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किरण ३]
दिल्ली और योगिनीपुर नामोंकी प्राचीनता तांश्च प्रधानवेषान् प्रधानपरिवारान प्रधानवाहना- का पीठ-स्थान था । योगिनियोंने आचार्य श्रीके रहते धिरूढान् ढिल्ली-नगराद्वहिर्गच्छन्तो दृष्ट्वा स्वप्रसादो- अपना पूजा सत्कार नहीं होगा समझ उन्हें छलने के परि वर्तमानः श्री मदनपालराजा विस्मितः सन् , स्वकीय लिये वे श्राविकाके रूपमें व्याख्यानमें आयी। सूरिजीराजप्रधानलोकं पप्रच्छ-'
ने उन्हें सूर्यमन्त्रके अधिष्ठायक द्वारा कीलके स्तम्भित ___ श्रीपूज्यैरुक्तम्-'महाराज ! युष्मदीयं नगरं प्रधानं कर दी । वे उठ न सकी तब सूरिजीसे प्रार्थना कर धर्मक्षेत्रं । तहि उत्तिष्ठत चलत ढिल्ली-प्रति, मुक्त हुई और कहा हमें एक वचन दीजिये कि जहां न कोऽपि युष्मानंगुलिकयापि सज्ञास्यतीत्यादि । श्री- जहां हमारा पोठ स्थान है, आप नहीं जायं । हमारा मदनपालमहाराजोपरोधाद् 'युष्माभिर्योगिनीपुरमध्ये पहला पीठ उज्जयनीमें, दूसरा दिल्ली, तीसरा अजमेर कदापि न विहर्तव्यमित्यादि श्रीजिनदत्तसूरिदत्तो- दुर्ग और आधा भरू अच्छमें है । वहाँ आपके शिष्य पदेशत्यागे न हृदये दयमाना अपि श्री पूज्याः श्री दिल्ली या पट्टधर न जायं । जाने पर मरण-बन्धनादि कष्ट होंगे प्रति प्रस्थिताः।
इसीलिये जिनदत्त सूरिजीने वहां जानेका निषेध
किया था पर भावी भाववश राजा व संघके अनुरोध___यह गुर्वावलो जिनचन्द्रसुरिजीके प्रशिध्यकी ही
से वहां जाना हुआ । प्रबन्धावलिमें लिखा हैनिर्मित है, इसलिये इसकी प्रामाणिकतामें सन्देहकी 'जोगिनीहिं छलिओ मओ' अज्जवि पुरातन ढिल्ली गुजाइस नहीं है। उपर्युक्त उद्धरणोंसे सम्वत् १२२३ में
मज्मे तस्स थुभो अच्छई। संघो तस्स जत्ता कम्म दिल्लीके राजा मदनपाल थे सिद्ध है। उस समयके
कुणइ' अर्थात् जिनचन्द्रसूरिजीका स्वर्गवास योगनियोंप्रधान श्रावकोंके नामोंके उद्धरणोंसे, वहाँ पार्श्वनाथ के
पाश्वनाथ के छलके द्वारा हुआ। उनका स्तूप आज भी पुरानी विधि चैत्य भी था, इसकी जानकारी मिलती है । जिन दिल्ली में है, जिसकी संघ यात्रा किया करता है। आचार्यश्रीके दिल्लीमें स्वर्गवासी होनेका, उल्लेख है, प्रबन्धावलि १७वीं शताब्दीके प्रारम्भ या उससे वे मणिधारी जिनचन्द्रसूरिके नामसे प्रख्यात हैं और पहलेकी रचना है। उस समय जिनचन्द्रसूरिके स्तूप उनका स्तूप कुतुबमीनारके पास आज भी विद्यमान व स्थानकी संज्ञा 'पुरातन ढिल्लीः मानी जाती थी। पूज्यमान है। उनका अग्नि संस्कार इतने दूरवर्ती योगिनीपुर नामकरणका कारण हमें उपयुक्त स्थानमें क्यों किया गया, इसके सम्बन्ध में गुर्वावलीमें प्रबन्धावलि द्वारा स्पष्ट रूपमें मिल जाता है कि दिल्ली लिखा है कि ऐसी प्रसिद्धि रही है कि आचार्यश्रीका चौसठ योगिनियोंका पीठ स्थान था और उनकी कथन है कि मेरा अग्नि संस्कार जितनी दूरवर्ती भूमि- प्रसिद्धि के कारण ही दिल्लीका दूसरा नाम योगिनीपुर में किया जायगा, वहाँ तक नगरकी वस्ती बढ़ जाएगी प्रसिद्ध हुआ। - "तदनन्तरं श्रावकैमहाविस्तरेणाऽनेकमण्डपिका इस नामकी प्राचीनता सम्वत् १३०५ व १२२३ मण्डिते विमान आरोग्य यत्र क्वाप्यस्माकं संस्कारं तक तो गुर्वावलीसे सिद्ध ही है और उसमें जिनदत्त करिष्यत यूयं तावती भूमिकां यावनगरवसितिः सूरिके कहे हुए निषेध वाक्यमें भी 'योगिनीपुर' नाम भविष्यतीत्यादि गुरुवाक्यस्मृतेरतीव दूरभूमौ नीताः।" ही दिया है, इसलिये बारहवीं शताब्दी तक इस नाम
की प्राचीनता जा पहुँचती है। . गुर्वावलीमें जिनचन्द्रसूरिजीको जिनदत्त सुरिजीने दिल्लीका जैन इतिहास भी अवश्य प्रकाशित होना योगिनीपुर जाना क्यों मना किया था ? और वहाँ चाहिए । उसके सम्बन्धमें काफी सामग्री इधर-उधर जाने पर एकाएक छोटी उम्रमें ही उनका क्यों स्को- विखरी पड़ी है उन सबका संग्रह होकर सुव्यवस्थित वास हो गया? इसके सम्बन्धमें कुछ भी प्रकाश नहीं इतिहास लिखा जाना आवश्यक है। श्वेताम्बर और डाला पर परवर्ती पट्टावलियों व वृद्धाचार्य प्रवन्धावलीमें दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंका गत एक हजार वर्षसे यहां इस सम्बन्धमें जो प्रवाद था, उसका स्पष्ट उल्लेख अच्छा निवास और प्रभाव रहा है । यहांके प्राचीन किया है। प्रबन्धावलीमें लिखा है कि एक बार जिन- मन्दिरोंका विवरण भी संगृहीत किया जाना चाहिये। दत्तसूरि अजमेर दुर्ग पधारे, वह चौसठ योगनियों- इस सम्बन्धमें मेरी सेवाएं हर समय प्रस्तुत हैं।
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