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किरण ५ ] कुरलका महत्व और जैनकर्तृत्व
[१६६ बतलाये हैं उनसे अधिक सूचबात भीष्म या कौटिल्य कि 'इसमें संदेह नहीं कि ईसाई धर्मका कुरलकर्ता पर सबसे कामन्दक या रामदास विष्णुशर्मा या माई० के. वेलीने अधिक प्रभाव पड़ा था । कुरलकी रचना इतनी उत्कृष्ट नहीं भी नहीं कही है। व्यवहारका जो चातुर्य इसने बतलाया हो सकती थी यदि उन्होंने सेन्टटामससे मलयपुर में ईसाके है और प्रेमीका हृदय और उसकी नानाविधिवत्तियों पर उपदेशोंको न सुना होता।' इस प्रकार भिन्न भिन्न सम्प्रजो प्रकाश इसने डाला है उससे अधिक पता कालिदास दाय वाले कुरलको अपना अपना बनानेके लिए परस्पर या शेक्सपियरको भी नहीं था।'
होड़ लगा रहे हैं। श्रीराजगोपालाचार्यका अभिमत-'तामिल जाति
इन सबके बीच जैन कहते हैं कि 'यह तो जैन ग्रन्थ की अन्तरात्मा और उसके संस्कारोंक' ठीक तरहसे सम
है, सारा ग्रन्थ "अहिंसा परमोधर्मः" की व्याख्या है और मनेके लिये 'विक्कुरल का पढ़ना आवश्यक है। इतना
इसके कर्ता श्री एलाचार्य हैं, जिनका कि अपरनाम कुन्दही नहीं यदि कोई चाहे कि भारतके समस्त साहित्यका
कुन्दाचार्य है।' मुझे पूर्णरू.से ज्ञान हो जाय तो त्रिकरलको बिना पढ़े शेव और वैष्णवधर्मकी साधारण जनतामें यह भी हुए उसका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता।
लोकमत प्रचलित है कि कुरलके कर्ता अछूत जातिके एक विक्कुरल, विवेक शुभसंस्कार और मानव प्रकृतिके
जुलाहे थे। जैन लोग इस पर आपत्ति करते हैं कि नहीं, व्यवहारिक ज्ञानकी खान है। इस अद्भुत ग्रन्थकी सबसे
वे क्षत्री और राजवंशज हैं। जैनोंके इस कथनसे वर्तमान बड़ी विशेषता और चमत्कार यह है कि इसमें मानवचरित्र
युगके निष्पक्ष तथा अधिकारी तामिल-भाषा विशेषज्ञ सहऔर उसको दुर्बलताओंकी तह तक विचार करके उच्च
मत हैं। श्रीयुत् राजाजी राजगोपालाचार्य तामिलवेदकी आध्यात्मिकताका प्रतिपादन किया गया है । विचारके
प्रस्तावनामें लिखते हैं कि-'कुछ लोगोंका कथन है कि सचेत और संयत औदार्य के लिए त्रिक्कुरलका भाव एक
कुरलके कर्ता अछूत थे, पर ग्रन्थके किसी भी अंशसे या ऐसा उदाहरण है कि जो बहुत काल तक अनुपम बना
उसके उदाहरण देने वाले अन्य ग्रन्थ लेखकोंके लेखोंसे रहेगा । कलाकी दृष्टिसे भी संसारके साहित्य में इसका
इसका कुछ भी पाभास नहीं मिलता। और हमारी रायस्थान ऊँचा है, क्योंकि यह ध्वनि काव्य है, उपमाएँ और
में बुद्धि कहती हैं कि अ जी एक तामिल भाषाका ज्ञाता दृष्टान्त बहुत ही समुचित रक्खे गए हैं और इसकी शैली
अकृत कुरलको नहीं बना सकता, कारण कुरलमें तामिल प्रांतीय विचारोंका ही समावेश नहीं है किन्तु सारे भारतीय
विचारोंका दोहन है। इसका अर्थशास्त्र-सम्बन्धी ज्ञान'कुरलका कत्त्व
कौटिलीय अर्थशास्त्रकी कोटिका है। इस ग्रन्थका रचयिता भारतीय प्राचीनतम पद्धतिके अनुसार यहांके प्रन्थ
निःसन्देह बहुश्र त और बहुभाषा-विज्ञ होना चाहिए, की ग्रन्थमें कहीं भी अपना नाम नहीं लिखते थे । कारण,
जैसे एलाचार्य थे। उनके हृदय में कीतिलालसा नहीं थी किन्तु लोकहितकी
तामिल भाषाके कुछ समर्थ अजैन लेखकोंकी यह भी भावना ही काम करती थी। इस पद्धतिके अनुसार लिखे
राय है कि 'कुरलके कर्ताका वास्तविक परिचय अब तक गये ग्रंथोंके कर्तृव-विषयमे कभी कभी कितना ही मतभेद
हम लोगोंको अज्ञात है, उसके कर्त्ता तिरुवल्जवरका यह खड़ा हो जाता है और उसका प्रत्यक्ष एक उदाहरण
कल्पित नाम भी संदिग्ध है। उनकी जीवन घटना ऐतिकुरलकाग्य है । कुछ लोग कहते हैं कि इसके कर्ता
हासिक तथा वैज्ञानिक तथ्योंसे अपरिपूर्ण है। 'तिरुवल्लवर' थे और कुछ लोग यह कहते हैं कि इसके अन्तः साक्षीकर्ता 'एलाचार्य' थे।
- अतः हम इन कल्पित दन्तकथाओंका आधार छोड़कर इसी प्रकार कुरलक के धर्म सम्बन्ध में भी मतभेद अन्धकी अन्तः साक्षी और प्राप्त ऐतिहासिक उदाहरणोंको है शैव लोग कहते हैं कि यह शैवधर्मका ग्रन्थ है और लेकर विचार करेंगे, जिससे यथार्थसत्यकी खोज हो सके। वैष्णव लोग इसे वैष्यावधर्मका ग्रन्थ बतलाते हैं। इसके जो भी निष्पक्ष विद्वान इस ग्रंथका सूपमताके साथ परीअंग्रेजी अनुवादक डा. पोपने तो यहाँ तक लिख दिया है क्षण करेगा उसे यह बात पूर्णतःसट हुए बिना नहीं
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