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________________ ५० ] अनेकान्त बातें ऋषभदेव और शिवजीकी एकताकी द्योतक नहीं हैं ? निश्चयतः उक्त समता अकारण नहीं है और उसकी तहमें एक महान तथ्य भरा हुआ है। · शिवजीको जटाजूट युक्त माना जाता है भगवान ऋषभदेवकी आज जितनी भी प्राचीन मूर्तियां मिली हैं. उन सबमें भी की हुई केश जटाए स्पष्ट दृष्टि गोचर होती हैं । श्र० जिनसेनने अपने दिपुराण में लिखा है कि भ० ऋषभदेवके दीक्षा लेनेके अनन्तर और पारणा करने के पूर्व एक वर्षके घोर तपस्वी जीवनमें उनके केश बहुत बढ़ गये थे और वे कन्धोंसे भी नीचे लटकने लगे थे, उनके इस तपस्वी जीवन स्मरणार्थ ही उक्त प्रकार की मूर्तियोंका निर्माण किया गया इस प्रकार शिवजी और ऋषभदेवकी जटाजूट युक्त मूर्त्तियां उन दोनों की एकता की ही परिचायक हैं। [ वर्ष १३ त्रिलोकसार के रचयिता श्र० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी गंगावतरणके इस दृश्यको इस प्रकार चित्रित किया है:सिरिगिहसीम द्वियं बुज करिणयसिंहास णं जडामउलं । जिणममिसित्तुमणा वा प्रदिरणा मत्थर गंगा । ५६० अर्थात् - श्रीदेवीके गृहके शीर्ष पर स्थित कमलकी करिकाके ऊपर एक सिंहासन पर विराजमान जो जटामुकुटवाली जिनमूर्ति है, उसे अभिषेक करनेके लिये ही मानों गंगा हिमवान् पर्वतसे अवतीर्ण हुई है। शिवजी के मस्तक पर गंगाके अवतीर्ण होनेका रहस्य उक्त वर्णनसे स्पष्ट हो जाता है और किसी भी निष्पक्ष पाठकका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है । गंगावतरण हिन्दुओं की यह मान्यता है कि गंगा जब आकाशसे अवतीर्ण हुई, तो शिवजीकी जटाओं में बहुत समय तक भ्रमण करती रही और पीछे वह भूमण्डल पर अवतरित हुई । पर वास्तवमें बात यह है कि गंगा हिमवान् पर्वतसे नीचे जिस गंगाकूट में गिरती है, वहां पर एक विस्तीर्ण चबूतरे पर आदि जिनेन्द्रकी जटा - मुकुट वाली वज्रमयी अनेक प्रतिमाएँ हैं, जिन पर हिमवान् पर्वतके ऊपरसे गंगाकी धार पड़ती है । इसका बहुत सुन्दर वर्णन त्रिलोक-प्रज्ञप्तिकार ने किया है, जो विक्रमकी चौथी शताब्दीके महान आचार्य थे और जिन्होंने अनेक सैद्धान्तिक ग्रन्थोंकी रचना की है। वे उक्त गंगावतरणका वर्णन अपनी त्रिलोकज्ञप्ति के चौथे अधिकार में इस प्रकार करते हैं:श्रदिजिण्णप्पडिमाओ ताओ जडमउड से हरिल्लाओ पडिमोव रिम्मगंगा अभिसित्तुमणा व सा पडदि । २३० अर्थात्—उस कुण्डके श्रीकूट पर जटा मुकुटसे सुशोभित आदिजिनेन्द्रकी प्रतिमाएं हैं। उन प्रति मान अभिषेक करनेके लिये ही गंगा उन प्रतिमाओं के जटाजूट पर अवतीर्ण होती है । (अभि षेक जलसे युक्त होनेके कारण ही शायद वह बादको सर्वांग में पवित्र मानी जाने लगी ।) Jain Education International शिवजीके उक्त रूपकका अर्थ इस प्रकार भी लिखा जा सकता है कि इस युगके प्रारम्भ में दिव्यवाणीरूपी गंगा भ० ऋषभदेवसे ही सर्वप्रथम प्रकट हुई, जिसने भूमंडल पर बसनेवाले जीवोंके हृदयोंसे पाप-मलको दूर कर उन्हें पवित्र बनाने का बड़ा काम किया । तक्षशिला और गोम्मट्ट ेश्वर की मूर्ति - भारतवर्ष के आदि सम्राट् भरतके जीवन में एक ऐसी घटना घटी, जो युग-युगों के लिये अमर कहानी बन गई। जब वे दिग्विजय करके अयोध्या वापिस लौटे और नगर में प्रवेश करने लगे, तब उनका सुदर्शनचक्र नगरके द्वार पर अटक कर रह गया। राजपुरोहितोंने इसका कारण बतलाया कि अभी भी ऐसा राजा अवशिष्ट है, जो कि तुम्हारी आज्ञाको नहीं मानता है । बहुत छान-बीन के पश्चात् ज्ञात हुआ कि तुम्हारे भाई ही आज्ञा - वीं भाइयोंके पास सन्देश भेजा गया। वे लोग भरतकी शरणमें न आकर और राज पाट छोड़कर भ० ऋषभदेवकी शरण में चले गये, पर बाहुबलोने—जो कि भरतकी विमाता के ज्येष्ठ पुत्र थे- स्पष्ट शब्दों में भरतकी आज्ञा माननेसे इन्कार कर दिया और दूत के मुखसे कहला दिया कि जाओ और भरतसे कह दो'जिस बापके तुम बेटे हो, उसीका मैं भी हूँ। मैं पिताके दिये राज्य को भोगता हूँ, मुझे तुम्हारा आधिपत्य स्वीकार नहीं है ।' भरतने यह सन्देश सुनकर बाहुबलीको युद्धका आमन्त्रण भेज दिया। दोनों ओरसे । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527330
Book TitleAnekant 1954 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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