Book Title: Anekant 1953 10
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त सम्पादक - जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर ' अनेकान्त वर्ष १२ किरण ५ भरतके अहिंसक सन्त महामना पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी की ८०वीं जन्म जयन्ती गया में श्रानन्द सम्पन्न होगई । पूज्य वर्गीजीने ८० वें वर्ष में प्रवेश किया है। हमारी हार्दिक कामना है कि आप शत वर्ष जीवी हो । पूज्य वर्णीजीके महनीय जीवनसे समाजको यथेष्ट लाभ उठाना चाहिये । आपका आध्यात्मिक महत्वपूर्ण प्रवचन पेज १७३ पर पढ़िए । अनेकान्तके ग्राहक बनना और बनाना प्रत्येक साधर्मी माईका कर्तव्य है C अक्टूबर सन् १६५३ १० हा और w Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १ लद्रव्यसंग्रह -- (सम्पादक " १४४५ हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण२ समन्तभद्र-वचनामृत-[ युगवीर [परमानन्द जैन शास्त्री ... ३ राजस्थान के गैन शास्त्र भण्डारोंमें उपलब्ध ६ कुरलका महत्व और जैनकतृत्व |श्रीविद्याभूषण महत्वपूर्ण ग्रन्थ-[ले. कस्तरचन्द . पं. गोविन्दराय जैन शास्त्री जैन कासलीवाल एम० ए० . ... .१५५ ७ साहित्य परिचय और समालोचन [परमानन्दजैन ४ हिन्दी जैन-साहित्यको विशेषता ....८ साधु कौन है ? (एक प्रवचन)-[श्री. १०५ पूज्य [श्रीकुमारी किरणवाला जैन ... १५६ तुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी . ... श्रीबाहुबलि-जिनपूजा छपकर तय्यार !! श्री गोम्टेश्वर बाहुबलिजी की जिस पूजाको उत्तमताके साथ छपानेका विचार गत मासकी किरणमें प्रकट किया गया था वह अब संशोधनादिके साथ उत्तम आर्ट पेपर पर टाइपमें फोटो ब्राउन रङ्गीन स्याहीसे छपकर तयार हो गई है। साथमें श्रीबाहुबलीजीका फोटो भी अपूर्व शोभा दे रहा है। प्रचारकी दृष्टिसे मूल्य लागतसे भी कम रखा गया है। । पूजा तथा प्रचारके लिये आवश्यकता हो वे शीघ्र हो मंगाले। क्योंकि कापियाँ थोड़ी ही छपं १०० कापी एक साथ लेने पर १२, रु. में मिलेगी। दो कापो तक एक आना पोष्टेज लग १० से कम किसीको वो०पी० से नहीं भेजी जाएंगी। मैनेजर-वीर सेवामा १ दरियागंज, दिल्ली अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग (१) अनेकान्तके 'संरत्तक'-तथा सहायक' बनना और बनाना। . (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बनाना । (३) विवाह-शादी आदि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवाना । (४) अपनी ओर से दूसरोंको अनेकान्त भेट-स्वरूर अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या-संस्थाओं, लायः सभा-सोसाइटियों और जैन-अजैन विद्वानोंको । (५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें देनेके लिये २५), १०) आदिकी सहायता भेजना। सहायतामें १० को अनेकान्त अमूल्यमें भेजा जा सकेगा। (६) अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे ग्रन्थ उपहारमें देना तथा दिलाना । (७) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सा प्रकाशनार्थं जुटाना। नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको सहायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारकार 'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेंट मैनेजर 'अनेकान्त' स्वरूप भेजा जायगा । वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, दे For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम पितरव-सपल पोशाक + विश्व तत्त्व-प्रकाशक + वार्षिक मूल्य ५) एक किरण का मूल्य ॥) + 285 ++++ I H HAPA नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः । सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' वर्ष १२ । वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली अक्तूबर है किरण ५ आश्विन वीरनि० संवत २४७६, वि. संवत २०१० १९५३ श्रीनेमिचन्द्राचार्य-विरचित लघु द्रव्यसंग्रह 'द्रव्यसंग्रह' नामका एक प्राकृत ग्रन्थ जेन समाज में प्रसिद्ध और प्रचलित है. जिसके अनेक अनवाढोंके Tथ कितने ही स्करण एवं प्रकाशन हो चुके हैं। वह 'वृहद् द्रव्यसंग्रह' कहलाता है, क्योंकि उसकी संस्कृत टीकामें काकार ब्रह्मदेवने, यह सूचित किया है कि 'इस द्रव्यसंग्रहके पूर्व ग्रन्थकार श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवने एक दूसरा लघु व्यसंग्रह सोमवेष्ठिके निमित्त रचा था, जिसकी गाथा संख्या २६ थी; पश्चात् विशेषतत्त्वके परिज्ञानार्थ इस बृहद ग्य संग्रहकी रचना की गई है, जिसकी गाथा संख्या ५८ है।' वह लघु द्रव्यसंग्रह अभी तक उपलब्ध नहीं हो रहा था और इसलिये श्राम तौर पर यह समझा जाता था कि उस लघु द्रव्यसंग्रहमें कुछ गाथाओंकी वृद्धि करके प्राचार्य होदयने उस ही बड़ा रूप दे दिया है- वह अलगसे प्रचारमें नहीं आया है । परन्तु गत वीर-शासन-जयन्तीके सरपर श्री महावीर जीमें, वहाँ के शास्त्रभण्डारका निरीक्षण करते हुए, वह लघु द्रव्यसंग्रह एक संग्रह ग्रन्थमें मिल ॥ है, जिसे अनेकान्त पाठकोंकी जानकारीके लिये यहाँ प्रकाशित किया जाता है। इसकी गाथा-संख्या उक्त संग्रह ये २५ दी हैं और उन गाथाओंको साफ तौर पर 'सोमच्छलेण रइया' पदोंके द्वारा 'सोम' नामके किसी व्यक्तिके मत्त रची गई सूचित किया है। साश ही रचयिताका नाम भी अन्तिम गाथामें 'नेमिचन्द्रगणी' दिया है। हो सकता है गाथा इस ग्रन्थप्रतिमें छूट गई हो और वह संभवतः १० वी ११र्वी गाथाओंके मध्यकी वह गाथा जान पड़ती है बृहद् द्रव्यसंग्रहमें 'धम्माऽधम्मा कालो' इत्यादिरूपसे २०२० पर दी हुई है और जिसमें लोकाकाश तथा अलोकाका स्वरूप वणित है। क्योंकि धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्योंकी लक्षणपरक तीम गाथाएं नं०८, १,१. और -लक्षण-प्रतिपादिका गाथा नं. ११ का पूर्वार्ध, जो व्यवहारकालसे सम्बन्ध रखता है, इस लघु द्रव्यसंग्रहमें वे ही जो कि बृहद् द्रव्यसंग्रह में नं० १७, १८, १६ तथा २१ (पूर्वार्ध) पर पाई जाती हैं। इनके अतिरिक्त १२ वीं और For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त किरण ५ १५० ] १४ वीं गाथाए भी वे ही हैं जो वृ० द्रव्यसंग्रह में नं० २२, २७ पर पाई जाती हैं। शेष सब गाथाएँ बृहद् द्रव्य संग्रहसे भिन्न हैं और इससे यह फलित होता है कि लघु द्रव्यसंग्रहमं कुछ गाथाओंकी वृद्धि करके उसे ही बृहद् रूप नहीं दिया गया है बल्कि दोनों को स्वतन्त्र रूपसे ही रचा गया है और इसीसे दोनोंके मंगल पद्य तथा उपसंहारात्मक पद्मभ भिन्न भिन्न हैं . यहां एक बात नोट किये जानेके योग्य है और वह यह कि लघु द्रव्यसंग्रहके मूल में ग्रंथका नाम 'दव्यसंग्रह ' नहीं दिया, बल्कि 'पयस्थलकत्र कराओ गाहाओ' पदोंके द्वार उसे पदार्थोंका लक्षण करने वाली गाथाओं का एक समूह सूचित किया है; जबकि बृहद् द्रव्यसंग्रह में 'दव्वसंग मिरणं' वाक्यके द्वारा ग्रन्थका नाम स्पष्ट रूप से 'दव्यसंह' दिया है। और इससे ऐसा मालूम होता है कि 'द्रव्यसंग्रह' नामकी कल्पना ग्रन्थकारको अपनी पूर्वरचना के बाद उत्पन्न हुई है और उस द्रव्य संग्रह के बाद ही इस पूर्वरचनाको ग्रन्थकार अथवा दूसरोंके द्वारा 'लघुद्रव्यसंग्रह' कहा गया है. चुनांचे इस ग्रन्थकी अन्तिम पुष्पिकामें भी 'लघुद्रव्यसंग्रह' इस नामका उल्लेख पाया जाता है । सारा ग्रंथ अच्छा सरल और सहजबोधगम्य है। यदि कोई सज्जन चाहेंगे तो इसका सुन्दर अनुवाद प्रस्तुत कराकर वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित कर दिया जायगा । -सम्पादक ] ( मूल ग्रन्थ ) हव्व पंच अत्थी सत्त वि तच्चारिण व पयत्था य । संखादा संखादा मुत्ति पदेसाउ संति णो काले || १३|| भंगुप्पाय-धुवन्ता णिद्दिट्ठा जेण सो जिणो जयउ ॥ १ ॥ जावादियं आयासं अविभागी पुग्गल गुवट्टद्ध। जीवो पुग्गल धम्माsधम्मागासो तहेव कालो य । तं खुपदेस जाणे सव्वाणुट्ठाणदा रहं ॥। ४ ॥ दव्वाणि कालर हिया पदेश - हुल्लदो (s त्थिकाया य । २ जीवो गाणी पुगाल-धम्माऽधम्मायासा तहेव कालो य । जीवाजीवासवबंध संवरो णिज्जरा तहा मोक्खो । अजीवा जिराभरणओ गहु मरणइ जो हु सो मिच्छो ॥ तच्चाणि सत्त एदे सपुराण- पावा पयत्त्थाय ||३|| मिच्छत्तं हिसाई कसाय-जोगा य आसवो बंधो। जीवो होइ श्रमुत्तो सदेहमित्तो सचेयरणा कत्ता । सकसाई जं जीवो परिगिरहइ पोग्गलं विविहं ॥ १६ ॥ भोत्ता सोपु दुवो सिद्धो संसारिओ गाणा ||४|| मिच्छत्ताईचाओ संवर जिग भरणइ गिज्जराद से । अरसमरूत्रमगधं अव्वत्तं चेयरणागुणमसद्दं । कम्मारणख सो पुरा अहिलसिओ अणहिलसिओ य ॥ ना अजिंगरगहणं जीवनणिदिट्ठ- संद्वाणं ||२|| कम्म बंधण-बद्धस्स सब्भूदस्तरपणो । वरण-रस-गंध-फासा विज्जते जस्स विरुद्दिट्ठा । सव्वकम्म-विशिम्मुक्को मोक्खो होइ जिरोडिदो ॥ १८ ॥ मुत्त पुग्गलकाओ पुढवी पहुदी हु सो सोढा ||६|| सादाऽऽउ-रणामगोदाणं पयडीओ सुद्दा हवे । पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसय कम्म परमाणू । पुराणं तिथयरादी असणं पावं तु आगमे ॥ ६॥ छव्विदभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिरिंगदेहिं ॥७॥ गासइ गर - पब्जाओ उत्पज्जइ देवपज्जयो तत्थ । जीवो स एव सव्वस्सभंगुप्पाय धुवा एवं ॥२०॥ उप्पादनद्ध सा वथूणं होंति पज्जय । एण । दव्र्वाट्ठिएण णिच्चा बोधव्वा सव्त्रजिणवत्ता ।। २१ । एवं गियसुत्तो सट्टा जुदा मरणो गिरु भित्ता । छंडउ रायं रोसं जइ इच्छइ कम्मणो णासं । २। विसएस पवट्टतं वित्त धारेतु अप्पणी अप्पा । झायइ अप्पाणेणं जा सो पावेइ खलु सेयं ॥२३॥ सम्मं जीवादीया गच्चा सम्मं सुकित्तिदा जेहिं । मोहगय केसरीणं णमो मो ठग साहूणं ॥ २४ ॥ सोमच्छले रइया पयस्थ - लक्खणकराउ गादाओ । भव्वुवयाणिमित्तं गणणा सिरिमिचंदे |२२|| परि [] या धम्मो पुग्गल जीवाणगमण-सहयारी तोयं जह मच्छा अच्छंता व सो रोई ||८|| ठाणजुयण अहम्मो पुग्गलजीवाण ठाण-सहयारी । छाया जह पहिया गच्छंता व सो धरई ॥ ॥ अवगा सदा रणजोग्गं जीवादीणं वियारण आयासं । 'जेरहं लोगागासं अलो (ल्लो) गाग/समिदि दुविहं रियादो जो सो कालो हवेइ ववहारो । लोगागासपएस एक्केकाणू य परमठ्ठो ॥११॥ लोयायासपदे से एक्क्क जेट्ठिया हु एक्के का । रयणाणं रासीमित्र ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ १ ॥ खातीदा जीवे धम्माऽधम्मे अणंत आयासे । १०॥ इति नेमिचंद्रसूरिकृतं लघुद्रव्यसंग्रहमिदं पूर्णम् । For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-वचनामृत [११] म्वामी समन्तभद्रने अपने समी वीन धमशास्त्रमें सम्यद्गर्शनके विषयभृत परमार्थ, आप्त, आगम और तपस्वी के लक्षणादिका निर्देश करते हुए जिस अमृतकी वर्षा की है उसका कुछ रसास्वादन माज अनेकान्तपाठकोंको उक्त धर्मशास्त्र के अप्रकाशित हिन्दी भाष्यसे कराया जाता है। -सम्पादक ] । परमार्थ प्राप्त-लक्षण) प्राचार्यने अपनी प्राप्तपरीक्षा और उसकी स्वोपज्ञ टीकामें आप्तेनोत्सन्न-दोषेण सर्वज्ञेनाऽऽगमेशिना। किया है, जिसमें ईश्वर-विषयकी भी पूरी जानकारी सामने श्रा जाती है और जिसका हिन्दी अनुवाद वीरसेवाभवितव्यं नियोगेन नाऽन्यथा ह्याप्तता भवेत॥५। मन्दिरसे प्रकाशित हो चुका है। अतः प्राप्तके इन लक्षणा__'जो उत्सन्न दोष है-राग-द्वष मोह और काम-क्रो- स्मक गुणोंका पूरा परिचय उक्त ग्रन्थसे प्राप्त करना धादि दोषोंको नष्ट कर चुका है-, सर्वज्ञ है-समस्त चाहिए। साथ ही, स्वामी समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसा' द्रव्य क्षेत्र-काल-भावका ज्ञाता है- और भागमेशी है- को भी देखना चाहिये, जिस पर अकलंकदेवने 'श्रष्टशती' हेयोपादेयरूप अनेकान्त-तत्वके विवेकपूर्वक प्रात्महितमें ओर विद्यानन्दाचार्यने 'भ्रष्टसहनी' नामकी महत्वपूर्ण प्रवृत्ति करानेवाले अबाधित सिद्धान्त-शास्त्रका स्वामी संस्कृत टीका लिखी है। अथवा मोक्षमार्गका प्रणेता है-वह नियमसे परमार्थ यहाँ पर इतनी बात और भी जान लेने की है कि इन आप्त होता है अन्यथा पारमाथिक आप्तता बनती तीन गुणोंसे भिन्न और जो गुण प्राप्तके हैं वे सब स्वरूपही नहीं-इन तीन गुणोंमेंसे एकके भी न होने पर कोई विषयक हैं-लक्षणात्मक नहीं । लक्षणका समावेश इन्हीं परमार्थ प्राप्त नहीं हो सकता. ऐसा नियम है।' तीन गुणोंमें होता है । इनमेंसे जो एक भी गुणसे हीन है ...व्याख्या-पूर्वकारिकामें जिस परमार्थ प्राप्तके श्रद्धानको वह प्राप्तके रूपमें लक्षित नहीं होता। मुख्यतासे सम्यग्दर्शनमें परिगणित किया है उसके लक्षण (उत्सन्नदोष प्राप्तस्वरूप) का निर्देश करते हुए यहां तीन खास गुणोंका उल्लेख किया चत्पिपासा-जरात-जन्माऽन्तक-भय-स्मया:। गया है, जिनके एकत्र अस्तित्वसे प्राप्तको पहचाना जा 'सकता है और वे हैं । निर्दोषता, २ सर्वज्ञता, ३ भागमे- न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः सप्रकीत्य ते(प्रदोषमुक) शिता । इन तीनों विशिष्ट गुणोंका यहाँ ठीक क्रमसे जिसके तुधा, तृषा, जरा, रोग, जन्म, मरण, निर्देश हा है-निर्दोशताके बिना सर्वज्ञता नहीं बनती भय, मद, राग, द्वेष, मोह तथा ('च' शब्दसे) चिन्ता; और सर्वज्ञताके बिना आगमेशिता असम्भव है । निर्दोषता अरति, निद्रा, विस्मय, विषाद, स्वेद और खेद, ये तभी बनती है जब दोषोंके कारणीभूत ज्ञानावरण, दर्शना. दोष नहीं होते हैं वह (दोषमुक्त) आप्तके रूपमें वरण, मोहनीय और अन्तराय नामके चारों घातिया कर्म प्रकीर्तित होता है। समूल नष्ट हो जाते हैं। ये कर्म बड़े बड़े भूभृतों (पर्वतों)- व्याख्या-यहां दोषरहित प्राप्तका अथवा उसकी की उपमाको लिये हुए हैं, उन्हें भेदन करके ही कोई इस निर्दोषताका स्वरूप बतलाते हुए जिन दोषोंका नामोल्लेख निर्दोषताको प्राप्त होता है। इसीसे तत्त्वार्थसूत्रके मंगला- किया गया है वे उस वर्गके हैं जो अष्टादश दोषांका वर्ग चरणमें इस गुणविशिष्ट प्राप्तको 'भेत्तर कर्मभूभृतां कहलाता है और दिगम्बर मान्यताके अनुरूप है। उन जैसे पदके द्वारा उसलेखित किया है। साथ ही, सर्वज्ञको दोषोंमेंसे यहां ग्यारहके तो स्पष्ट नाम दिये हैं, शेष सात 'विश्वतत्त्वानां ज्ञाता' और आगमेशीको 'मोक्षमार्गस्य दोषों चिन्ता, अरति, निढा, विस्मय, विषाद, स्वेद और नेता' पदोंके द्वारा उल्लेखित किया है। प्राक्षके इन तीनों खेदका 'च' शब्दमें समुच्चय अथवा संग्रह किया गया है। गुणोंका बड़ा ही युक्ति पुरस्सर एवं रोचक वर्णन श्रीविद्यानंद इन दोषोंकी मौजूदगी (उपस्थिति में कोई भी मनुष्य For Personal Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] अनेकान्त किरण ५ परमार्थ प्राप्तके रूप में ख्यातिको प्राप्त नहीं होता-विशेष निखिलार्थ-सादात्कारी), अनादिमध्यान्त (आदि मध्य ख्याति अथवा प्रकीर्तनके योग्य वहीं होता है जो इन और अन्तसे शून्य), सार्य (सर्वके हितरूप), और शास्ता दोषोंसे रहित होता है। सम्भवत: इसी दृष्टिको लेकर (यथार्थ तत्वोपदेशक) इन नामोंसे उपलक्षित होता है। यहां 'प्रक्रीयते' पदका प्रयोग हुअा जान पड़ता है । अथात् ये नाम उक्त स्वरूप प्राप्तके बोधक हैं.' अन्यथा इसके स्थान पर 'प्रदोषमुक्' पद ज्यादह अच्छा व्याख्या-प्राप्तदेवके गुणोंकी अपेक्षा बहुत नाम मालूम देता है। -अनेक सहस्रनामों द्वारा उनके हजारों नामोंका कीर्तन श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार अष्टादश दोषोंके नाम किया जाता है। यहाँ ग्रंथकारमहोदयने अतिसंक्षेपसे अपनी इस प्रकार हैं रुचि तथा आवश्यकताके अनुसार पाठ नामोंका उल्लेख वीर्याम्तराय, भोगान्तराय, ३ उपभोगान्तराय, किया है, जिनमें प्राप्तके उक्त तीनों बक्षणात्मक गुणोंका ४ दानान्तराय, लाभान्तराय. ६ निद्रा, ७ भय, ८ ___ समावेश है-किसी नाममें गुणकी कोई दृष्टि प्रधान है, अज्ञान , जुगुप्सा १.हास्य ११ रति, १२ भरति, १३ किसी में दूसरी और कोई संयुक्त रष्टिको लिये हुए हैं। राग, १४ द्वेष, १५ अविरति, १६ काम, १७ शोक, १८ जैसे 'परमेष्ठी' और 'कृती' ये संयुक्त दृष्टिको लिए हुए मिथ्यात्व । नाम हैं, 'परंज्योति' और 'सर्वज्ञ' 'ये नाम सर्वज्ञत्वकी इनमेंसे कोई भी दोष ऐसा नहीं है जिसका दिगम्बर । दृष्टिको प्रधान किए हुए हैं। इसी तरह 'विराग' और समाज प्राप्तमें सद्भाव मानता हो। समान दोषों को छोड़- 'विमल' ये नाम उत्सन्नदोषत्वकी दृष्टिको और 'सार्व' तथा कर शेषका प्रभाव उसके दूसरे वर्गों में शामिल है जैसे अंत- 'शास्ता' ये नाम भागमेशिस्वकी दृष्टिको मुख्य किए हुए राय कर्मके अभावमें पाँचों अन्तराय दोषोंका, ज्ञानावरण हैं। इस प्रकारको नाममाला देनेकी प्राचीन कालमें कुछ कर्मके प्रभावमें अज्ञान दोषका और दर्शनमोह तथा चारित्र पद्धति रही जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण ग्रन्थकारमोहके अभाव में शेष मिथ्यात्व, शोक, काम अविरति रति, महोदयसे पूर्ववर्ती प्राचार्य कुन्दकुन्दके मोक्खपाहद' में हास्य, और जुगुप्सा दोषोंका प्रभाव शामिल है । श्वेतांबर और दूसरा उत्तरवर्ती प्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) के मान्य दोषोंमें सुधा तृषा, तथा रोगादिक कितने ही दिगंबर 'समाधितंत्र' में पाया जाता है। इन दोनों ग्रन्थों में परमा. मान्य दोषोंका समावेश नहीं होता-श्वेतांबर भाई प्राप्तमें त्माका स्वरूप देनेके अनन्तर उसकी नाममालाका उल्लेख उन दोषोंका सद्भाव मानते हैं और यह सब अन्तर उनके किया गया है - । टीकाकार प्रभाचन्द्रने 'आप्तस्यप्रायः सिद्धान्त भेदोंपर अक्लम्बित है। सम्भव है इस भेद- वाचिका नाममाला प्ररूपयन्नाह' इस वाक्यके द्वारा इसे दृष्टि तथा उत्सन्नदोष प्राप्तके विषयमें अपनी मान्यता प्राप्तकी नाममाला तो लिखा है परन्तु साथ ही प्राप्तका को स्पष्ट करनेके लिए ही इस कारिकाका अवतार हुश्रा एक विशेषण 'उक्तदोषैर्विवर्जितस्य' भी दिया है. जिसका हो। इस कारिकाके सम्बन्धमें विशेषविचारके लिये प्रन्धकी कारण पूर्व में उत्सन्नदोषकी दृष्टिसे प्राप्तके लक्षणात्मक प्रस्तावनाको देखना चाहिए। पद्यका होना कहा जासकता है; अन्यथा यह नाममाला एक (प्राप्त-नामावली) मात्र उत्सम्नदोष प्राप्तकी दृडि.को लिए हुए नहीं कही परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमलः कृती। जा सकती, जैसा कि ऊपर दृष्टिके कुछ स्पष्टीकरणसे जाना सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते ॥७॥ जाता है। 'उक्त स्वरूपको लिये हुए जो प्राप्त है वह परमेष्ठी ४ उए लेख क्रमशः इस प्रकार है:(परम पदमें स्थित ), परंज्योति (परमातिशय- “मलरहियो कल्लचत्तो अणिदिनो केवलो विसुद्धप्पा । प्राप्त ज्ञामधारी), विराग (रागादि भावकर्मरहित), परमेट्ठी परमजियो सिवंकरो सासश्री सिद्धो ॥६॥" विमल (ज्ञानावरग्यादि न्यकर्मवर्जित), कृती (हेयोपादेय (मोक्खपाहुर) तत्व-विवेक-सम्पन्न अथवा कृतकृत्य), सज्ञ (यथावत् 'निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुख्यः। . ® देखो, विवेकविलास और जैनतत्त्वादर्श आदि। परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः।। (समाधितंत्र) Jain Education Interational For Personal Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] समन्तभद्र-वचनामृत [१५३ - - यहां 'अनादिमध्यान्तः' पदमें उसकी दृष्टिके स्पष्ट 'जो आप्तापज्ञ हो-आप्तके द्वारा प्रथमतः ज्ञात होनेकी जरूरत है। सिद्धसेनाचार्य ने अपनी स्वयंभूस्तुति . होकर उपदिष्ट हुआ हो, अनुल्लंध्य हो-उल्लंघनीय नामकी द्वात्रिंशिका में भी प्राप्तके लिये इस विशेषणका अथवा खण्डनीय न होकर ग्राह्य हो, दृष्ट' (प्रत्यक्ष) प्रयोग किया है और अन्यत्र भी शुद्धास्माके लिये इसका और इष्ट (अनुमानादि-विषयक स्वसम्मत सिद्धान्त) प्रयोग पाया जाता है। उक्त टीकाकारने 'प्रवाहापेक्षया' का विरोधक न हो, प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे जिसमें कोई प्राप्तको अनादिमध्यान्त बतलाया है परन्तु प्रवाहकी अपेक्षा- बाधा न पाती हो और न पूर्वापरका विरोध ही पाया जाता से तो और भी कितनी हो वस्तुएं आदि मध्य तथा अन्तसे हो, तत्त्वोपदेशका कर्ता हो-वस्तुके यथार्थ स्वरूपका रहित हैं तब इस विशेषणसे प्राप्त कैसे उपलक्षित होता है प्रतिपादक हो, सबके लिये हितरूप हो और कुमागका यह भले प्रकार स्पष्ट किये जानेके योग्य है। निराकरण करनेवाला हो, उसे शास्त्र-परमार्थ प्रागमवीतराग होते हुए प्राप्त आगमेशी (हितोपदेशी) कहते हैं।' कैसे हो सकता है ? अथवा उसके हितोपदेशका क्या कोई व्याख्या-यहाँ भागम-शास्त्रके छह विशेषण दिये प्रस्म-प्रयोजन होता है इसका स्पष्टीकरण - गये हैं, जिनमें प्राप्तोपज्ञ' विशेषण सर्वोपरि मुख्य हैं अनात्मार्थविना रागेःशास्ता शास्ति सतोहितम। और इस बातको सूचित करता है कि प्रागम प्राप्तपुरुष के द्वारा प्रथमतः ज्ञात होकर उपदिष्ट होता है। प्राप्तपुरुष सर्वज्ञ होनेसे आगम विषयका पूर्ण प्रामाणिक ज्ञान रखता 'शास्ता-आप्त विना रागोंके-मोहके परिणाम- है और राग-द्वेषादि सम्पर्ण दोषोंसे रहित होने के कारण स्वरूप स्नेहादिके वशवर्ती हुए विना अथवा ख्याति-लाभ- उसके द्वारा सत्यता एवं यथार्थताके विरुद्ध कोई प्रसयन पूजादिकी इच्छा नोंके बिना ही-और विना आत्मप्रयो- नहीं बन सकता । साथ ही प्रणयनकी शक्तिसे वह सम्पन अ.के भव्य-जावको हित की शिक्षा देता है। (इसमें होता है। इन्हीं सब बातोंको लेकर धकारिका (१) में आपत्ति या विप्रलिपत्तिकी कोई बात नहीं है) शिल्पीके उसे आगमेशी' कहा गया है-वही अर्थतः प्रागमके कर-र-शको पाकर शब्द करता हुआ मृदंग क्या राम- प्रणयनका अधिकारी होता है। ऐसी स्थितिमें यह प्रथम भायोंकी तथा प्रात्मप्रयोजनकी कुछ अपेक्षा रखता है। विशेषण ही पर्याप्त हो सकता था और इसी दृष्टिको लेकर वहीं रखता।' अन्यत्र 'भागमा ह्याप्तवचनम्' जैसे वाक्योंके द्वारा - व्याख्या-जिस प्रकार मृदंग शिल्पीके हाथके स्पर्श आगमके स्वरूपका नितेश किया भी गया है। तब यहां फ्रॉन रूप बाह्य निमित्तको पाकर शब्द करता है और उस शब्द- विशेषण और साथमें क्यों जोड़े गए हैं? यह एक प्रात के करने में उसका कोई रागभाव नहीं होता और न अपना पैदा होता है । इसके उत्तरनें मैं इस समय सिर्फ इतना कोई निजी प्रयोजन ही होता है-उसकी वह सब प्रवृत्ति ही कहना चाहता हूँ कि लोकमें अनेकोंने अपनेको स्वयं स्वभावतः परोपकारार्थ होती है-उसी प्रकार वीतराग अथवा उनके भक्तीने उन्हें 'श्राप्त' घोषित किया है और आप्तके हित पदेश एवं आगम-प्रणयनका रहस्य है- उनके प्रागमों में परस्पर विरोध पाया जाता है, जबकि उसमें वैसे किसी रागभाव या आत्मप्रयोजनकी आवश्य- सत्यार्थ प्राप्तों अथवा निर्दोष सर्वज्ञोंके आगमोंमें विरोधके कता नहीं, वह 'तीर्थकरप्रकृति' नामकर्मके उदयरूप निमित्त- लिये कोई स्थान नहीं है, वे अन्यथावादी नहीं होते । इसके को पाकर तथा भव्यजीवोंके पुण्योदय एवं प्रश्नानुरोधके सिवा कितने ही शास्त्र व दको सत्यार्थ प्राप्तोंके नाम पर वश स्वतः प्रवृत्त होता है। रचे गये हैं और कितने ही सत्य शास्त्रों में बादको ज्ञाता. प्रागे सम्यग्दर्शनके विषयभूत परमार्थ 'मागम' का ऽज्ञातभावसे मिलावटें भी हुई हैं। ऐसी हालतमें किस पक्षण प्रतिपादन करते हैं शास्त्र अथवा कथनको प्राप्तोपज्ञ समझा जाय और किसको __ (आगम शास्त्र-लक्षण) नहीं, यह समस्या खड़ी होती है। उसी समस्याको हल करने के लिए यहां उत्तरवर्ती पांच विशेषणोंकी योजना हुई आप्तोपज्ञमनुलंध्यमदृष्टेष्ट-विरोधकम् । जान पड़ती है। वे अप्लोपज्ञकी जाँचके साधन हैं अथवा म ॥६ यों कहिए कि प्राप्तोपज्ञ-विषयको स्पष्ट करनेवाले हैं For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४.] यह बतलाते हैं कि आप्तोपज्ञ वही होता है जो इन विशे षणोंसे विशिष्ट होता है. जो शास्त्र इन विशेषणोंसे विशिष्ट नहीं हैं वे श्राप्तोपज्ञ अथवा श्रागम कहे जानेके योग्य नहीं हैं। उदाहरण के लिये शास्त्र का कोई कथन यदि प्रत्यक्षादिके विरुद्ध जाता है तो समझना चाहिये कि वह श्राप्तोपज्ञ ( निर्दोष एवं सर्वज्ञदेवके द्वारा उपदिष्ट ) नहीं हैं और इसलिये श्रागम के रूपमें मान्य किये जानेके योग्य नहीं । ( तपस्वि-लक्षण ) विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपोरत्न (क्त) स्तपस्वी स प्रशस्यते । १० अनेकान्त [ किरण ५ की वह सारी दृष्टि सामने आ जाती है जो उसे श्रद्धाका विषय बनाती है । इन विशेषणोंका क्रम भी महत्वपूर्ण है । सबसे पहले तपस्वी के लिये विषय- तृष्णा की वशवर्तिता से रहित होना परमावश्यक है। जो इन्द्रिय-विषयोंकी तृष्णा के जाल फँसे रहते हैं वे निरारम्भी नहीं हो पाते, जो धरम्भोंसे मुख न मोड़ कर उनमें सदा संलग्न रहते हैं वे अपरिग्रही नहीं बन पाते, और जो अपरिग्रही न बनकर सदा परिग्रहोंकी चिन्ता एवं ममता से घिरे रहते हैं वे रत्न कहलाने योग्य उत्तम ज्ञान ध्यान एवं तपके स्वामी नहीं बन सकते अथवा उनकी साधनामे लीन नहीं हो सकते, और इसतरह वे सत्श्रद्धा के पात्र ही नहीं रहते - उन पर विश्वास करके धर्मका कोई भी अनुष्ठान समीचीनरीतिसे अथवा भले प्रकार नहीं किया जा सकता । इन गुणोंसे विहीन जो तपस्वी कहलाते हैं वे पत्थरकीं उस नौकाके समान हैं जो आप डूबती हैं और साथ में श्राश्रितोंको भी ले डूबती है । 'जा विषयाशा की अधीनता से रहित है— इन्द्रियोंके विषयोंमें भासक्त नहीं और न श्राशा तृष्णा के चक्कर में ही पड़ा हुआ है अथवा विषयोंकी वांछा तकके वशवर्ती नहीं है— निरारम्भ है— कृषि वाणिज्यादिरूप सावद्यकर्मके ब्यापार में प्रवृत्त नहीं होता-, अपरिग्रही, है - धन-धान्यादि वाह्य परिग्रह नहीं रखता और न मिथ्यादर्शन, राग-द्वेष, मोह तथा काम-क्रोधादिरूप अन्तरंग परिग्रहसे अभिभूत ही होता है - और ज्ञानरत्न-ध्यानरत्न तथा तपरत्नका धारक है अथवा ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन रहता हैसम्यक ज्ञानका आराधन, प्रशस्त ध्यानका साधन और अनशनादि समीचीन तपोंका अनुष्ठान बड़े अनुरागके साथ करता है - वह ( परमार्थ ) तपस्वी प्रशंसनीय होता है। व्याख्या - यहां तपस्वीके 'विषयाशावशातीत' आदि जो चार विशेषण दिये गये हैं वे बड़े ही महत्वको लिये हुए हैं और उनसे सम्यग्दर्शनके विषयभूत परमार्थ तपस्वी ध्यान यद्यपि अन्तरंग तपका ही एक भेद है फिर भी उसे अलग से जो यहां ग्रहण किया गया है वह उसकी प्रधानताको बतलाने के लिये है। इसी तरह स्वाध्याय नामके अन्तरंग तप में ज्ञानका समावेश हो जाता है, उसकी भी प्रधानताको बतलानेके लिये उसका अलग से निर्देश किया गया है । इन दोनोंकी अच्छी साधनाके बिना कोई सत्साधु श्रमण या परमार्थ तपस्वी बनता ही नहीं-सारी तपस्याका चरम लक्ष्य प्रशस्त ध्यान और ज्ञानकी साधना ही होता है। For Personal & Private Use Only - युगवीर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानके जैन शास्त्र भएडारोंमें उपलब्ध महत्वपूर्ण ग्रन्थ (ले० कस्तरचन्द कासलीवाल एम० ए० जयपुर) भारतके अन्य प्रान्तोंकी तरह राजस्थानकी महत्ता करने एवं उसे शीघ्र प्रकाशित करनेका प्रयत्न भी किया जा लोकमें प्रसिद्ध है। वहाँ भारतीय पुरातत्त्वके साथ जैन- रहा है। साहित्य प्रकाशनकी महती आवश्यकताको समझते पुरातत्त्वकी कमी नहीं है। बदालीसे जैनियोंका सबसे हुये श्री दिगम्बर जैन अ.क्षेत्रके प्रबन्धकाने साहित्योहारप्राचीन लिलालेख प्राप्त हुआ है जो वी. नि. संवत् ८४ का कुछ कार्य अपने हाथमें लिया और इसके अन्तर्गत का है टोंक स्टेटमें अभी हाल ही में ६ जैन मूर्तियाँ प्राप्त प्राचीन साहित्यके प्रकाशनका कार्य भी प्रारम्भ किया, जो हुई हैं। जो संवत् १४७० की हैं अजमे और जयपुरादिमें ४-५ वर्षोंसे चल रहा है । श्री आमेर शास्त्रभण्डार प्रचुर सामग्री प्राज भी उपलब्धही है राजपूतानेके कलापूर्ण एवं श्री महावीरजीके शास्त्र भण्डारकी ग्रन्थ-सूची प्रकामन्दिर भी प्रसिद्ध हैं। उनमें सांगा नेरके संगहोके मंदिरकी शित हो चुकी है तथा अब राजस्थानके प्रायः सभी ग्रन्थ कला खास तौर से दर्शनीय है। इन सब उल्लेखोंसे राज- भण्डारोंकी सूची प्रकाशित करवानेका कार्य चालू है। स्थानका गौरव जैन साहित्यमें उद्दीपित है। राजस्थानके प्रारम्भमें जयपुरके शास्त्रभण्डारोंकी सूची प्रकाशनका दि. श्वेताम्बर शास्त्र भण्डार अक्षुण्ण ज्ञानकी निधि हैं। कार्य हाथ में लिया गया है। अभी तक जयपुरके तीन राजस्थानके उन जैन मन्दिरों एवं उपाश्रयोंमें स्थित शास्त्र मन्दिरोंमें स्थित शास्त्रभण्डारोंकी सूची तैयार हुई है तथा भयडारोंमें हजारोंकी तादाद में हस्तलिखित ग्रन्थ विद्यमान उसे प्रकाशनार्थ प्रेसमें भी दे दिया गया है। श्राशा है कि हैं। जैनोंके इन ज्ञान भण्डारोंमें जैन एवं जनेतर वह सूची २-३ महिनोंके बाद प्रकाशित हो जावेगी। सभी अंगों पर ग्रन्थोंका संग्रह मिलता है. क्योंकि जैनाचार्यों ग्रन्थ सूची बनानेके अवसर पर मुझे कितने ही ऐसे प्रन्थ मिले हैं जिनके विषयमें अन्यत्र कहीं भी उल्लेख में साम्प्रदायिकतासे दूर रह कर उत्तम साहित्यके संग्रह करनेकी अभिरुचि थी और इसीके फलस्वरूप हमें आज तक नहीं मिला, तथा कितने ही ग्रन्थ लेखक प्रशस्तियों प्रायः सभी नगरों एवं ग्रामोंमें शास्त्रभण्डार एवं इनमें आदिके कारण बहुत ही महत्त्वपूर्ण जान पड़े हैं इसलिये उन सभी उपलब्ध ग्रन्थोंका परिचय देनेके लिये एक छोटी सभी विषयों पर शास्त्र मिलते हैं। दि. जैन साहित्यकी सी लेखमाला प्रारम्भ की जारही है जिसमें उन सभी प्रचुर रचना राजस्थानमें हुई है। जिसके सम्बन्धमें स्वतंत्र महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका संक्षिप्त परिचय दिया जावेगा । आशा लेख द्वारा परिचय करानेकी आवश्यकता है। राजस्थानके है पाठक इससे लाभ उठायेंगे । सबसे पहिले अपभ्रंश इन भण्डारोंमें उपलब्ध ग्रन्थोंकी कोई ऐसी सूची या तालिका, जो अपने विषयमें पूर्ण हो अभी तक प्रकाशित साहित्यको ही लिया जाता है :हुई हो ऐसा देखनेमें नहीं पाया, जिससे यह पता चल पउमचरिय ( रामायण ) टिप्पण सके कि अमुक अमुक स्थान पर किस किस विषयका महाकवि स्वयम्भू त्रिभुवनस्वयम्भू कृत पउमचरिय कितना और कैसा साहित्य उपलब्ध है ? जिससे प्रावश्य- (पद्मचरित्र) अपभ्रंश भाषाकी उपलब्ध रचनाओं में कता होने पर उसका यथेष्ट उपयोग किया जा सके मेरे सबसे प्राचीन एवं उत्तम रचना है। यह एक महाकाव्य है .. अनुमानसे राजस्थानके केवल दिगम्बर जैन शास्त्रभंडारोंमें जिसे जैन रामायण कहा जाता है। अपभ्रंश भाषासे ही ५०-६० हजारसे अधिक हस्तलिखित गन्ध होंगे। जिसके संस्कृतमें टिप्पण अथवा टीका इसी महाकाव्य पर बड़े विषयमें अभी तक कोई प्रकाश नहीं डाला गया है। मन्दिरके शास्त्रभण्डारमें उपलब्ध हुई है। पउँमचरिय पर श्वेताम्बरीय ज्ञान भण्डारोंकी सूचियां बन गई है राज- मिलने वाले इस टिप्पण ग्रन्थका अभी किसी भी विद्वान्ने स्थानीय पत्रिका - उनमेंसे अधिकांशका परिचय भी निकल शायद ही कहीं उल्लेख किया हो, इसलिए यह टीका चुका है राजस्थानके इन भण्डारीमें स्थित ग्रन्थोंकी सूची सर्वथा एक नवीन खोज है। बड़ी पावश्यक है जिसकी कमीका बहुत वर्षोंसे अनुभव पउमचरिय पर यह टिप्पण किस विद्वा किया जा रहा है। दिगम्बर विद्वानों द्वारा सूची तैयार प्राचार्यने लिखा है इसके सम्बन्धमें इस टिप्पणमें कहीं For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] कोई उल्लेख नहीं मिलता । किन्तु यह प्रति बहुत प्राचीन है इसलिये इसका टीकाकार भी कोई प्राचीन आचार्य एवं विद्वान् होना चाहिए ऐसा अनुमान किया जा सकता है टीकाकारने पउमचरिय में से अपभ्रंशके कठिन शब्दोंको लेकर उनकी संस्कृत भाषामें टीका 'अथवा पर्यायवाची शब्द लिख दिये हैं। टीका विशेष विस्तृत नहीं है। उम चरियकी १० सन्धियोंकी टीका केवल ५६ पत्रोंमें ही समाप्त कर दी गई है। प्रति बहुत प्राचीन है तथा वह अत्यधिक जीर्ण हो चुकी है इसलिए इसकी प्रतिलिपि होना आवश्यक है । इसके बीच कितने हो पत्र फट गये हैं तथा शेष पत्र भी उसी अवस्था में होते जा रहे हैं। यह प्रति शास्त्र भण्डारकी बोरियों में बंधे हुये तथा बेकार समझे जाने वाले स्फुट त्रुटित एवं जीर्ण-शीर्ण पत्रोंमें बिखरी हुई थी तथा इन पत्रोंको देखने के समय यह प्रति मिली थी। यह टीका पउमचरियके सम्पादन के समय बहुत उपयोगी सिद्ध होगी ऐसा मेरा अनुमान है। टिप्पणकारने टीका प्रारम्भ करनेके पूर्व निम्न प्रकार मंगलाचरण किया है स्वयंभु महावीरं प्रणिपत्य जगद्गुरू । रामायणस्य वच्यामि टिप्पणं मतिशक्तितः ॥ इस संस्कृत टिप्पणका एक उदाहरण देखिये - तृतीय संधिका प्रथम कडवक अनेकान्त [ किरण ५ पावा पर्वते । वरसत्तउ उत्तमसंघ । मेहरउ मेघनादनाम । इति रामायणे नवति संधिः समाप्तः । माह चरिउ (कवि दामोदर) गयसंतो- गतश्रमो अथवा गते ज्ञाने खांतमनो यस्य स गत खांतः । महु मधूकः । माहत्री प्रति मुक्तकलता । कुडंगेहिं केशरैः । श्रसत्थो पिप्पलः । खजूरि-पिंडखजूरी। मालूर । aver | सिर विल्व । भूय विभीतकः । अवर हिमि जाई हिअपर पुष्पजाति । वणवर्णियहिं वनस्त्रियः । मोरङ पिच्छ छत्रं ॥ 1 १ ॥ अन्तिम सन्धि- जए जगति । मेहलियए भार्यया । गिरणासिय सिय लक्ष्मी निर्नाशितः । दुइमुणि तिनामा मुनि विहालउ समूहस्थानः । घण मेघसिंहः । हरि मांडूक | महच्छुह महत् सुधा | दंडसट्ठियतणु क्रोशत्रय - शरीर प्रमाणं । हरि खिसे भोगभूमि सुरपुरिहि हो संति इन्द्र भविष्यति । यामें इन्द्ररथांभोजरथ नामनौ । सुमणु देवः पावमहोदय ( २ ) यह ग्रन्थ अपभ्रंश भाषामें रचा गया है इसके कर्ता महाकवि दामोदर हैं। यह ग्रंथ प्राप्ति भी जयपुर के बड़े मन्दिरजीके शास्त्रभंडार में उपलब्ध हुई है। इसकी रचना महामुनि कमल भद्रके सम्मुख एवं पंडित रामचंद्र के आशीर्वाद से समाप्त हुई थी ऐसा ग्रन्थ प्रतिक पुष्पिका वाक्यसे स्पष्ट है । प्रति अपूर्ण है तथा जीर्ण अवस्थामें है । रचनाकालके विषय में इससे कोई सहायता नहीं मिलती। यद्यपि यह ग्रंथ कमसे कम ४-५ सधयों में विभक्त होगा लेकिन उपलब्ध प्रतिके कडव कोंकी संख्या संधिके अनुसार न चलकर एक साथ चलती है । ४४ वें पत्र पर ११७ कडधक हैं। इस प्रतिमें तीन संधियां प्राप्त हैं चूंकि ग्रंथ प्रति अपूर्ण है इसलिए ग्रंथमें अन्य संधियाँ भी होनी चाहिए। प्रथम संधि में मुख्यतः नेमिनाथ स्वामीकी जन्मोत्पत्ति, द्वितीय संधि में जरासंध और कृष्णका संग्राम तथा तृतीय संधिमें भगवान् नेमिनाथके विवाहका वर्णन दिया हुआ है। इस प्रकार ग्रंथ में दो संधियाँ और होंगी जिनमें नेमिनाथ स्वामीके वैराग्य एवं मोक्ष गमन श्रादिका वर्णन होगा। प्रथम संधिकी समाप्ति पुष्पिका इस प्रकार है - इह रोमियाहचरिय महामुणिकम्बलभद्द पञ्चक्खे महाकइ कणिट्ठ दामोयर विरइए पंडिय रामचंद्र एसिए मल्हसु श्रवगाएड श्रयं णिए जम्मुपत्ति ग्रामा पढमो संधि परिच्छेश्रो सम्मत्तो । ग्रंथप्रतिका शेष भाग अन्वेषणीय है । यह संभवतः पत्र टूट जाने या दीमक श्रादिके द्वारा खण्डित हुआ है । अतः इसकी दूसरी प्रतिके लिये अन्वेषण करनेकी बड़ी जरूरत है । " बारहखड़ी दोहा ( ३ अपभ्रंश भाषा में बारहखड़ीके रूपमें आध्यात्मिक एवं सुभाषित दोहोंकी रचना है । दोहे अच्छे एवं पठनीय जान पढ़ते हैं। इस ग्रंथ कर्त्ता महाचंद कवि । आप कब और कहाँ हुये, इसका रचनामें कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन इतना अवश्य है कि कवि संवत् १५६१ के पूर्ववर्ती हैं क्योंकि बढ़े मन्दिरके शास्त्र भण्डार में उपलब्ध प्रति इसी समयकी है । प्रति पूर्ण है एवं दोहोंकी संख्या ३३५ है । For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ । राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारोंमें उपलब्ध महत्वपूर्ण ग्रन्थ १५७ यह प्रति संवत् १९६१ पौष सुदी १२ वृहस्पतवारकी. जो ग्रन्थ-सूची आजकल तैयार की जा रही है उसीके लिखी हुई है। श्री चाहड सौगाणीने कर्मक्षय निमित्त सम्बन्धमें मुझे नागौर जाकर ग्रन्थ भण्डार एवं सूचीके इसकी प्रतिलिपि की थी। भट्टारक परम्परामें लिपिकारने कार्यको देखनेका सुअवसर मिला था। उसी समय यह भट्टारक जिनचन्द्र एवं उनके शिष्य रत्नकीर्तिका उल्लेख रचना भी देखने में आयी। किया है। - शांतिनाथचरित्रके रचयिता श्री शुभकीर्ति देव हैं। कविने अपने नामके पूर्व उभय भाषा चक्कवट्टि अर्थात् कविने निम्न दोहेसे बारहखड़ी प्रारम्भ की है उभयभाषा चकवर्ति यह विशेषण लगाया है इसलिये सम्भव वारह विउणा जिण णवम्मि किय वारहखरकक्कु । है कि शुभकीति संस्कृत एवं अपभ्रंश भाषाके विद्वान महियंदण भविययण हो णिसुणहु थिरु मणु लक्कु ॥ हों। इन्होंने अपनी रचनाको महाकाव्य लिखा है। और भव दुक्खह निविएणएण 'वीरचन्द' सिस्सेण । बहुत कुछ अंशोंमें यह सत्य भी जानपड़ता है। शांतिनाथभवियह पडिबोहण कया दोहा कक्कमिसेण ॥ चरित्रकी रचना रूपचन्दके अनुरोध पर की गयी है जैसा एकजु श्राखरूसार दुइज जण तिण्णि वि मिल्लि । कि कविके निम्न उल्लेख स्पष्ट है। चउवीसग्गल तिण्णिसय विरइए दोहा विल्लि ॥ इस महाकाव्य में १६ संधियां हैं जिनमें शांतिनाथके सो दोहउ अप्पाणयहु दोहा जाण मुणेइ। जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्रथम और मुणि महयंदिण भासियउ सुणि णिय चित्त धरेइ ॥ अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार हैअब बारहखड़ीके कुछ दोहे पाठकोंके अवलोकनार्थ प्रथम संधिउपस्थित किये जाते हैं जिससे वे रचनाकी भाषा, शैली इयि उभयभासा चक्कहि सिरिसुकित्तिदेव विरइए एवं उसमें वर्णित विषयके सम्बन्ध में कुछ अधिक जान- महाभव्व सिरिरुवचंद मण्णिए महाकव्वे सिरि विजय कारी प्राप्त कर सकें बंभणो णाम पढमो संधि सम्मत्तो। . कायही सारउ एय जिय पंचमहाणु वयाइ । अन्तिम संधि'अलिउ कलेवरू भार तहु जेहि ण धरियइ ताइ । इयि उभयभाषा चक्कदि सिरि सुहकित्तिदेव विरइए महाभव्व सिरिरुवचंद मण्णिए महाकव्वे सिरि सांतिणाहखणि खणि खिज्जइ श्रावतसु णियडउ होइ कयंतु । चचक्काउह कुमार णिध्वाण गमणं णाम इगुणीसमो संधि समतो। तृहि वण थक्कह मोहियउ मे मे जीउ भणंतु ॥ नागौर शास्त्र भण्डारकी यह प्रति सम्वत् १५५१ गीलह गुडि जिम माछपहि पावसि पडि वि मरंति । ज्येष्ठ सुदी १० बुधवारकी लिखी हुई है। इसकी प्रति बिपि भट्ट रक जिनचन्द्रदेवके शिष्य ब्र. वीरु तथा तिम भुवि महयंदिण कहिय जे तिय संगु करंति ॥ ब्रह्म लालाने अपने पढ़ने के लिये करवायी थी प्रतिपूर्ण और सामान्य अवस्था में है। ते किं देवें कि गुरूणा धम्मेण य किं तेण । अप्पश चित्तह णिम्मलउ पंचड होइ ण जेण ॥ योगसार (श्रतकीर्ति) x x x मे परियणु मे धरणु धणु मे सुव मे दाराई । - भ० श्रुतकीर्तिकी तीन रचनाओंका-धर्मपरीक्षा, हरिइड चितंतह जीव तुहु गय भव-कोडिसयाई॥ वंशपुराण और परमेष्ठिप्रकाशसार का-डाहीर लालजी जैन प्रो० नागपुर विश्वविद्यालयने अनेकान्त वर्ष १. ... सांतिणाहचरिउ (शुभकोति) किरण २ में उल्लेख किया था । योगसार' के सम्बन्धमें ( ४) डाक्टर साहबने कोई उल्लेख नहीं किया, इसलिए यह उक रचना नागौर (राजस्थान) के प्रसिद्ध भट्टारकीय श्रतकीति की चौथी रचना है जिसका हमें अभी अभी शास्त्र भंडारमें उपलब्ध हुई है। नागौर शास्त्र भंडारकी परिचय मिला है यह रचना नई है। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] रचनाका नाम योगशास्त्र है। इसमें दो सन्धियाँ है । प्रथम सन्धिमें ६४ कढवक और द्वितीय सम्बि ७२ क वक है इस प्रकार यह काव्य १३६ कडवकमें समाप्त होता है। रचनाकी केवल एक ही प्रति बड़े मन्दिर में मिली है। इसके ६७ पत्र हैं । प्रतिका अन्तिम पत्र जिस पर ग्रंथ प्रशस्ति वाला भाग है जीर्ण होकर फट गया है इससे सबसे बड़ी हानि तो यह हुई कि रचनाकाल वाला अंश भी कहीं फटकर गिर गया है । 1 ग्रन्थ में योगधर्मका वर्णन किया गया है मंगलाचर राके पश्चात् ही कविने योगकी प्रशंसा में बिखा है कि योग ही भव्य जीवको भयोदधिसे पार करनेके लिए एक मात्र सहारा है। अनेकान्त [ किरण ५ कविने अपनी तीन अन्य रचनाओंका उल्लेख किया है। ग्रन्थ प्रशस्तिले हमें निम्न बातोंका श न होता है सह धम्म जोड जगिसारट, जो भध्ययण भवोवहितारड प्राणायाम आदि कियाथांका वर्णन करनेके पश्चात् कविने योगावस्थामें लोकका चिन्तन करनेके लिये कहा है और अपनी इस रचना के ५० से अधिक कडवकों में तीन लोकोंके स्वरूपका वर्णन किया है। दूसरी सन्धिमें धर्मका वर्णन किया गया है। इसमें षोडशकारणभावना, दस धर्म, चौदह मार्गणा तथा १४ गुणस्थानोंका वर्णन है । ६० वे कडवकसे श्रागे कविने भगवान महावीरके पश्चात् होने वाले केवली श्रुतकेवली श्रादिके नामोंका उल्लेख किया है इसके पश्चात् भद्रबाहु स्वामीका दक्षिण विहार श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति आदि पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है । कुन्दकुन्द — भूतबलि पुष्पदंत, गेमिचन्द्र उमास्वामि, वसुनन्दि, जिनसेन, पद्मनन्दि, शुभचन्द्र आदि प्राचापका नाम उनकी रचनाओंके नामों सहित उल्लेखित किया है । यही नहीं किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायके उत्पन्न होनेके पश्चात् दिगम्बर आचार्योंने किस प्रकार दिन रात परिश्रम करके सिद्धान्त ग्रन्थोंकी रचना की तथा किस प्रकार दिगम्बर समाज चार संघों में विभाजित हुआ आदिका भी कविने उल्लेख किया है। इस प्रकार ६० से आगे कहचक ऐतहासिक दृष्टिसे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। (1) श्रुतकीर्ति भ० देवेन्द्रकीर्तिके प्रशिष्य एवं त्रिभुवन कीर्त्तिके शिष्य थे । (२) श्रुतकीर्तिके योगशास्त्रकी रचना जेरहट नगर में नेमिनाथ स्वामी मन्दिर में सं० १५ मंगसिर सुदी १ के दिन समाप्त हुई थी । शास्त्र भण्डारमें प्राप्त योगशास्त्रकी प्रतिलिपि सं० १५५२ माघ सुदी ५ सोमवारकी लिखी हुई है। लेखक प्रशस्तिके आधार पर यह शंका उत्पन्न होती है कि जब हरिवंश पुराण की रचना संवत् १५५२ माघ कृष्णा ५ एवं परमेष्ठिप्रकाश सारकी संवत् १५५३ श्रावण सुदी १ के दिन समाप्त की थी तो योगशास्त्रकी रचना इससे पूर्व कैसे समाप्त हो सकती है, क्योंकि प्रशस्ति में दोनों रचनाओंका नामोल्लेख मिलता है जिससे यह झकता है कि दोनों रचनायें इस रचनासे पूर्व ही हो गयी थीं। यह प्रश्न अवश्य विचारणीय है । मेरी दृष्टिसे तो यह सम्भव है कि भुतकीतिने योगशास्त्रको प्रारम्भ करनेसे पूर्व हरिवंश पुराण तथा परमेष्ठिप्रकाशसारकी रचना प्रारम्भ कर दी हो और वह योगशास्त्र के समाप्त होनेके पश्चात् समाप्त हुई हो । योगशास्त्र में तो केवल इसी आधार पर दोनों रचनाओंका उल्लेख कर दिया गया हो; क्योंकि ये रचनायें योगशास्त्र के प्रारम्भ होने के पूर्व प्रारम्भ कर दी गई थीं । इस प्रकार अब तक प्राप्त ग्रंथ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि श्रुतिकीर्तिने अपने जीवनकाल में धर्मपरीक्षा, हरिवंशपुराण, परमेष्ठिप्रकाशसार तथा योगशास्त्र इन चारों प्रन्थोंकी रचना की थी । 1 योगसारके साउसे आगे वे सब कवक जी ऐतिहासिक बातोंसे सम्बन्धित हैं उन्हें शीघ्र प्रकट होना चाहिए । योगशास्त्र की ग्रन्थ प्रशस्ति भी महत्वपूर्ण है । इसमें विभागकी ओर से । क्रमशः सम्पादक छत्री दि० जे० क्षेत्र श्रीमहावीरजीके अनुसंधान For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी - जैन - साहित्यकी विशेषता [ श्रीकुमारी किरणवाला जैन 1 साहित्य मानव जातिके स्थूल और सूक्ष्म विचारों और अनुभवोंका सुरम्य शाब्दिक रूप है । वह जीवित और चिर उपयोगी है। वह मानव-जातिके श्रात्म-विकासमें सहायक है । ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी और प्रमाण संग्रह- सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चयविवरण और लघीयस्त्रय जैसे कर्कश तर्क ग्रन्थोंको उनके स्वोपज्ञ भाष्योंके साथ बनाया। जो श्राज भी उनकी प्रकाण्ड प्रतिभाके संद्योतक हैं । मध्ययुग में न्याय शास्त्र पर विशेष रूपसे कार्य किया गया है, जो 'मध्यकालीन न्यायदर्शन के नामसे प्रसिद्ध है । यह केवल जैन और बौद्ध नैयायिकों' का ही कर्तव्य था । द्रवेड़ियन और कर्नाटक भाषामें ही जैन साहित्य पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध होता है। कर्नाटक भाषा के 'चामुण्डराय' पुराण नामक गद्य ग्रन्थके लेखक वीर चामुण्डराय जैन ही थे जो राचमल्ल तृतीयके मन्त्री और प्रधान सेनापति थे । श्रादिपंप, कवि चक्रवर्ती रन्न, अभिनव पंप श्रादि उच्च कोटिके नैनाचार्य होगये हैं। कनाड़ी भाषाका जैन साहित्य प्रायः सभी विषयों पर लिखा गया है । इसी तरह तामिल और तेलगू भाषामें जैनाचार्योंने अनेक महत्वपूर्ण प्रन्थ लिखे हैं । तामिल भाषा के जन्मदाता जैन ही कहे जाते हैं । साहित्य में कोई साम्प्रदायिक सीमायें नहीं हैं। तथापि विभिन्न जातियाँ और साम्प्रदायोंने साहित्यका जो रूप अपनाया है उसीके आधार पर साहित्योंको जैन, बौद्ध अथवा वैष्णव साहित्यके नाम से पुकारा गया है । प्रत्येक साहित्यकी कुछ अपनी विशेषतायें हैं और जैनसाहित्यकी भी अपनी विशेषता है । जैन - साहित्य व्यक्तिको स्वयं उसके भाग्यका निर्णय करने में सहायक । उसका सन्देश स्वतन्त्र रहनेका है परमुखापेक्षी और परावलम्बी बननेका नहीं है। जैनसाहित्य के अनुसार प्राणी कार्य करने और उसका फल भोगनेमें भी स्वतन्त्र है । जैनधर्मका मुख्य सिद्धान्त है— स्वयं जिओ और दूसरोंको जीने दो । प्रारम्भ में जैन साहित्य में धार्मिक प्रवृत्तिकी प्रधानता थी । परन्तु समयके परिवर्तन से उसने न केवल धार्मिक विभाग में ही उन्नति की वरन अन्य विभागों में भी आश्चर्यजनक उन्नति की । न्याय और अध्यात्मविद्याके विभाग में इस साहित्यने बड़े ही ऊँचे विकास क्रमको धारण किया । विक्रमकी प्रथम शताब्दी के प्रकाण्ड विद्व न आचार्य कुन्दकुन्द जो अध्यात्मशास्त्र के महाविद्वान् थे और द्वितीय शताब्दी के दर्शनाचार्य भारतीय गगन मण्डलके यशस्वी चन्द्र श्राचार्य समन्तभद्रने अनेक दार्शनिक स्तुति-ग्रन्थोंकी रचना की, जो रचनाएँ संस्कृत साहित्य में बेजोड़ और दार्शनिक साहित्य में अमूल्य रत्नके रूप में ख्यातिको प्राप्त हुईं। . इसके बाद अनुक्रमले अनेक आचार्य महान ग्रन्थकारके रूप में प्रसिद्धिको प्राप्त होते गए अनेक सूत्रकार, वादी और अध्यात्म विद्याके मर्मज्ञ विद्वानोंने भारतमें जन्म लिया, ईसाकी छठी और विक्रमकी ७ वीं शताब्दीके अकलंकदेव जैसे नैयायिक इस भारत भूमि पर अधिक नहीं हुये । अकलंकदेव बौद्ध विद्वान धर्मकीर्तिके समान ही प्रतिभा सम्पन्न प्रन्थकार और टीकाकार थे । इन्होंने केवल साहित्य में ही नहीं, परन्तु भारतीय साहित्य में न्याय जेन - साहित्य में ऐतिहासिक पुरुषोंके चरित्र वर्णनकी भी विशेष पद्धति रही है। 'रिट्ठमिचरिउ' 'पउमचरिय' आदि ग्रन्थोंके नाम उल्लेखनीय हैं। 'रिहट्टोमिचरिउ' में कौरव पांडवोंका वर्णन है और पउमचरियमें श्री रामचन्द्रजीका वर्णन है । इस प्रकार यह दोनों ग्रन्थ क्रमशः 'जैन महाभारत' और 'जैन रामाया' कहे जा सकते हैं । चरित्रग्रन्थोंमें जटासिंहनन्दि वरचित 'वरांग चरित्र' एक सुन्दर काव्य ग्रन्थ है ! 'वसुदेवहिण्डी' भी प्राकृत भाषाका एक सुन्द पुराण है । वादीभसिंह प्रणीत 'क्षत्रचूड़ामणि’ नामका ग्रन्थ भी अपना विशेष महत्त्व रखता है । लेखकने इसमें जिस पात्रका वर्णन किया है वह महावीर कालीन है। अनुष्टुप् छन्दोंमें अर्ध भागमें चरित्र और शेष अर्ध भागमें विशद नीतिका वर्णन है । व्याकरण-साहित्य में देवनन्दि कृत 'जैनेन्द्र व्याकरण' 'सिद्ध हेमशब्दानुशासन' अत्यन्त उच्च कोटिके ग्रन्थ हैं । पाणिनीयकी 'अष्टाध्यायी' में जिस प्रकार सात अध्याय संस्कृत भाषाके और एक अध्याय वैदिक प्रक्रियाका है। उसी प्रकार हेमचन्द्राचार्यजी ने सात अध्याय संस्कृत For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] अनेकान्त [किरण ५ भाषामें और एक प्राकृत भाषामें रचा था। जैमेन्द्र महा. लाक्षणिक-ग्रंथों में हेमचन्द्राचार्यकृत 'काम्यानुशासन वृत्ति 'जेनेन्द्र प्रक्रिया', 'कातन्त्र रूपमाला' और 'शाकटा- उल्लेखनीय है। कथा साहित्यमें प्राचार्य हरिषेणविरचित यन व्याकरण' मादि सुन्दर व्याकरण ग्रन्थ है। शाकटायन 'कथाकोष' अत्यन्त प्राचीन है । 'पाराधनाकथाकोष' व्याकरण पाणिनीसे पूर्वका है। पाणिनीने अपने व्याकरण- 'पुण्याश्रव कथाकोष' उद्योतन सूरि विरचित 'कुवलयमाला' में शकटायनके सूत्रका स्वयं उल्लेख किया है। हरिभद्र कृत, समराइच्य कहा, और पादलिप्तसूरिकृत अलंकारमें 'अलंकार चिन्तामणि' और वागभट्ट कृत 'तरंगवती कहा' आदि सुन्दर कथा ग्रन्थ हैं। कुवलय'वागमहालंकार' है। कोषों में 'अभिधान चिन्तामणि'. माला, प्राकृत भाषाका उच्च कोटिका ग्रन्थ है। प्रस्तुत 'भनेकार्थ संग्रह', 'नाममाला', 'निघंटुशेष', 'अभिधान ग्रन्थका जैन-साहित्य में वही स्थान है, जो स्थान भारराजेन्द्र', 'पाइयसद्दमहण्णव' तथा 'विश्वलोचन-कोष' तीय साहित्यमें उपमितिभवप्रपंच कथा' का है। प्रादि अनुपम प्रन्य है। पाद-पूर्ति काम्योंकी रचना भी प्रबन्धोंमें चन्द्रप्रभसूरिकृत प्रभावकचरित, मेरुतुगजैन-साहित्यकी प्रमुख विशेषता है। कृत, प्रबन्ध चिन्तामणी, राजशेखकृत, प्रबन्धकोष, तथा जिनप्रभ सूरिकृत विविधतीर्थकल्प, दृष्टव्य है। . जैन-साहित्यमें स्तोत्रोंकी भी रचना की गई । महाकवि भनंजय विरचित 'विषापहारस्तोत्र और कुमुदचद्रप्रणीत' विशेषत: जैन-साहित्य दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है-लौकिक और धार्मिक साहित्य । लौकिकसे कल्याणमन्दिरस्तोत्र आदि ग्रन्थ साहित्यकी दृष्टिसे उच्च तात्पर्य उस साहित्यसे है जिसमें साम्प्रदायिकता बन्धनोंसे कोटिके हैं। स्वतंत्र होकर ग्रन्थ रचना की जाती है । धार्मिक साहित्य जैन-साहित्यमें चम्पू काव्योंको भी प्रधानता रही। वह है जिसमें इस लोकके अतिरिक्त परलोककी ओर भी बह जैन-साहित्यकी एक प्रमुख विशेषता है । जंना- संकेत रहता है। चार्योंने इस क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य किया है। सोमदेवकृत जै न साहित्य में ऐसे अनेक ग्रन्थ हे जिन्हें देखकर 'यशस्तिलकचम्पू', 'हरिचन्द विरचित', 'जीवधंरचम्पू' सरलतापूर्वक कोई जैनाचार्योंकी कृति नहीं कह सकता है। 'महदास प्रणीत' 'पुरुदेवचम्पू' आदि ग्रन्थ संस्कृत भाषा सोमदेव-कृत 'नीतिवाक्यामृत' इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। के सुन्दर ग्रन्थ हैं। यह एक 'नीतिविषयक ग्रन्थ' है। इसमें एक अध्याय अर्थसैद्धान्तिक तथा नीतिविषयक ग्रन्थोंमें निम्नांकित शास्त्रका भी है। दूसरा ग्रन्थ है 'दोहापाहुब'। यह राप्रन्थोंकी प्रधानता रही स्यवादका एक सुन्दर अपभ्रंशभाषाका ग्रन्थ है। षट्खण्डागम, कषायपाहुड, 'तस्वार्थसूत्र , 'सर्वार्थ- गणित ज्योतिष में भी जैन साहित्य पर्याप्त मात्रामें सिद्धि', 'राजवार्तिक', 'गोम्मटसार'. 'प्रवचनसार' उपलब्ध होता है। उसमें जैनाचार्योंने अनेक अनोख्ने 'पंचास्तिकाय',आदि सैद्धान्तिक ग्रन्थ हैं, तथा अमितगति नियमों द्वारा ज्योतिष विभागको सम्पन्न किया है। कृत 'सुभाषित रत्नदोह', पद्मनन्दिग्राचार्य कृत 'पद्मनन्दि इसके लिये 'तिलोयपण्णत्ती', 'त्रिलोकसार', 'जंबूदीव पंचविंशतिका' और महाराज अमोघवर्षकृत 'प्रश्नोत्तर पण्णत्ती', 'सूर्यपण्णत्ती', आदि उच्च को टके प्रथ रत्नमाला' श्रादि नीतिविषयक ग्रन्थ है। . हैं। महावीराचार्य द्वारा रचित 'गणितसारसंग्रह' भी अपने ‘पद्य अन्योंके साथ साथ जैन साहित्यमें गद्य ग्रन्थोंकी समयकी एक अपूर्व कृति है। यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है। भो प्रधानता रही। बादीभसिंहकृत 'गद्यचिंतामणि' और गणित विषय की १-२ उपयोगिता पर दृष्टि डालते हुए धनपालकृत 'तिलकमंजरी' जैसे उच्च कोटिके गद्य ग्रन्थ जैन गणित साहित्य पर प्रोफेसर दत्तमहाशयके संस्कृत भाषामें रचे गये। विचार निम्नलिखित हैं। नाटकों में 'मदनपराजय', 'ज्ञानसूर्योदय' विक्रान्त- "What is more important for the कौरव, मैथली कल्याण. अंजनापवनंजय. नलावलाम, general history of mathematics certain राघवाम्युदय, निर्भयन्यायोग, और हरिमर्दन आदि methods of finding solutions of raitional उल्लेख योग्य हैं। triangles, the credit for the discovery Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] श्री महावीराचायने अपने 'गणितसार' संग्रह में बतलाया है कि हिन्दी - जैन- साहित्यकी विशेषता 'लौकिकै वैदिकैश्वापि तथा सामायिकेऽपि यः । व्यपास्तत्र सर्वत्र संख्यानमुपजायते ।। कामतन्त्रर्थशास्त्रे च गांधर्वे नाटकेऽपि वा । सूपशास्त्रे तथा वैद्य वास्तुविद्यादिवस्तुषु ॥ सूयादिग्रहचारेषु ग्रहणे ग्रहसंयुते । त्रिप्रश्ने चन्द्रवृत्तौ 'च सर्वांगों कृतं हि तत (?) ॥ बहुभिर्विप्रलापैः किं त्रैलोक्ये सचराचरे । यत्किञ्चिद्वस्तु तत्सर्वं गणितेन विना नहि || इससे स्पष्ट है कि गणितका व्यवहारिक रूप प्रायः समस्त भारतीय वाङ्मय में व्याप्त है । ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं जिसकी उपयोगिता गणित, राशि- गणित, कलासर्वगणित, जाव-ताव गणित, वर्ग धन, वर्ग-वर्ग of which should very rightly go to Mahavir are attributed by modern historians, by mistake to writers posteriors to him". Bullition Cal. Math. Sec. XX1 P. 116. २ इसी प्रकार डाक्टर हीरालाल कापड़ियाने भारतीय गणितशास्त्र पर विचार करते हुए 'गणिततिलक' की भूमिका में लिखा है "In this connection it may be added that the Indians in general and the Jains in particular have not been behind any nation in pa ing due attention to This subject. This is berne out by Ganita Sara Sangrah V.1.15) of Mahavi racharya (850 A.D.) of the Southern School of Mathematics. There in the points out the use-fulness of Mathematics or 'the Science of Cal-culation' regarding the study of various subjects like music, logic, drama, medicine, architecture, cookery, prosody, Gramhari poetics, economics, erotics etc.". प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ पृ० १७३. · १६१ और कल्प इन दस भेदों द्वारा समस्त व्यवहारिक आव श्यकताओं की पूर्ति के लिये जैनाचार्योंने प्रयत्न किया है । जैन गणित में नदीका विस्तार, पहाड़की ऊँचाई. त्रिकाण, चौकोन क्षेत्रों के परिमाण इत्यादि अनेक व्यवहारिक बातोंका गणित और त्रिकोण मितिके सिद्धान्तों द्वारा पता चलता है । इस प्रकार समस्त जैन ज्योतिष व्यवहारिकतासेपि पूर्ण है १ । जैनाचार्योंने फलित ज्योतिष ग्रन्थकी भी रचना की । 'रिष्टसमुच्यय', 'केवलज्ञानप्रश्न चूड़ामणि' ज्योतिषशास्त्र के अपूर्व ग्रन्थ है। जैन ज्योतिषकी । व्यवहारिकता वर्णित करते हुये श्रीनेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्यजी कहते हैं। कि 'इतिहास एवं विकासक्रमकी दृष्टिसे जैनज्योतिषकाजितना महत्व है उससे कहीं अधिक महत्व व्यवहारिक दृष्टिसे भी है । जैन ज्योतिषके रचियता श्राचार्योंने भारतीय ज्योतिषकी अनेक समस्याओंको बड़ी ही सरलतासे सुलझाया है२ । प्राकृत भाषा अपने सम्पूर्ण मधुमय सौंदर्यको लिये जैन साहित्य में प्रयुक्त हुई । यदि कहा जाय कि प्राकृतका मागधीरूप और उसके पश्चात् अपभ्रंश प्रारम्भ से ही जैनाचार्योकी भाषा रही तो अत्युक्ति न होगी । जैन कवियोंने केवल एक ही भाषाका आश्रय न लेकर विभिन्न भाषाओं में भी साहित्य रचनायें की । तामिल भाषाका 'कुरल- काव्य' और 'नालदियर' जैन- साहित्य के दो •हत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इनमें साम्प्रदायिकताका तनिक भी अंश नहीं है । इस ग्रंथको देखकर कोई इसे जैन कविकी कृति नहीं कह सकता । तामिल भाषाके उच्च कोटिके तीन महाकाव्य जैनाचार्यों द्वारा ही रचे गये – 'चिन्तामणि' 'सिलप्यडिकारम्' और 'वलैतापति' । ' कन्नड साहित्य भी जैनाचार्यों द्वारा रचित उपलब्ध हता है । १३ वीं शताब्दी तक कन्नड़ भाषा में जितना साहित्य उपलब्ध होता है वह अधिकांश मात्रा में जैनाचार्यों द्वारा रचित ही है 'पंप भारत' और 'शब्दमणिदर्पण' आदि उच्च कोटिके ग्रंथ है३ । पृ० २०२ पृ० १८६ १ श्रीमहावीरस्मृति ग्रन्थ २ श्रीमहावीर स्मृति ग्रन्थ ३ तामिल और कन्नड़ साहित्यकी विशेषता प्रकट करते हुये श्री रमास्वामी श्रायंगर कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] अनेकान्त किरण ५ 'कर्नाटक कविचरित' के मूल लेखक आर. नरसिंघा भले ही पड़ गई हो लेकिन अभी तक अपेक्षाकृत निदोष चार्य जैन कवियोंके सम्बन्धमें अपने उद्गार प्रकट करते पाई जाती है। निर्दिष्ट समयके हमारे हिन्दी जैन लेखक हुए कहते हैं-'जैनी ही कन्नड भाषाके आदि कवि हैं। तथा कवियोंने भी उक्त धारणाको पूर्णरूपसे अपनाया है आज तक उपलब्ध सभी प्राचीन और उत्तम कृतियां जैन और कुछ भी लिखते समय उन्होंने इस बातका पूरा कवियोंकी ही हैं। प्राचीन जैन कवि हो कन्नड भाषाके ध्यान रखा है कि परम्परागत सिद्धांतोंका कहीं विरोध न सौन्दर्य एवं कान्तिके विशेषतया कारण हैं । पंप, रन, और हो जाय | लिखा सबवे उन सिद्धांतोंको अपनी भाषा पोन्नकी महा कवियोंमें गणना करना उचित ही है। अन्य शैली में ही है। उनकी भाषामें उक्ति वैचित्र्य भले ही हो कवियोंने भी १४वीं शताब्दीके अन्त तक सर्वश्लाध्य बात कासेका गाला आलेली चंपू काव्योंकी रचना की है। कन्नड़ भाषाके सहायक छंद, रहेगा। अलंकार, व्याकरण, कोष आदि ग्रन्थ अधिकतया जैनियांके हिन्दी जैन-साहित्यमें मारमचरित्रकी रचनाकी गई जो द्वारा ही रचित हैं।। इसकी सर्वप्रमुख विशेषता है। आजसं लगभग ३०० वर्ष तिबन्धके पूर्व संस्कृत, प्राकृत तथा अन्य जैन-साहित्य- पूर्व जब कि प्रात्मचरित्र लिखनेकी परिपाटी प्रचलित नहीं जी का इतना परिचय देनेकी आवश्यकता केवल इसीलिये थी ऐसे समयमें ६७५ दोहे और चौपाइयोंमें कविवर बनापडी कि जैनाचार्यों और लेखकोंकी यह दृढतर भावना रही रसीदासजीने अपने ५५ वर्षका प्रात्म-चरित्र लिखा । इसमें है कि प्राचीन प्राचार्योंके सिद्धांतोंसे बिल्कुल विचलित न वह संजीवनी शक्ति विद्यमान हैं जो इसको सदेव जीवित हना जाय । जैनाचार्य और जैन लेखक परम्परागत रख सकती है। यह अपने समयकी अनेक ऐतहासिक सिद्धांतोंको पूर्ण प्रामाणिक और समादरकी रिसे देखते घटनाओंसे श्रोत-प्रोत है। मुसलमानी राज्यके कठोर आये। यही कारण है कि जैन-साहित्यकी धारा छोटी व्यवहारोंका इसमें यथातथ्य चित्रण है। सत्यप्रियता और "The Jain contribution to Tamil स्पष्टवादिताके इसमें सुन्दर दृष्टान्त मिलते हैं। literature form the most precious pos• हिन्दी जैन साहित्यमें पंचतंत्राख्यानटीका और सिंघाsessions of the Tamilians. The largest सन बत्तीसी श्रादि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। नारक ग्रन्थों में portion of Sanskrit deraiviations found कविवर बनारसीदासजीका रचा हुआ नाटक समयसार in the Tamil Tanguage was introclu- अपने समयकी एक अपूर्व रचना है । यह आध्यात्मिकताced by the Jains they aftered the Sans- से ओत-प्रोत एक सुन्दर कृति है। निम्नांकित दोहेमें उनकी kirt, which they berrowed in order to आध्यात्मिकताका स्पष्ट. परिचय मिलता है। bring it in accordance with Tamil भेदज्ञान साबू भयो, समरस निमल नीर । euphonic rules. The Kanarese litera- धोबी अन्तर आत्मा, धोवे निजगुण चीर ॥ ture also owes a great deap to the प्रस्तुत ग्रन्थ परम भट्टारक श्रीमदमृतचन्द्रायजीके Jains. Infact they were the origina- संस्कृतकलशोंका पद्यानुवाद है । अनुवाद अत्यन्त सरल tors of it." और सुन्दर है। अर्थात् तामिल साहित्य, जो कि जैन विद्वानोंकी देन हिन्दी जेन-साहित्यमें टोडरमल, जयचन्द, दीपचन्द, है। तामिल भाषाके लिये अत्यन्त मूल्यवान है तामिल- टेकचन्द, दौलतराम, तथा सदासुखदास आदि उच्चकोटिभाषाके जो बहतसे शब्द पाये जाते हैं। यह कार्य जैनियों के गद्य लेखक और टीकाकार हो गये हैं। द्वारा सम्पन किया गया था उनके द्वारा ग्रहण किए गए चरित्र ग्रंथोंमें 'वरांग चरित्र 'जीवन्धरचरित्र' संस्कृत भाषाके शब्दों में ऐसा परिवर्तन किया गया है कि 'पाव पुराण' और 'वमान पुराण' आदि हैं। वे तामिल भाषाकी ध्वनिके अनुरूप हो जावें । छंद-शास्त्रकी उन्नतिमें भी हिन्दी जैन-साहित्यके -जैन शासन-३५.६-३६० कवियोंने विशेष सहयोग प्रदान किया। कविवर वृन्दावनपंकैलाशचन्द्र शास्त्री कृत जैनधर्म पृ० २६१-२६३ दास कृत 'छंद शास्त्र' पिंगलकी एक सुन्दर रचना। For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] हिन्दी जैन-सा हत्य में शुभाषित ग्रन्थोंका भी परिचय मिलता है. कविवर भूधरदः स विरचित जैनशतक, बुधजन कृत, बुधजन सतसई और छत्रपति विरचित, मदनमाहनपंचशती आदि महत्वपूर्ण काव्य-ग्रन्थ 1 हिन्दी - जैन- साहित्यकी विशेषता जैन साहित्यकी महत्ता वर्णित करते हुए श्री पूरनचंद नाहर और श्रीकृष्णचन्द्र घोष अपनी कृति 'On Epitome of Jainism' में इस प्रकार लिखते हैं। "It is beyond doubt that the Jain writers hold a prominent position in the literary activity of the country. Besides the Jain Sidhanta and its commentaries there are a great num केशरियाजी से सबेरे दश बजे चलकर हम लोग ४ बजे करीब डूंगरपुर आये। इस नगरका पुरातन नाम 'गिरिपुर' ग्रन्थों में उल्लिम्बित मिलता हैं । उस समय गिरिपुर दिगम्बर समाजके विद्वानोंकी ग्रंथ रचना स्थान रहा है जिसके दो उदाहरण नीचे दिये जाते हैं। यद्यपि इनके अतिरिक्त तलाश करने पर अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। माथुरसंघीय भट्टारक उदयचन्द्रके प्रशिष्य और भ० बालचन्द्रके शिष्य विनयचन्द्रने, जिनका समय विक्रम की १२ वीं शताब्दी है, अपना अपभ्रंशभाषाका 'चूनड़ी' नामका प्रन्थ जो ३३ पद्योंकी संख्या के लिये हुए हैं, गिरि• पुरके अजय नरेशके राजविहार में बैठकर बनाया है। X हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण ( गत किरण तीनसे भागे ) विक्रमकी १६ वीं और १७ वीं शताब्दी के पूर्वाध के विद्वान भट्टारक शुभचन्द्र ने अपना 'चन्दनाचरित्र' वाश्वर देशके 'गिरिपुर' नामके नगर में बनाकर समाप्त किया है जैसा कि 'चन्दना चरित्र' के निम्न पद्यसे स्पष्ट है: X बियि गिरिपुरु जग विक्खायड सम्मा खरडणं भरियल आयड हिबिसंतें मुखिवरेण अजय परिवो राय-विहारहिं । ber of other works both in prakrit and Sanskrit, on philosophy, Logic, Astronomy, Grammar, Rhetone, Lives of Saints etc. Both in prose and poetry .... Inshort the Jain literature c mprising as it does all the branches of ancient Indin literature holds no unsignificant a niche in the gallary of that literature, aud as it truly said by Prof. Her to. ‘With respect to its narrative part, it holds a prominent position not only in the Indian literature but in the literature of mankind." -Pp. 694-95. १६३ arrat वावरे देशे वाग्वरैर्विदिते क्षितौ । चन्दनाचरितं चक्रे शुभचन्द्रो गिरौपुरे ॥२०० इन समुल्लेखोंसे गिरिपुरकी महत्ताका स्पष्ट श्राभास मिलता है । परन्तु इस गिरिपुर नगरका 'डू ंगरपुर' नाम कब पड़ा, यह कुछ ज्ञात नहीं होता, संभव है किसी 'डूंगर' नामके व्यक्ति के कारण इस नगरका नाम डूंगरपुर लोकमें विश्र तिको प्राप्त हुआ हो अथवा डूंगर या डूंगर' शब्द पर्वतके अर्थ में प्रयुक्त होता है । अतः सम्भव है कि पहाड़ी प्रदेश होनेके कारण उसका नाम डूंगरपुर पड़ा हो । डूंगरपुर राज्यका प्राचीन नाम बागड़' है, जो गुजराती भाषा के 'त्रगढ़। ' शब्दसे बहुत कुछ सादृश्य रखता है आज कल 'गभी इसे 'वागड़िया' कह देते हैं । 'वागढ़' शब्दका संस्कृत रूपान्तर भी वाग्वर, वागट और वैयागढ़ अनेक लिखालेखों प्रशस्तियों और मूर्तिलेखोंमें अंकित मिलता है । इससे स्पष्ट है कि डूंगरपुरका सम्बन्ध वागडले रहा हैवागढ देश में डूंगरपुर, बांसवाडा और उदयपुरके कुछ दक्षिणी भागका समावेश किया जाता था अर्थात् वागढ * देखो, डूंगरपुरका इतिहास पृ० २ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] देश में छप्पन देशोंका समावेश निहित था । किन्तु जबसे उसे पूर्वी र पश्चिमी दो विभागों में विभाजित कर डूगढ़पुर राज्य और बांसवाडा राज्यकी अलग अलग स्थापना की गई। उसी समय से डूंगरपुर राज्य भी बागद कहा जाने लगा है। अनेकान्त [ किरण, ५ ५-६ घर जैनियोंके है जिनकी आर्थिक स्थिति साधारण है रहन सहन भी उच्च नहीं है । शाह कचरूलाल एक साधर्मी सजन हैं, जो प्रकृतिले भद्र जान पड़ते हैं। उन्होंने ही रात्रि में हम लोगों के ठहरनेकी व्यवस्था कराई । यहां एक जैन मन्दिर अधबना पड़ा है- कहा जाता है कि कई दि० जैन सेठ इस मन्दिरका निर्माण करा रहा था । परन्तु कारणवश किसी नवाबने उसे गोली मरवा दिया जिससे यह मंदिर उस समयसे अधूरा ही पड़ा है। C डूगरपुर राज्य में जैनियो की अच्छी संख्या पाई जाती है जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दो भागों में विभाजित है, उनमें डूंगरपुर स्टेटमें दिगम्बर सम्प्रदायके जैनियोंकी संख्या अधिक हैं जो दशा हूमड़, वीसाहूमड़, नरसिंहपुरा बीसा, तथा नागदाबीसा आदि उपजातियोंमें विभाजित है । इन जातियोंके लोग राजपूताना, वागढ़ प्रान्त और गुजरात प्रान्त में ही पाये जाते हैं । यह हूमड़ जाति किसी समय बड़ी समृद्ध और वैभवशाली रही है, यह जैन धर्मके श्रद्धा रहे हैं, इनका राज्यकार्यके संचालनमें भी हाथ रहा है। खास दूंगरपुर में दिगम्बर जैनियोंकी संख्या सी भरसे ऊपर है। एक भट्ट य गद्दी भी है और उस गद्दी पर वर्तमान भट्टारक मौजूद हैं, पर वे विद्वान नहीं है किन्तु साधारण पढ़े लिखे है । परन्तु मुझे इस समय उनका नाम स्मरण हो गया है। डूंगरपुर में 8 शिखरवन्द मन्दर हैं मन्दिरों में मूर्तियों का सग्रह अधिक है । भहारकीय मन्दिर में अनेक हस्तलिखित ग्रन्थ मौजूद हैं। जिनमें कई पत्रों पर भी अंकित हैं । डू ंगरपुर के श्रास-पास के गांवोंमें भी अनेक जैन मन्दिर हैं, जहां पहले उनमें दिगम्बर जनियोंकी आबादी थी किन्तु खेद है कि अब वहाँ एक भी घर जनियोंका नहीं है, केवल मन्दिर ही अवस्थित है । + भी सागवाडा भी डूंगरपुरराज्य में स्थित है । विक्रमकी १२वीं १६वीं और १०वीं शताब्दी में जैनधर्मका महत्वपूर्ण स्थान रहा है । सागवाडेकी भट्टारकीय गद्दी भी प्रसिद्ध रही है। इस गद्दी पर अनेक भट्टारक हो चुके हैं जिनमें कई भट्टारक बड़े भारी विद्वान और ग्रन्थकार हुए हैं। डूंगरपुरसे थोड़ी दूर ५-६ मील चलकर एक छोटी नदी पारकर हम लोग 'शालायाना' पहुँचे। यह एक छोटा सा गांव है और दूंगरपुर में ही शामिल है। यहां सेठ दामाजीक कारकी टंकी में छिद्र हो जानेके कारण रात भर ठहरना पढ़ा शाखाधानामें एक दिगम्बर जैन मन्दिर है, मन्दिर में एक शिलालेख भी अंकित है। इस गाँव में शालाधानासे ४ बजे सबेरे चलकर हम लोग रतनपुर होते हुए 'सांवला' जी पहुँचे । रास्ता बीहड़ और भयानक है बड़ी सावधानी से जाना होता है, जरा चूके कि जीवनकी आशा निराशामें बदल जानेकी शौंका रहती है। शालाधानामें दूंगरपुरके एक सैय्यद ड्राइवर ने हमारे ड्राइवरको रास्तेकी उस विषमताको बतला दिया था, साथ ही गाड़ीकी रफ्तार आदिके सम्बन्ध में भी स्पष्ट सूचना कर दी थी, इस कारण हमें रास्ते में कोई विशेष परेशानी नहीं उठानी पड़ी । श्यामाजी मन्दिर नहीं था धर्मशाला थी, अतः त्यागियोंको सामायिक कराकर संघ 'मुड़ासा' पहुँचा । मुडासामें हम लोग 'पटेल' बोडिंग हाऊसमें ठहरे, स्नानादिसे निवृत होकर भोजन किया। यह नगर भी नदीके किनारे बसा हुआ है । यह किसी समय अच्छा शहर रहा है आज भी यह सम्पन्न है, और व्यापारका स्थल बनने जा रहा है । यह वही स्थान है जहां पर भट्टारक जिनचन्द्र ने संवत् १५४८ में सहस्त्रों मूर्तियां शाह जीवराज पापडीवाल द्वारा प्रतिष्ठित कराई थी, उस समय मुड़ासामें किसी रावलका राज्य शासन चल रहा था, जिसका नाम अब मूर्ति लेखोंमें अस्पष्ट हो जाने से पढ़ा नहीं जाता है। खेद है कि आज वहां कोई भी दिगम्बर जैन मन्दिर नहीं है। हां श्वेताम्बर मन्दिर मौजूद है। यहां से हम लोग अहमदाबादकी की ओर चले । १०-१५ मील तक तो सड़क अच्छी मिली. बादमें सड़क अत्यन्त खराब ऊबड़ खाबड़ थी, मरम्मत की जा रही थी, रात्रिका समय होनेसे हम लोगोंको बड़ी परेशानी उठानी पड़ी। फिर भी हम लोग धैर्य धारणकर कष्टोंको परवाह न करते हुए रात्रिको १२ ॥ बजे अहमदाबादमें सलापस रोड पर सेठ प्रेमचन्द्र मोतीचन्द्र For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] दिगम्बर जैन बोर्डिंग हाउसमें जा पहुँचे। वहाँ वेदी प्रतिष्ठा महोत्सवका कार्य सम्पन्न होनेसे स्थान खाली न था पं० सिद्धसागरजीका ५०० आदमियोंका एक संघ पहलेसे ठहरा हुआ था। फिर भी थोड़ा सा स्थान मिल गया उसीमें रात विताई । और प्रातःकाल उठकर सामयिक क्रियाओंसे निवृत्त होकर दर्शन किये । यहाँकी जनताने 'प्रीति भोज' भी दिया और मुख्तार साहबके दीर्घायु होने की कामना भी की। भट्टारक यशःकीति और पं० रामचन्द्रजी शर्मासे भी परिचय हुआ । हमारी तीर्थयात्रा के संस्मरण सबेरे अहमदाबादसे हम लोग राजकोट के लिये रवाना हुए और वीरमगाँव पहुँच गए । वीरमगांव से वडमानकी श्रर चले, परन्तु बीचमें ही रास्ता भूल गए जिससे ला० राजकृष्णजी और सेठ छदामीलालजीसे हमारा सम्बन्ध विच्छेद हो गया, वे पीछे रह गए और हम आगे निकल श्राये | रास्ता पगडियोंके रूपमें था, पूछने पर लोग वमानको दो गऊ या चार गौ बतलाते थे, परन्तु कई मोल चलनेके बाद भी वडमानका कहीं पता नहीं चलता था। इस कारण बड़ी परेशानी उठाई । जब ५-६ मील चलकर लोगोंसे रास्ता पूछते तो वे ऊपर वाला ही उत्तर देते । आखिर कई मीलका चक्कर काटते हुए हम लोग १॥ बजेके करीब वडमान पहुँचे । परन्तु वहाँका पानी . अत्यन्त खारी था । आखिर एक श्वेताम्बर मन्दिर में पहुँचे, उनसे पूछा, ठहरनेकी अनुमति मिल गई, हम लोगोंने नहा धोकर दर्शन सामायिकादिसे निवृत्त होकर साथ में रखे हुए भोजनसे अपनी छुधा शान्त की । वहांके संघने मीठे पानी की सब व्यवस्था की। वे साधर्मी सज्जन बड़े भद्र प्रकृतिके जान पड़ते थे । वहाँसे हम लोग चलकर रात्रि में १ बजेके करीब 'राजकोट' पहुँचे और कानजी स्वामीके उपदेशसे निर्मित नूतन मंदिर के अहाते में स्थित कमरों में ठहरे | राजकोट निवासी ब्र० मूलशंकरजीके साथ में होनेसे हम लोगोंको ठहरनेमें किसी प्रकारकी असुविधा नहीं हुई । प्रातःकाल दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर मंदिरजीमें श्रीमंधरस्वामोको भव्य मूर्तिके दर्शन किये । मूर्ति बड़ी ही मनोश और चित्ताकर्षक है, मूर्तिका अवलोकन कर हम 'योग मार्गजन्य खेदको भूल गये, हृदयकमल खिल गये, उक्त मूर्तियोंके दर्शनसे अभूत पूर्व आनन्द हुआ । वास्तवमें मूर्ति कलाकारके मनोभावोंका मूर्तिमान चित्रण है । [ १६५ साथमें यह भी विचार आया कि प्रत्येक मन्दिर में इसी प्रकारकी चिशाकर्षक मूर्तियाँ होनी चाहिये और मन्दिर इसी तरह सादा तथा धर्मसाधनकी श्रम्य सुविधाओं को लिये होने चाहिये । राजकोटका यह मन्दिर दो ढाई लाख रुपया खर्च करके गुजरातके संत श्रीकानजीस्वामी के उपदेशसे अभी बनकर तैयार हुआ है । मन्दिर सादा, स्वच्छ. हवादार और धर्मसाधनके लिये उपयुक्त है, श्रीमन्धर स्वामीकी उक्त मूर्तिका चित्र भी लिया गया है। ब्रह्मचारी मूलशंकरजी के यहां हम लोगोंने भोजन किया । उस समय ब्रह्मचारीजीके कुटुम्बका परिचय पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई मूलशंकरजीने अपने हरे-भरे एवं सुख समृद्ध परिवारोंको छोड़कर प्रात्मकल्याणकी दृष्टिसे अपनेको व्रतोंसे अलंकृत किया। उनके दोनों लड़के पोते और पोती तथा धर्मपत्नी सभी शान्त और धर्मश्रद्धालु जान पड़े । उनके समस्त परिवारका संयुक्त चित्र भी लिया गया है। राजकोट मुजरातका एक अच्छा शहर है, यहाँ सभी प्रकारकी चीजें मिलती हैं नगर समृद्ध है, अहमदाबादकी अपेक्षा अधिक साफ-सुथरा है । यहांके जैनियों पर कानजीस्वामीके उपदेशोंका अच्छा असर है । दुपहरके बाद हम लोग राजकोटसे रवाना होकर गोधरा होते हुए मूनागढ़ पहुँचे और वहांसे गिरनारजोकी तलहटीमें स्थित धर्मशाला में गए। वहां देखा तो दिगम्बर धर्मशाला यात्रियोंसे ठसाठस भरी हुई थी । उसमें स्थान न मिलने पर हम लोग श्वेताम्बर धर्मशाल में ठहरे | प्रातःकाल ३ बजेके करीब दैनिक कृत्योंसे निपटकर हम लोग यात्राको गए और हम लोगोंने पहाड़ पर चढ़कर सानन्द यात्राएँ की । यात्रामें बढ़ा ही आनन्द श्राया । मार्गजन्य कष्टका किंचित् भी अनुभव नहीं हुआ । गिरिनगर या गिरिनारका प्राचीन नाम 'उज्जयंत' 'ऊर्जयन्त' गिरि है। रैवतकगिरि और गिरिनगर नामोंका कब प्रचलन हुआ इसका ठीक निर्देश अभी तक नहीं मिला, किन्तु इतना स ष्ट है कि विक्रमकी 8वीं शताब्दी के प्राचार्य वीरसेनने अपनी धवला टीकामें 'सोरट्ठविषय - गिरिणयर -- पट्टण चंद्रगुहा-ठिएण' वाक्यके द्वारा सौराष्ट्र देशमें स्थित गिरिनगर का उल्लेख किया हैं जिससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि उस समय तथा उससे पूर्व 'गिरिनगर' शब्दका प्रचार हो चुका था । गिरिनगर सौराष्ट्र देश की वह पवित्र भूमि है जिस पर जैनियोंके २२ में तीर्थंकर भगवान नेमिनाथने तपश्चर्या For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] अनेकान्त किरण ५ मन्दिर दो संख्या लिक लगता है द्वारा कर्मशत्रुओंको विनष्ट कर केवलज्ञान द्वारा जगतके इस क्षेत्रकी यात्रासे सातिशय पुण्यका संचय होता है। जीवोंको संसारके दुःखोंसे छूटनेका सरल उपाय बतलाया प्राचीनकाल में अनेक तीर्थ यात्रा संघ इस पर्वत पर था, साथ ही लोकमें दयाकी वह मन्दाकिनी वहाई जिससे अपूर्व उत्साहके साथ पाते और पूजा वंदनाकर लौट अनन्त जीवोंका उद्धार हुआ था, मांसभक्षणकी लोलुपता- जाते थे। भाज यह केवल जैनियोंका ही तीर्थ नहीं रहा के लिये बंदी किये गये उन पशुओंको रिहाई मिली थी है किन्तु हिन्दुओं और मुसलमानोंका भी तीर्थ बना हुआ जो भगवान नेमिनाथके विवाह में सम्मिलित यदुवंशी राजाओं है । हिन्दु लोग पांचवी टोंक पर नेमिनाथके चरणोंको की चुधापूर्ति के लिये एक बाडे में इकट्ठ किये गये थे। इस दत्तात्रयके चरण बतलाकर पूजते हैं और दूसरी तीसरी पर्वत पर सहस्त्रों व्यक्तियोंने तृष्णाके अपरिमित तारोंको टोंक पर उन्होंने अपने तीर्थस्थानकी भी कल्पना की तोड़कर और देहसे भी नेह छोड़कर आत्मसाधना कर हुई है। अतः हिन्दू समाज भी इस क्षेत्रका समादर करता परमात्मपद प्राप्त किया था। अतएव यह निर्वाण भूमि है। मुसलमान भी मदारसा नामक पीरकी कब बतलाकर अत्यन्त पवित्र है। यहांके भूमण्डलके कण कण में साधना इवादत करने आते हैं। की वह पवित्र भावना तपश्चर्या की महत्ता, तथा स्वपर-दया- . जैनियोंके मन्दिर प्रथम टोंक पर ही पाये जाते हैं। का उत्कर्ष सर्वत्र व्याप्त है। भगवान नेमिनाथकी जयके भागेकी टोंकों पर केवल, चरण-चिन्ह ही अंकित हैं। यह नारे असमर्थ वृद्धाओं एवं अन्य दुबैल व्यक्तियाके जोवनम मन्दिर दो भागों में विभाजित हैं दिगम्बर और श्वेताम्बर ! भी उत्साह और धैर्यकी लहर उत्पन्न कर देते हैं। दिगम्बर मन्दिरोंकी संख्या सिर्फ तीन हे और श्वेताम्बरोंके नेमिनाथ भगवानके गणधर वरदत्तकी और अगणित मं दरोंकी संख्या २२ है। मुझे तो ऐसा लगता है कि प्राचीन मनियोंकी यह निर्वाणभूमि रहा है । अतः इसकी महत्ताका काल में इस क्षेत्रपर दिगम्बर श्वेताम्बरका कोई भेद नहीं कथन हम जसे अल्पज्ञोंसे नहीं हो सकता । था, सभी यात्री समान भावसे आते और यात्रा करके चले इसी सौराष्ट्र देशके उक्त गिरिनगरकी 'चन्दगुफा जाते थे। परन्तु १०वीं 9वीं सदीके बादसे साम्प्रदायिक में आजसे दो हजार वर्ष पहले अष्टांग महानिमित्त ज्ञानी व्यामोहकी मात्रा अधिक बढ़ी तभीसे उक्त कल्पना रूढ़ हुई है। इसमें सन्देह नहीं कि उभय समाज के श्रीमानों और प्रवचन वत्सल, महातपस्वी क्षीणकाययोगी अंगपूर्वके एक विद्वानों तथा साधु समय समय पर यात्रा संघ पाते. देशपाठी धरसेनाचार्य ने दक्षिण देशवासी महिमा नगरीके रहे हैं। आज हम वहां गिरिनगरमें विक्रमकी १२वीं १३वीं उत्सवसे श्रागत पुष्पदन्त भूत बलिनामक साधुओंको सिद्धांत शताब्दीके बने हुए श्वेताम्बर मन्दिर देखते हैं किन्तु पुरा. ग्रन्थ पढ़ाया था। तन दिगम्बर मन्दिरोंका कोई अवशेष देखने में नहीं पाता। . इसके सिवाय, विक्रमकी द्वितीय शताब्दीके प्राचार्य वर्तमानमें जो दिगम्बर मन्दिर विद्यमान हैं वे १७ वीं समन्तभद्र स्वामीके स्वयम्भू स्तोत्रके अनुसार उस समय शताब्दीके जान पड़ते हैं, यद्याप ये उसी जगह बने हुए मह पहाड़ भक्तिसे उल्लसितचित्त ऋषियों द्वारा निरन्तर कहे जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि गिरनगरमें दिगम्बर अभिसेवित था और पहाड़की शिखरें विद्याधरोंकी स्त्रियोंसे पुरातन मंदिर न बने हों, क्योंकि पुरातन मन्दिर और समलंकृत थीं। इससे स्पष्ट है कि आजसे १५०० वर्ष चरणवन्दनाके उल्लेख भी उपलब्ध हैं जिनसे स्पष्ट जान पूर्व यह पावन तीर्थभूमि जैन साधुओंके द्वारा अभिवंदनीय तथा तपश्चरण भूमि बनी हुई थी। उसके बाद अब पड़ता है कि गिरिनगर पर दि० मन्दिर विद्यमान थे। कमसे कम १२ वी १३ वीं शताब्दीके मन्दिर तो अवश्यही सकतक यह भूमि बराबर तीर्थभूमिके रूपमें जगतमें मानी बने हुए थे। पर उनका क्या हुआ यह कुछ समझमें नहीं एवं पूजी जाती रही है। अनेक साधु, श्रावक, श्राविकाओं श्राता, हो सकता है कि कुछ पुरातन मन्दिर व मूर्तियां और विद्वानोंके द्वारा समय॑नीय है। इसी कारण जैन समाजमें इस क्षेत्रकी निर्वाणक्षेत्रोंमें गणनाकी गई है। जीर्ण हो गई हों, या उपद्रवादिके कारण विनष्ट कर दी गई हों, कुछ भी हुआ हो. पर उनके अस्तित्वसे इंकार गिरिनगरकी यह गुफा अाजकल 'बाबा प्यारा के नहीं किया जा सकता। परन्तु खेद है कि सम्प्रदायके व्यामठ' के पास वाली जान पड़ती है। मोहसे दिगम्बरोंको अपनी प्राचीन सम्पत्तिसे भी हाथ धोना For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण [१६७ पड़ा है। यह पहाड़ पहले दिगम्बर सम्प्रदायके कब्जे में ही तीसरी टोंकसे आगे चलनेपर एक दम उतार पाता है था और वही इसका प्रबन्ध करते थे। इनकी अस्त व्यस्तता नीचे पहुँचने पर जहाँ कुछ समभाग प्राजाता है, वहांसे और असावधानीही उसमें निमित्त कारण है। इनकी बाईं ओर चौथी टोंक पर जानेका पगडंडी मार्ग प्राता है। प्राचीन सामग्री विद्वेशवश नष्ट-भ्रष्ट करदी गई हैं। इस टोकपर चढ़नेके लिये सीढ़ियां नहीं हैं, इस कारण गिरनारजीके तीर्थयात्रा स्थल चढ़ने में बड़ी कठिनाई होती है, बड़ी सतर्कता एवं सावधानी से चढ़ना होता है जरा चूके कि जीवनका अन्त समझिए। तलहटीसे दो मीलकी दूरी पर एक बड़ा दरवाजा इसीसे कितनेही लोग चौथी टोककी नीचेसे वंदना करते श्राता है उससे कहीं ४० कदम पर दाहिनी ओर एक हैं। टोंकके ऊपर काले पाषाण पर नेमिनाथकी प्रतिमा सरकारी बगला है, इसमें एक दुकानदार रहता है इसके तथा दूसरी शिलापर चरण अंकित हैं, जिस पर संवत् वाजूमें दिगम्बर जैन धर्मशाला है । जिसमें एक पुजारी १२४४ का एक लेखभी उत्कीर्ण किया हुआ है। पर्वतकी और एक सफाई करने वाला रहता है पासमें श्वेताम्बर यह शिखर अत्यन्त ऊँची है, इस परसे चारों ओरका धर्मशाला है । यहां से सीधी सड़क चलने दृश्य बड़ाही सुन्दर प्रतीत होता है। परन्तु जब पर दाहिनी ओर एक छोटा सा दरवाजा मिलता है नीचेकी ओर अवलोकन करते हैं तब भयसे शरीर उससे करीब १२७ मीढ़ी चढ़ने पर दाहिनी ओर एक कांप जाता है। कम्पाउन्डके अन्दर तीन दिगम्बर मान्दर हैं बाई ओर नीचे श्वेताम्बर मंदिर हैं और इन्हीं दिगम्बर मन्दिरोंके उस सम भूभागसे आगे चलने पर कुछ चढ़ाई नीचे राजुलकी गुफा है। अस्तु, मन्दिरोंसे १०५ सीढ़ी आती है उसे तय कर यात्री पांचवीं टोंक पर पहुँचता चढ़ने पर 'गोमुखीकुण्ड' मिलता है। यहां कम्पाउन्डके है। इस टोंक पर भगवान नेमिनाथके चरण हैं, एक अन्दर नर कुण्डके ऊपर ताकमें चौबीस तीर्थंकर भगवानके पाषाणकी मूति भी है जो कुछ घिस गई है। यहीं पर चरण हैं। यह कुण्ड हिन्दू भाइयोंका है। इस कम्पाउन्डमें नेमिनाथके गणधर वरदत्तका निर्वाण हुश्रा है । हिन्द महादेवके मन्दिर हैं। यह सब स्थान पहली टोंक कहा भाई नेमिनाथके चरणोंको दत्तात्रयके चरण कह कर पूजने जाता है। इस गोमुखीकुण्डके पाससे उत्तरकी ओर हैं और मुसलमान मदारशा पीरको तकिया कहते हैं। इस सहसाम्रवनके जानेका मार्ग भी आता है। प चवीं टोकसे ५-७ सीढ़ी नीचे उतरने पर संवत् ११०८ प्रथम टोकसे आगे चलने पर गिरनार पर्वतकी चोटी का एक लेख मिलता है जैनी यात्री इसी टोंकसे नीचे पर बाई भोरको अम्बादेवीका एक बड़ा मन्दिर बना हुआ उतर कर वापिस दूसरी टोंक पर जाते हैं और वहां से वे है । इसके पीछे चबूतरा पर अनिरुद्ध कुमारके चरण हैं। सहसाम्रवन होते हुए तलहटीकी धर्मशाला में आ जाते हैं। हिन्दू भाई इसे अम्बामाताको रोंक कहते हैं। हम लोग यहां पर ६ दिन ठहरे, तीन यात्रएं की। एक _____ यहांसे भागे चलने पर एक तीसरी टोंक पाती है। दिन मध्यमें झूनागढ़ शहर भी देखा और मन्दिरोंके दर्शन इस पर शम्भूकुमारके चरण हैं। हिन्दू लोग इसे गोरख किए, अजायब घर भी देखा। नाथको टोंक बतलाते हैं। यहांसे हम लोग पुनः राजकोट होते हुए सोनगढ़ पहुँचे। अनेकान्त समाजका लोकप्रिय ऐतिहासिक और साहित्यिक पत्र है उसका प्रत्येक साधर्मीको ग्राहक बनना ओर बनाना परम कर्तव्य है। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरलका महत्व और जैनकर्तृत्व [ श्रीविद्याभूषण पं. गोविन्दराय. जैन शास्त्री] [ इस लेखके लेखक जैन समाजके एक प्रसिद्ध प्रज्ञाचक्षु विद्वान हैं जिन्होंने कुरल काग्यका गहरा अध्ययन ही नहीं किया बल्कि उसे संस्कृत, हिन्दी गद्य तथा हिन्दी पद्यों में अनुवादित भी किया है, जिन सबके स्वतंत्र प्रकाशनका आयोजन हो रहा है। आप कितने परिश्रमशील लेखक और विचारक हैं यह बात पाठकोंको इस लेख परसे सहज ही जान पड़ेगा । आपने अब अनेकान्तमें लिखनेका संकल्प किया है यह बड़ी ही प्रसन्नताका विषय है और इसलिये अब आपके कितने ही महस्वके लेख पाठकोंको पढ़नेको मिलेंगे, ऐसी दृढ़ अाशा है। -सम्पादक ] परिचय और महत्व इसे अधिक महत्व इस कारण देते हैं कि इसकी विषय'कुरल' तामिल भाषाका एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति- विवेचन-शैली बड़ी ही सुन्दर, सूचम और प्रभावोत्पादक प्राप्त काग्य ग्रन्थ है । यह इतना मोहक और कलापूर्ण है है। विषय-निर्वाचन भी इसका बड़ा पांडित्यपूर्ण है। कि संसार दो हजार वर्षसे इसपर मुग्ध है यूरोपकी प्रायः मानवजीवनको शुद्ध और सुन्दर बनानेके लिए जितनी सब भाषानों में इसके अनुवाद हो चुके हैं। अंग्रेजी में इसके विशालमात्रामें इसमें उपदेश दिया गया है उतना अन्यत्र रेवरेण्ड जी. यू. पोपकवि, वो. वी. एस. अय्यर मिलना दुर्लभ है । इसके अध्ययनसे सन्तप्त-हृदयको बहुत और माननीय राजगोपालाचार्य द्वारा लिखित तान मनु- शांति और बल मिलता है, यह हमारा निजका भी अनुवाद विद्यमान हैं। भव है। एक ही रात्रिमें दोनों नेत्र चले जानेके पश्चात् तामिल भाषा-भाषी इसे 'तामिल वेद' 'पंचम वेद' । हमारे हृदयको प्रफुल्लित रखनेका श्रेय कुरलको ही प्राप्त 'ईश्वरीय ग्रन्थ' 'महान सत्य' 'सर्वदेशीय वेद' जैसे नामों है। हमारी रायमें यह काव्य संसारके लिए वरदान स्वरूप से पुकारते हैं। इससे हम यह बात सहजमें ही जान सकते ____ जो भी इसका अध्ययन करेगा वही इसपर निछावर हो हैं कि उनकी दृष्टिमें कुरलका कितना आदर और महत्व जावेगा । हम अपनी इस धारणाके समर्थनमें तीन अनुवा. है। 'नादियार' और 'कुरल' वे दोनों जैन काव्य तामिल दकोंके अभिमत यहां उद्धृत करते हैं:भाषाके 'कौस्तुभ' और 'सीमन्तक' माण हैं । तामिल १.डा. पोपका अभिमत - 'मुझे प्रतीत होता है कि भाषाका एक स्वतंत्र साहित्य है, जो मौलिकता तथा । इन पद्योंमें नैतिक कृतज्ञताका प्रबलभाव, सत्यकी तीव्रशोध, विशालतामें विश्वविख्यात् संस्कृत साहित्यसे किसी भी स्वार्थरहित तथा हार्दिक दानशीलता एवं साधारणतया भांति अपनेको कम नहीं समझता । उज्जवल उद्देश्य अधिक प्रभावक हैं। मुझे कभी कभी कुरलका नामकरण ग्रन्थमें प्रयुक्त 'कुरलवेगावा' ऐसा अनुभव हुआ है कि मानो इसमें ऐसे मनुष्योंके लिए भण्डाररूपमें आशीर्वोद भरा हुआ है जो इस नामक छन्दविशेषके कारण हुआ है जिसका अर्थ दोहा. प्रकारकी रचनाओंसे अधिक प्रानन्दित होते हैं और इस विशेष है। इस नीति काव्यमें १३३ अध्याय हैं, जो कि तरह सत्यके प्रति सुधा और विपासाकी विशेषताको धर्म(भरम) अर्थ (पोरुल) और काम इनवम, इन तीन घोषित करते हैं, वे लोग भारत-वर्षके लोगोंमें श्रेष्ठ हैं विभागोंमें विभक्त हैं और ये तीनों विषय विस्तारके साथ तथा कुरल एवं नालदीने उन्हें इस प्रकार बनाने में इस प्रकार समझाये गये हैं जिससे ये मूलभूत अहिंसा सहायता दी है। सिद्धान्तके साथ सम्बद्ध रहें। पारखी तथा धार्मिक विद्वान २. श्री वी.वी. एस. अय्यरका अभिमत-'कुरलयह वह काव्य है जिसे श्रुतकेवली भद्रबाहुके संघमें कर्ताने श्राचार-धर्मकी महत्ता और शक्ति का जो वर्णन किया दक्षिण देशमें गये हुये पाठ हजार मुनियोंने मिलकर है उससे संसारके किसी भी धर्म संस्थापकका उपदेश ताया था। अधिक प्रभावयुक्त या शक्तिप्रद नहीं है जो तत्व इसने For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] कुरलका महत्व और जैनकर्तृत्व [१६६ बतलाये हैं उनसे अधिक सूचबात भीष्म या कौटिल्य कि 'इसमें संदेह नहीं कि ईसाई धर्मका कुरलकर्ता पर सबसे कामन्दक या रामदास विष्णुशर्मा या माई० के. वेलीने अधिक प्रभाव पड़ा था । कुरलकी रचना इतनी उत्कृष्ट नहीं भी नहीं कही है। व्यवहारका जो चातुर्य इसने बतलाया हो सकती थी यदि उन्होंने सेन्टटामससे मलयपुर में ईसाके है और प्रेमीका हृदय और उसकी नानाविधिवत्तियों पर उपदेशोंको न सुना होता।' इस प्रकार भिन्न भिन्न सम्प्रजो प्रकाश इसने डाला है उससे अधिक पता कालिदास दाय वाले कुरलको अपना अपना बनानेके लिए परस्पर या शेक्सपियरको भी नहीं था।' होड़ लगा रहे हैं। श्रीराजगोपालाचार्यका अभिमत-'तामिल जाति इन सबके बीच जैन कहते हैं कि 'यह तो जैन ग्रन्थ की अन्तरात्मा और उसके संस्कारोंक' ठीक तरहसे सम है, सारा ग्रन्थ "अहिंसा परमोधर्मः" की व्याख्या है और मनेके लिये 'विक्कुरल का पढ़ना आवश्यक है। इतना इसके कर्ता श्री एलाचार्य हैं, जिनका कि अपरनाम कुन्दही नहीं यदि कोई चाहे कि भारतके समस्त साहित्यका कुन्दाचार्य है।' मुझे पूर्णरू.से ज्ञान हो जाय तो त्रिकरलको बिना पढ़े शेव और वैष्णवधर्मकी साधारण जनतामें यह भी हुए उसका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता। लोकमत प्रचलित है कि कुरलके कर्ता अछूत जातिके एक विक्कुरल, विवेक शुभसंस्कार और मानव प्रकृतिके जुलाहे थे। जैन लोग इस पर आपत्ति करते हैं कि नहीं, व्यवहारिक ज्ञानकी खान है। इस अद्भुत ग्रन्थकी सबसे वे क्षत्री और राजवंशज हैं। जैनोंके इस कथनसे वर्तमान बड़ी विशेषता और चमत्कार यह है कि इसमें मानवचरित्र युगके निष्पक्ष तथा अधिकारी तामिल-भाषा विशेषज्ञ सहऔर उसको दुर्बलताओंकी तह तक विचार करके उच्च मत हैं। श्रीयुत् राजाजी राजगोपालाचार्य तामिलवेदकी आध्यात्मिकताका प्रतिपादन किया गया है । विचारके प्रस्तावनामें लिखते हैं कि-'कुछ लोगोंका कथन है कि सचेत और संयत औदार्य के लिए त्रिक्कुरलका भाव एक कुरलके कर्ता अछूत थे, पर ग्रन्थके किसी भी अंशसे या ऐसा उदाहरण है कि जो बहुत काल तक अनुपम बना उसके उदाहरण देने वाले अन्य ग्रन्थ लेखकोंके लेखोंसे रहेगा । कलाकी दृष्टिसे भी संसारके साहित्य में इसका इसका कुछ भी पाभास नहीं मिलता। और हमारी रायस्थान ऊँचा है, क्योंकि यह ध्वनि काव्य है, उपमाएँ और में बुद्धि कहती हैं कि अ जी एक तामिल भाषाका ज्ञाता दृष्टान्त बहुत ही समुचित रक्खे गए हैं और इसकी शैली अकृत कुरलको नहीं बना सकता, कारण कुरलमें तामिल प्रांतीय विचारोंका ही समावेश नहीं है किन्तु सारे भारतीय विचारोंका दोहन है। इसका अर्थशास्त्र-सम्बन्धी ज्ञान'कुरलका कत्त्व कौटिलीय अर्थशास्त्रकी कोटिका है। इस ग्रन्थका रचयिता भारतीय प्राचीनतम पद्धतिके अनुसार यहांके प्रन्थ निःसन्देह बहुश्र त और बहुभाषा-विज्ञ होना चाहिए, की ग्रन्थमें कहीं भी अपना नाम नहीं लिखते थे । कारण, जैसे एलाचार्य थे। उनके हृदय में कीतिलालसा नहीं थी किन्तु लोकहितकी तामिल भाषाके कुछ समर्थ अजैन लेखकोंकी यह भी भावना ही काम करती थी। इस पद्धतिके अनुसार लिखे राय है कि 'कुरलके कर्ताका वास्तविक परिचय अब तक गये ग्रंथोंके कर्तृव-विषयमे कभी कभी कितना ही मतभेद हम लोगोंको अज्ञात है, उसके कर्त्ता तिरुवल्जवरका यह खड़ा हो जाता है और उसका प्रत्यक्ष एक उदाहरण कल्पित नाम भी संदिग्ध है। उनकी जीवन घटना ऐतिकुरलकाग्य है । कुछ लोग कहते हैं कि इसके कर्ता हासिक तथा वैज्ञानिक तथ्योंसे अपरिपूर्ण है। 'तिरुवल्लवर' थे और कुछ लोग यह कहते हैं कि इसके अन्तः साक्षीकर्ता 'एलाचार्य' थे। - अतः हम इन कल्पित दन्तकथाओंका आधार छोड़कर इसी प्रकार कुरलक के धर्म सम्बन्ध में भी मतभेद अन्धकी अन्तः साक्षी और प्राप्त ऐतिहासिक उदाहरणोंको है शैव लोग कहते हैं कि यह शैवधर्मका ग्रन्थ है और लेकर विचार करेंगे, जिससे यथार्थसत्यकी खोज हो सके। वैष्णव लोग इसे वैष्यावधर्मका ग्रन्थ बतलाते हैं। इसके जो भी निष्पक्ष विद्वान इस ग्रंथका सूपमताके साथ परीअंग्रेजी अनुवादक डा. पोपने तो यहाँ तक लिख दिया है क्षण करेगा उसे यह बात पूर्णतःसट हुए बिना नहीं For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] अनेकान्त किरण १ रहेगी कि यह ग्रन्थ शुद्ध अहिंसाधर्मसे परिपूर्ण है और ईश्वरस्तुति नामक प्रथम अध्यायके प्रथम पद्यमें इसलिये यह जैन मस्तिष्ककी उपज होना चाहिए । श्रीयुत् 'श्रादिपकवन' शब्द अाया है जिसका अर्थ होता है 'आदि सुब्रह्मण अय्यर अपने अंग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावनामें भगवान'. जो कि इस युगके प्रथम अरहन्त भगवान लिखते हैं कि 'कुरलकाव्यका मंगलाचरण वाला प्रथम प्रादीश्वर ऋषभदेवका नाम है। दूसरे पद्यमें उनकी सर्वज्ञता अध्याय जैनधर्मसे अधिक मिलता है।' . . का वर्णन कर पूजाके लिए उपदेश दिया गया है। तीसरे फूल भले ही यह न कहे कि मैं अमुक बृनका हूँ, फिर पद्य में 'मलिमिशै' अर्थात् कमलगामी कहकर उनको भी उसकी सुगन्धि उसके उत्पादक वृक्षको कहे बिना नहीं अरहन्त अवस्थाके एक अतिशयका वर्णन है। चौथे पद्यमें रहती; ठीक इसी प्रकार किसी भी ग्रंथके कर्ताका धर्म हमें उनकी वीतरागताका व्याख्यान कर, पांचवें पद्यमें गुणगान भले ही ज्ञात न हो पर उसके भीतरी विचार उसे धर्म करनेसे पापकर्मोका क्षय कहा गया है, छठे पद्यमें उनसे विशेषका घोषित किये बिना न रहेंगे। लेकिन इन विचारों उपदिष्ट धर्म तथा उसके पालनका उपदेश दिया गया है का पारखी होना चाहिए । यदि अजैन विद्वान् जैनवाह और सातवेंमें उपयुक्त देवकी शरण में प्रानेसे ही मनुष्यको मयके ज्ञाता होते तो उन्हें कुरलको जैनाचार्यकृत मानने में सुख शांति मिल सकती है ऐसा कहा है। जैनधर्म में सिद्ध कभी देरी न लगती । ग्रन्थकर्त्ताने जैन भाव इस काव्यमें परमेष्ठीके श्राठगुण माने गये हैं इसलिए सिद्धस्तुति कलापूर्ण ढंगसे लिखे हैं उनको वे लोग जैनधर्मसे ठीक करते हुए पाठवें पद्य में उनके पाठ गुणोंका निर्देश परिचित न होने के कारण नहीं समझ सके हैं करलकी किया गया है । सारी रचना जैन-मान्यताओंसे परिपूर्ण है। इतना ही नहीं जैनधर्म में पृथ्वी वातवलयसे वेष्टित बतलाई किन्तु उसका निर्माण भी जैनपद्धतिको लिये हुए हैं। इसका गई है कुरलमें भी पच्चीसवें अध्यायके पांचवें पद्यमें कुछ दिग्दर्शन हम यहां कराते हैं दयाके प्रकरणमें कहा गया है-'क्लेश दयालु पुरुषके .' इसमें किसी वैदिक देवताकी स्तुति न देकर जैनधर्मके लिए नहीं है, भरी पूरी वायु वेष्टित पृथ्वी इस बातकी अनुसार मंगलकामना की गई है । जैनियामें मंगल-कामना साक्षी है। करनेकी एक प्राचीन पद्धति है, जिसका मूल यह सूत्र है कि सत्यका लक्षण कुरल में वही कहा गया है जा जैनधर्म 'चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, को मान्य है-ज्योंको त्यों बात कहना सत्य नहीं है किंतु केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ।" अर्थात् चार हमारे लिये समीचीन अर्थात् लोकहितकारी बातका कहनाही सत्य है, मंगलमय हैं-अरहन्त सिद्ध, साधु और सर्वज्ञाणीत भले ही वह ज्यों की त्यों न हो - धर्म। देखिए 'ईश्वरस्तुति' नामक प्रथम अध्यायमें प्रथम नहीं किसी भी जीवको, जिससे पीड़ा कार्य।.. पद्यसे लेकर सातवें तक अरहन्त स्तुति है और आठवें में सत्य बचन उसको कहें, पूज्य ऋषीश्वर आर्य ॥१॥ सिद्धस्तुति है । नवमें और दशवें में साधुके विशेष भेद . . वैदिक पद्धतिमें जब वर्णव्यवस्था जन्ममूलक है तब प्राचार्य और उपाध्यायकी स्तुति है। जैन पद्धतिमें वह गुणमूलक है। कुरल में भी गुणमूलक सम्राट मौर्य चन्द्रगुप्तके समय उत्तर भारतमें १२ वर्णव्यवस्थाका वर्णन है-'साधु प्रकृति-पुरुषोंको ही ब्राह्मण वर्षका एक बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा था, जिसके कारण साधुचर्या कहना चाहिए, कारण वे ही लोग सब प्राणियों पर दया कठिन हो गई थी। अतः श्रतकेवली भगबाहुके नेतृत्व में रखते हैं। अाठ हजार मुनियोंका संघ उत्तर भारतसे दक्षिण भारत वैदिक वर्णव्यवस्थामें कृषि शूद्रका हो कर्म है तब चला गया था। मेघवर्षाके बिना साधुचर्या नहीं रह सकती कुरल अपने कृषि अध्याय में उसे सबसे उत्तम आजीविका यह भाव उस समय सारी जनतामें छाया था, इसलिए बताता है क्योंकि अन्यलोग पराश्रित तथा परपिण्डोपजीवी कुरलके कर्ताने उसी भावसे प्रभावित होकर 'मुनि स्तुति' हैं। जेन शास्त्रानुसार प्रत्येक वर्ण वाला व्यक्ति कृषि कर नामक तृतीय अध्यायके पहले 'मेघ महिमा' नामक द्वितीय सकता है। अध्यायको लिखा है। साधुस्तुतिके पश्चात् चौथे अध्यायमें उनका जीवन सत्य जो, करते कृषि उद्योग । मंगलमय धर्मकी स्तुति की गई । और कमाई अन्यकी, खाते बाकी लोग ॥ .. For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ कुरलका महत्व और जैनकर्तृत्व । १७१ - जैन शास्त्रों में नरकोंको 'विवर' अर्थात् बिलरूपमें पद्य उद्धणमेंमें देकर उसे आदरणीय जनग्रन्थ माना है। तथा मोक्ष स्थानको स्वर्गलोकके ऊपर माना है। कुरलमें २. नीलकेशी-यह तामिलभाषामें जनदर्शनका ऐसा ही वर्णन है; जैसाकि उसके पद्योंके निम्न अनुवादसे प्रसिद्ध प्राचीन शास्त्र है। इसके जैन टीकाकार अपने पक्षके समर्थन में अनेक उद्धरण बड़े श्रादरके साथ देते हैं, जीवन में ही पूर्वसे. कहे स्वयं अज्ञान । जैसे कि 'इम्मोटू' अर्थात् हमारे पवित्र धर्मग्रन्थ कुरलमें अहो नरकका छबिल, मेरा अगला स्थान ॥ कहा है। 'मेरा' मैं ? के भाव तो, स्वार्थ गर्वके थोक । ३. प्रबोधचन्द्रोदय-यह तामिलभाषामें एक न टक जाता त्यागी है वहाँ, स्वर्गोपरि जो लोक ॥ है, जो कि संस्कृत प्रबोधचन्द्रोदयके आधार पर शंकाच र्यसागारधर्मामृतके एक पद्य में पं० आशाधाजीने प्राचीन के एक शिष्य द्वारा लिखा नया है। इसमें प्रत्येक धर्मके जैन परम्परासे प्राप्त ऐसे चौदह गुणोंका उल्लेख किया है प्रतिनिधि अपने अपने धर्मग्रन्थका पाठ करते हुए रंगमंच जो गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने वाले नर-नारियोंमें परिलक्षित पर लाये गये हैं। जब एक निर्ग्रन्थ जैन मुन स्टेज पर होने चाहिये, वह पद्य इस प्रकार है आते हैं तब वह कुरलके उस विशिष्ट पद्यको पढ़ते हुए न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरुन् सद्गीस्त्रिवर्ग भजन , प्रविष्ट होते हैं जिनमें अहिंसा सिद्धान्तका गुणगान इस अन्योऽन्यानुगुणं तदहगृहिणी स्थानालयो ह्रीमयः। रूपमें किया गया है :युक्ताहारविहारआर्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी, सुनते हैं बलिदानसे, मिलतीं कई विभूति । शृण्वन् धर्मविधि दयालु रघभीः सागरधर्म चरेत् ॥ वे भव्योंकी दृष्टिमें, तुच्छघृणा की मूर्ति ॥ : ... हम देखते हैं कि इन चौदह गुणांकी व्याख्याही सारा कुरल काव्य है। यहाँ यह सूचित करना अनुचित नहीं है कि नाटिक कारकी दृष्टिमें कुरल विशेषतया जैनग्रन्थ था, अन्यथा वह ऐतिहासिक बाहरी साक्षी - इस पद्यको जैन संन्यासीके मुखसे नहीं कहलाता। १. शिलप्पदिकरम्-यह एक तामिल भाषाका इस अन्तर्रग और बहिरङ्ग साक्षीसे इस विषय में अति सुन्दर प्राचीन जनक'व्य है। इसकी रचना ईसाकी सन्देहके लिए प्रायः कोई स्थान नहीं रहता कि यह ग्रन्थ द्वितीय शताब्दी में हुई थी। यह काव्य, काव्यकला- एक जैन कृति है । नि.सन्देह इस नीतिके ग्रन्थकी की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही, साथ ही तामिल जाति रचना महान् जैन विद्वान्के द्वारा विक्रमकी प्रथम की समृद्धि, सामाजिक व्यवस्थाओं आदिके परिज्ञानके शताब्द के लगभग इस ध्येयको लेकर हुई है कि लिए भी बड़ा उपयोगी है; और प्रचलित भी पर्याप्त है अहिंसा सिद्धान्तका उसके सम्पूर्ण वि वधरूपोंमें प्रतिपादन इसके रचयिता चेरवंशके लघु युवराज राजर्षि कहलाने लगे थे। इन्होंने अपन शिलप्पदिकरम्में कुरलके अनेक । (अपूर्ण) साहित्य परिचय और समालोचन ... पुरुषाथसिद्धयुपायटीका-मूलकर्ता प्राचार्य सम्पग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयके स्वरूपादिका अमृतचन्द्र टीकाकार, पं. गाथूरामजी प्रेमी, बम्बई .. विवेचन किया है इस ग्रन्थपर एक अज्ञाद कतृक प्रकाशक परमश्रुत प्रभावक मण्डल जौहरी बाजार, बम्बई संस्कृत टीका जयपुरके शास्त्र भण्डार में पाई जाती है और नं०२ । पृष्ठ संख्या १२० । मूल्य दो रुपया। दो तीन हिन्दी टीकाएं भी हो चुकी हैं परन्तु प्रेमीजीने इस प्रस्तुत ग्रन्थमें प्राचार्य अमृतचन्द्रने पुरुषार्थ सिद्धि के टीका को बालकोपयोगी बनानेका प्रयत्न किया है। टीकामें उपाय स्वरूप भावक धर्मका कथन करते हुए सम्यग्दर्शन अन्वयार्थ और भावार्थ दिया गया है और यथास्थान For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त किरण ५३ फुटनोटोंमें उसके विषय के स्पष्टी करसकी सूचना भी दूसरे सिंह कविने अपनी रचना, बंभणवाड (सिरोही) दी गई है। इस कारण टीका सरल और विद्याथियोंके में वहांके गुहिल वंशीय राजा भुल्लणके राज्यक ख में, ' लिये सुगम होगई है-उसकी सहायतासे वे प्रन्थके जो मालव नरेश बल्लालका मांडलिक सामन्त था और विषयको सहज ही समझ सकते हैं। यह संस्करण अपने जिसका राज्यकाल विक्रम संवत् १२०० के पास पास पिछले संस्करणों की अपेक्षा संशोधन दिके कारण खास पाया जाता है। अपनी विशेषता रखता है। बाल्लालकी मृत्युका उल्लेख अनेक प्रशस्तियोंमें प्रस्तावनामें प्राचार्य अमृतचन्द्रका परिचय देते हुए मिलता है। बड़नगरसे प्राप्त कुमारपाल प्रशस्तिके १५ उन्हें विक्रमकी १२वीं शताब्दीका विद्वान सूचित किया श्लोकोंमें बल्लाल और कुमारपालकी विजयका उल्लेख गया है, जो ऐतिहासिक दृष्टिसे विचारणीय है । किया गया है और लिखा है कि कुमारपालने बलालका जबकि पट्टावली में प्राचार्य अमृतचन्द्रको विक्रमकी .वीं मस्तक महल के द्वार पर लटका दिया था। चूंकि शताब्दीका विद्वान बतलाया गया है। साथ ही, प्रेमीजीने कुमारपालका राज्यकाल वि. सं. ११६६ से वि० सं० ग्रन्थ कर्ताक सम्बन्ध में नया प्रकाश डालते हुए, पज्जुण्ण १२२६ तक पाया जाता है और इस बड़नगर प्रशस्तिका चरिउके कर्ता सिंहकविके गुरु मलधारी माधवचन्द्र के काल सन् १११ (वि० सं० १२०८). है । अतः शिष्य अमि या अमृतचन्द्रको पुरुषार्थसिद्धयुपायके कर्ता बल्लाल की मृत्यु ११५१ A. D. (वि० सं० १२०८) होनेकी संभावना भी व्यक्त की है। से पूर्व हुई है। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टिसे प्रेमीजीकी उक्त धारणा कुमारपाल, यशोधवल, बल्लाल और चौहान राजा अर्णोराज ये सब राजा समकालीन हैं । अतः ग्रन्थअथवा कल्पना संगत प्रतीत नहीं होती; क्योंकि प्रथम तो प्रशस्तिगत कथनको दृष्टिमें रखते हए यह प्रतीत होता अमृतचन्द्रका समय विक्रम संवत् १०५५ से बादका नहीं है कि उक्त प्रद्युम्नचरित की रचना वि० सं० १२०८ से हो सकता। कारण कि 'धर्मरत्नाकर' के कर्ता जयसेनने जो पूर्व हो चुकी थी। बाल वागरसंघके विद्वान भावसेनके शिष्य थे । जयसेनने अपना उक्त ग्रंथ वि•संवत् १०१५ में बनाकर समाप्त किया ग्रन्थ प्रशस्तिमें उल्लिखित अमृतचन्द्र. माधवचन्द्र के शिष्य थे जो 'मलधारी' उपाधिसे अलंकृत थे । भट्टारक है। उस ग्रन्थमें प्राचार्य अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपाय के ५६ पद्य पाये जाते हैं। साथ ही, सोमदेवाचार्यके अमृतचन्द्र तप तेज रूपी दिवाकर, व्रत नियम तथा शीलके यशस्तिलकचम्पूके भी... से ऊपर पद्य उद्धत हैं। रत्नाकर (समुद्र) थे। तर्क रूपी लहरोंसे जिन्होंने परमतको मंकोलित कर दिया था-डगमगा दिया था जो उत्तम अतः अमृतचन्द्रका समय वि० सं० १०५५ से बादका व्याकरणरूप पदोंके प्रसारक थे । और जिनके ब्रह्मचर्य के नहीं हो सकता » । तेजके आगे कामदेव दूरसे ही बंकित (खंडित) होनेकी अब रही, 'पज्जुण्णचरिउके कर्त्ता सिंहकविके गुरु श्राशंकासे मानों छिप गया था-कामदेव उक्त मुनिके अमृतचन्द्र के साथ एकत्व की बात । सो दोनों अमृतचन्द्र प्रचण्ड वेजके अमृतचन्द्र भागे पा नहीं सकता था। भिन्न २ व्यक्ति हैं । पुरुषार्थसिद्धयुपायके कर्ताको ५० अर्थात् मुनि पूर्ण ब्रह्मचारी थे। अाशाधर जीने 'ठक्कुरोप्याह' वाक्यके साथ उल्लेखित आचार्य अमृतचंद्रके गुरुका अभी तक कोई नाम ज्ञात किया है जिससे वे ठाकुर-क्षत्रिय राजपूत ज्ञात होते हैं। नहीं हुआ। वे अध्यात्मवादके अच्छे ज्ञाता और प्राचार्य जब कि 'पज्जुरणचरिउकी प्रशस्तिमे ऐसी कोई बात कुन्दकुन्दके प्रभृतत्रयके अच्छे मर्मज्ञ थे । न्यायशास्त्रके नहीं है। भी विद्वान थे । परन्तु वे प्रद्युम्न चरितके कर्तासे बहुत ® देखो. अनेकान्त वर्ष - किरण ४-५ में 'धर्मरत्नाकर पहले हो गए हैं। उनका समय विक्रमकी १०वीं . और जयसेन नामके प्राचार्य नामका लेख । शताब्दीसे बाद नहीं हो सकता। x देखो अनेकान्त वर्ष ८ कि.१.-1 में प्रकाशित परमानन्द जैन शास्त्री 'महाकविसिंह और प्रद्युम्नचरित' नामका लेख देखो, सन् १५७ की बढ़ नगर प्रशस्ति । For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्वपूर्ण प्रवचन (श्री १०५ पूज्य तुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी) साधु कौन है ? जिन्होंने बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग कर दिया वह साधु है । सचमुच में देखा जाय तो शांतिका स्रोत केवल एक निर्मन्थ अवस्थामें ही है। यदि त्यागी वर्ग म हों तो श्राप लोगोंको ठीक राह पर कौन लगावे । कहा भी है : अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवेनमः ॥ समस्त संसारी प्राणी अज्ञानरूपी तिमिर ( अंधकार ) से व्याप्त हैं । ज्ञानरूपी अंजनकी शलाकासे जिन्होंने हमारे नेत्रोंको खोल दिया है ऐसे श्री गुरुवरको नमस्कार है। 1 जो श्रात्माका साधन करता है, स्वरूपमें मग्न हो कर्ममलको जलानेकी चेष्टा करता है वह साधु है । समन्तभद्र स्वामी ने बतलाया कि वही तपस्वी प्रशंसा के योग्य है जो विषयाशासे रहित है, निराम्भी है अपरिग्रही है, और ज्ञान-ध्यान- तप में श्रासक हैं । वह स्व समय और पर समयकी महत्तासे परिचित है । श्राचार्य कुन्दकुन्दने स्वसमय और पर समयका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है : 'जीवो चरित्त दंपण गाडि तं हि ससमयं जाण । • पुग्गलकम्मपदेसट्ठियंच जाण प(समयम् ॥ जो श्रात्मा दर्शन, ज्ञान, तथा चारित्रमें स्थित है वही 'स्व समय' है और जो पुद्गलादि पर पदार्थों में स्थित है उनकों पर समय' कहते हैं । तथा 'शुद्धात्माश्रितः स्वमयो मिथ्यात्व रागादिविभावपरिणामाश्रितः परसमय इति, अर्थात् जो शुद्धात्मा के श्राश्रित है वह स्वसमय है और जो मिथ्यात्व रागादिविभावपरिणामोंके श्राश्रित है उसे ही परसमय कहते हैं । परसमय से हटकर स्वसमय में स्थिर होना चाहिये । परन्तु हम क्या कहें आप लोगोंकी बात । एक साधुके पास एक चूहा था। एक दिन एक बिल्ली आई और वह चूहा डरकर साधु महाराजसे वोला- भागवन् ! 'मार्जाराद् विभेमि' अर्थात् मैं बिल्ली से डरता हूँ । ! तब साधुने आशीर्वाद दिया 'मार्जारो भव' इससे वह चूहा बिलाव हो गया। एक दिन बड़ा कुत्ता आया, वह बिलाव डर गया और साधुसे बोला प्रभो ! 'शुनो बिभेमि' अर्थात् मैं कुत्ते से डरता हूँ । साधु महाराजने श्राशीर्वाद दिया 'श्वा भव' अब वह मार्जार कुत्ता हो गया। एक दिन बनमें महाराजके साथ कुत्ता जा रहा था अचानक मार्ग में व्याघ्र मिल गया । कुत्ता महाराजसे बोला- 'व्याघ्राद् बिभेमि' अर्थात् मैं व्याघ्रसे डरता हूँ। तब महाराजने आशीर्वाद दिया कि 'व्याघ्रो भव' अब वह व्याघ्र हो गया । जब व्याघ्र उस तपोवनके सब हरिण आदि पशुओं को खा चुका तब एक दिन साधु महाराजके ही ऊपर झपटने लगा । साधु महाराजने पुनः श्राशीर्वाद दे दिया कि 'पुनरपि मूषको भव' अर्थात् फिरसे चूहा हो जा । तात्पर्य यह कि हमारे पुण्योदयसे यह मानव पर्याय प्राप्त हो गई, उत्तम कुछ और उत्तम धर्म भी मिल गया अब चाहिये यह था कि कि किसी निर्जन स्थानमें जाकर अपना श्रात्मकल्याण करते; परन्तु यहां कुछ विचार नहीं है । तनिक संसारकी हवा लगी कि फिरसे विषय-वासनाओंकी कीचड़ में जा फंसे । अब तो इन वासनाओंसे मनको मुक्त करके श्रात्महितकी श्रर लगाओ । 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' श्रात्माकी गुण पर्याय को जानो स्याद्वाद द्वारा पदार्थोंके स्वरूपको जान लेना प्रत्येक प्राणिमात्रका कर्तव्य है । संसारका सापेक्षव्यवहार sue देखो, वक्तृत्व व्यवहार भी श्रोतृत्वकी अपेक्षाले होता है । हम वक्ता हैं आप सब श्रोताओं की अपेक्षाले इसी तरह श्रोतापन भी वक्तापने की अपेक्षा व्यवहार में आता है । द्रव्य अनंत धर्मात्मक है । एक पदार्थ स्वसत्ताले अस्ति और परसत्ताकी अपेक्षा नास्ति है। देखा जाय तो उस पदार्थ में श्रस्ति नास्ति दोनों धर्मं उसी समय विद्यमान हैं। "स्वपरोपादानापोहन व्यवस्था मात्रं हि खलु वस्तुनो वस्तुत्वं" वस्तुका वस्तुत्व भी यही है कि स्वरूपका उपा कान और पररूपका अपोहन हो । यह पतित पावन है । पावन व्यवहारं तभी होगा जब कोई पतित हो, पतित ही न हो तब पावन कौन कहलायेगा ? शब्द For Personal & Private Use Only " Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] अनेकान्त [किरण / इस भाँति वस्तु सामान्य विशेषत्मिक है। सामान्या- पर विरुद्धताका भाभास नहीं होता किन्तु विरोध एकान्तपेक्षासे वस्तुमें अभेद और विशेषापेक्षासे उसमें भेद सिद्ध दृष्टिके अपनानेसे ही होता है। एकान्तता ही असाधुता है होता है। सर्वेषां जीवनां समाः" अर्थात् सब जीव उससे मात्मा संसारका ही पात्र बना रहता है। समान हैं यह कहनेका तात्पर्य जीवत्वगुणाकी अपेक्षासे है। जीव और पुद्गल के संसर्गसे यह संसारावस्था हुई है। यही जीवत्व सिद्धावस्थामें भी है और संसारीजीवीके जीव अपने विभावरूप परिणमन कर रागी-द्वेषी हुआ है संसारावस्थामें भी है परन्तु जहाँ सब सिद्ध अनंतसुखके और पुद्गल, अपने विभावरूप. और इस तरह इन दोनोंधारी हैं वहाँ हम संसारी जीव तो नहीं हैं। हम दुःखी हैं। का बन्ध एक क्षेत्रावगाही हो गया है। इस अवस्थामें बह सब नय विभागका कथन है। जब हम विचार करते हैं तब मालूम पड़ता है कि यह एक माताको श्राप जिस दृष्टि से देखते हैं तो क्या प्रारमा बद्धस्पृष्ट भी है और अबद्ध स्पृष्ट भी / कर्मसम्बन्ध. अपनी स्त्रीको भी उसी दृष्टिसे देखेंगें? और कदा. की दृष्टिसे विचार करते हैं तो यह बद्धस्पृष्ट भूतार्थ है, चित् श्राप मुनि हो जाये तो क्या फिर भी आप उसी तरह इसमें सन्देह नहीं. और जब केवल स्वभावकी दृष्टिसे देखते से कटाक्ष करेंगे ? ये महाराज हैं (प्राचार्य सूर्यसागर जी हैं तो यह अभूतार्थ भी है / सरोवरमें कमलिनीका जिसको की ओर संकेत कर) किसी गृहस्थी के यहाँ जब ये चर्या- जलस्पर्श हो गया है इस दृष्टिसे विचार करते हैं तो वह के निमित्त जाते है तो श्रावक किस बुद्धिसे इन्हें आहार पत्र जलमें लिप्त है यह भूतार्थ है परन्तु जलस्पर्श छू नहीं दान देता है। और वही श्रावक किसी क्षुल्लक ( एकादश सकता है जिसको ऐसे कमलिनीके पत्रको स्वभावकी दृष्टिसे प्रतिमा-धारी श्रावक) को किस बुद्धिसे देता है और अवलोकन करते हैं तो यह अभूतार्थ है क्योंकि वह जलसे कदाचित-वह श्रावक किसी कङ्गालको आहार देवे तो अलिप्त है। अतः अनेकांतको अपनाए बिना वस्तु-स्वरूपवह किस बुद्धिसे देगा। मुनिको वह श्रावक पूज्य बुद्धिसे को समझना दुश्वार है। नानापेक्षासे प्रात्म-ज्ञान करना पाहारदान देवेगा और उस कङ्गलेको वह करुणाबुद्धिसे, क्या बड़ी बात है 'समाधितन्त्र' में श्रीपूज्यपादस्वामी काला यदि उससे यह कहे कि मैं इस तरहसे आहार नहीं लिखते हैं-- . लेता। मै तो उसी तरह नवधा भक्ति पूर्वक लूगा, जिस यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा / तरह तुमने मुनिको दिया है तो अब हम आपसे पूछते हैं जानन दृश्यते रूप ततः केनं ब्राम्य,म् / / क्या हम उसी तरह आहार दे देवेंगे ? नहीं। उससे यहीं अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा जो यह शरीरादिक पदार्थ कहेंगे कि भाई ! अगर तूं भी-मुनि बन जाय और दिखाई देते हैं वह अचेतन होनेसे जानते नहीं है / और जो हर्यापथ शोधकर चलने लगे तो तुझे भी दे सकते हैं। पदार्थों को जानने वाला चैतन्यरूप श्रोत्मा है वह इन्द्रियोंके तिलकने "गीता-रहस्य" में लिखा है कि 'गो-ब्राह्मण- द्वारा दिखाई नहीं देता, इसलिए मैं किसके साथ बात की रमा करनी चाहिये। गौ और ब्राह्मण दोनों जीव हैं करूं / यह पण्डितजी हैं; इनसे हम बात करते हैं तो तक्या इसका मतलब यह हुआ कि गौका चारा ब्राह्मणको जिससे हम बात कर रहे हैं वह तो दिखता नहीं है और है देखें और जहाणका हलुआ गायको डाल देवेंद्रव्यका जिससे हम बात कर रहे हैं वह अचेतन होनेसे समझता संकअपेक्षासे कथन किया जाता है। कोई वस्तु किस नहीं है। इसलिए सब झंझटोंसे छटकार विभावभावोंका अपेवासे कही गई है यह हम समझलेवें तो संसारमें कभी परित्यागन कर स्वभाव में स्थिर रहनेका यह क्या ही उत्तम विसंवादही पैदा न हो। उपाय है / वही स्वामीजी आगे लिखते हैंयह सड़का किसका है ? क्या यह अकेली स्त्री का ही यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये। नहीं तो क्या केवल पुरुष का है नहीं! दोनों (स्त्री उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदह निर्विकल्पकः॥ पुरुष) के संयोगावस्थासे लड़का उत्पन्न हुआ है। जिए जो प्रतिपादन करता है वह तो प्रतिपादक कहलाता है सरह यह सब कथन सापेक्ष है उसी तरह साधुता और और जिसको प्रतिपादन करना चाहते हैं वह प्रतिपाद्य कहप्रसाधुताका कथन भी सापेक्ष है। क्योंकि वस्तुका स्वभाव लाता है। तो कहते है कि यह सब मोही मनुष्योंकी अनन्त धर्मारमक है उनका सापेक्षदृष्टिसे व्यवहार करने पागलों जैसी चेष्टा है। यदि ऐसा ही है तो हम उन्हींसे For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण 5] महत्वपूर्ण प्रवचन [ 175 पूछते-महाराज ! फिर आप ही यह उपदेश, रचना रागद्वेषादिमय बतलाते हैं किन्तु ये तो पुद्गलके सम्बन्धसे चातुरी आदि कार्य क्यों करते हैं तो इससे मालुम पड़ता उत्पन्न विभावभाव हैं। अतः जो जो भाव परके सम्बन्धसे है कि मोहके सद्भावमें सब व्यवहार खलते हैं यह असत्य होंगे वे कदापि जीवके नहीं कहलाये जा सकते क्योंकि यहाँ नहीं, सत्य है। तो जीवके शुद्ध स्वरूपको बतलाना है न / माथे पर तेल ___ यह लोक षड्दव्यत्मक है जिसमें सब द्रव्य परस्पर पोतलो तो वह चिकनाई तेलको ही कहलाइ पोतलो तो वह चिकनाई तेलको ही कहलाई जायेगी। मिले हुए एक दूसरे का चुम्बन करते रहते हैं। इतना होने इसी तरह समस्त राग-द्वेष व मोहादिककी कल्लोलमालाए पर भी सब अपने अपने स्वरूप में तन्मय है। कोई द्रव्य पुद्गल प्रकृतियों से उत्पन्न हुए विभाव भाव हैं। इससे यह किसी द्रव्यसे मिलता जुलता नहीं है पर फिर भी एक सिद्ध हुआ कि वह (जीव) चिरस्वरूप चिच्छक्तिमात्र धारण पर्यायसे दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है और संसारका व्यव- करता हुआ शुद्ध टंकोत्कीर्ण एक विज्ञानधनस्वभाव वाला है हार चलता रहता है। सब प्राणियों में एक समान पाई जाने वाली चीज है। यहाँ जैनधर्म त्यागका क्रम किसी का भेद-भाव नहीं है। वस्तुस्थितिका ज्ञान सबके जैनधर्ममें सदैव क्रम-ऋमसे ही कथन किया गया है। लिये परमावश्यक है। पहले उपदेश दिया जाता है कि अशुभोपयोगको छोड़ो एक पंगत हो रही थीं। वहाँ दो अच्छे धनी-मनी और शुभोपयोगमें वर्तन करो और जो प्राणी शुभोपयोगमें आदमी पास-पास अगल-बंगलमें बैठे हुए थे और बीच में स्थिर है उससे कहते हैं, भाई यह भाव भी संपार बंधन एक साधारण स्थितिका मनुष्य प्रा बैठा था अब वह परो में डालने वाला है। अतएव इसको भी त्यागकर शुद्धो सने वाला व्यक्ति इधर-उधर पूड़ियोंको दिखाकर उन सेठोंपयोगमें वर्तन कर / कुन्दकुन्दाचार्य एक जगह कहते हैं कि से बोला-'देखो ! क्या बढ़िया पूड़ी है। बढ़ी कोमल और प्रतिक्रमण भी विष है। अतः जहाँ प्रतिक्रमणको ही विष मुलायम है। एक तो आपको अवश्य लेनी चाहिये / ' परंतु रूप कह दिया वहाँ अप्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण नहीं करनेको उस बीचवाले मनुष्यसे कुछ न कहा। अनिच्छासे वह -अमृतरूप कैसे कहा जा सकता है। शुद्धोपयोग प्राप्त कहता भी तो तुरन्त ही वहाँसे हटकर उनको फिर दिखाने करना प्राणी मात्राका ध्येय होना चाहिये / यह अवस्था लगता / वह ममुख्य देखता ही रह जाता इस तरह दो जब तक प्राप्त नहीं हुई तब तक शुभोपयोगमें प्रवर्तन बार हुना, तीन बार हुआ। जब चौथी बार पाया तो करना उत्तम है। अतएव क्रम क्रमसे चढ़नेका उपदेश है। उसने उठकर एक चाँटा रसीद किया और बोला-बेवकूफ, तात्पर्य यही है कि यदि मनुष्य अपने भावों पर दृष्टिपात क्या ये तेरे बाप हैं जो बार बार इनको दिखाकर परोसता है और मुझे योंही छोड़ जाता है? क्या मैं यहाँ खाने नहीं करे तो संसार बन्धनसे छूटना कोई बड़ी बात महीं है। पाया? मुझे क्यों नहीं परोसता इतना जब उससे कहा एक बार भी यह प्राणी अपनो अज्ञानताको मेट देवे तो तब कहीं उसकी अक्ल ठिकाने पर प्राई। तो कहनेको वह परम सुखी हो सकता है।-प्रज्ञान क्या है ? ज्ञाना तात्पर्य यही है कि वह वस्तु-स्वरूप सबका है। अपने वरणी कर्मके क्षयोपशम में जहाँ मिथ्यात्व लगा हुआ है विमल स्वरूपका बोध सबको हो सकता है उसमें किसी वही अज्ञान है। उस अज्ञ नका शरीर मोहसे पुष्ट होता प्रकारका भेद-भाव नहीं है। है। और उसके प्रसादसे ही यह विचित्र लीला देखने में पा रही हैं। अतः श्रात्म-ज्ञानकी बड़ी भावश्यकता है। अब यहाँ जीव और अजीवका भेद दिखलाते हैं। परजिसने प्राप्त कर लिया वही मनुष्य धन्य है और उसीका को ही प्रात्मा मानने वाले कोई मूढ़ कहते हैं 'अध्यवसानं जीवन सार्थक एवं सफल है। ही जीव है।' अन्य कोई नो कर्मको जीव मानते हैं। कोई कहते हैं कि साता और असाताके उदयसे जो सुख दुःखें जीव और अजीवका भेद-विज्ञान होता है वह जीव है। कोईका मत है कि जो संसारमें यह जीवाजीवाधिकार है। इस अधिकारमें जीव और भ्रमण करता है उसके अतिरिक और कोई जीव नहीं है। अजीव दोनोंके अलग-अलग लक्षणोंको कहकर जीवके शुद्ध- कोई कहते हैं कि पाठ काठीकी जैसे खाट होती है, इसके स्वरूपको दिखाना कर्ताको अभीष्ट है। कोई जीवको केवल अलावा और खाट कोई चीज़ नहीं है उसी तरह भी For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] अनेकान्त [किरण 5 कर्मोका संयोग ही जीव है और जीव कोई जीव तिस पर भी यह अत्यंत बढ़ा हुआ महामोह अज्ञानियोंको नहीं है। इस प्रकारके तथा अन्य प्रकारके बहुतसे व्यर्थ ही अनेक प्रकारसे नाच नचाता हुया उन्हें शुद्धात्मामत जीवको मान्यताके विषयमें हैं परन्तु इनमेंसे नुभूतिसे वंचित रखता है। प्राचार्य कहते हैं कि हे भव्य ! कोई भी मत सत्य नहीं है। सब भ्रममें हैं क्योंकि तू व्यर्थ कोलाहलसे विरक्त होकर चैतन्यमात्र वस्तुको देख, ये सब जीव नहीं है / जो अध्यवसानादि भावोंको हृदय-सरोवरमें निरंतर विहार करनेवाला ऐसा वह भगही जीव बतलाते हैं उनके प्रति प्राचार्य कहते हैं कि ये सभी वान् आत्मा उसका यदि षण्मास पर्यंत भी अनुभव करे भाव पौद्गलिक हैं। वे कदापि स्वभावमय जीव द्रव्य नहीं तो तुझे यात्म-तत्वकी अवश्य उपलब्धि हुए बिना न रहे। हो सकते, इन रागादि भावोंको जो जीव प्रागममें बतलाया सुखके लिए तू अनन्तकालसे निरन्तर भटक रहा है पर है वह व्यवहारनयसे है किन्तु वे वस्तुतः जीव नहीं है। सच्चा वास्तविक) सुख तुझे अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। इसी प्रकार जो यह प्रलाप करते हैं कि साता और असातासे इसका कारण क्या है ? यह खोजनेका प्रयास भी नहीं किया। उत्पन्न सुख दुःखादि हैं वह जीव हैं उनको कहते हैं. काम कैसे बने ? किसीने कहा अरे. तेरा कान कौश्रा लेगया भाई ! सुख दुःखादिका जिसको अनुभव होता है वह जीव किंतु मूरखने अपना हाथ उठाकर काम पर नहीं देखा / है। 'जो संसारमें भ्रमण करता है वह जीव हैं ऐसी जिसकी कान कहाँ चला गया ? इसी तरह कोई यह कहे कि हमारे मान्यता है उनके लिए कहते हैं कि इस भ्रमणके अतिरिक्त तो पीठ ही नहीं है परन्तु तनिक हाथ पीछे मोड़कर देखा जो सदा शाश्वता रहने वाला है वह जीव है / जैसे पाठ होता / कहीं नहीं गई है। अपने ही पास है। केवल उस काठीके संयोगसे जो खाट कहलाती है वैसे कि पाठ काँके तरफ लक्ष्य करनेकी आवश्यकता है संयोगसे उत्पन्न जीव नहीं है किन्तु जिस प्रकार पाठ- आत्माका प्रशान्त स्वभाव काठीसे बनी हई खाट उस पर शयन करनेवाला व्यक्ति एक 'ज्ञानसूर्योदय' नाटक है--उसमें लिखा है, भैया भिन्न है उसी तरह पाठ कर्मों के अतिरिक्त जो कोई वस्तु जो कोई वस्तु एक सभाभवनमें नट और नटी आये / नटने नटीसे कहा कि है वह जीव है। श्राज इन श्रोताओंको कोई एक अपूर्व नाटक सुनायो। जब यह सिद्ध हो चुका कि वर्णादिक या रागादिक अपूर्व ऐसा जो कभी इन्होंने सुना न हो नटी बोली आर्य ! भाव जीव नहीं है तब सहज ही यह प्रश्न होता है कि ये संसारी प्राणी रात्रि-दिवस विषयोंमें लीन परिग्रहोंकी जीव कौन है ? ऐसा प्रश्न होने पर प्राचार्य कहते हैं-- चिताश्रींसे भाराझ.त तथा चाहकी दाहसे दग्ध इनको ऐसी अनाद्यनंतमचलं स्वसवेद्यमिदं स्फुटम् / अवस्थामें सुख कहाँ ? तब नट कहने लगा प्रिये ? ऐसी जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैञ्चक चकायते // बात नहीं है / 'यात्मास्वभावोऽस्तु शांतः केनापि कर्ममल यह जीव श्रानाद्यनंत है और स्वसंवेद्य है केवल अपने कलङ्ककारणेन अशांतो जाता' अर्थात् श्रात्मा स्वभावसे से ही अपने द्वारा जानने योग्य है। जिसमें चैत यका शान्त है किन्तु किन्हीं कर्ममल कलङ्ककारणोंसे वह अशांत विलास हो रहा है ऐसा स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान-दर्शन रूप हो जाता है। अतः इन उपद्रवोंको हटाकर शांत बन जाश्रो जीव है जो स्वयं प्रकाशमय बोधरूप है। क्योंकि शांतता (सुख) उसक. सहज स्वभाव है। प्रत्येक अतः जीवमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श नहीं है। शरीर द्रव्य अपने स्वभाव में रहकर ही शोभा पाता है। किंतु हम 'सं थान' संहनन आदि भी नहीं है / राग, दूध, मोह, एवं लोगोंकी प्रवृत्ति हो बाह्म विषयों में लीन हो रही है। उन्हीं कर्म नोकर्म पाश्रव भी नहीं है। सुखकी प्राप्तिमें सारी शक्ति लगा रहे हैं। क्या इनमें सच्चा न योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान ही है और न सुख है ? यही मोहकी महिमा है / पर वस्तुओंमें सुखकी मार्गणास्थान, स्थितिबन्धास्थान, संक्लेशस्थान ही; क्योंकि कल्पनाका मृगतृष्णासे अपनी पिपासा शांत करना चाहते ये सभी पुद्गलजनित क्रियाएँ हैं अतः वे कदापि जीवके हैं। सचमुचमें देखा जाय तो सुख प्रास्माकी एक निर्मल नहीं हो सकते। पर्याय है। वह कहीं परमेंसे नहीं आती, क्योंकि ऐसा इस प्रकार यह जीव और अजीवका भेद सर्वथा भिन्न सिद्धांत है कि जिसकी जो चीज होती है वह उसीके पास इसको ज्ञानीजन स्वयं स्पष्टतया अनुभव करते हैं किन्तु रहती है। (फिरोजाबाद मेले में किया गया एक प्रवचन) For Personal Private Only www jairuelibrary.org