________________ 176] अनेकान्त [किरण 5 कर्मोका संयोग ही जीव है और जीव कोई जीव तिस पर भी यह अत्यंत बढ़ा हुआ महामोह अज्ञानियोंको नहीं है। इस प्रकारके तथा अन्य प्रकारके बहुतसे व्यर्थ ही अनेक प्रकारसे नाच नचाता हुया उन्हें शुद्धात्मामत जीवको मान्यताके विषयमें हैं परन्तु इनमेंसे नुभूतिसे वंचित रखता है। प्राचार्य कहते हैं कि हे भव्य ! कोई भी मत सत्य नहीं है। सब भ्रममें हैं क्योंकि तू व्यर्थ कोलाहलसे विरक्त होकर चैतन्यमात्र वस्तुको देख, ये सब जीव नहीं है / जो अध्यवसानादि भावोंको हृदय-सरोवरमें निरंतर विहार करनेवाला ऐसा वह भगही जीव बतलाते हैं उनके प्रति प्राचार्य कहते हैं कि ये सभी वान् आत्मा उसका यदि षण्मास पर्यंत भी अनुभव करे भाव पौद्गलिक हैं। वे कदापि स्वभावमय जीव द्रव्य नहीं तो तुझे यात्म-तत्वकी अवश्य उपलब्धि हुए बिना न रहे। हो सकते, इन रागादि भावोंको जो जीव प्रागममें बतलाया सुखके लिए तू अनन्तकालसे निरन्तर भटक रहा है पर है वह व्यवहारनयसे है किन्तु वे वस्तुतः जीव नहीं है। सच्चा वास्तविक) सुख तुझे अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। इसी प्रकार जो यह प्रलाप करते हैं कि साता और असातासे इसका कारण क्या है ? यह खोजनेका प्रयास भी नहीं किया। उत्पन्न सुख दुःखादि हैं वह जीव हैं उनको कहते हैं. काम कैसे बने ? किसीने कहा अरे. तेरा कान कौश्रा लेगया भाई ! सुख दुःखादिका जिसको अनुभव होता है वह जीव किंतु मूरखने अपना हाथ उठाकर काम पर नहीं देखा / है। 'जो संसारमें भ्रमण करता है वह जीव हैं ऐसी जिसकी कान कहाँ चला गया ? इसी तरह कोई यह कहे कि हमारे मान्यता है उनके लिए कहते हैं कि इस भ्रमणके अतिरिक्त तो पीठ ही नहीं है परन्तु तनिक हाथ पीछे मोड़कर देखा जो सदा शाश्वता रहने वाला है वह जीव है / जैसे पाठ होता / कहीं नहीं गई है। अपने ही पास है। केवल उस काठीके संयोगसे जो खाट कहलाती है वैसे कि पाठ काँके तरफ लक्ष्य करनेकी आवश्यकता है संयोगसे उत्पन्न जीव नहीं है किन्तु जिस प्रकार पाठ- आत्माका प्रशान्त स्वभाव काठीसे बनी हई खाट उस पर शयन करनेवाला व्यक्ति एक 'ज्ञानसूर्योदय' नाटक है--उसमें लिखा है, भैया भिन्न है उसी तरह पाठ कर्मों के अतिरिक्त जो कोई वस्तु जो कोई वस्तु एक सभाभवनमें नट और नटी आये / नटने नटीसे कहा कि है वह जीव है। श्राज इन श्रोताओंको कोई एक अपूर्व नाटक सुनायो। जब यह सिद्ध हो चुका कि वर्णादिक या रागादिक अपूर्व ऐसा जो कभी इन्होंने सुना न हो नटी बोली आर्य ! भाव जीव नहीं है तब सहज ही यह प्रश्न होता है कि ये संसारी प्राणी रात्रि-दिवस विषयोंमें लीन परिग्रहोंकी जीव कौन है ? ऐसा प्रश्न होने पर प्राचार्य कहते हैं-- चिताश्रींसे भाराझ.त तथा चाहकी दाहसे दग्ध इनको ऐसी अनाद्यनंतमचलं स्वसवेद्यमिदं स्फुटम् / अवस्थामें सुख कहाँ ? तब नट कहने लगा प्रिये ? ऐसी जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैञ्चक चकायते // बात नहीं है / 'यात्मास्वभावोऽस्तु शांतः केनापि कर्ममल यह जीव श्रानाद्यनंत है और स्वसंवेद्य है केवल अपने कलङ्ककारणेन अशांतो जाता' अर्थात् श्रात्मा स्वभावसे से ही अपने द्वारा जानने योग्य है। जिसमें चैत यका शान्त है किन्तु किन्हीं कर्ममल कलङ्ककारणोंसे वह अशांत विलास हो रहा है ऐसा स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान-दर्शन रूप हो जाता है। अतः इन उपद्रवोंको हटाकर शांत बन जाश्रो जीव है जो स्वयं प्रकाशमय बोधरूप है। क्योंकि शांतता (सुख) उसक. सहज स्वभाव है। प्रत्येक अतः जीवमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श नहीं है। शरीर द्रव्य अपने स्वभाव में रहकर ही शोभा पाता है। किंतु हम 'सं थान' संहनन आदि भी नहीं है / राग, दूध, मोह, एवं लोगोंकी प्रवृत्ति हो बाह्म विषयों में लीन हो रही है। उन्हीं कर्म नोकर्म पाश्रव भी नहीं है। सुखकी प्राप्तिमें सारी शक्ति लगा रहे हैं। क्या इनमें सच्चा न योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान ही है और न सुख है ? यही मोहकी महिमा है / पर वस्तुओंमें सुखकी मार्गणास्थान, स्थितिबन्धास्थान, संक्लेशस्थान ही; क्योंकि कल्पनाका मृगतृष्णासे अपनी पिपासा शांत करना चाहते ये सभी पुद्गलजनित क्रियाएँ हैं अतः वे कदापि जीवके हैं। सचमुचमें देखा जाय तो सुख प्रास्माकी एक निर्मल नहीं हो सकते। पर्याय है। वह कहीं परमेंसे नहीं आती, क्योंकि ऐसा इस प्रकार यह जीव और अजीवका भेद सर्वथा भिन्न सिद्धांत है कि जिसकी जो चीज होती है वह उसीके पास इसको ज्ञानीजन स्वयं स्पष्टतया अनुभव करते हैं किन्तु रहती है। (फिरोजाबाद मेले में किया गया एक प्रवचन) For Personal Private Only www jairuelibrary.org