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________________ 3 १२] अनेकान्त [वर्ष १३ वह 'प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः' के वचनानुसार हिंसक अलग न किया जाय तो कोई भी जीव अहिंसक नहीं हो अवश्य है-उसे हिंसाका पाप जरूर लगता है। यथा- सकता और इस तरहसे तो शुद्ध वीतराग-परिणति वाले मरदु व जीयदु जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। साधु महात्मा भी हिंसक कहे जायेंगे, क्योंकि पूर्ण अहिंसाके पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स ॥ पालक योगियोंके शरीरसे भी सूचम वायुकायिक आदि -प्रवचनसारे कुन्दकुन्दः ३, १७ जीवोंका वध होता ही है, जैसा कि आगमकी निम्न प्राचीन अर्थात्-जीव चाहे मरे, अथवा जीवत रहे, असाव- गायासे स्पष्ट है :धानीसे काम करने वालेको हिंसाका पाप अवश्य लगता है, जदि सद्धस्स य बंधो होदि बाहिरवत्थुजोगेण ।' किन्तु जो मनुष्य यत्नाचारपूर्वक सावधानीसे अपनी प्रवृत्ति पत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवधहेदु ॥ करता है उससे प्राणि-वध हो जाने पर भी हिंसाका पाप -विजयोदयायां-अपराजित:-६, ८०६ नहीं लगता-वह हिंसक नहीं कहला सकता, क्योंकि हिंसा और अहिंसाके इस सूचम विवेचनसे जैनी अहिंसाके भावहिंसाके बिना कोरी द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं कहला सकती। महत्वपूर्व रहस्यसे अपरिचित बहुतसे व्यक्तियोंके हृदयमें यह सकषायी जीव तो पहले अपना ही घात करता है, कल्पना हो जाती है कि जैनी अहिंसाका यह सूचमरूप उसके दूसरोंकी रक्षा करनेकी भावना ही नहीं होती। वह अव्यवहार्य है-उसे जीवनमें उतारना नितान्त कठिन ही तो दूसरोंका घात होनेसे पहले अपनी कलुषित चितवृत्तिके नहीं किन्तु असम्भव है। अतएव इसका कथन करना व्यर्थ द्वारा अपना ही घात करता है, दूसरे जीवोंका घात होना न ही है । यह उनकी समझ ठीक नहीं है क्योंकि जैनशासनमें होना उनके भक्तिव्यके आधीन है। हिंसा और अहिंसाका जो विवेचन किया गया है वह अद्वितीय हिंसा दो प्रकारकी होती है एक अन्तरंग हिंसा और है. उसमें अल्पयोग्यतावाले पुरुष भी बड़ी आसानीके साथ दसरी बाहिरंग हिंसा। जब श्रात्मामें ज्ञानादि रूप भाव उसका अपनी शक्तिके अनुसार पालन कर सकते हैं और प्राणोंका घात करने वाली अशुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति होती है अपनेको अहिंसक बना सकते हैं । साथ ही, जैनधर्म में तब वह अंतरंग हिंसा कहलाती है और जब जीवके बाह्य अहिंसाका जितना सूचमरूप है वह उतना ही अधिक व्यवद्रव्यप्राणोंका घात होता है तब बहिरंग हिंसा कहलाती है। हार्य भी है। इस तरहका हिंसा और अहिंसाका स्पष्ट इन्हींको दूसरे शब्दोंमें द्रव्यहिंसा और भावहिंसाके नामसे भी विवेचन दूसरे धर्मों में नहीं पाया जाता, इसलिये उसका कहते हैं। यदि तत्त्वदृष्टिसे विचार किया जाय तो सचमुचमें जैनधर्मको अहिंसाके आगे बहुत ही कम महत्व जान पड़ता है। हिंसा करता और स्वार्थकी पोषक है। मनुष्यका निजी . जैनशासनमें किसीके द्वारा किसी प्राणीके मर जाने या स्वार्थ ही हिंसाका कारण है। जब मनुष्य अपने धर्मसे च्युत दुःखी किये जानेसे ही हिंसा नहीं होती। संसारमें सब जगह हो जाता है तभी वह स्वार्थवश दूसरे प्राणियोंको सतानेकी जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी रहते हैं, चेष्टा किया करता है। प्रात्मविकृतिका नाम हिंसा है और परन्तु फिर भी, जैनधर्म इस प्राणिघातको हिंसा नहीं कहता; उसका फल दुःख एवं अशान्ति है और अात्मस्वभावका क्योंकि जैनधर्म तो भावप्रधानधर्म है इसीलिये जो दूसरोंकी हिंसा नाम अहिंसा है तथा सुख और शान्ति उसका फल है करनेके भाव नहीं रखता प्रत्युत उनके बचानेके भाव रखता है अर्थात् जब आत्मामें किसी तरहको विकृति नहीं होती चित्त उससे दैववशात् सावधानी करते हुए भी यदि किसी जीवके प्रशान्त एवं प्रसादादि गुणयुक्त रहता है उसमें क्षोभकी मात्रा द्रव्य प्राणोंका वध हो जाता है तो उसे हिंसाका पाप नहीं नज़र नहीं आती, उसी समय प्रात्मा अहिंसक कहा जाता है। लगता। यदि हिंसा और अहिंसाको भावप्रधान न माना द्रव्यहिंसाके होने पर भावहिंसा अनिवार्य नहीं है उसे तो जाय तो फिर बंध और मोक्षकी व्यवस्था ही नहीं बन भाव हिंसाके सम्बन्धले ही हिंसा कहते हैं, वास्तव में द्रव्यहिंसा सकती। जैसे कि कहा भी हैतो भावहिंसासे जुदी ही है। यदि द्रव्यहिंसाको भावहिंसासे विष्वग्जीवचिते लोके क्व चरन कोप्यमोक्ष्यत । कस्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । भावैकसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ।। पूर्व प्रण्यंतराणान्तु पश्चात्स्द्वान वा वधः ॥ . -सागरधर्मामृतः ४, २३ -तत्वार्थवृत्तौमें उद्धृत, पृ० २३१ अर्थात्-जब कि लोक जीवोंसे खचाखच भरा हुश्रा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527330
Book TitleAnekant 1954 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1954
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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