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अनेकान्त
तदनन्तर भ• ऋषभदेवने प्रजाको असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्पवृत्तिकी शिक्षा देकर अपनी जीविका चलानेका मार्ग दिखाया और ग्राम नगरादिके रचनेका उपाय बताकर व्याघ्रादि हिंस्र प्राणियों से आत्म-रक्षा करने और सर्दी-गर्मीको बाधा दूर करने का मार्ग दिखाया ।
भ० ऋषम देवने ही सर्वप्रथम घड़ा बनानेकी विधि बतलाई और कूप, बावड़ी आदि बनाने और उनसे पानी निकालकर पीनेका मार्ग बतलाया । इन सब कारणों से भगवान् 'प्रजापति' कहलाये ।
विक्रमकी दूसरी शताब्दी के महान् विद्वान स्वामी समन्तभद्रने अपने प्रसिद्ध स्वयम्भूस्तोत्रमें इन दोनों बातोंको इस प्रकार चित्रित कर उनकी प्रामाणिकता प्रकट की है
'प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषूः
शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ||२|| 'मुमुचुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान्
प्रभुःप्रवब्राज सहिष्णुरच्युतः ||३|| संक्षेपमें इतना ही कहना पर्याप्त है कि इस कर्म भूमि-युग के प्रारम्भमें प्रजाकी सुव्यवस्था करनेके कारण भ० ऋषभदेव ब्रह्मा, विधाता, सृष्टा आदि अनेक नामसे प्रसिद्ध हुए । ब्राह्मी लिपि -
भ० ऋषभदेवने सर्व प्रथम अपने भरत आदि पुत्रोंको पुरुषोंकी ७२ कलाओं में पारंगत किया । ज्येष्ठ पुत्र भरत नाट्य-संगीत कलामें सबसे अधिक निपुण थे। आज भी नाट्यशास्त्र के आद्य प्रणेता भरत माने जाते हैं । भगवान्ने अपनी बड़ी पुत्रीको लिपिविद्याअक्षर लिखनेकी कला और छोटी सुन्दरी पुत्रीको श्रअंक-विद्या सिखाई । ब्राह्मीके द्वारा प्रचलित लिपिका नाम ही 'ब्राह्मी लिपि' प्रसिद्ध हुआ । भारतकी लिपियोंमें यह सबसे प्राचीन मानी जाती है और प्रणेताके रूपमें भगवान् ऋषभदेवकी अमर स्मारक है । श्रचयतृतीया -
एक लम्बे समय तक प्रजाका पालन कर ऋषभदेव संसार से विरक्त होकर दीक्षित हो गये और दीक्षा लेने के साथ ही छह मासका उपवास स्वीकार किया ।
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[ वर्ष १३
तदनन्तर वे आहारके लिए निकले । परन्तु उस समयके लोग मुनियोंको आहार देनेकी विधि नहीं जानते थे, अतः कोई उनके सामने रत्नोंका थाल भरकर पहुचता, तो कोई अपनी सुन्दरी कन्या लेकर उपस्थित होता । विधिपूर्वक आहार न मिलने के कारण ऋषभदेव पूरे छह मास तक इधर-उधर परिभ्रमण करते रहे और अन्त में हस्तिनापुर पहुंचे। उस समय वहांके राजा सोमप्रभ थे । उनके छोटे भाई श्रेयांस थे । उनका कई पूर्व भवों में भगवान् से सम्बन्ध रहा है और उन्होंने पूर्व भवमें भगवान् के साथ किसी मुनिको आहार दान भी दिया था । भगवान् के दर्शन करते ही श्रेयांसको पूर्वभवकी सब बातें स्मरण हो आई और उन्होंने बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे भगवान्को . पडिगाह करके इक्षुरसका आहार दिया | वह दिन वैशाख शुक्ल तृतीयाका था। भगवान्को पूरे एक वर्षके पश्चात् आहार मिलनेके हर्षमें देवोंने पंचाश्चर्य किये; श्रेयांसका जयघोष किया और 'तुम दान तीर्थ के आद्य प्रवर्तक हो ।' यह कहकर उनका अभिनन्दन किया। इस प्रकार भगवान्को आहार दान देने के योग से यह तिथि अक्षय बन गई और तभी से यह 'अक्षयतृतीया' के नामसे प्रसिद्ध होकर मांगलिक पर्वके रूप में प्रचलित हुई ।
अक्षयवट -
भ० ऋषभदेव पूरे १००० वर्ष तक तपस्या करने के नामसे प्रसिद्ध है । वहां पर नगर के समीपवर्त्ती शकट अनन्तर पुरिमतालपुर पहुंचे जो कि आज प्रयागके अवस्थित हो गये और फाल्गुन कृष्ण एकादशी के नामक उद्यानके वटवृक्षके नीचे वे ध्यान लगा कर दिन उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, वे अक्षय अ ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यके धारक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन गये । भगवानको जिस वट वृक्षके नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, वह उसी दिनसे 'अक्षय वट' के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ ।
राधशुक्ल तृतीयायां दानमासीत्तदक्षयम् । पर्वाक्षयतृतीयेति ततोऽद्यापि प्रवर्तते ॥३०१ ॥ (त्रि० ल० श० पर्व १ सर्ग ३)
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