किसी भी इष्ट तत्त्वमें) होता है-जैसे कि (हेतु-प्रयोगमें) साधर्म (अन्वयव्यवतिष्ठित अथवा व्यवस्थित नहीं होता है--उसकी हेतु ) भेद-विवक्षा (वैधर्म्य अथवा व्यतिरेक-हेतु के कोई भी तत्वव्यवस्था नहीं बनती। क्योंकि स्वरूपके साथ अविनाभाव सम्बन्धको लिए रहता है । व्यतिरेक ग्रहण और पररूपके त्यागकी व्यवस्थासे ही वस्तुमें (वैधय॑ ) के बिना अन्वय (साधर्म्य) और अन्वयके वस्तुस्वकी व्यवस्था सुटित होती है, अन्यथा नहीं। बिना व्यतिरेक धरित नहीं होता ।' For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् ऋषभदेव के अमर स्मारक ( पं० हीरालाल जैन, सिद्धान्तशास्त्री ) जैन मान्यता के अनुसार भ० • ऋषभदेव इस युगके आदि तीर्थंकर थे । उन्होंने ही यहाँ पर सर्वप्रथम लोगोंको जीवन-निर्वाहका मार्ग बतलाया, उन्होंने ही स्वयं दीक्षित होकर साधु-मार्गका आदर्श उपस्थित किया और केवलज्ञान प्राप्त कर उन्होंने ही सर्वप्रथम संसारको धर्मका उपदेश दिया । भ० ऋषभदेवने लिपिविद्या और अंकविद्याका लिखना पढ़ना सिखलाया, ग्राम-नगरादिकी रचना की और लोगोंको विभिन्न प्रकारकी शिक्षा देकर वर्णोंकी स्थापना की । आज भारत में जो प्राचीन संस्कृति पाई जाती है, उसके मूलकी छानबीन करने पर पता चलता है कि उस पर भ० ऋषभदेव के द्वारा प्रचलित व्यवस्थाओंकी कितनी ही अमिट छाप आज भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है और अक्षय तृतीया, अक्षयवट तथा शिवरात्रि जैसे पर्व तो आज भी भगवानके अन्तिम तीनों कल्याणोंके अमर स्मारक के रूपमें उनके ऐतिहासिक महापुरुष होनेका स्वयं उद्घोष कर रहे हैं। इस लेखमें संक्षेपरूपसे भ० ऋषभदेवके इन्हीं अमर स्मारकों पर प्रकाश डाला जायगा । भारतवर्ष भ० ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र आदि चक्रवर्ती सम्राट् भरत सर्वप्रथम इस षट् खंड भूभाग के स्वामी बने और तभोसे इसका नाम 'भरतक्षेत्र' या 'भारतवर्ष' प्रसिद्ध हुआ। इस कथन की पुष्टि जैन-शास्त्रोंसे तो होती ही है, किन्तु हिन्दुओंके अनेक पुराणों में भी इसका स्पष्ट उल्लेख है । उनमेंसे २-१ प्रमाण यहाँ दिये जाते हैं: - नोस्तु ऋषभोऽभूत् सुतो द्विजः । ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताद्वरः ||३६|| हिमा दक्षिणं वर्ष भरताय पिता ददौ । तस्मात्तु भारतं वर्षे तस्य नाम्ना महात्मनः ॥ ४१ ॥ —( मार्कण्डेयपुराण अ० ५० ) अर्थात् - नाभिराजके पुत्र ऋषभदेव हुए और ऋषभदेवके भरत । भरत अपने सौ भाइयोंमें सबसे ज्येष्ठ थे । ऋषभदेवने हिमालयके दक्षिणका क्षेत्र भरत के लिये दिया और इस कारण उस महात्मा के नामसे इस क्षेत्रका नाम 'भारतवर्ष' पड़ा । यही बात विष्णुपुराण में भी कही गई है:नाभेः पुत्रश्च ऋषभः ऋषभाद् भरतोऽभवत् । तस्य नाम्ना विदं वर्ष भारतं चेति कीर्त्यते ॥ ५७॥ - (विष्णुपुराण, द्वितीयांश अ० १ ) इस प्रकार उपयुक्त उल्लेखोंसे जहां भरतके नामसे भरतके पिता होने के कारण भ० ऋषभदेवकी ऐतिहाइस क्षेत्रका नाम भारतवर्ष' सिद्ध होता है, वहां सिकता और प्राचीनता भी स्वतः सिद्ध हो जाती है । इक्ष्वाकुवंश 'जैन मान्यता के अनुसार भ० ऋषभदेवके जन्म से पूर्व यहां पर भोगभूमि थी और यहां के निवासी कल्पनिर्वाह करते थे। जब ऋषभदेवका जन्म हुआ, तब वृक्षोंसे प्रदत्त भोग-उपभोगकी सामग्री से अपना जीवन वह व्यवस्था समाप्त हो रही थी और कर्मभूमिकी रचना प्रारम्भ हो रही थी । भोगभूमिके समाप्त होते प्यास से पीड़ित हो उठे । वे ' त्राहि-त्राहि करते हुए कल्पवृक्ष और यहां निवासी भूखऋषभदेवके पास पहुंचे । लोगोंने अपनी करुण कहानी उनके सामने रखी। भगवान उनके कष्ट सुनकर द्रवित हो उठे और उन्होंने सर्वप्रथम अनेक दिनोंसे भूखी-प्यासी प्रजाको अपने आप उगे हुए इक्षुओं (गन्नों ) के रस-पान-द्वारा अपनी भूख-प्यास शान्त करने का उपाय बतलाया और इसी कारण लोग आपको 'इवाकु' कहने लगे । 'इक्षु इति शब्दं अकतीति, अथवा इक्षुमाकरोतीति इक्ष्वाकु: ।' अर्थात् भूखी-प्यासी प्रजाको 'इक्षु' ऐसा शब्द कहने के कारण भगवान् 'इक्ष्वाकु' कहलाये । सोमवंश, सूर्यवंश आदि जितने भी वंश हैं, उनमें 'इक्ष्वाकु वंश ही आद्य माना जाता है । For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] अनेकान्त तदनन्तर भ• ऋषभदेवने प्रजाको असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्पवृत्तिकी शिक्षा देकर अपनी जीविका चलानेका मार्ग दिखाया और ग्राम नगरादिके रचनेका उपाय बताकर व्याघ्रादि हिंस्र प्राणियों से आत्म-रक्षा करने और सर्दी-गर्मीको बाधा दूर करने का मार्ग दिखाया । भ० ऋषम देवने ही सर्वप्रथम घड़ा बनानेकी विधि बतलाई और कूप, बावड़ी आदि बनाने और उनसे पानी निकालकर पीनेका मार्ग बतलाया । इन सब कारणों से भगवान् 'प्रजापति' कहलाये । विक्रमकी दूसरी शताब्दी के महान् विद्वान स्वामी समन्तभद्रने अपने प्रसिद्ध स्वयम्भूस्तोत्रमें इन दोनों बातोंको इस प्रकार चित्रित कर उनकी प्रामाणिकता प्रकट की है 'प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषूः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ||२|| 'मुमुचुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुःप्रवब्राज सहिष्णुरच्युतः ||३|| संक्षेपमें इतना ही कहना पर्याप्त है कि इस कर्म भूमि-युग के प्रारम्भमें प्रजाकी सुव्यवस्था करनेके कारण भ० ऋषभदेव ब्रह्मा, विधाता, सृष्टा आदि अनेक नामसे प्रसिद्ध हुए । ब्राह्मी लिपि - भ० ऋषभदेवने सर्व प्रथम अपने भरत आदि पुत्रोंको पुरुषोंकी ७२ कलाओं में पारंगत किया । ज्येष्ठ पुत्र भरत नाट्य-संगीत कलामें सबसे अधिक निपुण थे। आज भी नाट्यशास्त्र के आद्य प्रणेता भरत माने जाते हैं । भगवान्ने अपनी बड़ी पुत्रीको लिपिविद्याअक्षर लिखनेकी कला और छोटी सुन्दरी पुत्रीको श्रअंक-विद्या सिखाई । ब्राह्मीके द्वारा प्रचलित लिपिका नाम ही 'ब्राह्मी लिपि' प्रसिद्ध हुआ । भारतकी लिपियोंमें यह सबसे प्राचीन मानी जाती है और प्रणेताके रूपमें भगवान् ऋषभदेवकी अमर स्मारक है । श्रचयतृतीया - एक लम्बे समय तक प्रजाका पालन कर ऋषभदेव संसार से विरक्त होकर दीक्षित हो गये और दीक्षा लेने के साथ ही छह मासका उपवास स्वीकार किया । [ वर्ष १३ तदनन्तर वे आहारके लिए निकले । परन्तु उस समयके लोग मुनियोंको आहार देनेकी विधि नहीं जानते थे, अतः कोई उनके सामने रत्नोंका थाल भरकर पहुचता, तो कोई अपनी सुन्दरी कन्या लेकर उपस्थित होता । विधिपूर्वक आहार न मिलने के कारण ऋषभदेव पूरे छह मास तक इधर-उधर परिभ्रमण करते रहे और अन्त में हस्तिनापुर पहुंचे। उस समय वहांके राजा सोमप्रभ थे । उनके छोटे भाई श्रेयांस थे । उनका कई पूर्व भवों में भगवान् से सम्बन्ध रहा है और उन्होंने पूर्व भवमें भगवान्‌ के साथ किसी मुनिको आहार दान भी दिया था । भगवान् के दर्शन करते ही श्रेयांसको पूर्वभवकी सब बातें स्मरण हो आई और उन्होंने बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे भगवान्को . पडिगाह करके इक्षुरसका आहार दिया | वह दिन वैशाख शुक्ल तृतीयाका था। भगवान्‌को पूरे एक वर्षके पश्चात् आहार मिलनेके हर्षमें देवोंने पंचाश्चर्य किये; श्रेयांसका जयघोष किया और 'तुम दान तीर्थ के आद्य प्रवर्तक हो ।' यह कहकर उनका अभिनन्दन किया। इस प्रकार भगवान्‌को आहार दान देने के योग से यह तिथि अक्षय बन गई और तभी से यह 'अक्षयतृतीया' के नामसे प्रसिद्ध होकर मांगलिक पर्वके रूप में प्रचलित हुई । अक्षयवट - भ० ऋषभदेव पूरे १००० वर्ष तक तपस्या करने के नामसे प्रसिद्ध है । वहां पर नगर के समीपवर्त्ती शकट अनन्तर पुरिमतालपुर पहुंचे जो कि आज प्रयागके अवस्थित हो गये और फाल्गुन कृष्ण एकादशी के नामक उद्यानके वटवृक्षके नीचे वे ध्यान लगा कर दिन उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, वे अक्षय अ ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यके धारक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन गये । भगवानको जिस वट वृक्षके नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, वह उसी दिनसे 'अक्षय वट' के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ । राधशुक्ल तृतीयायां दानमासीत्तदक्षयम् । पर्वाक्षयतृतीयेति ततोऽद्यापि प्रवर्तते ॥३०१ ॥ (त्रि० ल० श० पर्व १ सर्ग ३) For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] भगवान ऋषभदेवके अमर स्मारक नंदिसंघकी गुर्वावलीमें 'अक्षयवट' का उल्लेख कृष्णा चतुर्दशीके दिन ही शिवरात्रिका उल्लेख पाया इस प्रकारसे किया गया है: जाता है । 'श्रीसम्मेदगिरि-चम्पापुरी-उर्जयन्तगिरि-अक्षयवट- उत्तर और दक्षिण भारतवालोंकी यह मास-विभिआदीश्वरदीक्षासर्वसिद्धक्षेत्रकृतयात्राणां ।' न्नता केवल कृष्णपक्षमें ही रहतो है, किन्तु शुक्लपक्ष ___इस उल्लेखसे सिद्ध है कि 'अक्षयवट' भी जैनि- तो दोनोंके मतानुसार एक ही होता है। जब उत्तर योंमें तीर्थस्थानके रूप में प्रसिद्ध रहा है। भारतमें फाल्गुण कृष्णपक्ष चालू होगा, तब दक्षिण प्रयाग भारतमें वह माघ कृष्णपक्ष कहलाएगा। जैन पुराणोंभ० ऋषभदेवका प्रथम समवसरण इसी पुरिम के खास कर आदिपुराणके रचयिता आचार्य जिनसेन तालपुरके उसी उद्यानमें रचा गया । इन्द्रने असंख्य दक्षिणके ही थे, अतः उनके ही द्वारा लिखी गई माघ देवी-देवताओंके साथ तथा भरतराजने सहस्त्रों राजाओं कृष्णा चतुर्दशी उत्तरभारतवालोंके लिए फाल्गणऔर लाखों मनुष्योंके साथ आकर भगवानके ज्ञान कृष्णा चतुर्दशी ही हो जाती है। कल्याणकी बड़ी ठाठ-बाटसे पूजा-अर्चा की । इस । स्वयं इस मासवैषम्यका समन्वय हिन्दू पुराणोंमें महान् पूजन रूप प्रकृष्ट यागमें देव और मनुष्योंने ही भी इसी प्रकार किया है। -कालमाधवोय नागरखंडनहीं, पश-पत्नियों तक ने भी भाग लिया था और में लिखा हैसभीने अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार महती भक्तिसे माघमासस्य शेषे या प्रथमे फाल्गुणस्य च । पूजा-अर्चा की थी। इस प्रकृष्ट या सर्वोत्कृष्ट याग होनेके कृष्णा चतुर्दशी सा तु शिवरात्रिः प्रकीर्तिता। कारण तभीसे पुरिमतालपुर 'प्रयाग' के नामसे प्रसिद्ध अर्थात--दक्षिण वालोंके माघ मासके उत्तरपक्षकी हुआ। 'याग' नाम पूजनका है । जैन मान्यताके अनु- और उत्तर वालोंके फाल्गुण मासके प्रथमपक्षकी कृष्णा सार इन्द्र के द्वारा की जाने वालो 'इन्द्रध्वज' पूजन ही चतर्दशी शिवरात्रि मानी गई है। सबसे बड़ी मानी जाती है। इस प्रकार अक्षय तृतीया भ० ऋषभदेवके दीक्षाशिवरात्रि तपकल्याणककी, अक्षयवट ज्ञानकल्याणकका और शिवकेवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् भ० ऋषभदेव- रात्रि निर्वाणकल्याणककी अमर स्मारक है। ने आर्यावर्त के सर्व देशोंमें विहार कर धर्मका प्रसार शिवजी और उनका वाहन नन्दी बैलकिया और जीवन के अन्त में अष्टापद पहुंचे, जिसे कि आज कैलास पर्वत कहते हैं । वहां योग-निरोध कर हिन्दुओंने जिन तेतीस कोटि देवताओंको माना आपने माघ कृष्णा चतुर्दशीके दिन शिव (मोक्ष) प्राप्त है उनमें ऐतिहासिक दृष्टिसे शिवजीको सबसे प्राचीन किया । अष्टापद या कैलाससे भगवानने जिस दिन या आदिदेव माना जाता है । उनका वाहन नन्दी बैल शिव प्राप्त किया उस दिन सर्व साधु-संघने दिनको और निवास कैलाश पर्वत माना जाता है। साथ ही उपवास और रात्रिको जागरण करके शिवकी आराधना शिवजीका नग्नस्वरूप भी हिन्दुपुराणों में बताया गया की, इस कारण उसी दिनसे यह तिथि भी 'शिवरात्रि' है। जैन मान्यताके अनुसार ऋषभदेव इस युगके के नामसे प्रसिद्ध हुई । उत्तरप्रान्तमें शिवरात्रिका पर्व आदितीर्थकर थे और उनका वृषभ (बैल) चिन्ह था। फाल्गुण कृष्णा १४ को माना जाता है, इसका कारण वे जिनदीक्षा लेनेके पश्चात् आजीवन नग्न रहे और उत्तरी और निगमको अन्तमें कैलाश पर्वतसे शिव प्राप्त किया। क्या ये सब भेद है। उत्तर भारत वाले मासका प्रारम्भ कृष्ण ® माघे कृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि । पक्षसे मानते हैं, पर दक्षिण भारत वाले शुक्लपक्षसे शिवलिंगतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ॥ मासका प्रारम्भ मानते हैं और प्राचीन मान्यता भी तत्कालव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रिव्रते तिथि: ॥ यही है । यही कारण है कि कई हिन्दू शास्त्रोंमें माघ (ईशानसंहिता) Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] अनेकान्त बातें ऋषभदेव और शिवजीकी एकताकी द्योतक नहीं हैं ? निश्चयतः उक्त समता अकारण नहीं है और उसकी तहमें एक महान तथ्य भरा हुआ है। · शिवजीको जटाजूट युक्त माना जाता है भगवान ऋषभदेवकी आज जितनी भी प्राचीन मूर्तियां मिली हैं. उन सबमें भी की हुई केश जटाए स्पष्ट दृष्टि गोचर होती हैं । श्र० जिनसेनने अपने दिपुराण में लिखा है कि भ० ऋषभदेवके दीक्षा लेनेके अनन्तर और पारणा करने के पूर्व एक वर्षके घोर तपस्वी जीवनमें उनके केश बहुत बढ़ गये थे और वे कन्धोंसे भी नीचे लटकने लगे थे, उनके इस तपस्वी जीवन स्मरणार्थ ही उक्त प्रकार की मूर्तियोंका निर्माण किया गया इस प्रकार शिवजी और ऋषभदेवकी जटाजूट युक्त मूर्त्तियां उन दोनों की एकता की ही परिचायक हैं। [ वर्ष १३ त्रिलोकसार के रचयिता श्र० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी गंगावतरणके इस दृश्यको इस प्रकार चित्रित किया है:सिरिगिहसीम द्वियं बुज करिणयसिंहास णं जडामउलं । जिणममिसित्तुमणा वा प्रदिरणा मत्थर गंगा । ५६० अर्थात् - श्रीदेवीके गृहके शीर्ष पर स्थित कमलकी करिकाके ऊपर एक सिंहासन पर विराजमान जो जटामुकुटवाली जिनमूर्ति है, उसे अभिषेक करनेके लिये ही मानों गंगा हिमवान् पर्वतसे अवतीर्ण हुई है। शिवजी के मस्तक पर गंगाके अवतीर्ण होनेका रहस्य उक्त वर्णनसे स्पष्ट हो जाता है और किसी भी निष्पक्ष पाठकका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है । गंगावतरण हिन्दुओं की यह मान्यता है कि गंगा जब आकाशसे अवतीर्ण हुई, तो शिवजीकी जटाओं में बहुत समय तक भ्रमण करती रही और पीछे वह भूमण्डल पर अवतरित हुई । पर वास्तवमें बात यह है कि गंगा हिमवान् पर्वतसे नीचे जिस गंगाकूट में गिरती है, वहां पर एक विस्तीर्ण चबूतरे पर आदि जिनेन्द्रकी जटा - मुकुट वाली वज्रमयी अनेक प्रतिमाएँ हैं, जिन पर हिमवान् पर्वतके ऊपरसे गंगाकी धार पड़ती है । इसका बहुत सुन्दर वर्णन त्रिलोक-प्रज्ञप्तिकार ने किया है, जो विक्रमकी चौथी शताब्दीके महान आचार्य थे और जिन्होंने अनेक सैद्धान्तिक ग्रन्थोंकी रचना की है। वे उक्त गंगावतरणका वर्णन अपनी त्रिलोकज्ञप्ति के चौथे अधिकार में इस प्रकार करते हैं:श्रदिजिण्णप्पडिमाओ ताओ जडमउड से हरिल्लाओ पडिमोव रिम्मगंगा अभिसित्तुमणा व सा पडदि । २३० अर्थात्—उस कुण्डके श्रीकूट पर जटा मुकुटसे सुशोभित आदिजिनेन्द्रकी प्रतिमाएं हैं। उन प्रति मान अभिषेक करनेके लिये ही गंगा उन प्रतिमाओं के जटाजूट पर अवतीर्ण होती है । (अभि षेक जलसे युक्त होनेके कारण ही शायद वह बादको सर्वांग में पवित्र मानी जाने लगी ।) शिवजीके उक्त रूपकका अर्थ इस प्रकार भी लिखा जा सकता है कि इस युगके प्रारम्भ में दिव्यवाणीरूपी गंगा भ० ऋषभदेवसे ही सर्वप्रथम प्रकट हुई, जिसने भूमंडल पर बसनेवाले जीवोंके हृदयोंसे पाप-मलको दूर कर उन्हें पवित्र बनाने का बड़ा काम किया । तक्षशिला और गोम्मट्ट ेश्वर की मूर्ति - भारतवर्ष के आदि सम्राट् भरतके जीवन में एक ऐसी घटना घटी, जो युग-युगों के लिये अमर कहानी बन गई। जब वे दिग्विजय करके अयोध्या वापिस लौटे और नगर में प्रवेश करने लगे, तब उनका सुदर्शनचक्र नगरके द्वार पर अटक कर रह गया। राजपुरोहितोंने इसका कारण बतलाया कि अभी भी ऐसा राजा अवशिष्ट है, जो कि तुम्हारी आज्ञाको नहीं मानता है । बहुत छान-बीन के पश्चात् ज्ञात हुआ कि तुम्हारे भाई ही आज्ञा - वीं भाइयोंके पास सन्देश भेजा गया। वे लोग भरतकी शरणमें न आकर और राज पाट छोड़कर भ० ऋषभदेवकी शरण में चले गये, पर बाहुबलोने—जो कि भरतकी विमाता के ज्येष्ठ पुत्र थे- स्पष्ट शब्दों में भरतकी आज्ञा माननेसे इन्कार कर दिया और दूत के मुखसे कहला दिया कि जाओ और भरतसे कह दो'जिस बापके तुम बेटे हो, उसीका मैं भी हूँ। मैं पिताके दिये राज्य को भोगता हूँ, मुझे तुम्हारा आधिपत्य स्वीकार नहीं है ।' भरतने यह सन्देश सुनकर बाहुबलीको युद्धका आमन्त्रण भेज दिया। दोनों ओरसे । For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] भगवान ऋषभदेवके अमर स्मारक [७१ सैनिकगण समरांगणमें उतर आये । रण-भेरी बजने दित कर लिया ! इन दोनों ही घटनाओंकी यथार्थताही वाली थी कि दोनों ओरके मन्त्रियोंने परस्परमें को प्रमाणित करनेवाले जीते-जागते प्रमाण आज परामर्श किया-'ये दोनों तो चरम शरीरी और उपलब्ध हैं । कहते हैं कि जिस स्थान पर दोनों उत्कृष्ट संहननके धारक हैं, इनका तो कुछ बिगड़ेगा भाइयोंका यह युद्ध हुआ था और जहाँ पर चक्र नहीं । वेचारे सैनिक परस्परमें क्ट मरेंगे । इनका चलाया गया था, वह स्थान 'तक्षशिला' के नामसे व्यर्थ संहार न हो, अतः उभयपक्षके मन्त्रियोंने अपने- प्रसिद्ध हुआ। (तक्षशिलाका शब्दार्थ तक्षण अर्थात् अपने स्वामियोंसे कहा-'महाराज, व्यर्थ सेनाके काटने वाली शिला होता है।) तथा बाहुवलीकी उस संहारसे क्या लाभ ? आप दोनों ही परस्परमें युद्ध उग्र तपस्याकी स्मारक श्रवणबेलगोल (मैसूर ) के करके क्यों न निपटारा कर लें ?' भरत और बाहुबली- विंध्यगिरि-स्थित बाहुबलीकी ५७ फीट ऊँची, संसारको ने इसे स्वीकार किया। मध्यस्थ मन्त्रियोंने दृष्टियुद्ध, आश्चर्यमें डालनेवाली मनोज मति आज भी जलयुद्ध और मल्लयुद्ध निश्चित किये और भरत घटनाकी सत्यता संसारके सामने प्रकट कर रही है। तीमों ही युद्धों में अपने छोटे भाई बाहुबलीसे हार तथा वहीं दूसरी पहाड़ी चन्द्रगिरि पर अवस्थित जड़गये । हारसे खिन्न होकर और रोषमें आके भरतने भरतकी मूर्ति उनकी किंकर्तव्यविमूढ़ताका आज भी बाहुबलीके ऊपर सुदर्शनचक्र चला दिया। कभी व्यर्थ स्मरण करा रही है। न जाने वाला यह अमोघ अस्त्र भी तद्भवमोक्षगामी भरत और बाहुबली दोनों ही भ० ऋषभदेवके बाहुबलीका कुछ बिगाड़ न कर सका, उल्टा उनकी पुत्र थे, अतएव उन दोनोंकी ऐतिहासिक सत्यताके तीन प्रदक्षिणा देकर वापिस चला गया। इस घटनासे प्रतीक स्मारके पाये जानेसे भ० ऋषभदेवकी ऐतिहा. संसारके आदि चक्रवर्ती भरतका अपमान हुआ और सिक प्राचीनता स्वतः सिद्ध हो जाती है। . वे किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गये । पर बाहुबलीके दिलको इस प्रकार हम देखते हैं कि आज विविध रूपोंमें बड़ी चोट पहुंची और विचार आया कि धिक्कार है भ० ऋषभदेवके अमर स्मारक अपनी ऐतिहासि. इस राज्यलक्ष्मीको, कि जिसके कारण भाई भाईका ही कताकी अमिट छापको लिये हुए भारतवर्ष में सवत्र गला काटनेको तैयार हो जाता है। वे इस विचारके व्याप्त हैं, जिससे कोई भी पुरातत्त्वविद् इन्कार नहीं जागृत होते ही राज-पाटको छोड़कर वनको चले गये कर सकता। और परे एक वर्षका प्रतिमायोग धारण करके घोर आशा है सहृदय ऐतिहासिक विद्वान इस लेख तपश्चर्या में निरत हो गये। इस एक वर्षकी अवधिमें पर गम्भीरताके साथ विचार करनेकी कृपा करेंगे और उनके चरणोंके पास चींटियोंने बामी बना डाली और उसके फलस्वरूप भ० ऋषभदेवके अमरस्मारक और सांपोंने उसमें डेरा डाल दिया। पृथ्वीसे उत्पन्न हई भी अधिक प्रकाश में आकर लोक मानसमें अपना अनेक लताओंने ऊपर चढ़कर उनके शरीरको आच्छा- समुचित स्थान बनाएगे। 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से १२ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइल थोड़ी ही शेष रह गई हैं । अतः मंगानेमें शीघ्रता करें । प्रचारकीदृष्टिसे फाइलोंको लागत मूल्य पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा। -मैनेजर-'अनेकान्त', वीरसेवामन्दिर, दिल्ली For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली और योगिनीपुर नामकी प्राचीनता ( लेखक - अगरचन्द नाहटा ) अनेकान्त वर्ष १३ अंक १ में पं० परमानन्दजी शास्त्रीका 'दिल्ली और उसके पाँच नाम' शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है । उसमें आपने १ इन्द्रप्रस्थ र ढिल्ली ३ योगिंनीपुर या जोइणीपुर, ४ दिल्ली और ५ जहांनाबाद - इन पांच नामों के सम्बन्ध में अपनी जानकारी प्रकाशित की है । इनमेंसे जहांनाबाद नाम तो बहुत पीछेका और बहुत कम प्रसिद्ध है और इन्द्रप्रस्थ पुराना होने पर भी जनसाधारण में प्रसिद्ध कम ही रहा है । साहित्यगत कुछ उल्लेख इस नामके जरूर मिलते हैं चौथा दिल्ली और दिल्ली वास्तव में दोनों एक ही नाम हैं । ढिल्लीका उपभ्रंश हो जनसाधारणके मुख से बदलता बदलता दिल्ली बन गया है। वास्तव में उसका भी कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । कई लोगोंकी जो यह कल्पना है कि दिलू राजा के नामसे दिल्लीका नामकरण हुआ, पर वास्तवमें यह एक भ्रांत और मनगढ़न्त कल्पना है | दिलू राजाका वहां होना किसी भी इतिहास से समर्थित नहीं, अत एव ढिल्ली और योगिनी पुर ये दोनों नाम ही ऐसे रहते हैं, जो करीब एक हजार वर्षोंसे प्रसिद्ध रहे हैं, अतः इनकी प्राचीनताके सम्बन्ध में ही प्रस्तुत लेख में प्रकाश डाला जायगा । ढिल्ली नामकी प्राचीनताके सम्बन्ध में पं० परमानन्द जीने संवत् ११८६ के श्रीधर - रचित पार्श्वनाथ चरित्र में इस नामका सर्व प्रथम प्रयोग हुआ हैऐसा सूचित करते हुए लिखा है कि "इससे पूर्व के साहित्यमें उक्त शब्दका प्रयोग मेरे देखने में नहीं आया ।" यद्यपि 'गणधर सार्द्धशतक बृहद्वृत्ति' जिसकी रचना सं० १२६५ में हुई है, उक्त पार्श्वनाथचरित्रके पीछे की रचना है, पर उक्त ग्रन्थ में ग्यारहवीं शताब्दी के वर्द्धमानसूरिका परिचय देते हुए उनके 'ढिल्लो, वादली' आदि देशों में पधारनेका उल्लेख किया है । - स्वाचार्याः नुज्ञातः कतिपययतिपरिवृतः ढिल्लीबादली - प्रमुखस्थानेषु समाययौ ।' इसीसे ग्यारहवीं शताब्दी में भी इस नगरके पार्श्ववर्ती प्रदेशको ढिल्ली प्रदेश कहते थे, ज्ञात होता है। आचार्य वर्द्धमानसूरि रचित उपदेशपदटीका सं० १०५५ की प्राप्त है और यह घटना उससे भी पहले की है । अतः सं० १०५० से पूर्व भी दिल्ली नाम प्रसिद्ध व सिद्ध होता है XI जोगीपुर या योगिनीपुरकी प्राचीनताके सम्बन्धमें पं० परमानन्दजीने पंचास्तिकायकी सं० १३२६ की लिखित प्रशस्ति उद्धृत करते हुए लिखा है कि 'योगिनीपुर का उल्लेख अनेक स्थलों पर पाया जाता है । 'जिनमें सं० १३२६ का उल्लेख सबसे प्राचीन जान पड़ता है ।' पर श्वेताम्बर साहित्यसे इस नामकी प्राचीनता सं० १२०० के लगभग जा पहुचती हैं और इस नामकी प्रसिद्धिका कारण भी भली भांति स्पष्ट हो जाता है। इसलिए यहां इस नामके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला जा रहा है । _संवत् १३०५ में ढिल्ली वास्तव्य साधु साहुलिके पुत्र हेमाको अभ्यर्थनासे खरतरगच्छीय जिनपति सूरिके शिष्य विद्वदवर जिनपालोपाध्यायके 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' नामक १ ऐतिहासिक ग्रन्थकी रचना की भारतीय साहित्य में संवतानुक्रम और तिथिके उल्लेखवार प्रत्येक घटनाका सिलसिलेवार वर्णन करनेवाला यह एक ही अपूर्व ग्रन्थ है । रचयिता के गुरु जिनपतिसूरिके गुरु जिनचन्दसूरि जो कि सुप्रसिद्ध जिनदत्तसूरिके शिष्य थे, का जीवनवृत्त देते हुए संवत् १२२३ में उनके ढिल्ली - योगिनीपुर ( वहांके राजा मदनपालके अनुरोधसे) पधारनेका विवरण दिया है। यहां उसका आवश्यक अंश उद्धृत किया जाता है: - ततः स्थानात्प्रचलितान् पृष्ठगामे संघातेन सहागतान् श्रीपूज्यान् श्रुत्वा ढिल्लीवास्तव्य ठ० लोहर सा० पाल्हण - सा० कुलचन्द्र सा० गृहिचन्द्रादि संघ मुख्य श्रावका महता विस्तेरण वन्दनार्थ सम्मुखं प्रचालिताः । X पूर्ववर्ती तो तब होता, जब उसी समयके बने हुए ग्रन्थमें उन नामोंका उल्लेख हो, यों तो अनेक विषयोंके श्रनेक उल्लेख मिलते हैं । अच्छा होता यदि लेखक महानुभाव सं० १०५० या उससे पूर्ववर्ती ग्रन्थमें उल्लिखित 'ढिल्ली' शब्द प्रयोगका उल्लेख दिखलाते । -सम्पादक १ देखें भारतीयविद्या वर्ष १ पृष्ठ ४ में प्रकाशित हमारा लेख । For Personal & Private Use Only . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] दिल्ली और योगिनीपुर नामोंकी प्राचीनता तांश्च प्रधानवेषान् प्रधानपरिवारान प्रधानवाहना- का पीठ-स्थान था । योगिनियोंने आचार्य श्रीके रहते धिरूढान् ढिल्ली-नगराद्वहिर्गच्छन्तो दृष्ट्वा स्वप्रसादो- अपना पूजा सत्कार नहीं होगा समझ उन्हें छलने के परि वर्तमानः श्री मदनपालराजा विस्मितः सन् , स्वकीय लिये वे श्राविकाके रूपमें व्याख्यानमें आयी। सूरिजीराजप्रधानलोकं पप्रच्छ-' ने उन्हें सूर्यमन्त्रके अधिष्ठायक द्वारा कीलके स्तम्भित ___ श्रीपूज्यैरुक्तम्-'महाराज ! युष्मदीयं नगरं प्रधानं कर दी । वे उठ न सकी तब सूरिजीसे प्रार्थना कर धर्मक्षेत्रं । तहि उत्तिष्ठत चलत ढिल्ली-प्रति, मुक्त हुई और कहा हमें एक वचन दीजिये कि जहां न कोऽपि युष्मानंगुलिकयापि सज्ञास्यतीत्यादि । श्री- जहां हमारा पोठ स्थान है, आप नहीं जायं । हमारा मदनपालमहाराजोपरोधाद् 'युष्माभिर्योगिनीपुरमध्ये पहला पीठ उज्जयनीमें, दूसरा दिल्ली, तीसरा अजमेर कदापि न विहर्तव्यमित्यादि श्रीजिनदत्तसूरिदत्तो- दुर्ग और आधा भरू अच्छमें है । वहाँ आपके शिष्य पदेशत्यागे न हृदये दयमाना अपि श्री पूज्याः श्री दिल्ली या पट्टधर न जायं । जाने पर मरण-बन्धनादि कष्ट होंगे प्रति प्रस्थिताः। इसीलिये जिनदत्त सूरिजीने वहां जानेका निषेध किया था पर भावी भाववश राजा व संघके अनुरोध___यह गुर्वावलो जिनचन्द्रसुरिजीके प्रशिध्यकी ही से वहां जाना हुआ । प्रबन्धावलिमें लिखा हैनिर्मित है, इसलिये इसकी प्रामाणिकतामें सन्देहकी 'जोगिनीहिं छलिओ मओ' अज्जवि पुरातन ढिल्ली गुजाइस नहीं है। उपर्युक्त उद्धरणोंसे सम्वत् १२२३ में मज्मे तस्स थुभो अच्छई। संघो तस्स जत्ता कम्म दिल्लीके राजा मदनपाल थे सिद्ध है। उस समयके कुणइ' अर्थात् जिनचन्द्रसूरिजीका स्वर्गवास योगनियोंप्रधान श्रावकोंके नामोंके उद्धरणोंसे, वहाँ पार्श्वनाथ के पाश्वनाथ के छलके द्वारा हुआ। उनका स्तूप आज भी पुरानी विधि चैत्य भी था, इसकी जानकारी मिलती है । जिन दिल्ली में है, जिसकी संघ यात्रा किया करता है। आचार्यश्रीके दिल्लीमें स्वर्गवासी होनेका, उल्लेख है, प्रबन्धावलि १७वीं शताब्दीके प्रारम्भ या उससे वे मणिधारी जिनचन्द्रसूरिके नामसे प्रख्यात हैं और पहलेकी रचना है। उस समय जिनचन्द्रसूरिके स्तूप उनका स्तूप कुतुबमीनारके पास आज भी विद्यमान व स्थानकी संज्ञा 'पुरातन ढिल्लीः मानी जाती थी। पूज्यमान है। उनका अग्नि संस्कार इतने दूरवर्ती योगिनीपुर नामकरणका कारण हमें उपयुक्त स्थानमें क्यों किया गया, इसके सम्बन्ध में गुर्वावलीमें प्रबन्धावलि द्वारा स्पष्ट रूपमें मिल जाता है कि दिल्ली लिखा है कि ऐसी प्रसिद्धि रही है कि आचार्यश्रीका चौसठ योगिनियोंका पीठ स्थान था और उनकी कथन है कि मेरा अग्नि संस्कार जितनी दूरवर्ती भूमि- प्रसिद्धि के कारण ही दिल्लीका दूसरा नाम योगिनीपुर में किया जायगा, वहाँ तक नगरकी वस्ती बढ़ जाएगी प्रसिद्ध हुआ। - "तदनन्तरं श्रावकैमहाविस्तरेणाऽनेकमण्डपिका इस नामकी प्राचीनता सम्वत् १३०५ व १२२३ मण्डिते विमान आरोग्य यत्र क्वाप्यस्माकं संस्कारं तक तो गुर्वावलीसे सिद्ध ही है और उसमें जिनदत्त करिष्यत यूयं तावती भूमिकां यावनगरवसितिः सूरिके कहे हुए निषेध वाक्यमें भी 'योगिनीपुर' नाम भविष्यतीत्यादि गुरुवाक्यस्मृतेरतीव दूरभूमौ नीताः।" ही दिया है, इसलिये बारहवीं शताब्दी तक इस नाम की प्राचीनता जा पहुँचती है। . गुर्वावलीमें जिनचन्द्रसूरिजीको जिनदत्त सुरिजीने दिल्लीका जैन इतिहास भी अवश्य प्रकाशित होना योगिनीपुर जाना क्यों मना किया था ? और वहाँ चाहिए । उसके सम्बन्धमें काफी सामग्री इधर-उधर जाने पर एकाएक छोटी उम्रमें ही उनका क्यों स्को- विखरी पड़ी है उन सबका संग्रह होकर सुव्यवस्थित वास हो गया? इसके सम्बन्धमें कुछ भी प्रकाश नहीं इतिहास लिखा जाना आवश्यक है। श्वेताम्बर और डाला पर परवर्ती पट्टावलियों व वृद्धाचार्य प्रवन्धावलीमें दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंका गत एक हजार वर्षसे यहां इस सम्बन्धमें जो प्रवाद था, उसका स्पष्ट उल्लेख अच्छा निवास और प्रभाव रहा है । यहांके प्राचीन किया है। प्रबन्धावलीमें लिखा है कि एक बार जिन- मन्दिरोंका विवरण भी संगृहीत किया जाना चाहिये। दत्तसूरि अजमेर दुर्ग पधारे, वह चौसठ योगनियों- इस सम्बन्धमें मेरी सेवाएं हर समय प्रस्तुत हैं। For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरतिवादी समता (स्वामी सत्यभक्त) समाजमें न सब मनुष्य सब तरह समान बनाये जा मुनाफा खा सकता है, जो धंधा बिना नौकरके चल सकता सकते हैं न उनमें इतनी विषमता ही उचित कही जा सकती है उसरों पूजी लगाकर आमदनी बढ़ा सकता है, बैंकमें है जितमी आज है। पर आज दोनों तरहके अतिवादोंका रुपया जमाकर व्याज खा सकता है। पोषण किया जाता है। अतिसमतावादी यह कहते हैं कि रूसी क्रांतिके प्रारम्भमें इतनी विषमता नहीं थी, क्रांतिसाहब, चीनमें कालेजके एक चपरासीमें तथा प्रिन्सिपलमें कारियोंकी इच्छा भी नहीं थी कि ऐसी विषमता आये | पर फरक ही नहीं होता । इस प्रकारके लोग अन्धाधुन्ध समताके __ अनुभवने, मानव प्रकृतिने, परिस्थितियोंकी विवशताने गीत गाते हैं । मानों विशेष योग्यता, विशेष अनुप- इस प्रकारके अन्तर पैदा करा दिये । निःसन्देह यह विषमता योगिता, विशेष सेवा या श्रमका कोई विशेष मूल्य न हो। भारतसे बहुत कम है । रूसमें जब यह एक और सोलहके ऐसी अतिवादी समता अव्यावहारिक तो होगी ही, पर बीचमें हैं तब भारतमें वह एक और चारसौ के बीच में उसकी दुहाई देनेसे जो लोगोंमें मुफ्तखोरी अन्याय है। यहां किसीको पच्चीस रुपया महीना मिलता है तो कृतघ्नता आदि दोष बढ़ रहे हैं। उनका दुष्परिणाम समाज- किसीको दस हजार रुपया महीना । यह तो राजकीय क्षेत्रको और स्वयं उन लोगोंको भोगना पड़ेगा । यह तो अन्धेर का अन्तर है। आर्थिक क्षेत्रमें यह विषमता और भी नगरी होगी। अधिक है । क्योंकि अनेक श्रीमानोंको लाखोंकी आमदनी अन्धेर नगरी बेबूझ राजा। है। रूसने विषमताको काफी सीमित और न्यायोचित रक्खा टके सेर भाजी टके सेर खाजा ॥ है पर विषमताकी अनिवार्यता वहां भी है। अतिसमता इस कहावतको चरितार्थ करना होगा। वहां भी अव्यवहार्य मानी गई है। दूसरी तरफ अतिवैषम्य है। एक आदमी मिहनत किये अतिसमतासे हानियां बिना या नाममात्रकी मिहनत या विशेषतासे हजारों लाखों • बहुतसे वामपक्षी लोग और बहुतसे सर्वोदयवादी लोग कमा लेता है। दूसरी तरफ बौद्धिक और शारीरिक घोर श्रम जिस प्रकार प्रति समताकीबात करते हैं या दुहाई देते हैं उसे करके भी भरपेट भोजन या उचित सुविधाएँ नहीं प्राप्त कर अगर व्यवहारमें लानेकी कोशिश की जाय तो वह अव्यहार्य पाता। इस अतिवैषम्यको भी किसी तरह सहन नहीं किया साबित होगी और अन्यायपूर्ण भी होगी इससे देशका घोर जा सकता। विनाश होगा। ये दोनों तरहके प्रतिवाद समाजके नाशक हैं। हमें अति १-एक आदमी अधिक श्रमं करता है और दूसरा समता और प्रतिविषमता दोनोंके दोषोंको समझकर निरतिवादी कमसे कम श्रम करता है, यदि दोनोंको श्रमके अनुरूप समताका मार्ग अपनाना चाहिये । इस बातमें मनोवैज्ञानिकता बदला न दिया झाय, अर्थात् दोनोंको बराबर दिया जाय तथा व्यावहारिकताका भी पूरा ध्यान रखना चाहिये । तो अधिक श्रम करने वाला अधिक श्रम करना बन्द कर आर्थिक समताके मागमें रूसने सबसे अधिक प्रगति देगा, उसे श्रममें उत्साह न रहेगा। इस प्रकार देशमें श्रम की है और वहां पूंजीवाद सबसे कम है विषमता भी सब रहते हुए भी श्रमका अकाल पड़ जायगा । उत्पादन क्षीण से कम है। फिर भी इतनी बातें तो वहां भी हैं। हो जायगा। १-किसी को २५० रूबल महीना मिलता है और किसी कामकी योग्यता प्राप्त करनेके लिये वर्षों तपस्या किसीको ४००० रूबल महीना मिलता है । मतलब यह करना पड़ता है. और किसीके लिये नाममात्रकी तपस्या कि वहां सोलह गुणे तकका अन्तर शासन क्षेत्र में है। करनी पड़ती है, प्रिन्सिपल बननेकी योग्यता प्राप्त करनेके श्रमिकोंमें यह अन्तर चौदह गुणा तक है। किसी-किसी लिये श्राधी जिन्दगी निकल जायगी और चपरासी बनने के श्रमिकको साढ़े तीन हजार रूबल मासिक तक मिलता है। लिये मामूली पढ़ना लिखना ही काफी होगा। दोनोंका २-रेलवे में वहां भारतकी तरह तीन श्रेणियां हैं। मूल्य बराबर हो तो प्रिन्सपल और प्रोफेसर तैयार ही न ३-मकान, पशु आदि व्यक्तिगत सम्पत्ति काफी है हों। इसी प्रकार इंजीनियर और मामूली मजदूर, वैज्ञानिक और इसमें भी विषमता है। और विज्ञान-शाला में झाडू देने वाला श्रादिके बारे में भी ४-अपना मकान भाड़ेसे देकर मनुष्य पूंजी पर होगा। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३० निरतिवादी समता ३-विशेष मानसिक काम करने वाले और साधारण अतिविषमतासे हानियां शारीरिक काम करनेवाले यदि समान सुविधा पायें तो मान- अतिविषमताकी हानियोंसे हम परिचित ही हैं। हाला सिक श्रम तीण होगा। मानसिक श्रमका काम करनेवाले कि ये हानियां अतिसमताके बराबर नहीं हैं फिर भी को पाव भर घी की जरूरत होगी और शारीरिक श्रम करने काफी हैं। वालेका काम आध पाव घी से चल जल जायगा । दोनोंको एक श्रादमीको गुणी सेवक होते हुए भी जब निर्गुण बराबर दिया जाय तो मानसिक श्रमवाला उचित श्रम न असेवकोंसे कम मिलता है तब उसके साथ अन्याय होता । कर पायगा। है। इससे उसका ध्यान गुण बढ़ाने और सेवा करनेसे हटकर ४-एक आदमी पूरी जिम्मेदारीसे काम करता है, उन चालाकियोंकी तरफ चला जाता है जिनसे अधिक धन चारों तरफ नजर रखता है, दिनरात चिन्ता करता है, दूसरे- खींचा जा सकें। एक भी चालाक बदमाश श्रादमी जब धनी को ऐसी जिम्मेदारीसे कोई मतलब नहीं । दोनोंको पारि- बन जाता है तब यह कहना चाहिये कि वह सौ गुणी और श्रमिक दिया जाय तो जिम्मेदारी रखनेवाला उस तरफ ध्यान सेवकों की हत्या करता है। अर्थात् उसे देखकर सौ गुणी न देगा । इस प्रकार कामकी सारी व्यवस्था बिगड़ जायगी। और सेवक व्यक्ति गुण सेवाके सन्मार्गसे भ्रष्ट होकर चालाक ५-एक श्रादमीमें अपने क्षेत्रमें काम करनेके लिये बदमाश बननेकी कोशिश करने लगते हैं। भले ही वे सफल असाधारण प्रतिभा है, असाधारण स्वर या सुन्दरता है, हों या न हों। असाधारण शक्ति है, असाधारण कला है, इनका असाधारण समाजमें जो बेकारी है, एक तरफ काम पड़ा है दूसरी मूल्य यदि न दिया जाय तो इन गुणोंका उपयोग करनेके तरफ सामग्री पड़ी है तीसरी तरफ काम करनेवाले बेकार लिये उन गुणवालोंका उत्साह ही मर जायगा। इसका मनो बैठे हैं, यह सब अतिविषमताका परिणाम है। इस प्रकार वैज्ञानिक प्रभाव ऐसा पड़ेगा कि इनका सदुपयोग करनेके य र यह अति-विषमता भी काफी हानिप्रद है। लिये जो थोड़ी बहुत साधना करनेकी जरूरत है वह साधना हमें अतिसमता और अतिविषमताको छोड़कर निरतिभी मिट जायगी। वादी समताकी योजना बनाना चाहिये । उसके सूत्र ये हैं। -हर एक व्यक्तिको भोजन वस्त्र और निवासकी ६--अतिसमता का सारे समाज पर बहुत बुरा प्रभाव उचित सुविधा मिलना ही चाहिये । हां, इस सुविधाकी पड़ेगा। सारा समाज दुःखी अशान्त निकम्मा और झगड़ालू जिम्मेदारी उन्हींकी ली जा सकती है जो समाजके लिये हो जायगा। कामका या अपने मूल्यका विवेक किसीमें न उपयोगी कार्य उचित मात्रामें करनेको तैयार हों। रहेगा। हर आदमी को यही चिन्ता रहेगी कि मुझे बराबर २-देशमें बेकारी न रहना चाहिये । देशव्यापी एक मिलता है या नहीं? दूसरोंको क्या मिला और मुझे क्या ऐसी योजना होना चाहिये जिससे हर एक व्यक्तिको काममें मिला इसी पर नजर रखने और चिन्ता करनेमें और झगड़ने लगाया जा सके। में हर एककी शक्ति बर्बाद होगी । विशेष योग्यतावाले ३-न्यायोचित या समाजमान्य तरीकेसे जिसने जो विशेष काम न करेंगे और हीन योग्यतावाले बराबरी के लिये सम्पत्ति उपार्जित की है उस पर उसकी मालिकी रहना दिनरात लड़ेंगे, थोडासा अन्तर रहेगा तो असन्तुष्ट होकर चाहिये । बिना मुवावजे की वह सम्पत्ति उससे ली न जा चोरी करेंगे, बदमाशी करेंगे, कृतघ्नताका परिचय देंगे विनय सके। का हत्या करग । इस प्रकार सारा समाज अनुत्साह, इण्या, ४-साधारणतः ठीक आमदनी होने पर भी जो अपखेद. मुफ्तखोरी, चोरी, विनय, श्रालस्य, कृतघ्नता, कलह, व्ययी या विलासी होनेसे कुछ भी सम्पत्ति नहीं जोड़ पाता अयोग्यता, असाधना, आदिसे भर जायगा, उत्पादन चौपट उसकी गरीबीको दयनीय न मानना चाहिये। हो जायगा, अव्यवस्था असीम हो जायेगी। ५-निम्नलिखित आठ कारणोंसे पारिश्रमिक या पुर- अतिसमता जितनी मात्रामें होगी ये दोष भी उतनी. स्कार अधिक देना चाहिये । (१) गुण (२) साधना मात्रामें होंगे । इस प्रकार अतिसमता अर्थात् अन्याय्य समता (३) भ्रम (8) सहसाधन (1) कष्ट संकट (6) उत्पादन सर्वनाशका मार्ग है। (७) उत्तरदायित्व (6) दुर्लभता । For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] (१) गुण - प्रतिभा, सुन्दरता, शारीरिक शक्ति, श्रादि जन्मजात गुण जिले कार्यमें अपनी विशेष उपयोगिता रखते हों उस कार्य में इनके कारण विशेष पारिश्रमिक मिलना चाहिये। उदाहरण के लिये साहित्य निर्माण में शासनमें, प्रबन्धमें, शिक्षणमें प्रतिभाका विशेष मूल्य है । सिनेमा आदिमें सुन्दरताका मूल्य है। सेना पुलिस या शारीरिक मजबूरीके क्षेत्रमें शारीरिक शक्तिका मूल्य है । इन क्षेत्रों में इन गुणों पर विशेष पारिश्रमिक मिलना चाहिये । (२) साधना- किसी कामको करनेको योग्यता प्राप्त करनेमें कितने दिन कैसी साधना करना पड़ेगी इस परसे उसका मूल्य निर्धारित करना पड़ता है। जैसे एक क्लर्क बनने के लिये जितनी साधनाकी जरूरत है उससे कई गुण साधनाकी जरूरत एक प्रोफेसर, लेखक, कवि या सम्पादक बननेमें है । इसलिये क्लर्ककी अपेक्षा इनके कार्यका मूल्य अधिक होगा। अनेकान्त [ वर्ष १३ गाँवोंकी अपेक्षा नगर या महानगरमें सहसाधनोंकी ज्यादा जरूरत पड़ती है, महँगाई भी होती है इसलिये गांवकी अपेक्षा शहरका पारिश्रामिक अधिक होता है । (२) श्रम - जिस काममें जितना अधिक श्रम करना पढ़ता है उसका मूल्य उतना ही अधिक होता है । सब कार्यों में शरीरिक श्रम बराबर नहीं होता और शारीरिक कार्यों की अपेक्षा वाचनिक और मानसिक कार्यों में श्रम अधिक होता है। एक आदमी आठ घंटे घास खोदनेका काम वर्षों कर सकता है। पर चार घंटे व्याख्यान देने का काम बहुत दिन नहीं कर सकता, उसका गला बैठ जायगा दिमागी काम तो और भी कठिन है। शरीरको एक काम में भिड़ाये रखने की अपेक्षा मनको एक काममें भिड़ाये रखना का की कठिन है | शरीरको स्थिर रखनेकी अपेक्षा मनको स्थिर रखना काफी कठिन है। इसलिये मानसिक क्षमका मूल्य अधिक है। (४) सहसाधन — किसी कामको करने में जितने अधिक सहसाधनोंकी जरूरत होगी उसका मूल्य उतना अधिक होगा । दर्जीको सिलाईके काममें एक मशीनकी जरूरत है, तो इस साधनके कारण भी उसके श्रमका मूल्य बढ़ जाता है। इसी तरह विशेष दिमागी कार्य करनेके लिये ठडे वातावरण में रहना, घी आदि विशेष तरावटी चीजें खाना आदि सहसाधन हैं। एक अभिनेत्रीको अपनी सुन्दरता बनाये रखना, हजारों प्रशंसकोंके पत्र श्राते हैं। उनको पढ़ने के लिये प्राइवेट सेक्रेटरी रखना आदि सहसाधन हैं, धनकी पूंजी भी सहसाधन है। इन कारणों से विशेष पारिश्रामिक देना जरूरी है। (५) कष्ट संकट - किसी काममें विशेष कष्ट हो, विशेष संकट हो तो उसके कारण उसका मूल्य बढ़ जाता है । साधारण मजदूरकी अपेक्षा कोयले चादिकी खदान में काम करनेमें कष्ट और संकट अधिक है हवाई जहाज चलाने में संकट अधिक है शारीरिक श्रमकी अपेक्षा वचन या मनके कार्यमें कष्ट अधिक है। इसलिये इनका मूल्य बढ़ जाता है। (६) उत्पादन - जो इस तरीकेसे काम करे कि अधिक या अच्छा उत्पादन कर सके तो उसकी इस कलाका मूल्य अधिक होगा । जो अच्छा चित्र बना सकता है, अच्छी मूर्ति गढ़ सकता है, अच्छा लेख लिख सकता है उसका पारिश्रामिक अधिक होगा। इसी प्रकार जो परिमाणमें ज्यादा उत्पादन कर सकता है उसका मूल्य भी अधिक होगा । (७) जिम्मेदारी - जिम्मेदारीका भी मूल्य होता है। एक आदमीको अमुक समय काम करनेके बाद उसके हानि लाभसे कोई मतलब नहीं, दूसरेको हर समय हानि लाभका विचार रखना पड़ता है उसकी चिंता करनी पड़ती है। मैनेजरको जितना ध्यान रखना पड़ता है उतना साधारण मजदूर या क्लर्क को नहीं रखना पड़ता । इसलिये मैनेजरका मूल्य अधिक होगा (८) दुर्लभता - जिस कामको करने वाले मुश्किलसे मिलते हैं उनकी भी कीमत बढ़ती है। तीर्थंकर पैगम्बर महाकवि, महान वैज्ञानिक, महान दार्शनिक, महान नेता, महान लेखक, महान कलाकार आदि काफी दुर्लभ होते हैं इसलिये इनकी कीमत काफी अधिक होती है । आर्थिक दृष्टिसे तो इनकी कीमत चुकाना अशक्य होता है इसलिये इनकी ज्यादतर कीमत यश प्रतिष्ठा के द्वारा चुकाना पड़ती । है पर इनके सिवाय साधारण क्षेत्रमें भी दुर्लभताका असर पढ़ता है । पहिले मैट्रिक पास व्यक्ति भी बड़ा दुर्लभ या इसलिये उसकी भी काफी कीमत थी, अब बी. ए., एम. ए. भी हजारों लाखोंकी संख्यामें सुलभ हैं इसलिये उनकी भी कीमत काफी घट गई है। बाजपुरमें जिस चीज़ की जितनी मांग होती है उससे अधिक चीज श्रा जाय तो उसकी कीमत गिर जाती है उसी प्रकार आदमीके बारे में भी है। हाँ! समाजको ऐसी व्यवस्था करना चाहिये कि असा धारण महामानवों को छोड़कर साधारण क्षेत्र में अतिदुर्लभता For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ | कारण किसीकी कीमत मूल्यसे अधिक न होने पाये और ऋति सुलभताके कारण किसीकी कीमत मूल्यसे गिरने न पाये 1 निरतिवादी समता मूल्यका निर्णय वस्तुकी उपयोगिता तथा इस प्रकरण में बताये गये आठ कारणों में से प्रारम्भके सात कारणों के आधारपर करना पड़ता है और कीमतके निर्णयमें दुर्लभता सुलभता आदमीकी नरजका भी असर पड़ जाता है। मूल में उसकी सामग्रीका विचार है, कीमतमें सिर्फ उसके बाजारू विनिमयका विचार है। उदाहरणके लिये उपयोगिता की दृष्टिसे पानी काफी मूल्यवान है पर सुलभताके कारण उसकी कीमत कुछ नहीं है। सोने चांदीकी अपेक्षा अ अधिक मूल्यवान है पर दुर्लभताके कारण सोने चाँदोकी कीमत ज्यादा है । कहीं-कहीं मूल्य और कीमतका अन्तर यों भी समझा जा सकता है कि मूल्य बताता है कि इसकी विनिमयकी मात्रा कितनी होना चाहिए, कीमत बताती है कि इसकी विनिमय की मात्रा कितनी है । चाहिये और है का फर्क भी कहीं कहीं इन दोनोंका फर्क बन जाता है । मनुष्येतर वस्तुओं में यह फर्क थोड़ी बहुत मात्रा में बना रहे तो बना रहे पर मनुष्यके बारेमें यह अन्तर न रहना चाहिये । समाजको शिक्षण तथा बाजारमें सामन्जस्य रखना चाहिये । असाधारण महामानवों की बात दूसरी है क्योंकि आर्थिक दृष्टिसे उनकी ठीक कीमत प्रायः चुकाई नहीं जाती । खैर ! ये आठ कारण हैं जिनसे पारिश्रमिक या पुरस्कार अधिक देना चाहिये । एक ही कारणसे विनिमयकी दर बढ़ जाती हैं। जहाँ जितने अधिक कारण होंगे वहां विनिमयकी दर उतनी ही अधिक होगी। यदि श्रतिसमताके कारण इनकी विशेष कीमत न चुकाई जायगी तो इन विशेषताओंका नाश होगा और मिलना अशक्य होगा । इस प्रकार अतिसमता हर [ ७७ तरह अनुचित है । वह अन्यायपूर्ण भी है और अव्यावहारिक भी । ६ - अतिविषमता रोकनेके लिये प्रारम्भके दो नियम पाले जाने चाहिये, साथ हो विनिमय क्षेत्र में अन्तरकी सीमा निश्चित कर देना चाहिये। हां ! उसमें देशकालका विचार जरूर करना चाहिये । साधारणतः भारतकी वर्तमान परिस्थिति के अनुसार यह अन्तर एक और पचाससे अधिक न होना चाहिए । यदि साधारण चपरासीको ३०) मासिक मिलता है तो प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपतिको इससे पचासगुणे १५०० ) से अधिक न मिलना चाहिए । ७ – उपार्जित सम्पत्तिके संग्रह करने पर अंकुश रहना चाहिए। पूजीके रूपमें अधिक सम्पत्ति न रहना चाहिए, भोगोपभोगकी सामग्रीके रूपमें रहना चाहिए। जो श्रादमी रुपया आदि जोड़ता चला जाता है वह भोगोपभोगकी चीजें कम खरीदता है इससे उन चीजोंकी खपत घट जाती है और खपत घटजानेसे उन चीजों को तैयार करने वालोंमें बेकारी बढ़ जाती है । इसलिए व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि लोग जो पायें उसे या उसका अधिकांश भोग डालें । अमुक हिस्सा संकट समयके लिए सुरक्षित रक्खें, जिससे संकटमें उधार न लेना पड़े । फिर भी यदि कोई पूंजीके रूपमें या रुपयाके रूपमें अधिक संग्रह करले तो उसका फर्ज है कि वह अपनी बचतका बहुभाग सार्वजनिक सेवाके क्षेत्रमें दान कर जाय या मृत्युकर द्वारा उससे ले लिया जाय । इस नियमसे अतिविषमतापर काफी अंकुश पड़ेगा । श्रतिसमताके आसमानी गीत गाना स्वरपर वचनाके सिवाय कुछ नहीं है और प्रतिविषमता चालू रखना इन्सान को हैवान और शैतान मेंबांट देना है, इसलिए निरतिवादी समताका हो प्रचार होना चाहिए। -संगम से मेरी भावनाका नया संस्करण 'मेरी भावना' 'एक राष्ट्रीय कविता है जिसका पाठ करना प्रत्येक व्यक्तिको अपने मानव जीवनको ऊँचा उठानेके लिए अत्यन्त आवश्यक है । वीरसेवामन्दिरसे उसका अभी हालमें संशोधित नया संस्करण प्रकाशित हुआ है। जो अच्छे कागज पर छपा है। बांटने या थोक खरीदने वालोंको ५) सैकड़ाके हिसाब से दिया जाता है। एक प्रतिका मूल्य एक आना है। आर्डर देकर अनुग्रहीत करें। For Personal & Private Use Only मैनेजर - - वीरसेवा - मन्दिर ग्रंथमाला १ दरियागंज, दिल्ली Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काक-पिक-परीक्षा ___(पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री) काक (कौत्रा) और पिक (कोयब) दोनों तिग्गतिके अपने प्रति सबके दिल में घृणा पैदा कर देती है। इस पंख वाले प्राणी है, दोनों ही काले हैं और दोनोंका समय काककी कटुता और पिककी प्रियताका पता चलता भाकार-प्रकार भी प्रायः एकसा ही है। कहा जाता है है। तुलसीदास जीने बहुत ही ठीक कहा है:कि दोनोंके अंडोंका रूप-रंग और आकार एक ही होता है कागा कासों लेत है, कोयल काको देत। .. और इसलिए काकी भ्रमसे कोयनके अंडेको अपना अंडा सुलसी मीठे वचनसों. जग अपनो कर लेत॥ समझ कर पालने लगती है। समय पर अंडा फूटता है इस विवेचनका सार यह है कि काक और 'पिकमें और उसमेंसे सच्चा निकलता है, तो काकी उसे भी बोलीका एक मौलिक या स्वभाविक अन्तर है, जो दोनों अपना बच्चा समझकर पालती-पोषती है और चुगा-चुगा- के भेदको स्पष्ट प्रगट करता है। इस अम्तरके अतिरिक्त कर उसे बड़ा करती है। धीरे-धीरे जब वह बोलने लायक दोनों में एक मौलिक अन्तर और है और वह यह कि हो जाता है, तो काक उसे अपनी बोली सिखानेकी कौएकी नजर सदा मैले पदार्थ-विष्ठा, मांस, थूक आदि कोशिश करता है। पर कोयल तो वसन्त ऋतुके सिवाय पर रहेगी । उसे यदि एक ओर अन्नका ढेर दिखाई दे अन्य मौसममें प्रायः कुछ बोलती नहीं है, अतएव कौश्रा और दूसरी ओर विष्ठामें पड़े अन्नके दाने तो वह जाकर उसके न बोलने पर मुझलाता है और बार-बार चोंचे विष्ठाके दानों पर ही चोंच मारेगा, अनके ढेर पर नहीं। मार-मारकर उसे बुलानेका प्रयत्न करते हुए भी सफलता इसी प्रकार घी और नाकका मन एक साथ दिखाई देने नहीं पाता, तो बच्चे को गूंगा समझकर अपने दिल में पर भी वह नाइके मन पर पहुँचेगा, धी पर नहीं । बहादुखी होता है ! फिर भी वह हताश नहीं होता और कौएकी दृष्टि सदा अपवित्र गन्दी और मैली चीओं पर उसे बुलानेका प्रयत्न जारी रखता है। इतनेमें वसन्तका ही पड़ेगी। पर कोयलका स्वभाव ठीक इसके बिल्कुल समय आ जाता है, पाम्रकी नव मंजरी खाकर उसका विपरीत होता है। वह कभी मैले और गन्दे पदार्थों को कंठ खुल जाता है। कौमा सदाकी भांति उसे अब भी खाना तो दूर रहा, उन पर नज़र भी नहीं डालती, न 'कांव-कांव' का पाठ पढ़ाता है। पर वह कोयनका बच्चा कभी गंदे स्थानों पर ही बैठती है। जब भी बैठेगीअपने स्वभावके अनुसार 'कांव-कांव' न बोलकर 'कुहू- वृक्षोंकी ऊँची शाखाओं पर ही बैठेगी और उनके नव, कुह' बोलता है। कौमा यह सुनकर चकित होता है और कोमल पल्लवों और पुष्पोंको ही खायगी। काककी मनोयह बच्चा तो 'कपूत' निकला, ऐसा विचार कर उसका वृत्ति अस्थिर और दृष्टि चंचल रहती है, पर कोयलकी परित्याग कर देता है। मम्मेवृत्ति और दृष्टि स्थिर रहती है। इस प्रकार काक और कौएके द्वारा इतने लम्बे समय तक पाले-पोषे जानेके कोयलमें खान-पान, बोली, मनोवृत्ति और दृष्टि सम्बन्धी कारण कोयनको 'पर-भृत' भी कहते हैं। तीन मौलिक अन्तर हैं। काक और कोयलकी समताको देख कर सहज ही शंका-तिर्यग्गतिका जीव तथा प्राकार-प्रकारकी प्रश्न उठता है कि फिर इन दोनोंमें क्या अन्तर है? एकसमता होने पर भी दोनोंमें उपयुक्त तीन मौलिक किसी संस्कृत कविके हृदयमें भी यह प्रश्न उठा और उसे विषमताएं उत्पन्न होनेका क्या कारण है? यह समाधान भी मिला: समाधान-तियचों में उत्पन्न होनेका कारण मावाचार काकः कृष्णः पिकः कृष्णः, को भेदः पिक-काकयोः। अर्थात् छल-कपटरूप प्रवृत्ति बतलाई गई है। जो जीव वसन्तकाले सम्प्राप्ते, काकः काकः पिकः पिकः॥ इस भवमें दूसरोंको धोखा देनेके लिए कहते कुछ और हैं, अर्थात्-काक भी काला है और कोयल भी काली करते कुछ और हैं, तथा मनमें कुछ और ही रखते हैं. वे है. फिर काक और कोयत्नमें क्या भेद है? इस प्रश्नके आगामी भवमें तीर्यचोंमें उत्पन्न होते हैं। इस मागमउत्तरमें कवि कहता है-बसन्तऋतुके आने पर इन दोनों नियमके अनुसार जब हम काक और पिकके पूर्वभवोंके का भेद दिखाई देता है, उस समय कोयलकी बोली तो कृत्यों पर विचार करते हैं,तो ज्ञात होता है कि उन दोनोंलोगोंके मनको मोहित कर लेती है और कौएकी बोली के तिर्यंचोंमें उत्पन्न करानेका कारण मायाचार एकसा रहा For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] है, इस लिए दोनों तिर्य चों में उत्पन्न हुए । तिर्यचोंमें भी प्रधानतः दो जातियां हैं— पशु जाति और पढ़ी जाति । जो केवल उदर-पूत्ति के लिये मायाचार करते हैं, मेरा मायाचार प्रगट न हो जाय, इस भयसे सदा शंकित चित्त रहते हैं, मायाचार करके तुरन्त नौ-दो ग्यारह हो जाते हैं, या भागने की फ्रिक्रमें रहते है, वे पक्षी जाति के जीवोंमें उत्पन्न होते विश्वकी शान्तिको दूर करनेका उपाय । जो उदर-पूतिक अतिरिक्त समाज में बड़ा बनने, लोकमें प्रतिष्ठा पाने और धन उपार्जन करने आदिके लिए मायाचार करते हैं, वे पशुजातिके तिर्यचों में उत्पन्न होते हैं । तदनुसार काक और कोयलके जीवोंने अपने पूर्वभवोंमें एकसा मायाचार किया है, अतः इस भवमें एकसा रूप रङ्ग और आकार प्रकार पाया है । परन्तु उन दोनोंक जीवोंमेंसे जिसका जीव मायाचार करते हुए भी दूसरोंके दोषों ऐबों और अवगुणों पर ही सतर्क और चंचल दृष्टि रखता था, अखाद्य वस्तुओंको खाया करता था, तथा बातचीत में हर एकके साथ समय-असमय कांव-कांव (व्यर्थ बकवाद) किया करता था वह तदनुकूल संस्कारोंके कारण काककी पर्याय में उत्पन्न हुआ। किन्तु जो जीव काकके जीवके समान मायाचार विश्व - अशान्ति के कारण 1 प्राजके इस भौतिक युगमें सर्वत्र अशान्ति ही अशांति दृष्टि गोचर हो रही है । संसारका प्रत्येक मानव सुख-शांति का इच्छुक है, परन्तु वह घबराया हुआ-सा दृष्टिगोचर होता है । उसकी इस अशान्तिका कारण इच्छाओंका अनियन्त्रण, अर्थप्राप्ति, साम्राज्यवादकी लिप्सा, भोगाकांचा और यथ प्रतिष्ठा आदि हैं। संसार विनाशकारी उस भीषण युद्धकी विभीषिकासे ऊब गया है। एटमबम और उदजनबमसे भी अधिक विनाशकारी अस्त्र शस्त्रोंके निर्माणका चर्चा उसकी आन्तरिक शान्तिको खोखला कर रही है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रको निगल जाने, उनकी स्वतन्त्रतामें बाधा डाव अथवा हड़प जानेके लिये तय्यार है । एक देश दूसरे देशकी श्री और धन-सम्पत्ति पर अपना अधिकार कर अपना प्रभुत्व चाहता है, इतना ही नहीं किन्तु उन देशवासियोंको पराधीन एवं गुलाम बनाना चाहता है । [ ७६ करते हुए भी दूसरोंके दोषों, ऐबों और अवगुणों पर नज़र न रखकर गुणों और भलाइयों पर नज़र रखता था, स्थिर मनोवृत्ति और अचंचल दृष्टि था, अखाद्य और लोकनिंद्य पदार्थोंको नहीं खाता था और लोगोंके साथ बातचीतके समय हित, मित और प्रिय बोलता था, वह उस प्रकारके संस्कारोंके कारण कोयलकी पर्यायमें उत्पन्न हुआ, जहां वह स्वभावतः ही मीठी बोली बोलता है, श्रसमय में नहीं बोलता, ऊंची जगह बैठता है और उत्तम ही खान-पान रखता है । पूर्वभव में बीज रूपसे बोये गये संस्कार इस भक्में अपने-अपने अनुरूप वृक्षरूप से अंकुरित पुष्पित और फलित हो रहे हैं । कौएमें जो बुरापन और बोली की कटुता, तथा कोयल में जो भलापन और बोलीकी मिष्टता आज दृष्टिगोचर हो रही है, वह इस जन्मके उपार्जित संस्कारोंका फल नहीं, किन्तु पूर्वजन्मके उपार्जित संस्कारोंका ही फल है । हमें कावृत्ति छोड़कर दैनिक व्यवहार में पिकके समान मधुर और मितभाषी होना चाहिए। विश्वकी अशान्तिको दूर करनेके उपाय (परमानन्द जैन शास्त्री ) विनाशकारी उन अस्त्र-शस्त्रोंकी चकाचौंध में वह अपनी कर्तव्यनिष्ठा और न्याय अन्यायकी समतुल्लाको खो बैठता है, वह साम्राज्यवादकी झूठी लिप्सामें राजनीति अनेक दाव-पेंच खेख कर अपनेको समृद्धत सुखी एवं समृद्ध देखना चाहता है और दूसरेको भविनत- गुलाम निर्धन एवं दुखी, राष्ट्र और देशोंकी बात जाने दीजिये । मानवमानव के बीच परिग्रहकी अनन्ततृष्णा और स्वार्थ तस्वरताके कारण गहरी खाई हो गई है, उनमें से कुछ लोग तो अपनेको सर्व प्रकारसे सुखी और समुन्नत देखना चाहते हैं और दूसरेको निर्धन एवं दुखी । दूसरेकी सम्पत्ति पर कब्जा करना चाहता है । और उसे संसारसे प्रायः समाप्त करनेकी भावना भी रखता है इस प्रकारकी दुर्भावनाएँ ही नहीं हैं किन्तु इस प्रकारकी अनेकों घटनाएं भी घटित हो रही हैं जो अशान्सिकी जमक हैं और अहिंसाधर्मसे परान्मुख होनेका स्पष्ट संकेत करती हैं। इसी कारण For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] संसारका प्रत्येक देश विविध उपायोंसे अपनी शक्तिको संचित करने और एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। इस तरह प्रत्येक देश की खुदगर्मी ( स्वार्थ तत्परता ) ही उन्हें पनपने नहीं दे रही है। और संसारके सभी मानव आगत युद्धकी उस भयानक विभीषिकासे मन्त्रस्त हो रहे हैं--भयभीत हैं प्रशान्त और उद्विग्न हैं: वे शान्तिके इच्छुक होते हुए भी बेचैन हैं; क्योंकि उनके सामने एटमबमले होने वाले हिरोशिमाके विनाशक परि बाम सामने दिख रहे हैं। भौतिक अस्त्र शस्त्रोंका निर्माण एवं संग्रह उनकी उस विनाशसे रक्षा करनेमें नितान्त बसमर्थ है। अनेकान्त युद्ध से कभी शान्ति नहीं मिलती प्रत्युत प्रशान्ति भुखमरी एवं निर्धनता ( गरीबी ) तथा बेकारी बढ़ती है इससे मानव परिचित है और युद्धोत्तर कठिनाइयोंको भोग कर अनुभव भी प्राप्त कर चुका है । अतः युद्ध किसी भी शान्तिका प्रतीक नहीं हो सकता। तो फिर उक्त प्रशां तिके दूर करने का क्या उपाय है ? तरह शान्तिके दूर करनेका उपाय अहिंसा विश्वको इस अशान्तिको दूर करनेका एक ही अमोघ उपाय है और वह है अहिंसा । यही एक ऐसा शस्त्र है जिस पर चलने से प्रत्येक मानव अपनी सुरक्षा की गारन्टी कर सकता है और अपनी श्रान्तरिक अशान्तिको दूर करने में समर्थ हो सकता है। जब तक मानव मानवताके रहस्य से अपरिचित रहेगा अर्थसंग्रह अथवा परिग्रहकी अपार तृष्णारूपी दाहसे अपनेको खाता रहेगा तब तक वह अहिंसाकी उस महत्ता से केवल अपरिचित ही नहीं रहेगा किन्तु विश्वकी उस अशान्तिसे अपनेको संरक्षित करने में सर्वथा असमर्थ रहेगा । अहिंसा जीवन- प्रदायनी शक्ति है यह अहिंसाको ही महत्ता है जो हम समष्टिरूप से एक स्थानमें बैठ सकते हैं, एक दूसरेके विचारोंको सुन सकते हैं, एक दूसरे के सुख दुःखमें काम श्राते हैं, उनमें प्रेमभावकी वृद्धि करने में समर्थ हो सकते हैं । यदि अहिंसा हमारा स्वाभाविक धर्म न होता तो हम कभी समष्टिमें एक स्थान पर प्रेमसे बैठ भी नहीं सकते, विचार सहिष्णुता होना तो दूर की बात है। हम कभी-कभी दूसरेके वचनोंको सुनकर श्राग-बबूला हो जाते हैं प्रशान्त होकर अपने सन्तुलनको खोकर असहिष्णु बन जाते हैं, यह [ वर्ष १३ हमारी ही कमजोरी है, कायरता है, पाप है, हिंसा है। इस पाप से छुटकारा हिंसाके विना नहीं हो सकता । अहिंसा श्रात्माका गुण है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति वीर पुरुष में होती है, कायर में नहीं; क्योंकि वह आत्मघाति है, जहां वीरता और आत्म-निर्भयता है वहीं हिंसा है। और जहां कायरता, बुजदिली एवं भयशीलता है वहां हिंसा है| कायरता के समान संसार में अन्य कोई पाप नहीं है; क्योंकि वह पापोंको प्रश्रव अथवा श्राश्रय देती । है। कायर मनुष्य मानवीय गुणोंसे भी वंचित रहता है, उसकी आत्मा हर समय डरपोक बनी रहती है और वह किसी एक विषयमें स्थिर नहीं हो पाता उस पर दुःख और उद्वेग अपना अधिकार किये रहते हैं उसका स्वभाव एक प्रकारसे दब्बू हो जाता है वह दूसरोंकी कुत्सित वृत्तिके ख़िलाफ़ या उनके सद्व्यवहारके प्रतिपक्ष में कोई काम नहीं कर सकता, किन्तु वह हिचकता भयखाता और शंकाशील बना रहता है कि कहीं वह अमुक बुरे कार्यमें मेरा नाम न ले दे मुझे ऐसे दुष्कर कार्य में न फंसा दे, जिससे फिर निकलना बड़ी कठिनतासे हो सके, इस तरह उसकी भयावह आत्मा अत्यन्त निर्बल और दयनीय हो जाती है, वह हेयोपादेयके विज्ञानसे भी शून्य हो जाता है इन्हीं सब कारणों से कायरता दुर्गुणोंकी जनक है और मानवकी अत्यन्त शत्रु है । परन्तु श्रहिंसा वीर पुरुषकी आत्मा है अथवा वही बलवान् पुरुष उसका अनुष्ठान कर सकता है जिसकी दृष्टि विकार रहित समीचीन होती है उसमें काबरतादि दुर्गुण अपना प्रभाव अंकित करने में समर्थ नही हो पाते; क्योंकि उसके चमा, वीरता, निर्भयता और धीरतादि गुण प्रकट हो जाते हैं जिनके कारण उसकी दृष्टि विकृत नहीं हो पाती, वह कभी शंकाशील भी नहीं होता किन्तु निर्भय और सदा निःशंक बना रहता है । उसमें दूसरोंके दोषोंको क्षमा करने अथवा पचानेकी क्षमता एवं सामर्थ्य होती है । वह आत्म प्रशंसा और पर छिद्रान्वेषण की वृत्तिसे रहित होता है, और अपनेको निरन्तर क्रोधादिदोषोंसे संरक्षित रखनेका प्रयत्न करता रहता है, उसकी निर्मल परिणति ही अहिंसाकी जनक है । भगवान महावीरने आजसे ढाई हजार वर्ष पहले मानव जीवनकी कमजोरियों, अपरिमित इच्छाओंअभीष्ट परिग्रहकी सम्प्राप्तिरूप आशाओं और मानवताशून्य अनुदार विचारों आदिसे समुत्पन्न उन भयानक For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] . मौजमाबादके जैन शास्व भण्डारमें उल्लेखनीय ग्रन्थ [८१ परिस्थितियोंका विचार कर जगतकी इस वेदनाको और आध्यात्मिक है उसकी साधनामें जीवनका अन्तस्तत्व उनके अपरिमित दुःखोंसे छुटकारा दिलानेके लिए अहिंसा- सन्निहित है, जब कि राजनीतिकी अहिंसाका प्राध्यारिमका उपदेश दिया, इतना ही नहीं किन्तु स्वयं उसे जीवन में कतासे कोई खास सम्बन्ध नहीं है फिर भी वह नैतिकतासे उतार कर-अहिंसक बन कर और अहिंसाकी पूर्ण दूर नहीं है। प्रतिष्ठा प्राप्त कर बोकमें अहिंसाका वह आदर्श हमारे हिसाकी पूर्ण प्रतिष्ठासे जब जाति विरोधी जीबोंसामने रक्खा है। भगवान महावीरकी इस देनका भारत- का--सिंह बकरी, चूहा बिल्ली नकुल सर्प आदिका-बैरकी तत्कालीन संस्कृतियों पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि विरोध शान्त हो जाता है तब मानव मानवके विरोधका वे भहिंसा धर्मको अपनाने ही नहीं लगी प्रत्युत उसको अन्त हो जाना कोई आश्चर्य नहीं है। इसीसे धर्मके उन्होंने अपने-अपने धर्मका अंग भी बनानेका यत्न किया विविध संस्थापकोंने अहिंसाको अपनाया है और अपनेहैं। भगवान महावीरने अहिंसाके साथ अपरिग्रहवाद, अपने धर्मग्रन्थों में उसके स्थूल स्वरूपकी चर्चा कर उसकी कर्मवाद और साम्यवादका भी अनुपम पाठ पढ़ाया था। महत्ताको स्वीकार किया है। प्रस्तु, यदि हम विश्वमें उनके ये चारों ही सिद्धान्त प्रत्येक मानवके लिए कसौटी शान्तिसे रहना चाहते हैं तो हमारा परम कर्तव्य है कि है। उन पर चलने से जीवमात्रको अपार दुःखोंकी हम अशान्तिके कारणोंका परित्याग करें-अपनी परतन्त्रतासे मुक्ति मिल जाती है, और वह सच्ची सुख- इच्छाओंका नियन्त्रण करें, अपरिग्रह और साम्यवादका शान्तिका अनुभव कर सकता है। पाश्रय लें, अर्थसंग्रह, साम्राज्यवादको लिप्सा और अपनी महात्मा बुद्धने भी उसीका अनुसरण किया, परन्तु यश प्रतिष्ठादिके मोहका संवरण करते हुए अपने विचारोंवे उसके सूचम रूपको नहीं अपना सके । उनके शासनमें मरे हुए जीवका मांस खाना वर्जित नहीं है । महात्मा को समुदार बनावें, और अहिंसाके दृष्टिकोणको पूर्णतया गांधीने महावीरकी अहिंसा और सत्यका शक्त्यनुसार पालन करते हुए ऐसा कोई भी व्यवहार न करें जिससे पांशिक रूपमें अनुसरण कर लोकमें अहिंसाकी महत्ताको दूसरों को कष्ट पहुँचे। तभी हम युद्धकी विभीषिकासे चमकानेका प्रयत्न किया और लोकमें महात्मा पन बच सकते हैं। उस अशान्तिसे एकमात्र अहिंसा ही भी प्राप्त किया, उन्होंने अपने जीवनमें राजनीतिमें भी हमारा उद्धार कर सकती है। और हमें सुखी तथा समृद्ध अहिंसाका सफल प्रयोग कर दिखाया । महावीरकी अहिंसा बनाने में समर्थ है। मौजमाबादके जैन शास्त्रभंडारमें उल्लेखनीय ग्रन्थ श्रीकुमारभ्रमण तुल्लक सिद्धिसागरजीका चतुर्मास मन्दिरमें स्थित शास्त्रभण्डारको अवश्य देखते हैं और इस वर्ष मौजमाबाद (जयपुर) में हो रहा है। प्रापने प्राप्त हुए कुछ खास अन्धोंका नोट कर उनका संक्षिप्त मेरी प्रेरणाको पाकर वहांके ग्रन्थभण्डारमें स्थित कुछ परिचय भी कभी-कमी पत्रोंमें प्रकट कर देते हैं। अप्रकाशित महत्वपूर्ण ग्रन्थों की सूची भेजी है जिसे पाठकों- माज समाज में मुनि, चुक्खाक ब्रह्मचारी और अनेक की जानकारीके लिये प्रकाशित की जा रही हैं। इस सूची त्यागीगण मौजूद हैं। यदि वे अपनी रुचिको जैनसाहित्यपरसे स्पष्ट है कि राजस्थानके ग्रन्थ भयहारोंमें अपभ्रंश के समुद्धारको भोर लगानेका प्रयत्न करें जैसा कि श्वेतांबर और संस्कृत भाषाके अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पूर्ण-अपूर्ण मुनि कर रहे है तो जैनसाहित्यका उद्धार कार्य सहज ही रूपमें विद्यमान हैं, जो अभी तक भी प्रकाशमें नहीं मा सम्पन्न हो सकता है। प्रास्म-साधनके पावश्यक कार्योंके सके हैं। तुम्नकजी स्वयं विद्वान हैं और उन्हें इतिहास अतिरिक्त शास्त्रभण्डारोंमें ग्रन्थोंके अवलोकन करने उनकी और साहित्यके प्रति अभिरुचि है, खिलने और टीकादि सूची बनाने और अप्रकाशित महत्वके ग्रन्थोंको प्रकाशमें भवेका भी उत्साह है, अतएव वे जहाँ जाते हैं वहांके खाने की भोर प्रयत्न किया जाय तो समाजका महत्वपूर्ण For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] अनेकान्त [वर्षे १३ अधिकांश कार्य थोडेसे खबमें चल सकता है और उससे में और भी अधिक प्रयत्नशील होनेकी चेष्टा करेंगे। समाज बहुत सी दिक्कतोंसे भी बच सकता है। चतुर्मासमें सुस्तकमीने मौजमाबादके शास्त्रभण्डारकी जो सूर्य स्यागीगण एक ही स्थान पर चार महीना व्यतीत करते भेजी है इसके लिए हम उनके आभारी हैं। उस सूची मेरे हैं। यदि वे प्रारमकल्याणके साथ जनसंस्कृति और उसके जिन अप्रकाशित महत्वपूर्ण अन्य ग्रन्थभण्डारों में अनु साहित्यकी ओर अपनी रुचि व्यक्त करें तो उससे सेकड़ों पलब्ध ग्रन्थोंके नाम जान पड़े उनका संक्षिप्त विवरण प्राचीन ग्रन्थोंका पता चल सकता है और दीमक कीटका- निम्न प्रकार है:दिसे उनका संरक्षण भी हो सकता है। प्राशा है मुनि, १. नागकुमार चरित-यह अन्य संस्कृत भाषाका क्षुबलक ब्रह्मचारी और त्यागीगण साहित्यसेवाके इस पुनीत है और इसके कर्ता ब्रह्म नेमिदत्त हैं जो विक्रमकी १६वीं कार्यमें अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करेंगे। शताब्दीके विद्वान थे। खेद है आज समाजमें जिनवाणीके प्रति भारी उपेक्षा २.बुद्धिरसायन-इस ग्रन्थमें 108 दोहे हैं। पुरानी चल रही है उसकी ओर न धनिकोंका ध्यान है. न स्यागि- हिन्दी में लिखे गये हैं। इसके कर्ता कवि जिनवर हैं दोहा योंका और न विद्वानोंका है। ऐसी स्थिति में जिनवाणीका आचरण-सम्बन्धि सुन्दर शिक्षाओंसे अलंकृत हैं। उसके संरक्षण कैसे हो सकता है। आज हम जिनवाणीकी मह- श्रादि अन्तके दोहे नीचे दिये जाते हैं:पाका मूल्यांकन नहीं कर रहे हैं और न उसकी सुरक्षाका पढम (पढमि) ओंकार बुह, भासइ जिणवरुदेउ । ही प्रयत्न कर रहे हैं, यह बड़े भारी खेदका विषय है। भासड.."वेद पुराण सिरु, सिव सुहकारण हे उ ॥१॥ समाजमें जिनवाणी माताकी भक्ति केवल हाथ जोड़ने + + अथवा नमस्कार करने तक सीमित है, जब कि जिनवाणी पढत सुणंतहं जे वि णर, लिहवि लिहाइवि देह । और जिनदेवमें कुछ भी अन्तर नहीं है-'नहि किंचिद- ते सुह भुजहिं विविह परि, जिणवरु एम भोइ ॥३७६|| स्तरं प्राहुराप्ता हिश्र तदेवयोः'--जो जैनधर्मके गौरबके यह गुच्छक सं० १५५६ का लिखा हुआ है जो त्रिभुः साथ हमारे उत्थान-पतनकी यथार्थ मार्गोपदेशिका है। वनकीर्ति नामके मुनिराजको समर्पण किया गया है। इससे समाज मन्दिरोंमें चांदी सोनेके उपकरण टाइन और संग- स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उक्त संवत् से पूर्व बनाया गया है, मर्मरके फर्श बगवाने, नूतन मन्दिर बनवाने, मूर्ति-निर्माण, कब बनाया गया? यह विचारणीय है। करने, वेदी प्रतिष्ठा और रथमहोत्सवादि कार्योक सम्पादनमें ३.-इस गुच्छकमें है ग्रन्थ हैं- कोकिलालगे हुए हैं। जब कि दूसरी समाजें अपने शास्त्रोंकी पंचमीकथा २ मुकुट सप्तमीकथा, ३ दुधारसिकथा ४ सम्हाल में लाखों रुपया लगा रही हैं। एक बाल्मीकि रामा- आदित्यवारकथा,५ तीनचउवीसीकथा,६ पुष्पांजलियण पाठ संशोधन के लिए साढ़े आठ लाख रुपये लगानेका कथा निर्दखसप्तमीकथा, निर्भरपंचमीकथा मनुसमाचार भी नवभारत में प्रकाशित हो चुका है। इतना सब प्रेक्षा । इन सब ग्रन्थोंके कर्ता ब्रह्म साधारण हैं जो भट्टारक होते हुए भी दिगम्बर समाजके नेतागणोंका ध्यान इस तरफ नरेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे। यह गुच्छक संवत् १५०८ का नहीं जा रहा है वे अब भी अर्थसंचय और अपारतृष्णाकी लिखा हमा है, जिसकी पत्र संख्या २० है। जिससे मालूम पूर्तिमें लगे हुए हैं। उनका जैनसाहित्यका इतिहास, होता है कि ये सब कथादि ग्रन्थ उक संवत् से पूर्वके रचे बैन शब्दकोष, जैन ग्रन्थसूची मादि महत्वके कार्योंको हये है। सम्पन्न करानेकी ओर ध्यान भी नहीं है। ऐसी स्थिति में ४. यदुचरिउ-(मुनिकामर) यह ग्रन्थ अपभ्रंश जिनवाणीके संरक्षण उदार और प्रसारका भारी कार्य, जो भाषामें रचा गया है। यह मुनि कनकामरकी दूसरी कृति बहु अर्थ व्यवको लिए हुए है कैसे सम्पन्न हो सकता है? जान पड़ती है परन्तु वह अपूर्ण है, इसके ४६ से ७० तक माशा है समाजके नेतागण, और विद्वान तथा त्यागीगण कुल २४ पत्र ही उपलब्ध हैं। शेष आदिके पत्र प्रयत्न अब भी इस दिशामें जागरुक होकर प्रयत्न करेंगे, तो यह करने पर शायद उक्त भंडारमें उपलब्ध हो जाय, ऐसी कार्य किसी तरह सम्पन्न हो सकते हैं। चुल्लकसिद्धिसागरजीसे सम्भावना है। हमारा सानुरोध निवेदन है कि वे जनसाहित्यके समुद्धार- ५.अजितपुराण-इस ग्रन्थमें जैनियोंके दूसरे तीर्थ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] कर अजितनाथका जीवन परिचय दिया हुआ है। जिसकी पत्र संख्या ७२ और १० संधियों की श्लोक संख्या २२०० श्लोक जितनी है । इस ग्रन्थके कर्ता कवि विजयसिंह हैं, परन्तु इनका परिचय मुझे अभी ज्ञात नहीं हो सका । यह ग्रंथ भव्य कामीरायके पुत्र देवपालके लिये लिखा गया है । ५. मार्गोपदेश श्रावकाचार — यह संकृत भाषाका साल संध्यात्मक ग्रन्थ है जिसकी पत्र संख्या १४ है, १२व पत्र इसका अनुपलब्ध है, श्लोक संख्या ३३४ है, जिनमें से ३७६ श्लोक मूलग्रन्थके हैं, शेष पद्य ग्रन्थकर्ताके परिचयको लिये हुए हैं इस प्रन्यके कर्ता जिनदेव हैं। यह ग्रन्थ भट्टारक जिनचन्द्र के नामांकित किया हुआ है । ग्रन्थका मंगलपद्य निम्न प्रकार है: नत्वा वीरं त्रिभुवनगुरं देवराजाधिवंद्य, कर्माराति जयति सकलां मूल संघे दयालु । ज्ञानैः कृत्वा निखिलजगतां तत्त्वमादीषु वेत्ता, धर्माधर्म कथयति इह भारते तीर्थराजः ॥१॥ ६. अपभ्रंश कथा संग्रह- इसमें तीन कथायें दी हुई हैं जिनमें प्रथम कथा रोहिणी व्रत की है, जिसके कर्ता मुनि देवनंदी हैं। यह ग्रन्थ आमेर भंडारादिके गुच्छकों में भी । दूसरी कथा, दुधारसिनरक उतारी नाम की है जिसके कर्ता विजयचन्द मुनि हैं। तीसरी कथा सुगन्ध दुशमी नामकी है जिसके कर्ता सुप्रभाचार्य हैं। ७. योगप्रदीप - यह संस्कृत भाषाका ग्रन्थ है जिसके कर्ता संभवतः सोमदेव जान पड़ते हैं। इसका विशेष विचार ग्रंथ देख कर किया जा सकता है। ८. अज्ञात न्याय ग्रन्थ - यह न्याय शास्त्रका एक छोटा सा ग्रन्थ है जो परीक्षामुखके बादकी रचना है, रचना सरल और तर्कणा शैलीको लिये हुए है । [ ८३ ६. चौवीस ठाणा - ( प्राकृत) यह ग्रंथ सिद्धसेनसूरी कृत है। इसमें चौबीस तीर्थकरों के जन्मादिका वर्णन गाथाबद दिया हुआ है । यह कृति भी एक गुटके में संनिहित है । १०. अहोरात्रिकाचार - यह ग्रन्थ पं० प्राशावरजी कृत है जिसकी श्लोक संख्या ५० बतलाई गई है और जो एक गुरुक में संगृहीत है। ११. हंसा अनुप्रेक्षा - इस ग्रन्थके कर्ता अजितब्रह्म हैं। १२. नेमिचरित - ( अपभ्रंश ) महाकवि पुष्पदन्त कृत यह प्रन्थ भी एक गुच्छकमें संकलित है । इस चरित ग्रन्थको देख कर यह निश्चय करना चाहिये कि यह पुष्पदन्तकी स्वतन्त्र कृषि है या महापुराणन्तर्गत ही नेमिनाथका चरित है । १३. अमृतसार - यह प्रम्थ ४ संधियोंको लिये हुए है। १४. षट् द्रव्यनिर्णयविवरण १५. गोम्मटसार पंजिका - यह जीवकाण्ड कर्मकाडकी एक संस्कृत प्राकृत मिश्रित पंजिका टीका है जिसके कर्ता मुनि गिरिकीर्ति हैं । इस ग्रन्थका विशेष परिचय बादको दिया जायगा । १६. श्रुतभवनदीपक - यह भट्टारक देवसेन कृत संस्कृत भाषाका ग्रंथ है । १७. रावण- दोहा - प्राकृत (गुच्छक में ) १८. कल्याणविहाण - ( अपभ्रंश ) इस ग्रन्थ भण्डारमें वे सब ग्रंथ भी विद्यमान हैं जो दूसरे भंडारोंमें पाये जाते हैं। कुछ प्रन्थोंकी मूल प्रतियाँ भी उपलब्ध हैं, यथा— सोमदेवाचार्यका यशतिलकचम्पू मूल, गोम्मटसार कर्मकाण्ड मूल, ( यन्त्र रचना सहित) सिद्धान्तसार प्रा० ( यन्त्र रचना सहित ) राजवार्तिकमूल, और अमरकोशकी टीका सीर स्वामिकृत मौजूद है । - परमानन्द जैन मंगल पद्य सवैया इकतीसा वंदू वद्धमान जाको ज्ञान है समन्तभद्र, गुण अकलंक रूप विद्यानन्द धाम है । जाको अनेकान्तरूप वचन अबाध सिद्ध, मिथ्या अन्धकारहारी दीप ज्यों ललाम है ॥ भव्यजीव जासके प्रकाश तैं विलोके सब, जीवादिक वस्तुके समस्त परिणाम हैं । वर्तो जयवन्त सो अनन्तकाल लोक मांहि, जाको ध्यान मंगल स्वरूप अभिराम हैं । For Personal & Private Use Only — कविवर भागचन्द Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृतिमें नारी ( परमानन्द शास्त्री) श्रमण संस्कृतिमें नारीका स्थान ले। उस समय वैदिक संस्कृतिका बोलबाला था । उसके श्रमण संस्कृतिमें भारतीय नारीका आत्म-गौरव लोकमें खिलाफ प्रवृत्ति करना साधारण कार्य नहीं था। इससे स्पष्ट आज भी उद्दीपित है, वह अपने 'धर्म और कर्तव्यनिष्ठाके है कि उस समय वैदिक संस्कृतिके प्राबल्यके कारण बुद्ध भी लिये जीती है। नारीका भविष्य उज्वल है, वह नरकी जननी स्त्रियोंको अपने संघमें दीक्षित करनेमें संकोच करते थे। है और मातृत्वके श्रादर्श गौरवको प्राप्त है। वैदिक परम्परामें परन्तु महावीरने उसे कार्यरूपमें परिणतकर नारीका समुद्धार ' नारीका जीवन कुछ गौरवपूर्ण नहीं रहा और न उसे धर्म- ही नहीं किया, प्रत्युत एक आदर्श मार्गको भी जन्म दिया। साधना द्वारा आत्मविकास करनेका कोई साधन अथवा पश्चात् अानन्दकी प्रेरणा स्वरूप बुद्धने भी स्त्रियोंक अधिकार ही दिया गया, वह तो केवल भोगोपभोगकी वस्तु दीक्षित करना शुरु कर दिया। ऊपरके उल्लेखसे स्पष्ट है कि एवं पुत्र जननेकी मशीनमात्र रह गई थी। उसका मनोबल श्रमणसंस्कृतिमें आंशिक रूपसे नारीका प्रभुत्व बराबर और आत्मबल पराधीनताको बेड़ीमें जकड़ा हश्रा होनेके कायम रहा। फिर भी नारीने उस कालमें भी अपने प्रादश कारण कुठित हो गया था। वह अबला एवं असहाय जैसे जीवनको महत्ताको नष्ट नहीं होने दिया, किन्तु अपनी शब्दों द्वारा उल्लेखित की जाती थी और पुरुषों द्वारा पद प्रानको बराबर कायम रखते हुए उसे और भी समुज्वल पद पर अपमानित की जाती थी। उस समय जनता-“यत्र बनानेका यत्न किया। नार्यस्तु पूज्यंते रमते तत्र देवताः" की नीतिको भूल चुकी थी। सीताक वेद मंत्रका पाठ अथवा उच्चारण करना भी उन्हें गुनाह एवं जिस तरह पुरुषोंमें सेठ सुदर्शनने ब्रह्मचर्यव्रतके अनुष्ठान अपराध माना जाता था। जाति बन्धन और रीति-रिवाज भी द्वारा उसकी महत्ताको गौरवान्वित किया ठीक उसी तरह उनके उत्थानमें कोई सहायक नहीं थे, बल्कि वे उन्हें और एक अकेली भारतीय सीताने अपने सतीत्व-संरक्षणका जो भी पतित करनेमें सहायक हो जाते थे । वैदिक-संस्कृतिकी कठोरतम परिचय दिया उससे उसने केवल स्त्री-जातिके इस संकीर्ण मनोवृत्तिवाली धाराके प्रवाहका परिणाम उस कलंकको ही नहीं धोया ; प्रत्युत भारतीय नारीके अवनत समयकी श्रमण संस्कृति और उनके धर्मानुयायियों पर भी मस्तकको सदाके लिए उन्नत बना दिया। जब रामचंद्रने पड़ा। फलतः उस धर्मके अनुयायियोंने भी पुराणादिग्रंथोंमें सीतासे अग्निकुण्डमें प्रवेश करनेकी कठोर अाज्ञा द्वारा नारीकी निंदा की, उसे 'विषबेल', 'नरक पद्धति' तथा मोक्ष अपने सतीत्वका परिचय देनेके लिये कहा, तब सीताने समस्त . मार्गमें बाधक बतलाया। फिर भी श्रमण-संस्कृतिमें नारीके जन समूहके समक्ष यह प्रतिज्ञा की, कि यदि मैंने मनसे, धर्म-साधनका--धर्मके अनुष्ठान द्वारा प्रात्म-साधनाका कोई वचनसे, कायसे रघुको छोड़कर स्वप्नमें भी किसी अन्य अधिकार नहीं छीना गया, वे उपचार महाव्रतादिके अनुष्ठान द्वारा 'प्रार्थिका' जैसे महसरपदका पालन करती हुई अपने पुरुषका चिंतन किया हो तो मेरा यह शरीर अग्निमें भस्म नारी-जीवनको सफल बनाती रही हैं। हो जाय, अन्यथा नहीं, इतना कहकर सीता उस अग्निकुण्डकी भीषण ज्वालामें कूद पड़ी और सती साध्वी होनेके कारण तुलनात्मक अध्ययन वह उसमें खरी निकली। वैदिक संस्कृतिकी तरह बौद्ध परम्परामें भी स्त्रीका - कोई धार्मिक स्थान नहीं था। आज से कोई ढाई हजार वर्ष -सर्वप्राणिहिताऽऽचार्य चरणौ च मनस्थिती। पहले जैनियोंके अंतिम तीर्थकर भगवान महावीरके संघमें प्रणम्योदारगंभीरा विनीता जानकी जगौ ॥ लाखों स्त्रियोंको दीक्षित देखकर और उसके द्वारा श्राविका, कर्मणा मनसा वाचा, रामं मुक्त्वा परं नरं । क्षुल्लिका और धार्यिकाके व्रतोंके अनुष्ठान द्वारा होने वाली समुद्वहामि न स्वप्नेप्यन्यं सत्यमिदं मम ॥ धार्मिक उदारताको देखकर, मौतमबुद्धके शिष्य प्रानन्द से न पद्य तदनृतं वच्मि तदा मामेष पावकः । रहा गया, उसने बुद्धसे कहा कि आप अपने संघमें स्त्रियोंको भस्मसाभावमप्राप्तामपि प्रापयतु क्षणात् ॥ दीक्षित क्यों नहीं करते, तब बुद्धने कहा कि कौन झगड़ा मोल -पद्मचरित्र १०५, २४-२६ For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ लोकोपवादका वह कलङ्क जो जबर्दस्ती उसके शिर मदा गया था वह सदाके लिये दूर हो गया और सीताने फिर संसारके इन भोग विलासोंको हेय समझकर, रामचन्द्रकी श्रभ्यर्थना और पुत्रादिकके मोहजालको उसी समय छोड़कर पृथ्वीमती श्रार्यिका निकट अर्थका व्रत ले लिये और अपने केशोंको भी दुखदायी समझकर उनका भी लोच कर डाला २ । कठिन तपश्चर्या द्वारा उस स्त्री पर्यायका भी विनाशकर स्वर्गलोक में प्रतीन्द्र पद पाप्त किया । भारतीय श्रमण परम्परा में केवल भगवान् महावीरने नारीको सबसे पहले अपने संघमें दीक्षितकर आत्म-साधनाका अधिकार दिया हो, यही नहीं; किन्तु जैनधर्मके अन्य २३ तीर्थंकरोंने भी अपने-अपने संघमें ऐसाही किया है; जिससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्रमणसंस्कृतिने पुरुषोंकी भांतिही स्त्रियोंके धार्मिक अधिकारोंकी रक्षा की —— उनके श्रादर्शको भी कायम रहने दिया, इतना ही नहीं किन्तु उनके नैतिक जीवन स्तरको भी ऊँचा उठानेका प्रयत्न किया है । भारतमें गान्धी - युगमें गान्धीजीके प्रयत्नसे नारीके अधिकारोंकी रक्षा हुई है उन्होंने जो मार्ग दिखाया उससे नारी जीवनमें उत्साह की एक लहर गई है, और नारियाँ अपने उत्तरदायित्वको भीम गी । फिर भी वैदिक संस्कृतिमें धर्म सेवनका अधिकार नहीं मिला । नारियोंके कुछ कार्यो का दिग्दर्शन भारतीय इतिहासको देखनेसे इस बात का पता चलता है कि पूर्वकालीन नारी कितनी विदुषी, धर्मात्मा, और श्रमण संस्कृति में नारी ' मनसिवचसि काये जागरे स्वप्नमार्गे, मम यदि पतिभावो राघवादन्यपु ंसि । तदिह दह शरीरं पावके मामकीनं, स्वकृत विकृत नीतं देव साक्षी त्वमेव ॥” २ - इत्युक्क्त्वाऽभिनवाशोकपल्लवोपमपाणिनः । मूर्द्धाजान-स्वमुद्धृत्य पद्मायाऽर्पयदस्पृहा ॥६७॥ इन्द्रनीलच तिच्छायान्- सुकुमारन्मनोहरान् । केशान- वीच्य ययौ मोहं रामोऽयप्तश्चभूतले ॥७७॥ यावदाश्वासनं तस्य प्रारब्धं चंदनादिना । पृथ्वी मत्यार्यया तावदीक्षिता जनकात्मजा ॥७८॥ ततो दिव्यानुभावेन सा विघ्न परिवर्जिता । संवृत्ता श्रमणा साध्वी वस्त्रमात्रपरिग्रहा ॥७६॥ [=x कर्तव्य परायणा होती थी । वह श्राजकलकी नारीके समान बला या कायर नहीं होती थी, किन्तु निर्भय, वीरांगना और अपने सतीत्वके संरक्षण में सावधान होती थी जिनके अनेक उद्धरण ग्रन्थोंमें उपलब्ध होते हैं । यह सभी जानते हैं किनारीमें सेवा करनेकी अपूर्व क्षमता होती है । पतिव्रता केवल पतिके सुख-दुखमें ही शामिल नहीं रहती है, किन्तु वह विवेक और धैर्य से कार्य करना भी जानती है। पुराणमें ऐसे कितने ही उदाहरण मिलते हैं जिनमें स्त्रीने पतिको सेवा करते हुए, उसके कार्य में और राज्यके संरक्षण में तथा युद्धमें सहायता की है अवसर आने पर शत्रुके दांत खट्ट े किये हैंx | पतिके वियोग में अपने राज्यकार्यकी संभाल यत्नके साथ की है। इससे नारीकी कर्तव्यनिष्ठाका भी बोध होता है। नारी जहाँ कर्तव्य निष्ठ रही है। वहां वह धर्मनिष्ठा भी रही है। धर्मकर्म और व्रतानुष्ठानमें नारी कभी पीछे नहीं रही है। अनेक शिलालेखोंमें भारतीय जैन-नारियों द्वारा बनवाये जाने वाले अनेक विशाल गगन चुम्बी मंदिरोंके निर्माण और उनकी पूजादिके लिये स्वयं दान दिये और दिलवावाए थे । अनेक गुफाओंका भी निर्माण कराया था, जिनके कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं : - पद्मचरित पृ० १०५ १ - कलिङ्गाधिपति राजा खारवेलकी पट्टरानीने कुमारी पर्वत पर एक गुफा बनवाई थी, जिस पर आज भी निम्न लेख प्रति है और जो रानी गुफाके नामसे उल्लेखित की जाती है। : ( १ ) 'अरहंत पसादान (म्) कालिंगा (न) म् समणानम् लेणं कारितं राजिनो ल (1) लाक (स) (२) हथिस हंस - पपोतम धुना कलिंग - च (खा) र वेल (३) आग महीपी या का लेणं ।” Xचन्द्रगिरि पर्वतके शिलालेख नं० ६१ (१३९) में, जो 'वीरगल' के नामसे प्रसिद्ध है उसमें गङ्गनरेश रक्कसमणिके 'वीर योद्धा' 'वद्वेग' ( विद्याधर ) और उसकी पत्नी सावियत्वेका परिचय दिया हुआ है, जो अपने पतिके साथ 'वायूर' के युद्धमें गई थी और वहां शत्रु से लड़ते हुए वीरगतिको प्राप्त हुई थी । लेख ऊपर जो चित्र उत्कीर्ण हैं उसमें वह घोड़े पर सवार है और हाथमें तलवार लिये हुए हाथी पर सवार हुए किसी वीर पुरुषका सामना कर रही है । सावयव्वे रूपवती और धर्मनिष्ठ जिनेन्द्र भक्तिमें तत्पर थी । लेखमें उसे रेवती, सीता और अरुन्धतीके सद्दश बतलाया. है गया 1 For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त २६] [वर्ष १३ २-चतुर्थ महाराजा शांति वर्मा, जो पृथ्वी रामके समान ही पुण्यात्मा महापुरुषोंके उत्पन्न करनेका भी सौभाग्य प्राप्त जैन धर्मके उपासक थे इनकी रानी चांदकब्वे भी जिन- हुआ है, जिन्होंने संसारके दुःखी जीवोंके दुःखोंको दूर करने धर्मकी परम उपासिका थी। शांति वर्माने सन् १८१ के लिये भोग-विलास और राज्यादि विभूतियोंको छोड़कर (वि० सं० १०३८) में सोन्दत्तिमें जिनमन्दिरका प्रात्म-साधना द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त करनेका प्रयत्न किया निर्माण कराया था और ११० महत्तर भूमि राजाने है। अनेक स्त्रियोंने पार्यिकानोंके व्रतोंको धारणकर प्रात्म और उतनी ही भूमि रानी चांदकव्वेने बाहुबली देवको साधनाकी उस कठोर तपश्चर्याको अपनाया है और आत्माप्रदान की थी, जो व्याकरणाचार्य थे। नुष्ठान करते हुए मन और इन्द्रियोंको वशमें करनेका भी -देखो, सोन्दत्ति शिला ले. नं० १६०। प्रयत्न किया है। साथ ही, प्रागत उपसर्ग परीषहोंको भी ३-विष्णु वर्धनकी भार्या शान्तलदेवीने सन् ११२३ (वि० समभावसे सहन किया है और अन्त समयमें समाधि पूर्वक सं० १२३० में) गन्ध वारण वस्ति बनवाई। यह मार- शरीर छोड़ा। उन धर्म-सेविका नारियोंके कुछ उदाहरण इस सिंह माचिकब्वे की पुत्री थी और जैन-धर्ममें सुदृढ़ और प्रकार हैं:गान नृत्य विद्यामें अत्यन्त चतुर थी। (७) भगवान महावीरके शासनमें जीवंधर स्वामीको पाठों ४-सोदेके राजा की रानीने, कारणवश पतिके धर्म-परिवर्तन पत्नियोंने जो विभिन्न देशोंके राजाओंकी राजपुत्रियों थीं, कर लेने के बाद भी पतिकी असाध्य बीमारीके दूर होने पतिके दीक्षा लेने पर आर्यिकाके व्रत धारण किये थे। तथा अपने सौभाग्यके अक्षुण्ण बने रहने पर अपने (२) वीरशासनमें जम्बू स्वामी अपनी तात्कालिक परिणाई नासिका भूषण (नथ) को, जो मोतियोंका बना हुआ हुई आठों स्त्रियोंके हृदयों पर विजय प्राप्तकर प्रातःकाल था, मेचकर एक जैन-मन्दिर बनवाया था और सामने दीक्षित हो गए। तब उनकी उन स्त्रियोंने भी जैनएक तालाब भी जो इस समय 'मुत्तिन कैरे' के नामसे दीक्षा धारण की। प्रसिद्ध है। -पाहव मल्ल राजाके सेनापति मल्लयकी पुत्री प्रतिमन्वेने, ) चंदना सतीने, जो वैशाली गणतंत्रके राजा चेटककी पुत्री जो जैनधर्मको विशेष श्रद्धालु और दानशीला थी, उसने थी, श्राजीवम ब्रह्मचारिणी रहकर, भगवान महावीरसे चांदी सोनेको हजारों जिन प्रतिमाएं स्थापित की और दीक्षित होकर आर्यिकाके व्रतोंका अनुष्ठान करती हुई लाखों रुपयेका दान किया था। महावीरके तीर्थमें छत्तीस हजार आर्यिकाओंमें गणिनीका ६-"होयसल नरेश बल्लाल, बल्लाल द्वितीयके मन्त्री पद प्राप्त किया था। चन्द्रमौली वेदानुयायी ब्राह्मण थे। परन्तु उनकी पत्नी (१) मयर ग्राम संघकी आर्यिका दमितामतीने कटवप्र गिरि 'प्राचियक्क' जिनधर्म परायणा थी और वीरोचित पर समाधिमरण किया। सान-धर्ममें निष्ठ थी, उसने बेल्गोलमें पार्श्वनाथ वस्ति : था, उसन बल्गालम पाश्वनाथ वास्त- (१) नविलूरकी अनंतमती-गतिने द्वादश तपोंका यथाविधि का निर्माण कराया था। अनुष्ठान करते हुए अन्तमें कटवा पर्वत पर स्वर्गलोक-देखो, श्रवण बेलगोल लेख नं. ४६४ - का सुख प्राप्त किया। जबलपुरमें 'पिसनहारीकी मडिया' के नामसे एक जैन (६) दण्ड नायक गणराजकी धर्म-पत्नी लक्ष्मी मतिने, जो मन्दिर प्रसिद्ध है जिसे एक महिलाने आटा पीस-पीसकर बड़े सती, साध्वी, धर्मनिष्ठा और दानशीला थी, और भारी परिश्रमसे पैसा जोड़ कर भक्रिवश अपने द्रव्यको सत्कार्यमें लगाया था। आज भी अनेक मंदिर और मूर्तियाँ मूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छके शुभचन्द्राचार्यकी शिष्या तथा धर्मशालाएँ अनेक नारियोंके द्वारा बनवाई गई हैं, थी, उसने शक सं०१०४४ (वि० सं०११७६) में सन्यास विधिसे देहोत्सर्ग किया था। जिनका उल्लेख लेख वृद्धिके भयसे नहीं किया है। इस प्रकारके सैकड़ों उदाहरण शिलालेखों और पुराण ग्रंथोंमें उपलब्ध होते हैं, जिन सबका संकलन करनेसे एक कुछ उन्लेख पुस्तकका सहज ही निर्माण हो सकता है। प्रस्तु, यहाँ लेख नारीको तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलभद्र और अन्य अनेक वृद्धिके भयसे उन सभीको छोड़ा जाता है।. नारियों के Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] ग्रन्थ-रचना नेक नारियाँ विदुषी होनेके साथ २ लेखिका और कवियित्री भी हुई हैं उन्होंने अनेक ग्रंथोंकी रचना की है। पर वे सब रचनाएं इस समय सामने नहीं हैं। श्राज भी अनेक नारियाँ त्रिदुषी, लेखिका तथा कवियित्री हैं, जिनकी रचना भावपूर्ण होती है। भारतीय जैनश्रमण परम्परामें ऐसी पुरातन नारियाँ संभवतःकम ही हुई हैं जिन्होंने निर्भयतासे पुरुषोंके समान नारी जातिके हितकी दृष्टिसे किसी धर्मशास्त्र या आचार शास्त्रका निर्माण किया हो, इस प्रकारका कोई प्रामाणिक उल्लेख हमारे देखने में नहीं श्राया । श्रमण संस्कृतिमें नारी हां, जैन मारियोंके द्वारा रची हुई दो रचनाएँ मेरे देखने में अवश्य आई हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे भी प्राकृत, संस्कृत और गुजराती भाषाकी जानकार थीं। इतना ही नहीं किन्तु गुजराती भाषामें कविता भी कर लेती थी । ये दो रचनाएँ दो विदुषी श्रार्थिकात्रोंके द्वारा रची गई हैं। उनमें से प्रथमकृति तो एक टिप्पण ग्रंथ है जो अभिमान मेरु महाकवि पुष्पदन्तकृत 'जसहर चरिऊ' नामक ग्रन्थका संस्कृत टिप्पण है, जिसकी पृष्ठ संख्या १६ है और जिसकी खंडित प्रति दिल्लीके पंचायतीमंदिरके शास्त्र भण्डारमें मौजूद है। जिसमें दो से ११ और १६वाँ पत्र श्रवशिष्ट है। शेष मध्यके ७ पत्र नहीं है । सम्भवतः वे उस दुर्घटनाके शिकार हुए हों, जिसमें दिल्लीके शास्त्र भण्डारोंके हस्तलिखित ग्रन्थोंके त्रुटित पत्रोंको बोरीमें भरवाकर कलकत्ताके समुद्र में कुछ वर्ष हुए गिरवा दिया गया था। इसी तरह पुरातन खण्डित मूर्तियों को भी देहलीके जैन समाजने श्रवज्ञाके भयले अंग्रेजोंके राज्यमें बम्बईके समुद्रमें प्रवाहित कर दिया आ, जिन पर सुनते हैं कितने ही लेख भी अंकित थे। खेद है ! समाजके इस प्रकारके अज्ञात प्रयत्नसे ही कितनी ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री विलुप्त हो गई है। आशा है दिल्ली समाज आगे इस प्रकारको प्रवृत्ति न होने देगा । यशोधरचरित टिप्पण की वह प्रति सं० १५६६ मंगसिर वदी १० बुधवारको लिखी गई है। टिप्पणके अन्त में निम्न पुष्पिका वाक्य लिखा हुआ है-' इति श्री पुष्पदन्तकृत यशोधर काव्यं टिप्पणं श्रर्जिका श्रीरणमतिकृतं संपूर्णम् ।' टिप्पणके इस पुष्पिका वाक्यसे टिप्पणग्रन्थको रचयत्री 'रणमति' श्रार्यिका है और उसकी रचना सं० १५६६ से पूर्व हुई है । [ ८७ कितने पूर्व हुई है इसके जाननेका अभी कोई साधन नहीं है। - टिप्पणका प्रारम्भिक नमूना इस प्रकार है : " वल्लहो - वल्लभ इति नामान्तरं कृष्णराज देवस्य । पज्जत पर्याप्त मलमिति यावत् ।” दुक्किय पहाएदुः कृतस्य प्रथमं प्रख्यापनं विस्तरणं वा । दुःकृत मार्गो वा । लहु मोक्षं देशतः कर्मक्षयं लाघ्वेति शीघ्र पर्यायो वा । पंचसु पंचसु पंचसु - भरतैरावत विदेहाभिधानासु प्रत्येकं पंच प्रकारतया पंचसु दशसु कर्मभूमिसु । दया सहीसु- धर्मो दया सख्यं ईश इव-दया सहितासु वा । उ पंचसु - विदेहभूमिसु पंचसु ध्रुवो धर्मसूत्रक एव चतुर्थः कालः समयः । दशसु - पंचभरत पंचैरावतेषु । कालावेक्खए - वर्तमान (ना) सर्पिणी कालापेक्षया । पुनः देवसामि - प्रधानामराणां त्वं स्वामी । वत्ताणुठाणे - कृषि पशुपालन वारिणध्या च वार्ता । खत्तथनुक्षत्रदण्डनीति । परमपत्तु - परमा उत्कृष्टा गणेन्द्रा ऋषभ - सेनादयस्तेषां परम पूज्यः " ॥ दूसरी कृति समकितरास है, जो हिन्दी गुजराती मिश्रित काव्य-रचना है। इस ग्रन्थकी पत्र संस्था ८ है, और यह ग्रन्थ ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती-भवन झालरापाटन के शास्त्रभण्डारमें सुरक्षित है। इस ग्रन्थमें सम्यक्त्वोपादक आठ कथाएं दी हुई हैं, और प्रसंगवश अनेक अवान्तर कथा भी यथा स्थान दी गई हैं । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ संस्कृत सम्यक्त्व कौमुदी का गुजराती पद्यानुवाद है। इसकी रचयित्री श्रार्यारत्नमती है । ग्रन्थमें उन्होंने अपनी जो गुरु परम्परा दी है वह इस प्रकार है : मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय सरस्वतिगच्छ में भट्टारक पद्मनन्दी, देवेन्द्रकोर्ति, विद्यानन्दी, महिलभूषण, लक्ष्मीचन्द, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण, श्रार्या चन्द्रमती, विमलमती और रत्नमती । ग्रन्थका आदि मंगल इस प्रकार है: इस गुरु परम्परामें भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति सूरतकी गड़ीके भट्टारक थे । विद्यानन्द सं० १५५८ में उस पट्ट पर विराजमान हुए थे । मल्लभूषण सागवाड़ा या मालवाकी गद्दीके भट्टारक थे | लक्ष्मीचन्द और वीरचन्द्र भी मालवा या सागवाड़ा के श्रास-पास भट्टारक पद पर श्रासीन रहे हैं। ये ज्ञानभूषण तत्त्वज्ञान तरंगिणी के कर्तासे भिन्न हैं। क्योंकि यह भ० वीरचन्द्रके शिष्य थे । और तत्त्वज्ञान तरंगिणीके कर्ता भ० भुवनकीर्तिके शिष्य थे । For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वर्ष १३ ८] अनेकान्त वीर जिनवर वीर जिनवर नमू ते सार । तीर्थकर थी। इस उल्लेख परसे भो आर्या रत्नमती विक्रमकी १६वीं चौबीसवें । मनवांछित फलबहु दान दातार । निरमल शतीके मध्यकी जान पड़ती हैं। सारदा स्वामिनी वली तबू । लक्ष्मी चन्द्र, वीरचन्द्र अनेक विदुषी नारियोंने केवल अपना ही उत्थान नहीं किया, मनोहर । ज्ञान भूषण पाय प्रणमिनि। रत्नमति कहि अपने पतिको भी जैनधर्मकी पावन शरणमें ही नहीं लाई चंग, रास करूँ अति रूबडो । श्रीसमकिततणु प्रत्युत उन्हें जैनधर्मका परम आस्तिक बनाया है और अपनी भनिरास ॥१॥ संतानको भी सुशिक्षित एवं श्रादर्श बनानेका प्रयत्न किया भासरासनी है। उदाहरणके लिये अपने पति मगध देशके राजा श्रेणिक चउवीस जिनवर पायनमीए, सारदा तणिय पसायनु। (बिम्बसार) को भारतीय प्रथम गणतन्त्रके अधिनायक मूलसंघ महिमानिलुए, भारती गच्छि सिंणगारनु ॥१॥ लिच्छिवि वंशी राजा चेटककी सुपुत्री चेलनाने बौद्धधर्मसे पराङ् मुखकर जैनधर्मका श्रद्धालु बनाया है जिसके अभयकुंदकुंदाचारिजि कुलिईए, पद्मनन्दी शुभभावनु । कुमार और वारिषेण जैसे पुत्र रत्न हुए जिन्होंने सांसारिक देवेन्द्रकीरति गुरु गुण निलुए श्रीविद्यानिंद महंतनु ॥२॥ सुख और वैभवका परित्यागकर श्रात्म-साधनाको कठोर तपश्रीमल्लिभूषण महिमा निलुए, श्रीलक्ष्मीचंद्र गुणवंतनु ॥३ श्चर्याका अवलम्बन किया था। वीरचंद्र विद्या निलुए, श्रीज्ञानभूषण ज्ञानवन्तनु ।।४।। - इस तरह नारीने श्रमणसंस्कृतिमें अपना आदर्श जीवन गम्भीराणव, मेरु सारिषु धीरनु । वितानेका यत्न किया है। उसने पुरुषोंकी भांति आत्मसाधन दयाराणी जि श्रिम निवसए, ज्ञानतणु दातारनु ॥५॥ और धर्मसाधनमें सदा आगे बढ़नेका प्रयत्न किया है । अन्तिम भाग नारीमें जिनेन्द्रभक्ति के साथ श्रुत-भक्तिमें भी तत्परता देखी शांती जिनवर शांती जिनवर नमिय ते पाय। जाती है, वे श्रुतका स्वयं अभ्यास करती थीं, समय-समय पर ग्रन्थ स्वयं लिखती और दूसरोंसे लिखा-लिखाकर अपने रास कहूं सम्यक्ततणु सारदा तणिय पसाय मनोहर । ज्ञानावरनी कमके क्षयार्थ साधुओं, विद्वानों और तत्कालीन कुंदकुंदाचारिजि कुलि पद्मनन्दि गुरु जाणि। भट्टारकों तथा आर्यिकाओंको प्रदान करती थीं, इस विषयके देविंदकीरति तेह पट्ट हुव वादी सिरोमणि बखाणि ॥ सैकड़ों उदाहरण हैं, उन सबको न देकर यहाँ सिर्फ ५-६ दूहा-विद्यानन्द तसु पट्ट हुवनि मल्लिभूषण महंत। उद्धरण ही नीचे दिये जाते हैं :लक्ष्मीचन्द्र तेह पछीरिसिणु यति य सरोमणि संत ।। (१) संवत् १४९७ में काष्ठासंघके प्राचार्य अमरकीर्ति द्वारा वीरचन्द्र पाटि ज्ञानभूषण नमीनि । चन्द्रमती बाई रचित 'षट कर्मोपदेश' नामक ग्रन्थकी १ प्रति ग्वालियरके नमी पाय । रत्नमती यो पिय रास करु, विमलमती, तंवर या तोमरवंशी राजा वीरमदेवके राज्यमें अग्रवाल कहिण थकी सार।। इति श्रीसमाकितरास समाप्तः। आर्या साहू जैतूकी धर्मपत्नी सरेने लिखाकर आर्यिका जैनश्री रत्नमती कृतं ॥ भ. पूजारावजी पठनाथे (श्रीरस्तु) । की शिष्यणी आर्यिका बाई विमलश्रीको समर्पित की थी। आर्या रत्नमतीने अपना यह रास अथवा रासा आर्या (२) संवत् १६८५ में अग्रवालवंशी साहू बच्छराजकी सती विमलमतीकी प्रेरणासे रचा था। आर्या रस्नमतीकी गुरुश्राणी साध्वी पत्नी 'पाल्हे' ने अपने ज्ञानावरणी कर्मके क्षपार्थ आर्या चन्द्रमती थी। यह ग्रंथ विक्रमकी १६वीं शताब्दीके द्रव्यसंग्रहकी ब्रह्मदेवकृत वृत्ति लिखाकर प्रदान की। मध्यकालकी रचना जान पड़ती है। क्योंकि रत्नमतीकी उक्त गुरु परम्परामें निहित विमलमती वह विमलश्री जान पड़ती ) संवत् १५९५ में खण्डेलवालवंशी साहू छीतरमलकी है, जिनकी शिष्या विनयश्री भ. लक्ष्मीचन्द्रजी के द्वारा पत्नी राजाहीने अपने ज्ञानावरणी कर्मके क्षयार्थ 'धर्मदीक्षित थी, जिन्होंने ६० आशाधरजी कृत महा-अभिषेक ..परीक्षा' नामक ग्रन्थ लिखकर मुनि देवनन्दिको प्रदान पाठकी ब्रह्म श्रुतसागर कृत टीका उक्र भट्टारक लक्ष्मीचन्दके किया। शिष्य ब्रह्म ज्ञानसागरको सं० १५५२ में लिखकर प्रदान की (४) संवत् १५३३ में धनश्रीने पद्मानन्द्याचार्यको 'जम्बूद्वीप For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण-३] आत्महितकी बातें [८४ प्रज्ञप्ति' प्राकृत लिखाकर पं० मेधावीको प्रदानकी थी। उपसंहार (५) संवत् १५६० में माणिक बाई हूमड़ने, जो व्रत धारिणी प्राशा है पाठक इस लेखकी संक्षिप्त सामग्री परसे थी, गोम्मटसारपंजिका लिलाकर लघुविशालकीतिको नारीकी महत्ताका अवलोकन करेंगे, उसे उचित सम्मानके भेंट स्वरूप प्रदान की थी। ' साथ उसकी निर्बलताको दूर करनेका यत्न करेंगे और (६) संवत् १६६८ में हूंबड नातीय बाई दीरोखे लिखाकर श्रमणसंस्कृतिमें नारीकी महत्ताका मूल्यांकन करके नारी-जातिभ. सकलचन्द्रको प्रदान किया था । को ऊँचा उठानेके अपने कर्तव्यका पालन करेंगे। आत्महितकी बातें (तु० सिद्धिसागर) जब लोग निश्चल होनेके लिए बोलिप्सा और यह प्रश्न उन मनीषियोंके मानसमें ज्यों का त्यों पा माछलका परित्याग करके मन-वचन कायकी चंचलताका कर उनको कितनी बार नहीं जगा जाता?-फिर भी निरोध करनेके लिए उद्यम करते हैं तो सातों तत्वों पर मोटे लेने की प्रादतसे बाज नहीं भाते है वे, जो जागनेको विश्वास करने वाले मारमाको या सच्चे विश्वास ज्ञान पाप समझते हैं!! और पाचरणको प्रारमहितका वास्तविक रूप निश्चत तप अग्निके विना कोई भी कर्मों की राख नहीं बना करते हैं। सम्भव है चलने में पैर फिसल जाय किन्तु सकता। इच्छाके निरोध होने पर ही तपकी आग प्रज्वलित पैरको जमा कर रखनेका अभ्यास तो वे करते हैं-वे होती है। यह वह भाग है जो सुखको चरम सीमा तक क्रोधकी ज्वालासे जलते हुए गर्त में न गिर जावें इसके पहँचाने में समर्थ है। लिए यथा उद्यम भी करते हैं। यदि कभी-कभी क्रोधकी ___जो वस्तु पराई है और है वह विद्यमान तो उसे लपटोंसे वे मुखस जाते हैं उसे हेय तो अवश्य समझ लेते छोड़ने से सारी झमटें छूट जाती हैं। हैं। उनका दुर्भाग्य है जो अनंतानुबन्धी क्रोधकी भागमें जलते हैं। मानके पहारसे उतर कर वे सम्पूर्ण विद्या और मरते समय जब शरीर ही अलग हो जाता है तो चारित्रके सच्चे नेता होते हैं। कपरकी झपटमें कभी बे पर फिर शेष घर मादिक अपने कैसे हो सकते हैं अपने " आते हों तो चपेट भी अवश्य सहन करते ही हैं। आगामी . शान ज्ञान चेतनामय कतृत्वसे भिन्न अन्यका कर्ता होनेका तृष्णाको छोड़ने पर दुर्गतिका अन्त तो होता ही है किन्त साहस वे अन्तःकरणसे तन्मय होकर अनन्तानुबन्धी रूपसे सन्तोष और शान्तिकी लहर भी अवश्य दौड जाती है। नहीं कर सकते जो सम्यग्दर्शनकी नीव पर खड़े हैं। सत्यका सूर्य जिसके अन्तःकरणसे उदित होकर मुख- जीवोंका सहारा आप आप ही अपने में रहना है। गिरि पर चमक रहा है-क्या मजाल जो दुराग्रहियोंके गुरुकुलके गुरुकुल में रहते हुए स्नातक होना परम ब्रह्मचर्य बकवाद उसके सामने अधिक टिक सकें। वस स्याद्वादकी है। स्त्रीके किसी भी अवस्थामें दृष्टिगत हो जाने पर किरणोंसे चमकता हुअा अनेकान्त सूर्य उन जीवोंके विकृत न होना ब्रह्मचर्य है। उत्तम दश लक्षण वाले मोहान्धकारको दूर करने में समर्थ है जो निकट भव्य हैं- धर्मको निर्व्यसनी निष्पाप व्यक्ति पाने और रत्नत्रयसे उल्लूको सूर्य मार्ग नहीं बता सकता। त्रिगुप्ति गुप्त रह जावे तो भात्मा ही अपने हितका संयम जीवोंको कौनसा सुख १ नहीं देता अब भी सच्चा रूप है। For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-तत्त्व (परमानन्द जैन शास्त्री ) संसारके समस्त धर्मोंका मूल अहिंसा है, यदि इन धर्मो हिंसाको सर्वथा पृथक् कर दिया जाय तो वे धर्म निष्प्राण एवं अनुपादेय हो जाते हैं; इसी कारण अहिंसाFast भारत विविध धर्म संस्थापकोंने अपनाया ही नहीं, किन्तु उसे अपने-अपने धर्मका प्रायः मुख्य अङ्ग भी बनाया है। हिंसा जीवनप्रदायिनी शक्ति है, इसके बिना संसारमें सुख शान्तिका अनुभव नहीं हो सकता । जिस तरह सम्यनिर्धारित राज्यनीति विना राज्यका संचालन सुचारु रीतिसे नहीं हो सकता उसी तरह अहिंसाका अनुसरण किये बिना शान्तिका साम्राज्य भी स्थापित नहीं हो सकता । हिंसा के पालनसे ही जीवात्मा पराधीनताके बन्धनोंसे छूटकर वास्तविक स्वाधीनताको प्राप्त कर सकता है । श्रहिसाकी भावना श्राज भारतका प्राण है, परन्तु इसका पूर्ण रूपसे पालन करना और उसे अपने जीवन में उतारना कुछ कठिन श्रवश्य प्रतीत होता है । श्रहिंसासे श्रात्मनिर्भयता वीरता, दया और शौर्यादि गुणोंकी वृद्धि होती है, उससे ही प्राणिसमाजमें परस्पर प्र ेम बढ़ता है और संसार में सुख-शान्तिको समृद्धि होती है । श्रहिंसा के इस गम्भीर रहस्यको समझने के लिये उसके विरोधी धर्म हिंसाका स्वरूप जानना अत्यन्त श्रावश्यक है। 1 जैनदृष्टि से हिंसा हिंसाका स्वरूप हिंसा शब्द हननार्थक हिंसि' धातुसे निष्पन्न होता है; इस कारण उसका अर्थ-प्रमाद वा कषायके निमित्तसे किसी भी सचेतन प्राणीको सताना या उसके द्रव्यभाव रूप-प्राणोंका वियोग करना होता है । अथवा किसी जीवको बुरे भावसे शारीरिक तथा मानसिक कष्ट देना, गाली प्रदानादि- +परिदावकदो हवे समारम्भो ॥ रूप अपशब्दों के द्वारा उसके दिलको दुखाना, हस्त, को लाठी श्रादिसे प्रहार करना इत्यादि कारण-कलापोंसे उसे प्राणरहित करने या प्राणपीडित करनेके लिये जो व्यापार किया जाता है उसे 'हिंसा' कहते हैं । 1 प्रमत्त योगात्प्राणव्यपरोणं हिंसा । - तत्त्वार्थ सूत्रे, उमास्वातिः यत्खलु कषाययोगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणां । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ - पुरुषार्थसिद्धयुपाये, अमृतचन्द्रः जब हम किसी जीवको दुखी करने सताने पीड़ा देनेका विचार करते हैं उसी समय हमारे भावों में और वचन - काय - की प्रवृत्ति में एक प्रकारकी विकृति श्रा जाती है, जिससे हृदयमें शान्ति और शरीरमें बेचैनी उत्पन्न होती रहती है और जो श्रात्मिक शान्तिके विनाशका कारण है, इसी प्रकारके. प्रयत्नादेशको अथवा तज्जन्य संकल्प विशेषको संरम्भ कहते हैंx ! पश्चात् अपनी कुत्सित चित्तवृत्तिके धनुकूल उस प्राणिको दुखी करनेके अनेक साधन जुटाये जाते हैं; मायाचारी से दूसरोंको उसके विरुद्ध भड़काया जाता है, विश्वासघात किया जाता है- कपटसे उसके हितैषी मित्रों में फूट डाली जाती है— उन्हें उसका शत्रु बनानेकी चेष्टा की जाती है, इस तरह से दूसरों को पीड़ा पहुँचाने रूप व्यापारके साधनों को संचित करने तथा उनका अभ्यास बढ़ानेको समारम्भ कहा जाता है + | फिर उस साधनसामग्री सम्पन्न हो जाने पर उसके मारने या दुखी करनेका जो कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है उस क्रियाको आरम्भ कहते हैं। । ऊपरकी उक्त दोनों क्रियाएँ तो भावहिंसाकी पहली और दूसरी श्र ेणी हैं हीं, किन्तु तीसरी श्रारम्भक्रियामें द्रव्य भाव रूप दोनों प्रकारकी हिंसा गर्भित है. अतः ये तीनों ही क्रियाएँ हिंसाकी जननी हैं । इन क्रियाओंके साथमें मन वचन तथा कायकी x' संरंभी संकप्पो' भ० श्राराधनायां शिवार्यः ८१२ । प्राणव्यपरोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः संरंभः । - सर्वार्थसिद्धौं, पूज्यपादः, ६, ८ । प्राणव्यपरोणादौ प्रमादवतः प्रयत्नः संरंभः - विजयोदयां, अपराजितः गा० ८११ — भग० श्राराधनायां शिवार्यः ८१२ साधनसमभ्यालीकरणं समारम्भः । सर्वार्थसिद्धौ पूज्यपादः, ६, ८ ॥ साध्याया हिंसादिक्रियायाः साधनानांसमाहारः समारंभः । - विजयोदयायां, अपराजितः, गा० ८११ । + आरम्भ उदो, - भ० अराधनायां शिवार्यः, ८१२ । सर्वार्थसिद्धौ पूज्यपादः ६, ८ प्रक्रमः आरम्भः । संचितहिंसाद्य कारणस्य श्रद्यः प्रक्रमः श्रारंभः For Personal & Private Use Only विजयोदयायां: अपराजितः, गा० ८११ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] अहिंसातत्त्व प्रवृत्तिके संम्मिश्रणसे हिंसाके नव प्रकार हो जाते हैं और जब किसी जीवको क्रोध, मान, माया और लोभादिके कारण कृत-स्वयं करना, कारित-दूसरोंसे कराना, अनुमोदन-किसी या किसी स्वार्थवश जानबूझ कर सताया जाता है या सताने को करता हुआ देखकर प्रसन्नता व्यक्त करना, इनसे गुणा अथवा प्राणरहित करनेके लिए कुछ व्यापार किया जाता है करने पर हिंसाके २७ भेद होते हैं। चूंकि ये सब कार्य उसे कषायसे हिंसा कहते हैं और जब मनुष्यकी आलस्यमय क्रोध, मान, माया, अथवा लोभके वश होते हैं। इसलिये असावधान एवं प्रयत्नाचार प्रवृत्तिसे किसी प्राणीका वधादिक हिंसाके सब मिलाकर स्थलरूपसे १०८ भेद हो जाते हैं। हो जाता है तब वह प्रमादसे हिंसा कही जाती है । इससे इन्हींके द्वारा अपनेको तथा दूसरे जीवोंको दुःखी या प्राण- इतनी बात और स्पष्ट हो जाती है कि यदि कोई मनुष्य रहित करनेका उपक्रम किया जाता है । इसीलिये इन बिना किसी कषायके अपनी प्रवृत्ति यत्नाचारपूर्वक सावधानीसे क्रियाओंको हिंसाकी जननी कहते हैं। हिंसा और अहिंसाका करता है उस समय यदि दैवयोगसे अचानक कोई जीव जो स्वरूप जैन ग्रन्थों में बतलाया गया है, उसे नीचे प्रकट आकर मर जाय तो भी वह मनुष्य हिंसक नहीं कहा जा किया जाता है सकताः क्योंकि उस मनुष्यकी प्रवृत्ति कषाययुक्त नहीं है सा हिंसा व्यपरोप्यन्ते त्रसस्थावराङ्गिनाम् । और न हिंसा करनेकी उसकी भावना ही है यद्यपि द्रव्यहिंसा प्रमत्तयोगतः प्राणा. द्रव्य-भारस्वभावकाः ।। जरूर होती है परन्तु तो भी वह हिंसक नहीं कहा जा सकता -अनगारधर्मामृते, आशाधरः ४, २२ और न जैनधर्म इस प्राणिवातको हिंसा कहता है । हिंसात्मक परिणति ही हिंसा है, केवल द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं कहलाती, अर्थात्-क्रोध-मान माया और लोभके अाधीन होकर द्रव्यहिंसाको तो भावहिंसाके सम्बन्धसे ही हिंसा कहा जाता अथवा अयत्नाचारपूर्वक मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिसे त्रसजीवों है। गस्तवमें हिंसा तब होती है जब हमारी परिणति प्रमादके-पशु पक्षी मनुष्यादि प्राणियोंके-तथा स्थावर जीवों मय होती है अथवा हमारे भाव किसी जीवको दुःख देने या के - पृथ्वी, जल, हवा और वनस्पति श्रादिमें रहने वाले सूक्ष्म जीवोंके-द्रव्य और भावप्राणोंका घात करना हिंसा सतानेके होते हैं । जैसे कोई समर्थ डाक्टर किसी रोगीको कहलाता है। हिंसा नहीं करना सो अहिंसा है अर्थात् प्रमाद नीरोग करनेकी इच्छासे ऑपरेशन करता है और उसमें दैवव कषायके निमित्तसे किसीभी सचेतन प्राणीको न सताना, योगसे रोगीकी मृत्यु हो जाती है तो वह डाक्टर हिंसक नहीं मन वचन-कायसे उसके प्राणोंके घात करनेमें प्रवृत्ति नहीं कहला सकता और न हिंसाके अपराधका भागी ही हो सकता है। किन्तु यदि डाक्टर लोभादिके वश आन बूझकर मारनेके करना न कराना और न करते हुएको अच्छा समझना . 'अहिंसा' है । अथवा इरादे से ऐसी क्रिया करता है जिससे रोगीको मृत्यु हो जाती है तो जरूर वह हिंसक कहलाता है और दण्डका भागी भी शादीमणप्पा अहिंसगत्तेति भासिदं समये। होता है। इसी बातको जैनागम स्पष्ट रूपसे यों घोषणा तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेति जिणेहिं णिहिट्ठा ॥ करता है :-तत्त्वार्थवृत्ती, पूज्यपादेन उद्धृतः । उच्चालदम्मिपादे इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे। अर्थात्-प्रात्मामें राग-द्वेषादि विकारोंको उत्पत्ति नहीं ावादेज्ज कुलिङ्गो मरेज्ज तं जोगमासेज्ज । होने देना 'अहिंसा' है और उन विकारोंकी आत्मामें उत्पत्ति णहि तस्स तरिणमित्तो बंधो सुहमोवि देसिदो समये । होना 'हिंसा' है । दूसरे शब्दों में इसे इस रूपमें कहा जा सकता -तत्त्वार्थवृत्तौ पूज्यपादेन उद्धृतः है कि आत्मामें जब राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान-माया और अर्थात्-जो मनुष्य देखभालकर सावधानोसे मार्ग पर लोभादि विकासेंकी उत्पत्ति होती है तब ज्ञानादि रूप आत्म- चल रहा है उसके पैर उठाकर रखनेपर यदि कोई जन्तु स्वभावका घात हो जाता है इसीका नाम भाव हिंसा है अकस्मात् पैरके नीचे आ जाय और दब कर मर जाय तो और इसी भाव हिंसासे-आत्म परिणामोंकी विकृतिसे- उस मनुष्यको उस जीवके मारनेका थोड़ा सा भी पाप नहीं जो अपने अथवा दूसरोंके द्रव्यप्राणका घात हो जाता है उसे लगता है। द्रव्यहिंसा कहते हैं। जो मनुष्य प्रमादी है-प्रयत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करता हिंसा दो प्रकारसे की जाती है-कषाय और प्रमादसे। है-उसके द्वारा किसी प्राणीकी हिंसा भी नहीं हुई है तो भी For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 १२] अनेकान्त [वर्ष १३ वह 'प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः' के वचनानुसार हिंसक अलग न किया जाय तो कोई भी जीव अहिंसक नहीं हो अवश्य है-उसे हिंसाका पाप जरूर लगता है। यथा- सकता और इस तरहसे तो शुद्ध वीतराग-परिणति वाले मरदु व जीयदु जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। साधु महात्मा भी हिंसक कहे जायेंगे, क्योंकि पूर्ण अहिंसाके पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स ॥ पालक योगियोंके शरीरसे भी सूचम वायुकायिक आदि -प्रवचनसारे कुन्दकुन्दः ३, १७ जीवोंका वध होता ही है, जैसा कि आगमकी निम्न प्राचीन अर्थात्-जीव चाहे मरे, अथवा जीवत रहे, असाव- गायासे स्पष्ट है :धानीसे काम करने वालेको हिंसाका पाप अवश्य लगता है, जदि सद्धस्स य बंधो होदि बाहिरवत्थुजोगेण ।' किन्तु जो मनुष्य यत्नाचारपूर्वक सावधानीसे अपनी प्रवृत्ति पत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवधहेदु ॥ करता है उससे प्राणि-वध हो जाने पर भी हिंसाका पाप -विजयोदयायां-अपराजित:-६, ८०६ नहीं लगता-वह हिंसक नहीं कहला सकता, क्योंकि हिंसा और अहिंसाके इस सूचम विवेचनसे जैनी अहिंसाके भावहिंसाके बिना कोरी द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं कहला सकती। महत्वपूर्व रहस्यसे अपरिचित बहुतसे व्यक्तियोंके हृदयमें यह सकषायी जीव तो पहले अपना ही घात करता है, कल्पना हो जाती है कि जैनी अहिंसाका यह सूचमरूप उसके दूसरोंकी रक्षा करनेकी भावना ही नहीं होती। वह अव्यवहार्य है-उसे जीवनमें उतारना नितान्त कठिन ही तो दूसरोंका घात होनेसे पहले अपनी कलुषित चितवृत्तिके नहीं किन्तु असम्भव है। अतएव इसका कथन करना व्यर्थ द्वारा अपना ही घात करता है, दूसरे जीवोंका घात होना न ही है । यह उनकी समझ ठीक नहीं है क्योंकि जैनशासनमें होना उनके भक्तिव्यके आधीन है। हिंसा और अहिंसाका जो विवेचन किया गया है वह अद्वितीय हिंसा दो प्रकारकी होती है एक अन्तरंग हिंसा और है. उसमें अल्पयोग्यतावाले पुरुष भी बड़ी आसानीके साथ दसरी बाहिरंग हिंसा। जब श्रात्मामें ज्ञानादि रूप भाव उसका अपनी शक्तिके अनुसार पालन कर सकते हैं और प्राणोंका घात करने वाली अशुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति होती है अपनेको अहिंसक बना सकते हैं । साथ ही, जैनधर्म में तब वह अंतरंग हिंसा कहलाती है और जब जीवके बाह्य अहिंसाका जितना सूचमरूप है वह उतना ही अधिक व्यवद्रव्यप्राणोंका घात होता है तब बहिरंग हिंसा कहलाती है। हार्य भी है। इस तरहका हिंसा और अहिंसाका स्पष्ट इन्हींको दूसरे शब्दोंमें द्रव्यहिंसा और भावहिंसाके नामसे भी विवेचन दूसरे धर्मों में नहीं पाया जाता, इसलिये उसका कहते हैं। यदि तत्त्वदृष्टिसे विचार किया जाय तो सचमुचमें जैनधर्मको अहिंसाके आगे बहुत ही कम महत्व जान पड़ता है। हिंसा करता और स्वार्थकी पोषक है। मनुष्यका निजी . जैनशासनमें किसीके द्वारा किसी प्राणीके मर जाने या स्वार्थ ही हिंसाका कारण है। जब मनुष्य अपने धर्मसे च्युत दुःखी किये जानेसे ही हिंसा नहीं होती। संसारमें सब जगह हो जाता है तभी वह स्वार्थवश दूसरे प्राणियोंको सतानेकी जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी रहते हैं, चेष्टा किया करता है। प्रात्मविकृतिका नाम हिंसा है और परन्तु फिर भी, जैनधर्म इस प्राणिघातको हिंसा नहीं कहता; उसका फल दुःख एवं अशान्ति है और अात्मस्वभावका क्योंकि जैनधर्म तो भावप्रधानधर्म है इसीलिये जो दूसरोंकी हिंसा नाम अहिंसा है तथा सुख और शान्ति उसका फल है करनेके भाव नहीं रखता प्रत्युत उनके बचानेके भाव रखता है अर्थात् जब आत्मामें किसी तरहको विकृति नहीं होती चित्त उससे दैववशात् सावधानी करते हुए भी यदि किसी जीवके प्रशान्त एवं प्रसादादि गुणयुक्त रहता है उसमें क्षोभकी मात्रा द्रव्य प्राणोंका वध हो जाता है तो उसे हिंसाका पाप नहीं नज़र नहीं आती, उसी समय प्रात्मा अहिंसक कहा जाता है। लगता। यदि हिंसा और अहिंसाको भावप्रधान न माना द्रव्यहिंसाके होने पर भावहिंसा अनिवार्य नहीं है उसे तो जाय तो फिर बंध और मोक्षकी व्यवस्था ही नहीं बन भाव हिंसाके सम्बन्धले ही हिंसा कहते हैं, वास्तव में द्रव्यहिंसा सकती। जैसे कि कहा भी हैतो भावहिंसासे जुदी ही है। यदि द्रव्यहिंसाको भावहिंसासे विष्वग्जीवचिते लोके क्व चरन कोप्यमोक्ष्यत । कस्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । भावैकसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ।। पूर्व प्रण्यंतराणान्तु पश्चात्स्द्वान वा वधः ॥ . -सागरधर्मामृतः ४, २३ -तत्वार्थवृत्तौमें उद्धृत, पृ० २३१ अर्थात्-जब कि लोक जीवोंसे खचाखच भरा हुश्रा For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] अहिंसातत्त्व [६३ है तब यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही निर्भन न होते में सम्यग्दृष्टिको सप्तभय-रहित बतलाया गया है। साथ तो कौन पुरुष मोक्ष प्राप्त कर सकता ? अतः जब जैनी ही, प्राचार्य अमृतचन्द्रने तो उसके विषयमें यहाँ तक लिखा अहिंसा भावोंके ऊपर ही निर्भर है तब कोई भी बुद्धिमान है कि यदि त्रैलोक्यको चलायमान कर देनेवाला वज्रपात जैनी अहिंसाको अव्यवहार्य नहीं कह सकता। श्रादिका घोर भय भी उपस्थित होजाय तो भी सम्यग्दृष्टि अहिंसा और कायरतामें भेद पुरुष निःशंक एवं निर्भय रहता है-वह डरता नहीं है। अब मैं पाठकोंका ध्यान इस विषयकी ओर आकर्षित और न अपने ज्ञानस्वभावसे च्युत होता है, यह सम्यग्दृष्टिकरना चाहता हूँ कि जिन्होंने अहिंसा तत्त्वको नहीं समझकर का ही साहस है। इससे स्पष्ट है आत्म निर्भयी-धीर-धीर जैनी अहिंसापर कायरताका लांछन लगाया है उनका कहना पुरुष ही सच्च अ पुरुष ही सच्चे अहिंसक हो सकते हैं, कायर नहीं। वे तो नितान्त भ्रममूलक है। ऐसे घोर भयादिके आने पर भयसे पहले ही अपने प्राणोंका ___अहिंसा और कायरतामें बड़ा अन्तर है । अहिंसाका परित्याग कर देते हैं। फिर भला ऐसे दुर्बल मनुष्यसे अहिंसा सबसे पहला गुण आत्मनिर्भयता है। अहिंसा कायरताको जैसे गम्भीर तत्त्वका पालन कैसे हो सकता है ? अतः जैनी स्थान नहीं। कायरता पाप है, भय और संकोचका परिणाम अहिंसापर कायरताका इल्ज़ाम लगाकर उसे अव्यवहार्य है । केवल शस्त्र संचालनका ही नाम वीरता नहीं है किन्तु कहना निरी अज्ञानता है। वीरता तो श्रात्माका गुण है। दुर्बल शरीरसे भी शस्त्रसंचा जैन शासनमें न्यूनाधिक योग्तावाले मनुष्य अहिंसाका लन हो सकता है। हिंसक वृतिसे या मांसभक्षणसे तो करता अच्छी तरहसे पालन कर सकते हैं, इसीलिये जैनधर्ममें आती है, वीरता नहीं। परन्तु अहिंसासे प्रेम, नम्रता, शान्ति, अहिंसाके देशअहिंसा और सर्वअहिंसा अथवा अहिंसा-अणुव्रत सहिष्णुता और शौर्यादि गुण प्रकट होते हैं। और अहिंसा-महावत आदि भेद किये गये हैं। नो मनुष्य ___दुर्बल आत्माओंसे अहिंसाका पालन नहीं हो सकता पूर्ण अहिंसाके पालन करनेमें असमर्थ हैं, वह देश अहिंसाका उनमें सहिष्णुता नहीं होती । अहिंसाकी परीक्षा अत्याचारीके पालन करता है, इसीसे उसे गृहस्थ, अणुव्रती, देशव्रती या अत्याचारोंका प्रतीकार करनेकी सामथ्यं रखते हुए भी उन्हें देशयतीके नामसे पुकारते हैं। क्योंकि अभी उसका सांसारिक हँसते-हँसते सह लेनेमें है। किन्तु प्रतीकारकी सामर्थ्यके अभाव देहभोगोंसे ममत्व नहीं छूटा है-उसकी प्रात्मशक्तिका पूर्ण में अत्याचारीके अत्याचारोंको चुपचाप अथवा कुछ भी विरोध विकास नहीं हुआ है-वह तो अस, मषि, कृषि, शिल्प, किये बिना सहलेना कायरता है-पाप है-हिंसा है। कायर वाणिज्य, विद्यारूप षट् कर्मों में शक्त्यानुसार प्रवृत्ति करता मनुष्यका प्रात्मा पतित होता है, उसका अन्तःकरण भय हुआ एक देश अहिंसाका पालन करता है। गृहस्थअवस्थामें और संकोचसे अथवा शंकासे दबा रहता है। उसे पागत चार प्रकारकी हिंसा संभव है। संकल्पी, प्रारम्भी, उद्योगी भयकी चिन्ता सदा व्याकुल बनाये रहती है-मरने जीने और विरोधी । इनमेंसे गृहस्थ सिर्फ एक संकल्पी हिंसा-मात्रऔर धनादि सम्पत्तिके विनाश होनेकी चिन्तासे वह सदा का त्यागी होता है और वह भी घस जीवोंकी। जैन पीड़ित एवं सचिन्त रहता है। इसीलिये वह आत्मबल और प्राचार्योंने हिंसाके इन चार भेदोंको दो भागोंमें समाविष्ट मनोबलकी दुर्बलताके कारण-विपत्ति आने पर अपनी रक्षा किया है और बताया है कि गृहस्थ-अवस्थामें दो प्रकारकी भी नहीं कर सकता है। परन्तु एक सम्यग्दृष्टि अहिंसक हिंसा हो सकती है, प्रारम्भजा और अनारम्भजा। प्रारम्भजा पुरुष विपत्तियोंके आनेपर कायर पुरुषकी तरह घबराता नहीं हिंसा कूटने, पीसने आदि गृहकार्योंके अनुष्ठान और आजीऔर न रोता चिल्लाता ही है किन्तु उनका स्वागत करता है विकाके उपार्जनादिसे सम्बन्ध रखती है, परन्तु दूसरी हिंसाऔर सहर्ष उनको सहनेके लिये तैय्यार रहता है तथा अपनी गृही कर्तव्यका यथेष्ट पालन करते हुए मन-वचन-कायसे होने वाले जीवोंके घातकी ओर संकेत करती है। अर्थात् दो सामर्थ्यके अनुसार उनका धीरतासे मुकाबिला करता हैउसे अपने मरने जीने और धनादि सम्पत्तिके समूल विनाश - इंद्रियादि सजीवोंको संकल्पपूर्वक जान बूझकर सताना । होनेका कोई डर ही नहीं रहता, उसका आत्मबल और सम्मट्ठिी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण । मनोबल कायर मनुष्यकी भांति कमजोर नहीं होता, क्योंकि सक्तभावप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका ।। उसका आत्मा निर्भय है-सप्तभयोंसे रहित है। जैनसिद्धांत -समयसारे, कुन्दकुन्द २२८ For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] या जानसे मारना ही इसका विषय है, इसीलिये इसे संकल्पी - हिंसा कहते हैं । गृहस्थ अवस्थामें रहकर आरम्भजा हिंसाका त्याग करना शक्य है । इसीलिये जैन ग्रन्थोंमें इस हिंसा त्यागका श्रामतौरपर विधान नहीं किया है । परन्तु यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेकी ओर संकेत श्रवश्य किया है जो कि श्रावश्यक है; क्योंकि गृहस्थीमें ऐसी कोई क्रिया नहीं होती जिसमें हिसा न होती हो । अतः गृहस्थ सर्वथा हिंसाका त्यागी नहीं हो सकता । इसके सिवाय, धर्म-देश- जाति और अपनी तथा अपने श्रात्मीय जनोंकी रक्षा करनेमें जो विरोधी हिंसा होती है उसका भी वह त्यागी नहीं हो सकता । जिस मनुष्य का सांसारिक पदार्थोंसे मोह घट गया है और जिसकी श्रात्मशक्ति भी बहुत कुछ विकास प्राप्त कर चुकी है वह मनुष्य उभय प्रकारके परिग्रह का त्याग कर जैनी दीक्षा धारण करता है और तब वह पूर्ण अहिंसाके पालन करनेमें समर्थ होता है । और इस तरहसे ज्यों-ज्यों आत्मशक्तिका प्राबल्य एवं उसका विकास होता जाता है त्यों-त्यों हिंसाकी पूर्णता भी होती जाती है। और जब श्रात्माकी * हिसा द्वधा प्रोक्ताऽऽरंभानारं भजत्वतोदक्षै । गृहवासतो निवृत्त द्वेधाऽपि त्रायते ताँ च ।। अनेकान्त [ वर्ष १३ पूर्णशक्तियों का विकास होजाता है, तब श्रात्मा पूर्ण श्रहिंसक कहलाने लगता है । अस्तु, भारतीय धर्मो में अहिंसा धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। इसकी पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाला पुरुष परमब्रह्म परमात्मा कहलाता है । इसीलिये श्राचार्य समन्तभद्रने परब्रह्म कहा है । अतः हमारा कर्तव्य है कि हम जैन शासनके अहिंसातत्त्वको अच्छी तरहसे समझें और उस पर अमल करें । साथ ही, उसके प्रचार में अपनी सर्वशक्तियोंको लगादें, जिससे जनता हिंसाके रहस्यको सम और धार्मिक अन्धविश्वाससे होनेवाली घोर हिंसाका - राक्षसी कृत्यका — परित्यागकर अहिंसाकी शरण में आकर निर्भयता से अपनी श्रात्मशक्तियों का विकास करनेमें समर्थ हो सकें। गृहवाससेचनरतो मन्दकषायाप्रवर्तितारम्भः । आरम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षतु नियमात् ॥ श्रावकाचारे, श्रमितगतिः, ६, ६, ७ * हिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं, न सा तत्रारम्भोस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ॥ ततस्तत्सिद्ध्यर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं भावानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ॥ ११६ स्वयंभूस्तोत्रे, समन्तभद्रः । समाधितन्त्र और इष्टोपदेश वीर सेवामन्दिर से प्रकाशित जिस 'समाधितन्त्र' ग्रन्थके लिये जनता अर्से से लालायित थी वह ग्रन्थ इष्टोपदेशके साथ इसी सितम्बर महीने में प्रकाशित हो चुका है। आचार्य पूज्यपादकी ये दोनों ही आध्यात्मिक कृतियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । दोनों ग्रन्थ संस्कृत टीकाओं और पं० परमानन्दजी शास्त्रीके हिन्दी अनुवाद तथा मुख्तार जुगलकिशोरजीकी खोजपूर्ण प्रस्तावना के साथ प्रकाशित हो चुका है । अध्यात्म प्रेमियों और स्वाध्याम प्रेमियोंके लिये यह ग्रन्थ पठनीय है । ३५० पेजकी सजिन्द प्रतिका मूल्य ३) रुपया है । 1 जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों को लिए हुये है । ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों पर से नोट कर संशोधनके साथ प्रकाशित की गई हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण प्रस्तावना से अलंकृत है, जिसमें १०४ विद्वानों, श्राचार्यों और भट्टारकों तथा उनकी प्रकाशित रचनाओं का परिचय दिया गया है जो रिसर्च स्कालरों और इति-संशोधकोंके लिये बहुत उपयोगी है | मूल्य ५) रुपया है । मैनेजर वीर सेवा - मन्दिर, १ दरियागज, दिल्ली । For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य वर्णीजीके प्रति श्रद्धांजलि (विनम्र जैन) "भारतके आध्यात्मिक योगिन् ! स्वीकारो जगतीका प्रणाम ।" हे पूज्यवर्य, हे गुण निधान, हो गई धन्य यह वसुन्धरा। तुमने अपने सज्ज्ञान-सूर्यसे, अज्ञान तिमिरको, अहो, हटा॥ शिक्षासे ही मानव बढ़ते, शिक्षा ही जीवन-दायक है। तुमने सदैव यह सिखलाया, शिक्षा विवेक उन्नायक है ॥ बस एक अमिट यह चाह पाक, तुम बने सदासे हो अकाम। भारतके श्राध्यात्मिक योगिन, स्वीकारो जगतीका प्रणाम ॥१॥ तू परम मधुर भाषण कर्ता, अंतर बाहर द्वयसे निर्मल । तेरी वाणी शुचि गंगाजल, गुजित सुरभित जिससे नभ-थल ॥ हे क्षमा-देविके चिर सुहाग, तुमको वरकर वह हुई अमर । तेरे पवित्र हृदयाम्बरमें, वहता रहता करुणा सागर ॥ अधरोंपर शिशु मुस्कानधार, कर्तव्य निरत तुम अनविराम । भारतके आध्यात्मिक योगिन् , स्वीकारो जगीतका प्रणाम ॥२॥ 'मेरे जिनवरका नाम राम, हे संत ! तुम्हें सादर प्रणाम ।' युगकवि की इस श्रद्धांजलिसे, श्रद्धाका सार्थक हुआ नाम ॥ . निंदा स्तुति दोनोंसे ही तो, अपनेको चिर निर्लिप रखा। बस वही कर्मभरि क्षय करने, तुमने तपको वर लिया सखा ॥ निज तपश्चरणसे हे मुनीश, पाओगे वह कैवल्यधाम । . भारतके आध्यात्मिक योगिन्, स्वीकारो जगतीका प्रणाम ॥३॥ हो अगम ज्ञानके ज्ञाता तुम, विद्या-वारधि ! युग नमस्कार। वह ब्रह्मचर्य दीपित मुख-रवि, कर रहा अहिंसाका प्रसार ॥ मानवका हित साधन करने, पावन पगसे चिरकाल चले। हे द्रव्यदानके उत्प्रेरक, लखि तेज हृदय-पाषाण गले॥ मुख मौन मात्र हो हे ऋषिवर ! रचनामानव विधि-लिपि ललाम भारतके आध्यात्मिक योगिन, स्वीकारो जगतीका प्रणाम ॥॥ वह पुण्य दिवस जब गया मध्य,तुमसे ऋषि भावे स्वयं मिले। वे भूमिदानके अन्वेषक, जिससे लिप्सा उर-तार हिले ॥ तुम आध्यात्मिक दुःखके त्राता, कर रहे मलिन अंतर पवित्र । वे भौतिक क्लेशोंके नाशक, कर रहे शुद्ध मानव-चरित्र ॥ तुम दोनों दो युग पुरुषमान्य, ज्योतित करने भारत सुनाम । भारतके श्राध्यात्मिक योगिन,स्वीकारो जगतीका प्रणाम ॥॥ एकासी जन्म दिवसपर कवि, भावोंका अर्घ चढ़ाता है। छंदोंको छोटीसी माला, पहिनाने हाथ बढ़ाता है ॥ तुम मौन शांत सस्मित बैठे, क्या श्रद्धा-सुमन न थे सुखकर ? यद्यपि वाणी मुखरित न हुई, सम्बोधा दिव्याभा ने पर ॥६॥ आचरण करो सन्तोंके गुण, गुण-गानमात्र है मार्ग वाम । भारतके आध्यात्मिक योगिनू, स्वीकारो जगतीका प्रणाम ॥६॥ १ राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरणजी गुप्त * ४ अगस्त सन् ५३ For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानमें दासी-प्रथा राजस्थान स्वतन्त्र भारतका एक प्रान्त है। उसमें दासी हुई जान पड़ती है। जब अंग्रेजी शासनमें 'सती' जैसी प्रथाका होना राजस्थानके लिये कलंक की वस्तु है। जब भारत प्रथाका अस्तित्व नहीं रहा तब राजस्थानकी यह दासी प्रथा अपनी सदियोंकी गुलामीसे उन्मुक्त हो चुका है तब उसमें कसे पनपती रही, यह कुछ समयझमें नहीं पाता। राजस्थानदासी प्रथा जैसी जघन्य प्रथाका अस्तित्व उसके लिये अभि- के रजवाड़ों में राजा, महाराना, सामन्त और राज्य मन्त्री शाप रूप है। श्रादिके लड़के लड़कियोंकी शादीमें दहेजकी अन्य वस्तुओंके यद्यपि प्राचीन भारतमें दासी-दास-प्रथाका आम रिवाज साथ सीमित दासियोंके देनेका रिवाज है जिनकी संख्या था। जब किसी लड़के या लड़कीकी शादी होती थी तब कभी कभी सैकड़ों तक पहुँच जाती है जिन्हें श्राजन्म लड़की दहेजके रूपमें हाथी घोड़ा, रथ आदि अन्य वस्तुओंके साथ की ससुरालरों रहना पड़ता है / और एक गुलामकी तरह कुछ दासी-दास भी दिये जाते थे। इनके सिवाय, क्रीतदास, मालिक मालकिनकी सेवा करते हुए उनकी झिड़कियाँ गाली प्रहदास (दासीपुत्र) पैत्रिकदास दण्डदास, भुक्लदास आदि गलौज तथा मारपीटकी भीषण वेदना उठाना पड़ती है और सात प्रकारके दास होते थे। चाणिक्वके अर्थशास्त्रमें इस अमानवीय अत्याचारोंको चुपचाप सहना पड़ता है। इस प्रथाका समुल्लेख पाया जाता है। जैन-ग्रन्थ गत परिग्रह परि- तरह उन अबलाओंका तमाम जीवन 'रावलें (रनिबास) की माणव्रतमें दासी दास रखनेके परिमाण करनेका उल्लेख चहार दीवारीमें सिसकता हुश्रा व्यतीत होता है / जिसमें किया जाता है। गुलाम रखनेकी यह प्रथा जैन-समाजमें से उनकी भावनाएँ और इच्छाएँ उत्पन्न होती और निराशाकी तो सर्वथा चली गई है, भारतमें भी प्रायः नहीं जान पड़ती, अमंत गोदमें विलीन हो जाती हैं। मालिक मालकिनकी सेवा किन्तु राजस्थानमें दासी प्रथाका बने रहना शोभा नहीं देता। उनका जीवन है / उनके अमानवीय अत्याचार एवं अनाचारोंसे वहां मानवता विहीन अबला नारीका सिसकना एक अभि-पीड़ित राजस्थानकी लाखों अवलाएँ अपना जीवन राजशाप है। श्राजके 'हिन्दुस्तान' नामक दैनिक पत्र में इस प्रथा स्थानके रनिवासोंमें पशुओंसे भी बदतर स्थितिमें रहकर आंसू का अवलोकन कर हृदयमें एक टीस उत्पन्न हुई कि भारत बहाती हुई व्यतीत करती हैं। हमें खेद हैं कि स्वतन्त्र जैसे स्वतन्त्र देशमें ऐसी निंद्य प्रथाका होना वास्तवमें भारतकी सरकारका ध्यान इस प्रथाके बन्द करनेकी ओर उसके लिये भारी कलंक है। नहीं गया। आशा है भारत सरकार शीघ्रही राजस्थानके इस राजस्थानमें यह प्रथा सामन्तशाहीके समयसे प्रचलित कलंकको धोनेका यत्न करेगी। -परमानन्द जैन साहित्य-परिचय और समालोचन इप्टोपदेश (टीकात्रय और पद्यानुवादसे युक्त) ग्रंथ-कर्ता तरह दिया गया है। यह संस्करण अंग्रेजी जानने वालोंके देवनन्दी, प्रकाशक रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई। पत्र लिये विशेष उपयोगी है। संख्या 88 मूल्य 1 // ) रुपया। प्राची-एक साप्ताहिक पत्र है जिसके दो अङ्क मेरे सामने प्रस्तुत ग्रन्थ आचार्य देवनन्दी (पूज्यपाद) की सुन्दर हैं। पत्रका वार्षिक मूल्य 10) रुपा है और एक प्रतिका मूल्य आध्यात्मिक कृति है। इसमें पं० आशाधरजी की संस्कृति चार पाना / यह हिन्दीका अच्छा पत्र है जिसमें सुन्दर लेखटीका भी साथमें दी हुई है, और पं० धन्यकुमारजी का हिंदी सामग्रीका चयन रहता है / पत्रका प्रकाशन 'प्राची अनुवाद दिया हुआ है। वैरिस्टर चम्पतरायजीकी अंग्रेजी प्रकाशन' 11 स्क्वायर कलकत्ता' से होता है / यदि सहयोगी टीका, ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीका दोहानुवाद, रावजी भाई इसी प्रकारकी उपयोगी पाठ्य सामग्री देता रहे तो पत्रका देशाईका गुजराती पद्यानुवाद और बाबू जयभगवानजी एडवो- भविष्य उज्ज्वल और क्षेत्र विस्तृत हो जायगा, आशा है केटका अंग्रेजी पद्यानुवाद दिया हुआ है / जिससे पुस्तक और प्राचीके संपादक महानुभाव अत्युपयोगी लेख सामग्रीसे भी उपयोगी हो गई है। इष्टोपदेशको संस्कृतटीकाको बिना किसी पत्रको बराबर विभूषित करते रहेंगे। संशोधनके छापा गया। उद्धत पद्योंको रनिंग रूपमें पहलेकी -परमानन्द जैन Jindantenthunational Faith uncily