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किरण ३]
अहिंसातत्त्व
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है तब यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही निर्भन न होते में सम्यग्दृष्टिको सप्तभय-रहित बतलाया गया है। साथ तो कौन पुरुष मोक्ष प्राप्त कर सकता ? अतः जब जैनी ही, प्राचार्य अमृतचन्द्रने तो उसके विषयमें यहाँ तक लिखा अहिंसा भावोंके ऊपर ही निर्भर है तब कोई भी बुद्धिमान है कि यदि त्रैलोक्यको चलायमान कर देनेवाला वज्रपात जैनी अहिंसाको अव्यवहार्य नहीं कह सकता।
श्रादिका घोर भय भी उपस्थित होजाय तो भी सम्यग्दृष्टि अहिंसा और कायरतामें भेद
पुरुष निःशंक एवं निर्भय रहता है-वह डरता नहीं है। अब मैं पाठकोंका ध्यान इस विषयकी ओर आकर्षित और न अपने ज्ञानस्वभावसे च्युत होता है, यह सम्यग्दृष्टिकरना चाहता हूँ कि जिन्होंने अहिंसा तत्त्वको नहीं समझकर
का ही साहस है। इससे स्पष्ट है आत्म निर्भयी-धीर-धीर जैनी अहिंसापर कायरताका लांछन लगाया है उनका कहना पुरुष ही सच्च अ
पुरुष ही सच्चे अहिंसक हो सकते हैं, कायर नहीं। वे तो नितान्त भ्रममूलक है।
ऐसे घोर भयादिके आने पर भयसे पहले ही अपने प्राणोंका ___अहिंसा और कायरतामें बड़ा अन्तर है । अहिंसाका
परित्याग कर देते हैं। फिर भला ऐसे दुर्बल मनुष्यसे अहिंसा सबसे पहला गुण आत्मनिर्भयता है। अहिंसा कायरताको
जैसे गम्भीर तत्त्वका पालन कैसे हो सकता है ? अतः जैनी स्थान नहीं। कायरता पाप है, भय और संकोचका परिणाम
अहिंसापर कायरताका इल्ज़ाम लगाकर उसे अव्यवहार्य है । केवल शस्त्र संचालनका ही नाम वीरता नहीं है किन्तु
कहना निरी अज्ञानता है। वीरता तो श्रात्माका गुण है। दुर्बल शरीरसे भी शस्त्रसंचा
जैन शासनमें न्यूनाधिक योग्तावाले मनुष्य अहिंसाका लन हो सकता है। हिंसक वृतिसे या मांसभक्षणसे तो करता अच्छी तरहसे पालन कर सकते हैं, इसीलिये जैनधर्ममें आती है, वीरता नहीं। परन्तु अहिंसासे प्रेम, नम्रता, शान्ति,
अहिंसाके देशअहिंसा और सर्वअहिंसा अथवा अहिंसा-अणुव्रत सहिष्णुता और शौर्यादि गुण प्रकट होते हैं।
और अहिंसा-महावत आदि भेद किये गये हैं। नो मनुष्य ___दुर्बल आत्माओंसे अहिंसाका पालन नहीं हो सकता
पूर्ण अहिंसाके पालन करनेमें असमर्थ हैं, वह देश अहिंसाका उनमें सहिष्णुता नहीं होती । अहिंसाकी परीक्षा अत्याचारीके
पालन करता है, इसीसे उसे गृहस्थ, अणुव्रती, देशव्रती या अत्याचारोंका प्रतीकार करनेकी सामथ्यं रखते हुए भी उन्हें
देशयतीके नामसे पुकारते हैं। क्योंकि अभी उसका सांसारिक हँसते-हँसते सह लेनेमें है। किन्तु प्रतीकारकी सामर्थ्यके अभाव
देहभोगोंसे ममत्व नहीं छूटा है-उसकी प्रात्मशक्तिका पूर्ण में अत्याचारीके अत्याचारोंको चुपचाप अथवा कुछ भी विरोध
विकास नहीं हुआ है-वह तो अस, मषि, कृषि, शिल्प, किये बिना सहलेना कायरता है-पाप है-हिंसा है। कायर
वाणिज्य, विद्यारूप षट् कर्मों में शक्त्यानुसार प्रवृत्ति करता मनुष्यका प्रात्मा पतित होता है, उसका अन्तःकरण भय
हुआ एक देश अहिंसाका पालन करता है। गृहस्थअवस्थामें और संकोचसे अथवा शंकासे दबा रहता है। उसे पागत
चार प्रकारकी हिंसा संभव है। संकल्पी, प्रारम्भी, उद्योगी भयकी चिन्ता सदा व्याकुल बनाये रहती है-मरने जीने
और विरोधी । इनमेंसे गृहस्थ सिर्फ एक संकल्पी हिंसा-मात्रऔर धनादि सम्पत्तिके विनाश होनेकी चिन्तासे वह सदा
का त्यागी होता है और वह भी घस जीवोंकी। जैन पीड़ित एवं सचिन्त रहता है। इसीलिये वह आत्मबल और
प्राचार्योंने हिंसाके इन चार भेदोंको दो भागोंमें समाविष्ट मनोबलकी दुर्बलताके कारण-विपत्ति आने पर अपनी रक्षा
किया है और बताया है कि गृहस्थ-अवस्थामें दो प्रकारकी भी नहीं कर सकता है। परन्तु एक सम्यग्दृष्टि अहिंसक
हिंसा हो सकती है, प्रारम्भजा और अनारम्भजा। प्रारम्भजा पुरुष विपत्तियोंके आनेपर कायर पुरुषकी तरह घबराता नहीं
हिंसा कूटने, पीसने आदि गृहकार्योंके अनुष्ठान और आजीऔर न रोता चिल्लाता ही है किन्तु उनका स्वागत करता है
विकाके उपार्जनादिसे सम्बन्ध रखती है, परन्तु दूसरी हिंसाऔर सहर्ष उनको सहनेके लिये तैय्यार रहता है तथा अपनी
गृही कर्तव्यका यथेष्ट पालन करते हुए मन-वचन-कायसे
होने वाले जीवोंके घातकी ओर संकेत करती है। अर्थात् दो सामर्थ्यके अनुसार उनका धीरतासे मुकाबिला करता हैउसे अपने मरने जीने और धनादि सम्पत्तिके समूल विनाश
- इंद्रियादि सजीवोंको संकल्पपूर्वक जान बूझकर सताना । होनेका कोई डर ही नहीं रहता, उसका आत्मबल और सम्मट्ठिी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण । मनोबल कायर मनुष्यकी भांति कमजोर नहीं होता, क्योंकि सक्तभावप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका ।। उसका आत्मा निर्भय है-सप्तभयोंसे रहित है। जैनसिद्धांत
-समयसारे, कुन्दकुन्द २२८
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