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अनेकान्त
। वर्ष १३
सर्वथा अवाच्य ( अनिर्वचनीय या अवक्तव्य) है-तो स्वरूपकी तरह यदि पररूपसे भी किसीको सत् माना वस्तुतत्त्व 'अवाच्य' है ऐसा कहना भी नहीं बनता- जाय तो चेतनादिके अचेतनत्वादिका प्रसंग पाता है। और इस कहनेसे ही वह 'वाच्य' हो जाता है, अवाच्य' नहीं पररूपकी तरह यदि स्वरूपसे भी असत् माना जाय, तो रहता; क्योंकि सर्वथा अवाग्यकी मान्यतामें कोई वचन- सर्वथा शून्यताकी आपत्ति खड़ी होती है। अथवा जिस व्यवहार घटित ही नहीं हो सकता।'
रूपसे सत्व है उसी रूपसे असत्वको और जिस रूपसे ___ कथचित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । असत्त्व है उमी रूपसे सत्वको माना जाय, तो कुछ भी
तथोभयमवाच्यं च नय-योगान्न सर्वथा ॥ १४॥ घटित नहीं होता। अतः अन्यथा मानने में तत्व या वस्तुकी
'(स्याहाद-न्यायके नायक हे वीर भगवन् !) आपके कोई व्यवस्था बनती ही नहीं, यह भारी दोष उपस्थित शासनमें वह वस्तुतत्त्व कथञ्चित् (किसी प्रकारसे होता है।' सत्-रूप ही है, कथश्चित् असत्-रूप हो है, कथञ्चित् क्रमार्पित-द्वयाद् द्वैतं सहाऽवाच्यमशक्तितः। उभयरूप ही है, कथश्चित् अवक्तव्यरूप ही हे अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ॥ १६ ॥ (चकारसे) कथञ्चित् सत् और अवक्तव्यरूप ही है; वस्तुतत्त्व कश्चित् क्रम-विवक्षित स्व-पर-चतुष्टयकथश्चित् असत् और अवक्तव्य रूप ही है, क्थश्चित् की अपेक्षा द्वैत (उभय रूप-सदमद्रूप अथवा सदसत् और अवक्तव्यरूप ही है; और यह सब
अस्तित्व-नास्तित्वरूप- और कथश्चित् युगपत् नयोंके योगसे है-वक्ताके अभिप्राय-विशेषको लिए हुए विवक्षित स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा कथनमें वचनकी जो सप्तभंगात्मक नय-विकल्प हैं उनकी विवक्षा अथवा अशक्ति-असमर्थताके कारण अवक्तव्यरूप है। (इन इष्टिसे है-सर्वथा रूपसे नहीं-नयष्टिको छोड़ कर
चारोंके अतिरिक्त) सत, असत और उभय के उत्तर में सर्वथारूपमें अथवा सर्वप्रकारसे एकरूपमें कोई भी
अवक्तव्यको लिए हए जो शेष तीन भंग-सदवक्तव्य, वस्तुतत्व व्यवस्थित नहीं होता।
असदवक्तव्य और उभयावक्तव्य-हैं वे (भी) अपने सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् । अपने हेतुसे कथञ्चित् रूपमें सुघटित हैं- अर्थात् असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते । १५॥ वस्तुतस्व यद्यपि स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा कञ्चत्
"(हे वीर जिन !) ऐसा कौन है जो सबको- अम्तिरूप है तथापि युगपत् स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा चेतन-अचेतनको, द्रव्य-पर्यायादिको, भ्रान्त-अभ्रान्तको कहा न जा सकनेके कारण प्रवक्तव्यरूप भी है और अथवा स्वयंके लिए इष्ट अनिष्टको-स्वरूपादिचतुष्टयकी इसलिए स्यादरस्यवक्तम्यरूप है इसी तरह स्यानास्यदृष्टिसे-स्वद्गव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी वक्तव्य और स्यादस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य इन दो भंगोंको अपेक्षसे-सत् रूप ही, और पररूपादिचतुष्टयकी भी जानना चाहिए।' दृष्टिसे-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी। अपेक्षासे-असत् रूप ही अंगीकार न करे ? -कोई
अस्तित्वं प्रतिषेध्ये नाऽविनाभाव्येक-धर्मिणि । भी लौकिकजन, परीक्षक, स्याद्वादी. सर्वथा एकान्तवादी विशेषणत्वात्साधये यथा भेद-विवक्षाया ।। १७ ।। अथवा रूचेतन प्राणी ऐसा नहीं है, जो प्रतीतिका लोप एक धर्मी में अस्तित्वधर्म नास्तित्वधर्मके साथ करने में समर्थ न होनेके कारण इस बातको न मानता हो। अविनाभावी है-नास्तिस्वधर्मके विना अस्तित्व नहीं यदि (स्वयं प्रतीत करता हुश्रा भी कुनयके वश-विपरीन- बनता-क्योंकि वह विशेषण है-जो विशेषण होता है बलि अथवा दराग्रहको प्राप्त हा) कोई ऐसा नहीं वह अपने प्रतिषेध्य ( प्रतिपक्ष धर्म ) के साथ अविनाभाव मानता है तो वह (अपने किसी भी इष्ट तत्त्वमें) होता है-जैसे कि (हेतु-प्रयोगमें) साधर्म (अन्वयव्यवतिष्ठित अथवा व्यवस्थित नहीं होता है--उसकी हेतु ) भेद-विवक्षा (वैधर्म्य अथवा व्यतिरेक-हेतु के कोई भी तत्वव्यवस्था नहीं बनती। क्योंकि स्वरूपके साथ अविनाभाव सम्बन्धको लिए रहता है । व्यतिरेक ग्रहण और पररूपके त्यागकी व्यवस्थासे ही वस्तुमें (वैधय॑ ) के बिना अन्वय (साधर्म्य) और अन्वयके वस्तुस्वकी व्यवस्था सुटित होती है, अन्यथा नहीं। बिना व्यतिरेक धरित नहीं होता ।'
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